श्री जगत सिंह बिष्ट

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है श्री जगत सिंह बिष्ट जी का एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ दादा-दादी और नाना-नानी के गांव।) 

☆  दस्तावेज़ # 29 – दादा-दादी और नाना-नानी के गांव ☆ श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

यह मेरे जीवन की प्रथम यात्रा की कहानी है। यात्रा भी कोई छोटी-मोटी नहीं, लगभग एक हज़ार तीन सौ किलोमीटर लंबी यात्रा। वो भी धीमी पैसेंजर गाड़ी से, जो मार्ग के प्रत्येक स्टेशन पर रुकती थी। गर्मियों का समय था, ठसाठस भरी जनरल बोगी, न कोई आरक्षण, न कोई स्लीपर बर्थ। माताजी और पिताजी के अलावा हम सभी छोटे बच्चे थे।

इस यात्रा में एक सप्ताह तक का समय लगने की संभावना थी और इसके चार प्रमुख चरण थे। पहला चरण, जबलपुर से इलाहाबाद तक, लगभग 300 किलोमीटर। दूसरा, इलाहाबाद से लखनऊ, लगभग 400 किलोमीटर, और तीसरा लखनऊ से रामनगर (जिला नैनीताल), लगभग 500 किलोमीटर। धीमी रेलगाड़ी द्वारा इनमें लगने वाला समय अनिश्चित था। स्टेशन मास्टर भी नहीं बता सकता था कि रेलगाड़ी अपने गंतव्य पर कब पहुंचेगी। रामनगर से पर्वतमाला शुरू हो जाती है। वहां से घुमावदार पहाड़ी मार्ग पर लगभग 100 किलोमीटर का बस का सफ़र। इसमें पूरा दिन लगता था।

इतने पराक्रम के पश्चात्, हम अपने पिताश्री के गांव नौला, पट्टी वाला नया, तहसील रानीखेत, जिला अल्मोड़ा पहुंचते थे। नानी का गांव मासी तो और भी आगे है। ये जगह पहले उत्तर प्रदेश का हिस्सा थीं, अब उत्तराखंड में हैं।

मैं तब छठवीं कक्षा का छात्र था। यह सन् 1966 की बात होगी। हम लोग रिक्शों में बैठकर, सामान सहित, जबलपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे। पिताश्री ने कतार में लगकर टिकट ली। हम धीमी पैसेंजर की जनरल बोगी के अंदर दाखिल हुए। मुझे खिड़की के पास बैठना था। मेरे हाथ में एक नोटबुक और पेंसिल थी। मैं रास्ते में आने वाले हर स्टेशन का नाम उसमें नोट करना चाहता था। गाड़ी, अपने समय से दो घंटे विलंब से, खुली। तब तक मुझ नन्हे-मुन्ने बालक को नींद आ चुकी थी। नोटबुक कोरी ही रह गई।

कुछ देर बाद मुझे जगाया गया तो सामने घर की बनी पूरियां और आलू की सब्जी थी, साथ में अचार। अब तक अंधेरा हो चुका था और बाहर कुछ नज़र नहीं आ रहा था। फिर कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला।

सुबह इलाहाबाद स्टेशन पर हम गाड़ी से उतरे। क्लोकरूम में सामान जमा करवाया और त्रिवेणी संगम घाट की तरफ रुख किया। पिताश्री धार्मिक प्रवृत्ति के थे और यहां पर सपरिवार स्नान का उनके लिए बहुत महत्त्व था। उन्होंने हमें बताया कि कुंभ के अवसर पर वो जब यहां आए थे तो कितना अपार जनसमूह इस घाट पर था।

शाम को अगली धीमी पैसेंजर से हम लखनऊ के लिए रवाना हुए। फिर वहां से दूसरी गाड़ी में रामनगर। यह पहाड़ों के लिए एक प्रवेशद्वार है। वहां हम एक-दो दिन रुके। कुछ सामान वहां से खरीदकर गांव लेकर जाना था। उसमें गुड़ की भेली, शक्कर के कुंज, चायपत्ती, नमक, दाल और मिठाई शामिल थे। रामनगर का बाजार कुछ अलग है। यह आधी रात के बाद ही खुल जाता है। बहुत सवेरे यात्रीगण सामान खरीदकर, मुंह अंधेरे ही बसों में सवार हो जाते हैं, पहाड़ों की ओर जाने के लिए।

हम भी सुबह-सबेरे बस में सवार होकर, गर्जिया माता को प्रणाम करते हुए रवाना हुए। दस-ग्यारह बजे के लगभग बस का स्टॉप भतरोंजखान में खाने के लिए हुआ। वहां हमने आलू के गुटके और खीरे का स्वादिष्ट रायता खाया जिसका खूब नाम सुना था। कुछ देर में बस रवाना हुई। अभी तक हम घुमावदार चढ़ाई चढ़ते हुए ऊपर की ओर आ रहे थे, अब ढलान में नीचे की ओर जाना था। भिक्यासैन पहुंचते ही हमारी धड़कन बढ़ने लगी। अब हमारा गांव ज़्यादा दूर नहीं था। हमने जैनल को पार किया तो दूर से गांव के शिवालय के दर्शन होने लगे। रोड के एक तरफ रामगंगा नदी बह रही थी और चारों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़ थे।

हमने कंडक्टर को कहा कि नौला में पोस्टऑफिस पर बस रोक देना। यह अच्छी बात है कि हमारा गांव सड़क के किनारे ही है। कुछ सामान लेकर हम घर की ओर बढ़े, बाकी सामान वहीं दुकानों पर रख दिया, बाद में ले जाने के लिए। अपना मकान देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। बिल्कुल नया बना था, दोमंजिला। नीचे रसोई और मवेशियों को रखने के लिए कमरे। ऊपर आवास।

हमारा गांव वाकई सुन्दर है। सामने ही रामगंगा नदी बहती है। पास ही पानी का प्राकृतिक स्रोत है, जिसे नौला कहते हैं। अत्यंत मीठे और ठंडे पानी का निरन्तर प्रवाह मन को मोहित कर लेता है। गांव में देवी का मंदिर है और पंचायत भवन भी। तब हमारे काका सरपंच हुआ करते थे, अच्छा-खासा रुतबा था उनका। शाम को गांव के लोग आंगन में बैठते तो काका शान से हुक्का गुड़गुड़ाते। घर में दो जोड़ी तगड़े बैल थे और गाय भी।

घर के आगे काफी बड़ा आंगन है। इस आंगन में एक अनोखी शिला है, जिस पर हमें बहुत गर्व है। यह एक चौकोर पत्थर का बहुत बड़ा खंड है, लगभग छः फुट × छह फुट। कहते हैं, इसे हमारे लकड़-दादा (परदादा के पूर्ववर्ती) दूर पहाड़ी के ऊपर जंगल से कंधे पर लेकर आए थे। इसे आंगन में स्थापित कर, वो सुबह-शाम इस पर बैठकर ध्यान और ईश्वर का स्मरण करते थे। गांव के लोग आज भी इस शिला को श्रद्धाभाव से सम्मान देते हैं।

अगले दिन, काका बैलों के साथ-साथ हमें भी नहलाने के लिए नदी पर अपने साथ ले गए और तैराकी का पहला पाठ सिखाया। यह हमारे लिए बहुत ही आनंद का समय था। हम रोज़ाना नहाने के लिए नदी पर ही जाते। घर पर, काकी मंडुवे की रोटी, झुंगरा का भात और गौहत की दाल भोजन के लिए तैयार रखती। हमने इन्हें पहली बार ही चखा था। कच्चे आम, हरी मिर्च, गुड़ और प्याज़ की चटनी के तो कहने ही क्या!

ऊपर पहाड़ पर घना जंगल था। काकी सुबह उठकर वहां घास काटने जाती थी। एक दिन हम भी ऊपर तक गए। उन दिनों, वहां से एक छोटी सी नहर नीचे गांव तक सिंचाई के लिए आती थी।

गांव में बहुत अपनापन था। हर कोई बिल्कुल अपना लगता था। कोई काका, कोई ताऊ, कोई दादी, कोई भाभी। पूरा गांव एक विशाल कुटुंब था। वहां सबकुछ अपना लगता था – खेत, फसल, आम का बगीचा, मंदिर, नदी, पहाड़, सभी। यह अपनापन का भाव शहर में महसूस नहीं होता। गांव का हर व्यक्ति मिलने आता, कोई दूध लेकर, कोई फल लेकर। घर पर दिन भर चाय की केतली चूल्हे पर चढ़ी रहती। वहां से कोई भी बिना चाय पिए नहीं जा सकता था।

एक दिन, दोपहर के खाने के बाद, हम बस में सवार होकर नानी के गांव के लिए निकले। मासी पर बस से उतरे। थोड़ा आगे, पनचक्की के पास से नदी पार की और नानी के गांव बसोली की चढ़ाई पर चढ़ने लगे। थोड़ी देर में अंधेरा हो गया। बीच में एक गांव में हम पानी पीने के लिए रुके। वहां रिवाज है कि आप से पूछेंगे कि किनके घर जा रहे हो। वहां भी उन्होंने पूछा और पेड़ से एक कटहल तोड़कर हमें दिया। नानी के घर पहुंचने तक रात हो चुकी थी। हमारे वहां पहुंचते ही, मामी फुर्ती से खेत से हरे प्याज लेकर आई। ताज़े प्याज की सब्जी का वो स्वाद अब तक जेहन में बसा हुआ है।

ये बातें आज से लगभग साठ साल पहले की हैं। अब समय बहुत बदल चुका है। अब न माता-पिता रहे, न काका-काकी, न नाना-नानी और न मामा-मामी। तब मैं एक नन्हा-मुन्ना बालक था। ज़्यादा समझ नहीं थी। बहुत कम बातें ही याद हैं, अधिकतर का बोध ही नहीं था। मेरा जन्म मैदानों में हुआ लेकिन हमारे पूर्वज पहाड़ों में बसते थे। वहां तब पहली बार जाना हुआ। एक अलग ही भाव जागा मन में। इसके बाद भी अनेक बार वहां जाना हुआ लेकिन पहली यात्रा की कुछ स्मृतियां अब भी ताजा हैं। उनकी मिठास और उनमें अपनापन कुछ अलग ही है। आज भी वो स्मृतियां विभोर करती हैं।

♥♥♥♥

© जगत सिंह बिष्ट

Laughter Yoga Master Trainer

LifeSkills

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga. We conduct talks, seminars, workshops, retreats and training.

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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जगत सिंह बिष्ट

बहुत आभार, हेमंत जी।
आपने बिल्कुल सही कहा है। नाना-नानी और दादा-दादी के घर जाने में जो स्नेह और अपनापन मिलता था, वो कहीं और नहीं मिल सकता। सचमुच बहुत मन करता है कि वो समय किसी तरह लौट कर वापस आए।

अ.ल. देशपांडे.उमरीकर, अमरावती.

अत्यंत रोचक संस्मरण. लगा कि इस यात्रा का मैं भी साथी हूं. बिष्ट जी ने निहायत सरलता से इस दुर्गम यात्रा को परिभाषित किया है. गाव का सफर यह केवल यात्रा नहीं होती थी परंतु वह तीर्थ यात्रा सदृष्य हुआ करती थी. हर कोई इसकी गहराई में डूब नहीं सकता. लगभग साठ वर्षं पूर्व का यह सफर हम हिंदू स्थानिय ओं की सांस्कृतिक धरोहर है.पूरा गांव एक परिवार होता था. गांव पहूंचने से पहले गुड की भेली तथा अन्य सामान ले जाना , रास्ते में किसी सज्जन ने सहजता से कठहल प्रदान करना, बे रात घर पहुंचने पर घर की… Read more »

जगत सिंह बिष्ट

गहन आभार, देशपांडे साहब।
मैंने जो सहजता से लिखा, उसमें आपके संवेदनशील मन ने बहुत सारी बारीकियां ढूंढ लीं जिसका पूरा श्रेय आपको जाता है।
इस स्तंभ के अंतर्गत ऐसे और इससे बेहतर अनेक संस्मरणों की प्रतीक्षा रहेगी।