आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (15) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।।15।।

पाप-पुण्य से भिन्न तू अखिलेश्वर को जान

ज्ञान ढॅका अज्ञान से इससे भ्रमित जहान।।15।।

भावार्थ :  सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।।15।।

 

The Lord accepts neither the demerit nor even the merit of any; knowledge is enveloped by ignorance, thereby beings are deluded. ।।15।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – प्रकृति (1-2) ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

?? संजय दृष्टि  – प्रकृति (1-2) ??

 

 

प्रकृति-1

 

प्रकृति ने चितेरे थे चित्र चहुँ ओर

मनुष्य ने कुछ चित्र मिटाये

अपने बसेरे बसाये,

 

प्रकृति बनाती रही चित्र निरंतर,

मनुष्य ने गेरू-चूने से

वही चित्र दीवारों पर लगाये,

 

प्रकृति ने येन केन प्रकारेण

जारी रखा चित्र बनाना

मनुष्य ने पशुचर्म, नख, दंत सजाये,

 

निर्वासन भोगती रही

सिमटती रही, मिटती रही,

विसंगतियों में यथासंभव

चित्र बनाती रही प्रकृति,

 

प्रकृति को उकेरनेवाला

प्रकृति के खात्मे पर तुला

मनुष्य की कृति में

अब नहीं बची प्रकृति,

 

मनुष्य अब खींचने लगा है

मनुष्य के चित्र..,

मैं आशंकित हूँ,

बेहद आशंकित हूँ..!

 

प्रकृति-2

 

चित्र बनाने के लिए उसने

उतरवा दिये उसके परिधान,

फटी आँखे लिए वह बुदबुदाया-

अनन्य सौंदर्य! अद्भुत कृति!

वीभत्स परिभाषाएँ सुनकर

शर्म से गड़ गई प्रकृति..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (14) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ।।14।।

 

कर्तापन न कर्म को सृजते है भगवान

न ही फल के संयोग का ही करते निर्माण।।14।।

 

भावार्थ :  परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बर्त रहा है।।14।।

 

Neither agency nor actions does the Lord create for the world, nor union with the fruits of actions; it is Nature that acts. ।।14।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (13) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

सर्वकर्माणि मनसा संन्यस्यास्ते सुखं वशी ।

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्‌।।13।।

 

सदा संयमी पुरूष रख मन में कर्म सन्यास

नौ द्वारों की पुरी में करता सुख से वास।।13।।

 

भावार्थ :  अन्तःकरण जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है।।13।।

 

Mentally renouncing all actions and self-controlled, the embodied one rests happily in the nine-gated city, neither acting nor causing others (body and senses) to act. ।।13।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – अटल स्मृति – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि –  ‘अ’ से अटल ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

? संजय दृष्टि  – ‘अ’ से अटल ?

(अटल जी की प्रथम पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि। गतवर्ष उनके महाप्रयाण पर उद्भूत भावनाएँ साझा कर रहा हूँ।)

 

अंततः अटल जी महाप्रयाण पर निकल गये। अटल व्यक्तित्व, अमोघ वाणी, कलम और कर्म से मिला अमरत्व!

लगभग 15 वर्षों से सार्वजनिक जीवन से दूर, अनेक वर्षों से वाणी की अवरुद्धता, 93 वर्ष की आयु में देहावसान और  तब भी अंतिम दर्शन के लिए जुटा विशेषकर युवा जनसागर। ऋषि व्यक्तित्व का प्रभाव पीढ़ियों की सीमाओं से परे होता है।

हमारी पीढ़ी गांधीजी को देखने से वंचित रही पर हमें अटल जी का विराट व्यक्तित्व  अनुभव करने  का सौभाग्य मिला। इस विराटता के कुछ निजी अनुभव मस्तिष्क में घुमड़ रहे हैं।

संभवतः 1983 या 84 की बात है। पुणे में अटल जी की सभा थी। राष्ट्रीय परिदृश्य में रुचि के चलते इससे पूर्व विपक्ष के तत्कालीन नेताओं की एक संयुक्त सभा सुन चुका था पर उसमें अटल जी नहीं आए थे।

अटल जी को सुनने पहुँचा तो सभा का वातावरण देखकर आश्चर्यचकित रह गया। पिछली सभा में आया वर्ग और आज का वर्ग बिल्कुल अलग था। पिछली सभा में उपस्थित जनसमूह में मेरी याद में एक भी स्त्री नहीं थी। आज लोग अटल जी को सुनने सपरिवार आए थे। हर परिवार ज़मीन पर दरी बिछाकर बैठा था। अधिकांश परिवारों में माता,पिता, युवा बच्चे और बुजुर्ग माँ-बाप को मिलाकर दो पीढ़ियाँ  अपने प्रिय वक्ता  को सुनने आई थीं। हर दरी के बीच थोड़ी दूरी थी। उन दिनों पानी की बोतलों का प्रचलन नहीं था। अतः जार या स्टील की टीप में लोग पानी भी भरकर लाए थे। कुल जमा दृश्य ऐसा था मानो परिवार बगीचे में सैर करने आया हो। विशेष बात यह कि भीड़, पिछली सभा के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक थी। कुछ देर में मैदान खचाखच भर चुका था। सुखद विरोधाभास यह भी  कि पिछली सभा में भाषण देने वाले नेताओं की लंबी सूची थी जबकि आज केवल अटल जी का मुख्य वक्तव्य था। अटल जी के विचार और वाणी से आम आदमी पर होने वाले सम्मोहन का यह मेरा पहला प्रत्यक्ष अनुभव था।

उनकी उदारता और अनुशासन का दूसरा अनुभव जल्दी ही मिला। महाविद्यालयीन जीवन के जोश में किसी विषय पर उन्हें एक पत्र लिखा। लिफाफे में भेजे गये पत्र का उत्तर पोस्टकार्ड पर उनके निजी सहायक से मिला। उत्तर में लिखा गया था कि पत्र अटल जी ने पढ़ा है। आपकी भावनाओं का संज्ञान लिया गया है। मेरे लिए पत्र का उत्तर पाना ही अचरज की बात थी। यह अचरज समय के साथ गहरी श्रद्धा में बदलता गया।

तीसरा प्रसंग उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद का है। बस से की गई उनकी पाकिस्तान यात्रा के बाद वहाँ की एक लेखिका अतिया शमशाद  ने प्रचार पाने की दृष्टि से कश्मीर की ऐवज़ में उनसे विवाह का एक भौंडा प्रस्ताव किया था। उपरोक्त घटना के संदर्भ में तब एक कविता लिखी थी। अटल जी के अटल  व्यक्तित्व के संदर्भ में उसकी कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं-

मोहतरमा!

इस शख्सियत को समझी नहीं

चकरा गई हैं आप,

कौवों की राजनीति में

राजहंस से टकरा गई हैं आप..।

कविता का समापन कुछ इस तरह था-

वाजपेयी जी!

सौगंध है आपको

हमें छोड़ मत जाना,

अगर आप चले जायेंगे

तो वेश्या-सी राजनीति

गिद्धों से राजनेताओं

और अमावस सी व्यवस्था में

दीप जलाने

दूसरा अटल कहाँ से लाएँगे..!

राजनीति के राजहंस, अंधेरी व्यवस्था में दीप के समान प्रज्ज्वलित रहे भारतरत्न अटलबिहारी वाजपेयी जी अजर रहेंगे, अमर रहेंगे! 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (12) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌।

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ।।12।।

 

योगी पाते शांति सुख सहज कर्म फल त्याग

बंध जाते है अन्य जन, फल से रख अनुराग।।12।।

 

भावार्थ :  कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँधता है।।12।।

 

The united one (the well poised or the harmonised), having abandoned the fruit of action, attains to the eternal peace; the non-united only (the unsteady or the unbalanced), impelled by desire and attached to the fruit, is bound ।।12।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

⌚ संजय दृष्टि  – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ⌚

उहापोह में बीत चला समय

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ

जीवन भर मन मथती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो

आजीवन हम पा न सके वो

पग-पग सांकल कसती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ

जाने कितनी जिज्ञासाएँ

अबूझ जन्मीं-मरती गईं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन, असीम इच्छाएँ

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म की गाथाएँ

जीवन का हरण  करती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर  है जीवन टिका

हर साँस में इक जीवन बसा

साँस-साँस पर घुटती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो

अपनी तरह जीकर तो देखो

चकमक में आग छुपी रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (11) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि ।

योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये ।।11।।

 

तन से,मन से,बुद्धि से,या इंद्रिय से मात्र

योगी करते कर्म सब लिप्ति त्याग शुद्धार्थ।।11।।

      

भावार्थ :  कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।।11।।

 

Yogis, having abandoned attachment, perform actions only by the body, mind, intellect and also by the senses, for the purification of the self. ।।11।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – संस्मरण –☆ संजय दृष्टि – आज़ादी मुबारक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

संजय दृष्टि  –आज़ादी मुबारक
(15 अगस्त 2016 को लिखा संस्मरण)
 मेरा दफ़्तर जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए  कमोबेश सारा बाज़ार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।
15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे  छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।
किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने दफ्तर पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई।  रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू- पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।
पता चला कि कॉम्प्लेक्स में काम करनेवाली बाई सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस  सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो  धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को  राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने  ही समझा।
आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (10) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

( सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा )

 

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्‍गं त्यक्त्वा करोति यः ।

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।।10।।

 

फलासक्ति तज,धार जो ब्रम्ह समर्पण भाव

तो कर्मो से जल कमल सा रहता अलगाव।।10।।

 

भावार्थ :  जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।।10।।

 

He who performs actions, offering them to Brahman and abandoning attachment, is not tainted by sin as a lotus leaf by water. ।।10।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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मो ७०००३७५७९८

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