श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “गिरना – फिसलना”।)

?अभी अभी # 212 ⇒ गिरना – फिसलना… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

गिरना-फिसलना, ज़िन्दगी की हक़ीक़त भी है, और अफसाना भी। ऐसा कोई शख्स नहीं, जो कभी ज़िन्दगी में गिरा अथवा फिसला नहीं। गिरों हुओं को उठाना और फिसलने वालों को संभालना ही हमारी संस्कृति है, सभ्यता है, इंसानियत है। क्या आपने सड़क पर फिसलने पर, किसी को ताली बजाते देखा है। लोग तमाशा नहीं देखते, उसे संभालने के लिए आगे आते हैं।

गिरकर उठे, उठकर चले, इस तरह तय की, हमने मंजिलें ! जब बच्चा चलना सीखता है, तो कई बार गिरता, संभलता है। गिरने पर जब रोता है, तो उसे समझाया जाता है, बहलाया जाता है, देखो, वो चींटी मर गई। हम भी ताली बजाते है, बच्चा बहल जाता है, वह भी ताली बजाने लगता है। ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव में ऐसे कई मौके आते हैं, जब हम संभल नहीं पाते। न सामने रास्ता होता है, न मंज़िल। न पांवों में ताकत होती है, न मन में लगन। ऐसे में कोई पथ -प्रदर्शक, रहबर, फरिश्ता बनकर आता है, हमें अपने दोनों हाथों से उठाता है। एक बार, फिर से चलना सिखाता है।।

क्या कभी आपको किसी के फिसलने पर हंसी आई है ! यह तब का ज़माना है, जब शहर में सड़क के किनारे कतार से छायादार वृक्ष होते थे, जिन पर पक्षी अपना बसेरा बनाते थे। शाम को हज़ारों पक्षियों की चहचहाहट से वातावरण रमणीय हो जाता था।

तब महात्मा गांधी मार्ग, शहर का मुख्य मार्ग था और इस मार्ग पर लोग गांधी हॉल तक पैदल टहलने आते थे। पूरी सड़क पर पक्षियों का पाखाना पसरा रहता था। क्योंकि पशु-पक्षियों के लिए आज भी खुले में शौच पर कोई पाबंदी नहीं है।।

ऐसे में किसी सुहानी शाम में हल्की सी बूंदाबांदी होने पर, पक्षियों की विष्टा चिकना पेस्ट बन जाती थी, जिस पर आने जाने वाले दुपहिया वाहन फिसलने लगते थे। यह अक्सर बारिश की पहली बूंदाबांदी के वक्त ही होता था। अधिक पानी गिरने पर सड़कें साफ हो जाया करती थी।

कोई वाहन चालक बड़े आराम से गाड़ी चला रहा है, अचानक उसकी दुपहिया वाहन फिसल जाती है। वह उठकर खड़ा होता है, इतने में एक और का फिसलना। बाद में उसी एक स्थान पर फिसलने वालों का तांता लग जाया करता था। लोग एक दूसरे का मुंह देखते, थोड़ा मुस्कुराते, और गाड़ी उठाकर निकल जाते। कुछ ही समय में तेज बारिश से सब कुछ सामान्य हो जाया करता था।।

अक्सर किसी चिकने पदार्थ का सड़कों पर गिरने से भी ऐसी परिस्थिति निर्मित हो जाती है, जो कभी कभी गंभीर हादसों का कारण बन जाती है।

किसी को जान बूझकर गिराना, गिरे हुए पर हंसना अथवा उसका मज़ाक उड़ाना हद दर्जे की बदतमीजी कहलाती है। इंसान फिसले तो कई लोग बचा भी लेते हैं, लेकिन अगर एक बार ज़बान फिसली तो मुंह से निकला शब्द न तो वापस आता है, और न ही कोई आपके मुंह पर पट्टी बांध सकता है। इसलिए संभल कर चलें ही नहीं, ज़बान भी संभाल कर रखें। कभी भी फिसल सकती है।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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