श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़ी और बड़ा…“।)
अभी अभी # 670 ⇒ बड़ी और बड़ा
श्री प्रदीप शर्मा
बड़ी और बड़े में कौन बड़ा ? अगर यह सवाल पूछा जाए तो इसका उत्तर तो सवाल में ही निहित है। दिखने में तो बड़ा ही बड़ा लगता है और बड़ी छोटी ! लेकिन ऐसा है नहीं ! दोनों बड़े हैं, बड़ी में तो मात्रा भी बड़ी की ही है जब कि बड़े में कभी आ की मात्रा लग जाती है तो वह बड़ा भी बन जाता है। लेकिन बिग बी में भी बड़ी की मात्रा है फिर भी वह बड़ी नहीं बना, बिग बी ही बना रहा।
हमें हमेशा यही सिखाया गया है कि बड़ों का सम्मान करो, किसी ने नहीं कहा, बड़ी का भी सम्मान करो। बड़ी में मात्रा तो एक ही होती है लेकिन अगर वह बड़ी होती है तो बहुत बड़ी भी हो सकती है। एक बिग बी ने केवल बड़ी का ही नहीं, बहुत बड़ी का भी यह अधिकार छीन लिया और जया को इतना छोटा कर दिया। जया भी अब बड़ी है, कोई ऋषिकेश मुखर्जी की गुड्डी नहीं, कुछ बोलती क्यों नहीं।।
कल मैंने बड़ी खाई। कुछ लोग उसे मुंगौड़ी भी कहते हैं। यह बड़े से छोटी होती है। इसे बनाकर सुखाया जाता है जब कि बड़े को तलकर पानी में भिगोया जाता है। जो सूख गई वह बड़ी बन गई, जो बड़ा भीग गया, उसके दिमाग का दही हो गया। वह अब जोशी का दही बड़ा हो गया। अब उसका नमक, मिर्ची, भुना हुआ धनिया और इमली की चटनी के साथ अभिषेक होगा। नसीब अपना अपना।
जो जीवन में केवल बड़े रह जाते हैं, उन्हें भी बेसन, प्याज और मसालों के साथ कड़ाही में तल लिया जाता है। बड़े जल भुन जाते हैं बेचारे, लेकिन युवा पीढ़ी क्या चटखारे ले लेकर उनके मज़े लेती है। वे भी सोचते होंगे, काश हम बड़े न होते तो ये दिन तो न देखना पड़ते।।
हमारी बड़ी की दास्तान बड़ी विचित्र है। वह मूंग की बड़ी यूं ही नहीं कहलाती। एक ज़माने में उसे सिल बट्टे पर नमक, हींग, अदरक, हरा धनिया और खड़ी लाल मिर्ची के साथ दरदरा पीसा जाता था। दरदरा पीसने में बड़ी को दर्द नहीं होता। बाद में वह पहले नाज़ुक, सधे हुए हाथों से एक महीन से कपड़े पर तोड़ी जाती है फिर ठंड की तेज धूप में सुखाई जाती है। अंतर देखिए बड़े और बड़ी में। बड़ा बेचारा कढ़ाई में तला जा रहा है और उधर हमारी बड़ी गुनगुनी धूप में विटामिन डी ग्रहण कर रही है।
रोज छत पर धूप आते ही बड़ी आराम से धूप में पसर जाती है। उसे कोई लाज शरम नहीं। उसी के पास कुछ कांच की बरनियों में नीबू मिर्ची के अचार भी धूप खा रहे होते हैं। अच्छा वक्त कट जाता है।।
बड़ा होना जितना आसान है, बड़ी बनना इतना सरल नहीं। धूप में कड़ी तपस्या के बाद ही बड़ी सुरक्षित पात्र में संजोकर रखी जाती है। उसे सालों साल गृहस्थी चलाना है। बड़ों जैसा नहीं, कि घर से बाहर, होटलों में, खोमचों में मटकते फिरें। इधर कढ़ाई से उतरे, उधर साफ।
जिस घर में बड़ा – बड़ी, दोनों होते हैं, वहां बड़ा तो यार दोस्तों में उलझा रहता है। घर में ज़्यादा टिकता नहीं। जब भी घर आता है, बड़ी पर हुक्म चलाता है। जब कि बड़ी चूंकि अब बड़ी हो गई है, उसे कायदे से रहना पड़ता है।
वह घर से बाहर कदम नहीं रख सकती। वह घर की इज्जत है। जिस दिन घर में कोई सब्जी नहीं होती, घर में बड़े की नहीं, बड़ी की ही पूछ होती है।।
बड़ी को सबके साथ मिल जुलकर रहने की आदत है। वह आलू, टमाटर तो ठीक उबल हुए देसी चनों के साथ भी तालमेल बिठा लेती है। आप कुछ भी कह लें, घर की बड़ी बाहर के बड़े से लाख गुना बेहतर है, स्वादिष्ट है, गुणी है। अगर बड़ा, बड़ा है तो बड़ी, बड़ी है, कभी पिसी, तो कभी खड़ी है। हमें हमेशा बड़ों का ही नहीं, अपनों से बड़ी का भी आदर करना चाहिए …!!!!
© श्री प्रदीप शर्मा
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