हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * अमर होने की तमन्ना * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

अमर होने की तमन्ना

(कल के अंक में आपने   डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  के व्यंग्य संकलन “एक रोमांटिक की त्रासदी” की श्री अभिमन्यु जैन जी द्वारा लिखित समीक्षा पढ़ी।  आज हम आपके लिए इसी व्यंग्य संकलन से एक चुनिन्दा व्यंग्य “अमर होने की तमन्ना” लेकर आए हैं।
इस सार्थक व्यंग्य से आप व्यंग्य संकलन की अन्य व्यंग्य रचनाओं की कल्पना कर सकते हैं। साथ ही यह भी स्वाकलन कर सकते हैं कि – अमर होने की तमन्ना में आप अपने आप को कहाँ पाते हैं? यह तो तय है कि इस व्यंग्य को पढ़ कर कई लोगों के ज्ञान चक्षु जरूर खुल जाएंगे।)
प्रकृति ने तो किसी को अमर बनाया नहीं। सब का एक दिन मुअय्यन है। समझदार लोग इसे प्रकृति का नियम मानकर स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन फिर भी कुछ लोग अमरत्व पाने के लिए हाथ-पाँव मारते रहते हैं। प्रकृति पर वश नहीं चलता तो अपने नाम से स्कूल, अस्पताल, धर्मशाला, मंदिर बनवा देते हैं, क्योंकि इमारत का जीवन आदमी के जीवन से लंबा होता है।  बहुत से लोग मंदिर की सीढ़ियों पर अपने नाम का पत्थर लगवा देते हैं। इसमें विनम्रता के साथ अमरत्व की लालसा भी होती है।
शाहजहां ने अपनी बेगम को अमर बनाने के लिए करोड़ों की लागत का ताजमहल बनवाया। मुमताज की ज़िंदगी में तो कुछ याद रखने लायक था नहीं, अलबत्ता ताजमहल उसकी याद को ज़िंदा रखे है। लेकिन यह अमरता का बड़ा मंहगा नुस्खा है,खास तौर से तब जब ग़रीब जनता का पैसा शासक को अमर बनाने के लिए लगाया जाए। ऐसी अमरता से भी क्या फायदा जहाँ आदमी अपने काम के बूते नहीं, कब्र की भव्यता के बूते अमर रहे?
समय भी बड़ा ज़ालिम होता है। वह बहुत से लोगों की अमरत्व की लालसा की हत्या कर देता है। धन्नामल जी बड़ी हसरत से अपने नाम से अस्पताल खुलवाते हैं, और लोग कुछ दिन बाद उसे डी.एम.अस्पताल कहना शुरू कर देते हैं। धन्नामल जी डी.एम.के पीछे ग़ायब हो जाते हैं।और अगर धन्नामल जी का पूरा नाम सलामत भी रहा,तो कुछ दिनों बाद लोगों को पता नहीं रहता कि ये कौन से धन्नामल थे—– नौबतपुर वाले, या ढोलगंज वाले?
जो लोग सिर्फ परोपकार और परसेवा के लिए स्कूल, अस्पताल या धर्मशाला बनवाते हैं, वे प्रशंसा के पात्र हैं। उनके लिए कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनका नाम रहे या भुला दिया जाए। लेकिन जो लोग खालिस अमरत्व और वाहवाही के लिए इमारतें खड़ी करते हैं वे अक्सर गच्चा खा जाते हैं। ऐसे लोग ईंट-पत्थर की इमारत में तो लाखों खर्च कर देते हैं, लेकिन आदमी की सीधी मदद करने के मामले में खुद पत्थर साबित होते हैं। बहुत से लोग चींटियों को तो शकर खिलाते हैं, लेकिन आदमी को गन्ने की तरह पेरते हैं।
मंदिर मस्जिद बनवाने के पीछे शायद अमरता प्राप्त करने के साथ साथ ख़ुदा को धोखा देने की भावना भी रहती हो। सोचते हों कि मंदिर बनवाने से सब गुनाह माफ हो जाएंगे और स्वर्ग में पनाह मिल जाएगी। इसीलिए बहुत सा दो नंबर का पैसा मंदिरों अस्पतालों में लगता है। लेकिन ख़ुदा इतना भोला होगा, इस पर यकीन नहीं होता।
हमारे देश में अमर होने का एक और नुस्खा चलता है—–कुलदीपक पैदा करने का। लोग समझते हैं कि पुत्र पैदा करने से उनका वंश चलेगा।इसमें पहला सवाल तो यह उठता है कि श्री खसोटनलाल का वंश चले ही क्यों? वे कोई तात्या टोपे हैं जो उनका वंश चलना ज़रूरी है? जो सचमुच बड़े होते हैं वे अपना वंश चलाने की फिक्र नहीं करते। गांधी के वंश का आज कितने लोगों को पता है? अलबत्ता जिन्होंने ज़िंदगी भर सोने, खाने और धन बटोरने के सिवा कुछ नहीं किया, वे अपना यशस्वी वंश चलाने के बड़े इच्छुक होते हैं।
दूसरी बात यह है कि कुलदीपक अक्सर वंश चलाने के बजाय उसे डुबा देते हैं। बाप के जतन से जोड़े धन को वे दोनों हाथों से बराबर करते हैं और पिताश्री के सामने ही उनके वंश का श्राद्ध कर देते हैं। लोग पूछते हैं, ‘ये किस कुल के चिराग हैं जो पूरे मुहल्ले को फूँक रहे हैं?’ और पिताजी अपनी वंशावली बताने के बजाय कोई अँधेरा कोना ढूँढ़ने लगते हैं।
कुछ लोग वंश को पीछे से पकड़ते हैं। संयोग से किसी महापुरुष के वंशज हो गये।अपने पास उस पूर्वज की याद दिलाने वाले कोई गुण बचे नहीं, लेकिन ‘विशिष्ट’ बने रहने की इच्छा पीछा नहीं छोड़ती। दिन भर दस साहबों को सलाम करते हैं, दस जगह रीढ़ को ख़म देते हैं, लेकिन यह बखान करते नहीं थकते कि वे अमुक वीर की वंशबेल के फूलपत्र हैं।
समझदार लोग अमरता के प्रलोभन में नहीं पड़ते।वक्त के इस प्रवाह में बहुत आये और बहुत गये। जो अपनी समझ में अपने अमर होने का पुख्ता इंतज़ाम कर गये थे उनका नाम हवा में गुम हो गया। बहुत से लोगों को उनकी पुण्यतिथि पर काँख-कूँख कर याद कर लिया जाता है, और फिर उसके बाद उनकी फोटो को एक साल के लिए टांड पर फेंंक दिया जाता है। अगली पुण्यतिथि पर फिर फोटो की धूल झाड़कर श्रद्धांजलि की रस्म भुगती जाती है।ऐसी अमरता से तो विस्मृत हो जाना ही अच्छा।
इसलिए बंडू भाई, अमर होने की इच्छा छोड़ो। मामूली आदमी बने रहो,जितना बने दूसरों का कल्याण करो, और जब मरो तो इस इच्छा के साथ मरो कि दुनिया हमारे बाद और बेहतर हो। बहुत से लोग हैं जो बिना शोरगुल किये दुनिया का भला करते हैं और चुपचाप ही दुनिया से अलग हो जाते हैं।ऐसे लोग ही दुनिया के लिए ज़रूरी हैं।
© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

(लेखक के व्यंग्य-संग्रह ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ से)

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हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – * एक रोमांटिक की त्रासदी * डॉ. कुन्दन सिंह परिहार – (समीक्षक – श्री अभिमन्यु जैन)

व्यंग्य संकलन – एक रोमांटिक की त्रासदी  – डॉ.कुन्दन सिंह परिहार 

पुस्तक समीक्षा

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(वरिष्ठ एवं प्रसिद्ध व्यंग्यकार डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का यह 50 व्यंग्यों  रचनाओं का दूसरा व्यंग्य  संकलन है। कल हम  आपके लिए इस व्यंग्य संकलन की एक विशिष्ट रचना प्रकाशित करेंगे)
डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी  को e-abhivyakti की ओर से इस नवीनतम  व्यंग्य  संकलन के लिए हार्दिक शुभकामनायें एवं बधाई।        
पुस्तक समीक्षा
एक रोमांटिक की त्रासदी (व्यंग्य संकलन)
लेखक- कुन्दन सिंह परिहार
प्रकाशक- उदय पब्लिशिंग हाउस, विशाखापटनम।
मूल्य – 650 रु.
‘एक रोमांटिक की त्रासदी’ श्री कुन्दन सिंह परिहार की 50 व्यंग्य रचनाओं का संकलन है।लेखक का यह दूसरा व्यंग्य-संकलन है, यद्यपि इस बीच उनके पाँच कथा-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं।संकलन हिन्दी के मूर्धन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई को इन शब्दों के साथ समर्पित है—-‘परसाई जी की स्मृति को, जिन्होंने पढ़ाया तो बहुतों को, लेकिन अँगूठा किसी से नहीं माँगा। ‘ये मर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बार बार आकर्षित करती हैं।
पुस्तक का शीर्षक पहले व्यंग्य ‘एक रोमांटिक की त्रासदी’से अभिप्रेरित है।दिन में जो प्रकृति लुभाती है, आकर्षक लगती है, रात्रि में, यदि हम अभ्यस्त नहीं हैं तो, डरावनी लगती है।एक रात भी शहरी व्यक्ति को गाँव के खेत-खलिहान में काटना पड़े तो उसे नींद नहीं आती।मन भयग्रस्त हो जाता है, जबकि एक ग्रामीण उसी वातावरण में गहरी नींद सोता है।रचना में ग्रामीण और शहरी परिवेश का फर्क दर्शाया गया है।
दूसरी रचना ‘सुदामा के तंदुल’ उन नेताओं पर कटाक्ष है जिनके लिए चुनाव आते ही गरीब की झोपड़ी मंदिर बन जाती है।आज दलित, आदिवासी के घर भोजन राजनीति का ज़रूरी हिस्सा बन गया है।
इसी तरह के 50 पठनीय और प्रासंगिक व्यंग्य संग्रह में हैं।रचनाओं का फलक व्यापक है और इनमें समाज और मानव-मन के दबे-छिपे कोनों तक पहुँचने का प्रयास स्पष्ट है।
संग्रह की रचनाओं में बड़ी विविधता है।विचारों, भावों और कथन में कहीं भी पुनरावृत्ति नहीं है।हर विषय को विस्तार से सिलसिलेवार प्रस्तुत किया गया है।सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं पर पर्याप्त फोकस है।रचनाओं में किसी विचारधारा या दल की ओर झुकाव दृष्टिगोचर नहीं होता।भाषा की समृद्धता प्रभावित करती है।स्थानीय भाषा और बोली का भी सटीक उपयोग है।
संग्रह में छोटे छोटे प्रसंगों को लेकर व्यंग्य का ताना-बाना बुना गया है।सामान्य जन-जीवन में व्याप्त वैषम्य, विरूपताओं और विसंगतियों को उजागर करने के लिए व्यंग्य सशक्त माध्यम है और इस माध्यम का उपयोग लेखक ने बखूबी किया है।परसाई जी के शब्दों में कहें तो व्यंग्य अन्याय के विरुद्ध लेखक का हथियार बन जाता है।व्यंग्य के विषय में मदन कात्स्यायन का कथन है कि जिस देश में दारिद्र्य की दवा पंचवर्षीय योजना हो वहां के साहित्य का व्यंग्यात्मक होना अनिवार्य विवशता है।

इस संग्रह से पूर्व प्रकाशित परिहार जी के कथा-संग्रहों और व्यंग्य-संग्रह सुधी पाठकों के बीच चर्चित हुए हैं। विश्वास है कि प्रस्तुत संग्रह भी पाठकों के बीच समादृत होगा।

समीक्षक – अभिमन्यु जैन (व्यंग्यकार ), जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * आधुनिक भारत के इतिहास लेखन में जवरसिंग का योगदान * – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

आधुनिक भारत के इतिहास लेखन में जवरसिंग का योगदान

 

(प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का  सामाजिक माध्यमों और आधुनिक तकनीक के सामंजस्य के सदुपयोग/दुरुपयोग पर अत्यंत सामयिक, सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।) 

 

आप जवरसिंग को नहीं जानते. उसे जानना जरूरी है. वो इन दिनों ‘आधुनिक भारत का इतिहास’ लिखने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है. हालाँकि उसकी पृष्ठभूमि से नहीं लगता कि वो इतिहास लेखन जैसी महती परियोजना पर काम कर रहा होगा, मगर सच यही है. उसके लिखे इतिहास के चुनिन्दा अंश प्रस्तुत करने से पहले मैं, संक्षेप में, उसकी पृष्ठभूमि बताना चाहता हूँ.
जवरसिंग हमारे दफ्तर में साढ़े पैंतीस साल चपरासी के पद का निर्वहन करते हुए तीन महीने पहले सेवा निवृत्त हुआ. बायो-डाटा में उसकी शैक्षणिक योग्यता पाँचवी तक लिखी हुई थी मगर अपने नाम के पांच अक्षरों से ज्यादा वो कभी नहीं लिख सका. हाँ, वो हिंदी पढ़ लेता था. अखबार घंटों पढ़ता था. दोपहर का टैब्लॉयड ‘जलती मशाल’ उसका पसंदीदा अखबार रहा. क्राईम न्यूज़ सबसे पहले पढ़ता. जब जब दफ्तर में हमारे पास उसके लायक जरूरी काम होता वो अखबार पढ़ने में तल्लीन हो जाता और तब तक तल्लीन ही रहता जब तक हमारा काम बिना उसके भी पूरा न हो जाए. वो प्रखर राजनैतिक चेतना का धनी था. दैनिक वेतनभोगी कर्मियों को सामने बैठाकर घंटों समकालीन राजनीति पर अपना अभिमत देता. उसके किसी श्रोता में इतनी हिम्मत नहीं होती कि उससे असहमत हो जाए, बल्कि वे उसके लिए समोसा-चाय लेकर आते. उसके अन्दर एक अदम्य विश्वास कूट-कूट कर भरा था कि भारत सहित दुनिया के तमाम राष्ट्र-प्रमुख यदि उसकी सलाह से चलें तो देश-विदेश की सारी समस्याएं घंटो में सुलझाई जा सकती हैं. बहरहाल, उसकी सेवा निवृत्ति पर हम सबने कंट्रीब्यूट करके उसे एक स्मार्ट फ़ोन गिफ्ट किया था. फिर उसने सबसे तेज़, सबसे ज्यादा डाटा, सबसे सस्ता देने वाली कंपनी से इन्टरनेट पैक लिया, अपनी पोती से व्हाट्सऐप करना सीखा.
जिस रोज़ व्हाट्सऐप पर उसकी पहली पोस्ट मुझे मिली मैं कदाचित विस्मित रह गया. जवरसिंग और इतना लंबा मैटर! खुद ने मोबाइल पर टाईप किया या किसी से लिखवाकर मुझे फॉरवर्ड करा!! जो भी हो, मेरे आश्चर्य की वजह उसकी तकनीकी योग्यता में सुधार को लेकर नहीं थी बल्कि उस पोस्ट में झलकती इतिहास की उसकी अनूठी समझ, नायाब और नवीन जानकारी को लेकर थी. उसने पोस्ट में लिखा था कि आज़ादी के लिए अनेक बार जेल जाने वाले, आधुनिक भारत के निर्माता, ‘भारत एक खोज’ के रचयिता किसी भी प्रकार से आदर योग्य महापुरुष नहीं थे. उन्होंने जो भी निर्णय लिए वे देशहित के कभी नहीं रहे. वे जननायक भारत के थे और प्रेम पकिस्तान से करते थे. मैं भौंचक्का रह गया. मुझे लगा कि मेरे पिता, मेरे दादाओं, परदादाओं की पूरी पूरी पीढ़ियाँ गलत थीं, जो उनके एक आव्हान पर जेल जाने और लाठी गोली खाने को उद्यत रहती थीं. मेरी दादी ने आज़ादी के नायक की जो कहानियां मुझे सुनाई थीं जवरसिंग की भेजी गई एक पोस्ट ने उसे धो कर रख दिया.
जवरसिंग ने फिर एक पोस्ट भेजी जिसमें उसने उसी नायक के बारे में बताया कि उनके परदादा   म्लेच्छ थे, कि उन्होंने धर्मान्तरण किया था, कि उनका जन्म इलाहाबाद की एक बदनाम बस्ती में हुआ था. मन किया श्रीमान, कि जवरसिंग के चरण छू लिए जाएँ. कहाँ थे प्रभु आप अब तक ? आप इतने साल साथ रहे मगर कभी बताया नहीं कि किस महापुरुष की अंत्येष्टि में कौन शामिल हुआ, नहीं हुआ, हुआ तो किस विधि से संस्कार करना था, किस विधि से कर दिया गया. आज़ादी का कौन सा सेनानी ईश्कबाज़ी में मसरूफ़ रहता था और अपने जीवन साथी के प्रति बेवफा था. ऐसे ऐतिहासिक तथ्य जुटाने के लिए कितना परिश्रम किया होगा जवरसिंग ने, कितना समय लगाकर कितना अध्ययन किया होगा, !! व्हाट्सऐप नहीं होने के कारण वो मुझे और देश को इतिहास का ये पक्ष पहले बता नहीं सका. थैंक यू ब्रायन एक्टन, आपने व्हाट्सऐप बनाया.
जो फोन हमने गिफ्ट किया था वो स्मार्ट फोन था, जवरसिंग के हाथों में आकर ओवर स्मार्ट हो गया है. इसी से वो इन दिनों लगभग रोज़ ही एक, दो या उससे भी अधिक पोस्ट भेजता है जिनमें उन प्रतिमाओं को खंडित किया हुआ होता जो अब तक पूजनीय बनी रही. उसका राजनैतिक आकलन देखिये श्रीमान – उसने लिखा कि अगर ‘अ’ की जगह ‘ब’, या ‘ब’ की जगह ‘स’, ‘द’, या ‘ढ़’ देश के प्रथम जननायक रहे होते तो क्या से क्या हो गया होता. जवरसिंग जब पोस्ट लिखता है तो आत्मविश्वास से लबरेज़ रहता है. वो बहुत सी ऐसी घटनाओं को शिद्दत से परोसता है जो शायद कभी घटी ही नहीं.  वह अपने जन्म के पूर्व की किसी दिनांक को दो दिवंगत महापुरूषों के बीच हुए संवाद को ऐसे प्रेषित करता है जैसे वो उस बातचीत का चश्मदीद गवाह रहा हो. उसकी एक पोस्ट ने तो मेरे पैरों के नीचे की जमीन ही खिसका दी, लिखा कि अहिंसा से आज़ादी दिलाने वाला अधनंगा फ़कीर तो अंग्रेजों का एजेंट था और स्वतन्त्रता संग्राम की अगुवाई वो इस तरह से कर रहा था कि फिरंगी अधिक से अधिक बरसों तक भारत पर शासन कर सकें. बताईये साहब, सदी के महानायक की समूची साधना पर जवरसिंग के लिखे ने पानी फेर दिया. जवरसिंग की शोध कहती है कि साहित्य का नोबेल पुरस्कार गुरुवर ने अंग्रेजों के सामने गिड़गिड़ा कर हाँसिल किया. ये तो चंद, चुनिन्दा बानगियाँ हैं श्रीमान, जवरसिंग ने ऐसी ढेर सारी सामग्री जुटा ली है. उन पोस्टों के फॉरवर्ड किये जाने का सिलसिला अनवरत जारी है. जवरसिंग ने अपने ज्ञान-क्षितिज को विस्तार दिया है. अब वो कूटनीति पर भी पोस्ट भेजने लगा है, रक्षा मामलों पर और देश की अर्थनीति पर तो साधिकार पोस्टें भेजता ही रहता है. जवरसिंग अपने इतिहास लेखन की रॉयल्टी नहीं लेता मगर हाँ, वो चाहता है कि उसकी ऐसी पोस्टों को वाईरल किया जाए. इसके लिए कभी कभी वो चैलेंज भी करता है कि तुम सच्चे ये हो या सच्चे वो हो तो इसको जरूर फैलाओ.
जवरसिंग ने हमारे समय के पनिक्करों, बिपिन चंद्राओं, रामचंद्र गुहाओं, रोमिला थापरों के वर्षों के परिश्रम से किये गए शोध और इतिहास लेखन को अपने व्हाट्सऐप अकाउंट के एक क्लिक से झुठला दिया है. मुझे अपने आप पर ग्लानि हो रही है कि इतने बड़े इतिहासविद, जानकार, ज्ञानी आदमी ने मेरे दफ्तर में मेरे साथ मामूली पद पर नौकरी करते हुए जिन्दगी गुजार दी और मुझे पता ही नहीं चला. जिसे हम एक साधारण और लगभग अनपढ़ सहकर्मी समझते रहे वो तो गुदड़ी का लाल निकला. इन दिनों वो अपनी समस्त ऐतिहासिक पोस्टों को सम्पादित करके ग्रंथावली के रूप में प्रकाशित करवाने की परियोजना पर काम कर रहा है. आने वाले वर्षों में, इतिहासविद श्रेणी में, वो पद्मविभूषण सम्मान पाने का मजबूत दावेदार है. वो हमारे समय का ‘अनसंग हीरो’ है. उसने प्रमाणित तथ्यों, खोजपरक लेखों और सबूतों की बिला पर लिखी पुस्तकों से विद्यार्थियों को कक्षा में इतिहास पढ़ाने की जरूरत समाप्त कर दी है. अब इसके लिए जवरसिंह का व्हाट्सऐप अकाउंट है ना !!!
© शांतिलाल जैन 
मोबाइल : 9425019837

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हिन्दी साहित्य – हास्य व्यंग्य – पादुकाओं  की आत्म कथा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
हास्य व्यंग्य  कथा – पादुकाओं  की आत्म कथा

 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक  बेहतरीन  सार्थक हास्य व्यंग्य कथा) 

 

मैं पादुका हूँ. वही पादुका, जिन्हें भरत ने भगवान राम के चरणो से उतरवाकर सिंहासन पर बैठाया था. इस तरह मुझे वर्षो राज काज  चलाने का विशद  अनुभव है. सच पूछा जाये तो राज काज सदा से मैं ही चला रही हूँ, क्योकि जो कुर्सी पर बैठ जाता है, वह बाकी सब को जूती की नोक पर ही रखता है. आवाज उठाने वाले को  को जूती तले मसल दिया जाता है. मेरे भीतर सुखतला होता है, जिसका कोमल, मृदुल स्पर्श पादुका पहनने वाले को यह अहसास करवाता रहता है कि वह मेरे रचे सुख संसार का मालिक है.   मंदिरो में पत्थर के भगवान पूजने, कीर्तन, भजन, धार्मिक आयोजनो में दुनियादारी से अलग बातो के मायावी जाल में उलझे , मुझे उपेक्षित लावारिस छोड़ जाने वालों को जब तब मैं भी छोड़ उनके साथ हो लेती हूं , जो मुझे प्यार से चुरा लेते हैं . फिर ऐसे लोग मुझे बस ढ़ूढ़ते ही रह जाते हैं. मुझे स्वयं पर बड़ा गर्व होता है जब विवाह में दूल्हे की जूतियां चुराकर जीजा जी और सालियो के बीच जो नेह का बंधन बनता है, उसमें मेरे मूल्य से कहीं बड़ी कीमत चुकाकर भी हर जीजा जी प्रसन्न होते हैं. जीवन पर्यंत उस जूता चुराई की नोंक झोंक के किस्से संबंधो में आत्मीयता के तस्में बांधते रहते हैं. कुछ होशियार सालियां वधू की जूतियां कपड़े में लपेटकर कहबर में भगवान का रूप दे देतीं हैं और भोले भाले जीजा जी एक सोने की सींक के एवज में मेरी पूजा भी कर देते हैं. यदि पत्नी ठिगनी हो तो ऊंची हील वाली जूतियां ही होती हैं जो बेमेल जोड़ी को भी साथ साथ खड़े होने लायक बना देती हैं. अपने लखनवी अवतार में मैं बड़ी मखमली होती हूं पर चोट बड़ी गहरी करती हूँ. दरअसल भाषा के वर्चुएल अवतार के जरिये बिना जूता चलाये ही, शब्द बाण से ही इस तरह प्रहार किये जाते हैं, कि जिस पानीदार को दिल पर चोट लगती है, उसका चेहरा ऐसा हो जाता है, मानो सौ जूते पड़े हों. इस तरह मेरा इस्तेमाल मान मर्दन के मापदण्ड की यूनिट के रूप में भी किया जाता है. सच तो यह है कि जिंदगी में जिन्हें कभी जूते खाने का अवसर नही मिला समझिये उन्हें एक बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव नही है. बचपन में शैतानियो पर मां या पिताजी से जूते से पिटाई, जवानी में छेड़छाड़ के आरोप में किसी सुंदर यौवना से जूते से पिटाई या कम से कम ऐसी पिटाई की धमकी का आनंद ही अलग है.
तेनाली राम जैसे चतुर तो राजा को भी मुझसे पिटवा देते हैं. किस्सा है कि एक बार राजा कृष्णदेव और तेनालीराम में बातें हो रही थीं. बात ही बात में तेनालीराम ने कहा कि लोग किसी की भी बातों में बड़ी सहजता से आ जाते हैं, बस कहने वाले में बात कहने का हुनर और तरीका होना चाहिये. राजा इससे सहमत नहीं थे, और उनमें शर्त लग गई. तेनालीराम ने अपनी बात सिद्ध करने के लिये समय मांग लिया. कुछ दिनो बाद कृष्णदेव का विवाह एक पहाड़ी सरदार की सुंदर बेटी से होने को था. तेनाली राम सरदार के पास विवाह की अनेक रस्मो की सूची लेकर पहुंच गये, सरदार ने तेनालीराम की बड़ी आवभगत की तथा हर रस्म बड़े ध्यान से समझी. तेनालीराम चतुर थे, उन्हें राजा के सम्मुख अपनी शर्त की बात सिद्ध करनी ही थी, उन्होने मखमल की जूतियां निकालते हुये सरदार को दी व बताया कि राजघराने की वैवाहिक रस्मो के अनुसार , डोली में बैठकर नववधू को अपनी जूतियां राजा पर फेंकनी पड़ती हैं, इसलिये मैं ये मखमली जूतियां लेते आया हूँ, सरदार असमंजस में पड़ गया, तो तेनाली राम ने कहा कि यदि उन्हें भरोसा नही हो रहा तो वे उन्हें जूतियां वापस कर दें, सरदार ने तेनाली राम के चेहरे के विश्वास को पढ़ते हुये कहा, नहीं ऐसी बात नही है जब रस्म है तो उसे निभाया जायेगा. विवाह संपन्न हुआ, डोली में बैठने से पहले नव विवाहिता ने वही मखमली जूतियां निकालीं और राजा पर फेंक दीं, सारे लोग सन्न रह गये. तब तेनाली राम ने राजा के कान में शर्त की बात याद दिलाते हुये सारा दोष स्वयं पर ले लिया. और राजा कृष्णदेव को हंसते हुये मानना पड़ा कि लोगो से कुछ भी करवाया जा सकता है, बस करवाने वाले में कान्फिडेंस होना चाहिये.
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय  के निर्माण के लिए पंडित मदन मोहन मालवीय धन एकत्रित कर रहे थे,अपनी इसी मुहिम में  वे  हैदराबाद पहुंचे. वहां के निजाम से भी उन्होंने चंदे का आग्रह किया तो वह निजाम ने कहा की मैं हिन्दू विश्वविद्यालय के लिए पैसे क्यों दूं? इसमें हमारे लोगों को क्या फायदा होगा. मालवीय जी ने कहा कि मैं तो आपको धनवान मानकर आपसे चंदा मांगने आया था, पर यदि आप नहीं भी देना चाहते तो कम से कम  मानवता की दृष्टि से जो कुछ भी छोटी रकम या वस्तु दे सकते हैं वही दे दें. निजाम ने मालवीय जी का अपमान करने की भावना से  अपना एक जूता उन्हें दे दिया. कुशाग्र बुद्धि के मालवीय जी ने उस जूते की बीच चौराहे पर नीलामी शुरू कर दी .निजाम का जूता होने के कारण उस जूते की बोली हजारो में लगने लगी. जब ये बात निजाम को पता चली तो उन्हें अपनी गलती का आभास हो गया और उन्होंने अपना ही जूता  ऊंचे दाम पर मालवीय जी से खरीद लिया. इस प्रकार मालवीय जी को चंदा भी मिल गया और उन्होने निजाम को अपनी विद्वता का अहसास भी करवा दिया. शायद मियाँ की जूती मियां के सर कहावत की शुरुआत यहीं से हुयी. भरी सभा में आक्रोश व्यक्त करने के लिये नेता जी पर या हूट करने के लिये किसी बेसुरी कविता पर कविराज पर भी लोग चप्पलें फेंक देते हैं. यद्यपि यह अशिष्टता मुझे बिल्कुल भी पसंद नही. मैं तो सदा साथ साथ जोडी में ही रहना पसंद करती हूं . पर जब पिटाई के लिये मेरा इस्तेमाल होता है तो मैं अकेली ही बहुत होती हूं. हाल ही नेता जी ने भरी महफिल में अपने ही साथी पर जूते से पिटाई कर मुझे एक बार फिर महिमा मण्डित कर दिया है.
वैसे जब से ब्रांडेड कम्पनियो ने लाइट वेट स्पोर्ट्स शू बनाने शुरू किये हैं , मैं अमीरो में स्टेटस सिंबल भी बन गई हूँ, किस ब्रांड के कितने मंहगे जूते हैं , उनका कम्फर्ट लेवल क्या है , यह पार्टियो में चर्चा का विषय बन गया है .एथलीट्स के और खिलाड़ियों के जूते टी वी एड के हिस्से बन चुके हैं. उन पर एक छोटा सा लोगो दिखाने के लिये करोड़ो के करार हो रहे हैं. नेचर्स की एक जोड़ी चप्पलें इतने में बड़े गर्व से खरीदी जा रहीं हैं, जितने में पूरे खानदान के जूते आ जायें . ऐसे समय में मेरा संदेश यही है कि  दुनियां को सीधा रखना हो तो उसे जूती की नोक पर रखो.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * चीज़ों को रखने की सही जगह  * – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

चीज़ों को रखने की सही जगह  

(डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का  एक सटीक व्यंग्य) 
जबसे मेरी पुत्री ने नया टीवी ड्राइंगरूम से हटवा कर भीतर रखवा दिया है तबसे मेरा जी बहुत दुखी रहता है।टीवी के कार्यक्रमों का रंग और आनंद आधा हो गया है।पुत्री का कहना है कि मेहमानों के आवागमन के कारण ड्राइंगरूम में टीवी एकचित्त होकर नहीं देखा जा सकता और मेरा कहना है कि मंहगा टीवी सिर्फ देखने के लिए नहीं, दिखाने के लिए भी होता है।देखने के लिए कोई मामूली टीवी पर्दे के भीतर रखा जा सकता है, लेकिन मंहगा टीवी तो ड्राइंगरूम में ही होना चाहिए।जिन लोगों को जंगल में नाचता हुआ मोर अच्छा लगता है, उन्हें उनका मोर मुबारक।अपना मोर तो ड्राइंगरूम में नाचना चाहिए।
मेरी एक बुआजी हुआ करती थीं जो पैरों में सोने की पायलें धारण किया करती थीं।जब कोई मिलने वाला आता तो वे उसकी तरफ पाँव पसारकर बैठ जाती थीं ताकि पायलों की चौंध सामनेवाले की आँखों तक पहुँचे।अगर बुआजी पायलों को अलमारी में बन्द करके रखतीं तो वे दुनिया को जलाने के सुख से वंचित हो जातीं।इसलिए चीज़ें अपने सही स्थान पर रहें तो वे इच्छित प्रभाव छोड़ती हैं।
शास्त्रों में कहा है कि स्थानभ्रष्ट होने से अनेक चीज़ें अपना महत्व खो देती हैं, जैसे केश,दाँत, नख और नर।चीज़ों की यह फेहरिस्त पुरानी है।मैं इसमें टीवी, फ्रिज, म्यूज़िक सिस्टम, एयरकंडीशनर, कार, मंहगे वस्त्र और कलात्मक वस्तुएं जोड़ने की इजाज़त चाहूँगा।
फ्रिज को रसोईघर में रखना मैं फ्रिज का दुरुपयोग मानता हूँ।फ्रिज ड्राइंगरूम में ही होना चाहिए।अगर फ्रिज अस्सी हजार का है तो उसे भीतर छिपा कर रखना कौन सी अक्लमंदी है?दूसरी बात यह है कि उसमें कुछ ऐसे ऊँचे किस्म के खाद्य पदार्थ स्थायी रूप से रखे रहना चाहिए कि फ्रिज का दरवाज़ा खोलते ही देखने वालों पर खासा रोब पड़े। स्थायी खाद्य सामग्री में मंहगे फलों, मेवों, डिब्बाबंद भोजन को शामिल किया जा सकता है।ये सब चीज़ें सिर्फ दिखाने के लिए होना चाहिए, खाने के लिए नहीं।जब दिखाते दिखाते ज़्यादा खराब या बासी होने लगें तब इनका इस्तेमाल करके तुरंत फ्रिज में नयी वस्तुएं भर दी जाएं।
बढ़िया वाला टीवी ड्राइंगरूम में ही रखा जाना चाहिए।अगर आपके पास थ्री-डी वाला टीवी है तो उसे ड्राइंगरूम से मत हिलाइए।किसी मेहमान के आते ही उसे चालू करना न भूलें।
एयरकंडीशनर ड्राइंगरूम में ज़रूर लगाना चाहिए, बाकी घर में लगे या न लगे।भीतर ठंड लगे तो उसका मुकाबला रज़ाई से और गर्मी का मुकाबला मामूली कूलर से किया जा सकता है, लेकिन एयरकंडीशनर तो ड्राइंगरूम में ही शोभा देता है।एयरकंडीशनर के दर्शन से लोगों के मुख पर जो ईर्ष्या का भाव आता है वह गृहस्वामी को शीत-ताप से लड़ने की पर्याप्त शक्ति देता है।
कीमती पेन्टिंग, मूर्तियां, झाड़-फानूस वगैरः भी ड्राइंगरूम में ठेल देना चाहिए।ये चीज़ें गृहस्वामी की संपन्नता के साथ उसकी सुरुचि और कलाप्रेम को प्रदर्शित करती हैं।इन चीज़ों में अगर उनकी कीमत की चिप्पियाँ लगी हों तो बेहतर है।अगर न लगी हों तो गृहस्वामी अपनी तरफ से लगा सकता है।
आभूषण और मंहगी साड़ियां स्त्रियों के शरीर पर ही ज़्यादा शोभते हैं, इसलिए स्त्रियों को चाहिए कि रात्रि के सोने के समय को छोड़कर सारे वक्त उन्हें धारण किये रहें।हमारे समाज में स्त्रियों ने गहनों के बोझ को कभी बोझ नहीं माना।चोरों लुटेरों के डर से उन्हें बाहर ज़ेवर पहनने का मोह कम करना पड़ा, लेकिन घर के भीतर सारे वक्त ज़ेवर पहने रहने में कोई हर्ज़ नहीं है।कोई न कोई मिलने वाला आता ही रहता है।
अगर आपका किचिन माड्यूलर है और उसमें कुकिंग रेंज, मंहगा ओवन, न चिपकने वाले बर्तन, वैक्युअमाइज़र और अन्य आधुनिक खटर-पटर हो तो किचिन को ड्राइंगरूम के ठीक बगल में रखें और बीच का पर्दा इस तरह उठा कर रखें कि मेहमानों को किचिन का साज़ो-सामान दिखता रहे।सामान बहुत बढ़िया हो तो ड्राइंगरूम के एक कोने में ही किचिन बनाया जा सकता है।
अगर सब सामान भरने के बाद ड्राइंगरूम में बैठने की जगह न बचे तो उसकी चिंता न करें।मेहमान खुद ही बैठने की जगह ढूंढ़ लेंगे।यह भी हो सकता है कि अगर सामान नायाब हुआ तो मेहमान उसको देखने और तारीफ करने में इतने मसरूफ हो जाएं कि उन्हें बैठने की फुरसत ही न मिले।जो भी हो, आपकी प्रमुख दिलचस्पी मेहमानों को आराम देने में नहीं, उन पर रोब ग़ालिब करने में होना चाहिए।
अब इसके बाद कार के बारे में विचार कर लिया जाए क्योंकि ड्राइंगरूम में कार रखना मुश्किल होगा।अगर कार पुरानी खटारा या दो चार लाख वाली हो तो उसे ज़्यादातर वक्त पर्दे में यानी गैरेज में रखना ही ठीक होगा।अगर बीस पच्चीस लाख वाली हो तो रात को छोड़कर उसे दरवाज़े के सामने या घर के सामने सड़क पर रखना चाहिए।और अगर मर्सिडीज या बी.एम.डब्ल्यू जैसी कोई गाड़ी हो तो उसे दिन रात खुले में ही रखना चाहिए, भले ही रात को जागकर उसकी चौकीदारी करना पड़े।वैसे जाग कर चौकीदारी करने के बजाय बेहतर होगा कि रात को एक आदमी कार के भीतर ही सोये।बुरा से बुरा यही हो सकता है कि जब कार चोरी होगी तो आदमी भी उसके साथ चला जाएगा, लेकिन जब कार ही न रही तो आदमी की जान की क्या फिक्र!
तो मेरी बात का निचोड़ यह है कि अगर आपको समाज में ऊँचा मुकाम पाना है तो चीज़ों को उनकी सही जगह रखने का शऊर हासिल करना ज़रूरी है।
© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – * साहित्यिक सम्मान की सनक * – श्री मनीष तिवारी

श्री मनीष तिवारी 

साहित्यिक सम्मान की सनक 

(प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर ही नहीं ,अपितु राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध साहित्यकार -कवि  श्री मनीष तिवारी जी का एक सार्थक एवं सटीक व्यंग्य।)  

सच कह रहा हूँ भाईसाब उम्र को मत देखिए न ही बेनूर शक्ल की हंसी उड़ाइये, मेरी साहित्यिक सनक को देखिए सम्मान के कीर्तिमान गढ़ रही है, सनक एकदम नई नई है, नया नया लेखन है, नया नया जोश है ये सब माई की कृपा है कलम घिसते बननी लगी, कितनी घिसना है कहाँ घिसना है ये तो अभी नहीं मालूम, पर घिसना है तो घिस रहे है।

हमने कहा- “भाईसाब जरूर घिसिये पर इतना ध्यान रखिए आपके घिसने से कई समझदार पिस रहें हैं।” वे अकडकर बोले-  “आप बड़े कवि हैं इसलिए हम पर अत्याचार कर रहें हैं।आपको नहीं मालूम हम पूरी दुनिया में पुज रहे हैं। हमारी रचनाएं दुनिया के अनेक देशों में उड़ते उड़ते साहित्य पिपासुओं द्वारा भरपूर सराही जा रहीं हैं।”

मैंने एक चिंतनीय लम्बी साँस खींची और कहा – “आपकी इसी प्रतिभा का तो हमें मलाल है, जो कविता हमें और हमारे कुनबे को समझ नहीं आ रही है आपकी उसी कविता पर पूरी दुनिया तालियां बजा रही है। ये हिंदी साहित्य की भयंकर  बीमारी है। विदेशियों का षड्यंत्र है ।”

मुझे तो लगता है जिस तरह पूरी दुनिया ने भारतीय बाजार पर कब्ज़ा कर कोहराम मचा दिया है वैसे ही अनर्गल प्रलाप को सम्मानित कर भारत के गीत, ग़ज़ल, व्यंग्य, कथा कहानी- नाटक को कुचलने की तैयारी है। और आप अपने सम्मान पर ऐंठे हैं, गर्वित हैं पर मुझे तो इस सम्मान में भी षड्यंत्र की बू आ रही है। श्रीमान जी व्यर्थ के बकवास सम्मान से आपकी छाती फूली जा रही है। माना कि आपको सम्मान का अफीमची नशा है जिसकी हिलोर मारती रंग तरंग में आप पूरी तरह वैचारिक रूप से नङ्ग धड़ंग हैं। मर्यादा का कलेवर आपको ढक नहीं सकता। लेकिन हे साहित्यिक विकलांगो इसे अपने ही बीच रहने दो, वरना 21 सदी के प्रारंभिक तीन दशकों का  साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान जब भी लिखा जाएगा स्वयम्भू  सम्मानित साहित्यिक सनकियों में आपका भी नाम आएगा।

आप आत्ममुग्ध हो अपने सम्मान से स्वयम अभिभूत हो, आप सोचते हो कि आप जीते ही रहोगे, भूत नहीं बन सकते। प्रेमचंद, परसाई, नीरज, महादेवी, दुष्यंत और जयशंकर प्रसाद के वंशज आपके तथाकथित साहित्य को अलाव में भी फेंक दें पर आप भभूत नहीं बन सकते। आपका पेन सामाजिक सांस्कृतिक, कुरीतियों, कुप्रथाओं पर अमोघ बाण नहीं हो सकता, और आप जैसे सनकियों से राष्ट्र का कल्याण नहीं हो सकता।

धन दूषित हो जाये तो शास्त्र में शुद्धि का उपाय है पर साहित्य दूषित होगा तो राष्ट्र की वैचारिक समृद्धि पर प्रश्न चिन्ह लगेगा इसलिये हे माँ सरस्वती या तो इनकी कलम को शुभ साहित्य से भर दो या फिर इन्हें साहित्यिक सनक से मुक्त कर दो।

© कवि मनीष तिवारी, जबलपुर

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  एक सामयिक , सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।)

बाअदब बा मुलाहिजा होशियार, बादशाह सलामत पधार रहे हैं … कुछ ऐसा ही उद्घोष करती थीं मंत्रियो, अफसरो की गाड़ियों की लाल बत्तियां. दूर से लाल बत्तियों के काफिले को देखते ही चौराहे पर खड़ा सिपाही बाकी ट्रेफिक को रोककर लालबत्ती वाली गाड़ियो को सैल्यूट करता हुआ धड़धड़ाते जाने देता था.  लाल बत्तियां  आम से खास बनने की पहचान थीं. चुनाव के पहले और चुनाव के बाद लाल बत्ती ही जीतने वाले और हारने वाले के बीच अंतर बताती थीं. पर जाने क्या सूझी उनको कि लाल बत्ती ही बुझा दी यकायक. मुझे लगता है कि यूं लाल बत्ती का विरोध हमारी संस्कृति पर कुठाराघात है. हम सब ठहरे देवी भक्त. मंदिर में दूर से ही उंचाई पर फहराती लाल ध्वजा देखकर भक्तो को जिस तरह माँ का आशीष मिल जाता है कुछ उसी तरह लाल बत्ती की सायरन बजाती गाड़ियो के काफिले को देखकर हमारी बेदम जनता में भी जान आ जाती थी और भीड़, भरी दोपहर तक में  लाल बत्ती वाली गाड़ी से उतरते श्वेत वस्त्रावृत  नेता से अपनी पीड़ा कहकर या ज्ञापन सौंपकर, आम जनता राहत महसूस कर पाती थी. अब जब लाल बत्ती का ही रसूख न रहा तो भला बिना लाल बत्ती का नेता जनता के हित में शोषण करने वालो को क्या बत्ती दे सकेगा ? लाल बत्ती से सजी चमचमाती कार पर सवार नेता, मंत्री जब किसी मंदिर भी जाते,  तो उनके लिये आम लोगों की भीड़ से अलग वी आई पी प्रवेश दिया जाता है, पंडित जी उनसे विशिष्ट पूजा करवाते हैं, खास प्रसाद देते हैं. जब ये लाल बत्ती वाले खास लोग कही किसी शाप में पहुंचते हैं या किसी आयोजन में जाते हैं तो इन्हें घेरे हुये सुरक्षा कर्मी और प्रोटोकाल आफीसर्स देखकर ही सब समझ जाते हैं कि कुछ विशिष्ट है.

दुनिया भर में  विवाह में मांग में लाल सिोंदूर भरने का रिवाज केवल हमारी ही संस्कृति में है, शायद इसलिये कि लाल सिंदूर से भरी मांग वाली लड़की में किसी की कुलवधू होने की गरिमा आ जाती है. अब जब मंत्री जी की गाड़ी से लाल बत्ती ही उतर गई तो उनसे किसी गरिमा की अपेक्षा किस मुंह से करेंगे हम? वी आई पी गाड़ियो से लाल बत्ती क्या उतरी मेरी पत्नी का तो सपना ही टूट गया. गाड़ियो से लालबत्ती का उतर जाना मेरी पत्नी के गले नही उतर पा रहा है. शादी होते ही मेरी पत्नी ने मुझे आई ए एस बनाने की मुहिम चलाई थी, और इसके लिये वह टाटा मैग्राहिल्स से प्रकाशित एक प्राईमर बुक भी खरीद लाई थी, उसका कहना था कि अपने पिता और भाई की लाल बत्ती वाली गाड़ियो में घूमने के कारण उसे उनका महत्व मालूम है,जब किसी के पोर्च में तेज गति से पहुंचती गाड़ी को ब्रेक मारकर रोका जाता है और फिर जब कार का दरवाजा कोई संतरी खोल कर आपको उतारता है तो जो सुख मिलता है वह मंहगी मर्सडीज में भी स्वयं ड्राइव कर पार्किंग में खुद गाड़ी लगाकर उतरकर आने में नहीं आता.  मूढ़मति मैं अपनी पत्नी को  समझाता ही रह गया कि जो मजा आम बने रहने में है वह खास बनने में नहीं? हमारा संविधान हम सब को बराबरी का अधिकार देता हैं.  खैर ! जब वह मेरी ओर से हताश हो गई तो उसने अपने सपने सच करने के लिये अपने बच्चो को लाल बत्ती वाले अधिकारी  बनाने की पुरजोर कोशिश की. प्राइमरी स्कूल से ही हर महीने कम्पटीशन सक्सेज रिव्यू खरीद कर बच्चो पर लाल बत्ती का भूत चढ़ाने की पत्नी की सारी कोशिश नाकाम हो गई क्योकि बच्चे इंफ्रा रेड वी आई पी बन गये हैं. उन्हें देश ही छोटा लगने लगा है. वे वर्ल्ड सिटिजन बन चुके हैं. उन्हें आई ए एस बड़े बौने लगते हैं.  एक ही समय में हमारा परिवार कई टाइम जोन में बना रहता है. बच्चे उस कल्चर को एप्रीसियेट करते हैं जहां उनका टैक्सी ड्राइवर भी बराबरी से बैठकर ब्रेकफास्ट करता है. बच्चो को जब कारो से लालबत्ती उतरने की घटना पता चली तो उन्होने कुछ सवाल किये. क्या लाल बत्ती उतरने से जनता और मंत्री जी के बीच का घेरा टूट जायेगा ? क्या मंत्री जी का वी वी आई पी दर्जा समाप्त हो जायेगा ?

बच्चो के सवाल मेरे लिये यक्ष प्रश्न हैं. मेरे लिये ही क्या, ये सवाल तो स्वयं उनके लिये भी  अनुत्तरित सवाल ही हैं जिन्होने लालबत्ती हटवाने की घोषणायें की हैं ! आपको इन सवालो के जबाब मिल जाये तो जरूर बताईयेगा.  जो भी हो कभी समाचारो की सुर्खियो में जनता के सामने बने रहने में लाल बत्ती मददगार होती थी तो अब जाते जाते भी लालबत्तियो ने अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से निभाया है, सबकी लाल बत्तियां बंद, बुझ हो रही हैं. लाल बत्ती हटने के समाचारो के कारण भी इन दिनो सारे वी आई पी सुर्खियो में हैं.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “लोकतंत्र के बहाने लोकतंत्र”।)

शहर में क्या पूरे प्रदेश में हलचल है। वैसे यह हलचल यदाकदा दो-चार महीने में समुद्री ज्वार-भाटा की भांति उठती गिरती है कि ‘‘लोकतंत्र खतरे में है’’ या ‘‘लोकतंत्र की हत्या हो गयी है’’ यह उसी तरह है जब पाकिस्तान में इस्लाम खतरे में हो जाता है। जब-जब देश में चुनाव होते हैं तब-तब लोकतंत्र पर खतरा मंडराने लगता है। चुनाव और लोकतंत्र, ये हैं तो सगे भाई, पर दिखते दुश्मन जैसे हैं।

लोकतंत्र है तो चुनाव है, और चुनाव है तो लोकतंत्र भी रहेगा। पर देश में हर पार्टी का अपना लोकतंत्र है, जो कभी लाल हरे, केशरिया हरे तो कभी तीन रंगों में रंगे हैं। सभी पार्टियों ने लोकतंत्र को अपने रंग में रंगकर, लोकतंत्र की दुकान सजा ली है। वे अपने-अपने तरह से लोकतंत्र की मार्केटिंग कर रहे हैं। लोकतंत्र इनके हाथ में है। आज लोकतंत्र शोकेस का पीस बन गया है। लोग उसे देख सकते हैं पर महसूस नहीं कर सकते हैं।

यह सब सोच रहा था कि भाई रामलाल आ धमके – नमस्कार। मैंने उन्हें सदा की भांति हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई। वे इस मुद्रा को व्यंग्य समझते हैं, पर इसके उत्तर में दुबारा नमस्कार कह जवाब भी देते हैं। ‘‘कहिये क्या समाचार है।’’ मैंने उनसे पूछा, तब उनका जवाब आया – गुप्ता जी का फ़ोन आया है कि लोकतंत्र की हत्या हो गई। वे बता रहे थे कि किसी कद्दावर नेता ने किसी चैनल पर कहा है। पर भाई साहब, मुझे नहीं लगता कि यह ख़बर सही है। इस पर मुझे संदेह है, गुप्ता कभी-कभी लम्बी फेंकता है। जब कोई गंभीर मामला होता है तभी वह फ़ोन करता है, वरन वह सिर्फ मिस-काल करता है। उसकी बैटरी मिस-काल में खर्च हो जाती है। तब मैंने रामलाल को रोकते हुए कहा – अरे ऐसा नहीं हो सकता। वरना अब तक शोर मच गया होता। मेरी बात को बीच में काटते हुए उन्होंने कहा – भाई साब, आप किस दुनिया में रहते हैं, हल्ला मच गया है। गुप्ता कह रहा था वाट्स ऐप, फेस बुक,  ट्वीटर, पूरे सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा है।

मैंने कहा – राम लाल अभी तो सुबह के सात बजे हैं और लोग….? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा – भाई साब, अब कट-कॉपी और पेस्ट का जमाना है, हवा फैलते देर नहीं लगती है। फिर भी मुझे गुप्ता पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने अपने मुहल्ले के राजनैतिक विशेषज्ञ नागपुरकर को फ़ोन लगाया। तब उसने बताया कि ऐसी कोई ख़बर नहीं है। नागपुरकर तो राजनीति का एंटीना है, वह इस तरह की ख़बर जल्दी पकड़ता है। उसकी न सुनकर यह लगा कि वह भी फेल हो गया है। अचानक रामलाल जी को स्मरण आया और उन्होंने अंदर की ओर इशारा किया – ‘‘चाय कहाँ है?’’ मैंने भी निश्चिन्त रहो का इशारा किया। चाय आ रही है। हमारे घर में रामलाल जी की आवाज सुनकर सब लोग उनके लिए चाय-नाश्ता की तैयारी में लग जाते हैं, वरना वे इसके बिना खिसकते नहीं है। यह सब चर्चा तो उनके लिए चाय का बहाना है। जब वे आश्वस्त हो गये तब उन्होंने कहा – ‘‘तब मैंने स्वयं दो-तीन चैनल पलटाये, सब जगह अपनी-अपनी चिंताएँ, अपने-अपने राग बज रहे थे, पर लोकतंत्र की ख़बर नहीं थी।’’

ऐसा लगता है वे लोकतंत्र को लेकर निश्चिन्त हैं। उनका लोकतंत्र मजबूत है, कोई भी उसे कुछ भी कहला सकता है। पूरा लोकतंत्र उन्होंने नेताओं पर छोड़ दिया है। वे (मीडिया) तो बस जनता के मनोरंजन के लिए बने हुए हैं। मैंने उन्हें रोका – चाय आ गयी है। चाय देखकर वे तुरन्त रुक गये। उनकी नज़रें नाश्ते की प्लेट को ढूढ़़ रही थीं। नाश्ता भी आया, तब नाश्ता और चाय लेकर वे कहने लगे – एक चैनल में लोकतंत्र की हत्या पर कुछ लोग बतियाते हुए दिख रहे थे, पर उनके चेहरे शांत, प्रसन्न और निर्विकार थे। जैसे वे लोकतंत्र के सन्यासी हों। उन्हें उससे कोई लेना-देना नहीं। वे अपना काम समान भाव से कर रहे थे। उनके सामने चाय के कप रखे थे। फिर भला आप ही सोचिए, लोकतंत्र या किसी की भी हत्या हो जाय तो दुख की बजाय कोई  बेशर्मी से चाय पी सकता है, क्या?। फिर मैंने सोचा यह ख़बर सही नहीं है। सह कहकर रामलाल जी मेरे मुँह की ओर देखने लगे तब मैं अचकचाया और फिर कहा, आप सही कह रहे हैं, का इशारा किया। मेरे इशारे से उनके चेहरे पर रौनक फैल गई। यह देखकर लगा कि रामलाल जी की चिन्ता कम हो गई है। थोड़ी देर तक हमारे बीच अनबोला रहा। उन्होंने एक-दो बार सांस ली और कहा – ‘‘लोकतंत्र की हत्या होने पर यह भी पता चलता कि हत्या कहाँ हुई, कैसे हुई, किस हथियार से हुई, किसने की, कितने लोग थे? या हत्या के पीछे सिर्फ लूट थी या हत्या अवैध सम्बन्धों की वजह से हुई। कुछ इस तरह की कोई भी सुगबुगाहट नहीं थी। अरे, हत्या के बाद पुलिस जाँच-परख करती है। हत्या होने पर पुलिस की सूंघने की शक्ति बढ़ जाती है। वह उसमें अपना फायदा देखने लगती है। पर वहाँ तो पुलिस का अता-पता तक नहीं था। हमारे यहाँ की पुलिस इतनी निकम्मी नहीं है कि हत्या हो जाये और कुछ न करे। पर गुप्ता इतना बड़ा झूठ नहीं बोल सकता।

कहीं कुछ तो है, पर सन्नाटा फैला है। अब लोगों को चिन्ता नहीं रही है। लोकतंत्र 70 साल का हो गया है। बूढ़े लोकतंत्र की कौन चिन्ता करता है।’’ रामलाल की चिन्ता देख मैं चिन्तित हो गया। उनको रोकते हुए कहा – रामलाल जी आप जल्दी भावुक हो जाते हैं। कभी-कभी इतिहास भी पढ़ लिया करो। क्यों क्या हुआ? उन्होंने प्रश्न झोंका। मैंने कहा, भाई साहब लोकतंत्र की हत्या अब से 43 बरस पहले हो चुकी थी। तब लोगों की बोलती बंद हो गई थी। बोलने वालों को जेल में ठूंस दिया गया था। शहरों में सन्नाटा फैला रहता था। अभी जो लोकतंत्र देख रहे हो वह तो लोकतंत्र की लाश है। इस लाश को नेताओं ने सम्हालकर, मतलब का लेप लगाकर फ्रीज़र में रख दिया है। तब से लोकतंत्र की लाश सुरक्षित है। जब-जब नेताओं को ज़रूरत पड़ती है, वे किराया चुकाकर लाश को बाहर निकाल लेते हैं और चीख-चीख कर कहते हैं – लोकतंत्र खतरे में है। फलानी पार्टी ने लोकतंत्र की हत्या कर दी है, या करने वाली है। जब उनका काम हो जाता है, तब उस लाश को पुनः फ्रीज़र में वापिस रख देते हैं।

यह खेल सभी पार्टियाँ अपने मतलब के लिए खेल रही हैं और जनता को पता नहीं है कि लोकतंत्र कहाँ है। वैसे राजनीतिक पार्टियों को पता है कि लोकतंत्र कहाँ है। वे जनता को लोकतंत्र का लेज़र शो दिखाती हैं और जनता इस रंग-बिरंगे खेल से खुश है तो नेता भी खुश हैं। जब दोनों खुश हैं तो लोकतंत्र की ज़रूरत नहीं है। जब लोकतंत्र की ज़रूरत पड़ेगी तो उसकी लाश तो है।

© रमेश सैनी , जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * चालान सज्जनता का * – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

चालान सज्जनता का 
हम अपनी मोपेड पर आराम से ( लगभग 20 किलोमीटर की गति से) चले जा रहे थे । मस्तिष्क में विचारों का अंतर्द्वंद्व चल रहा था । तभी अचानक यातायात पुलिस के सिपाही ने सड़क के बीच डंडा लहराते हुए हमारे वाहन को रोक दिया ।
हमने पूछा – “क्या हो गया हवलदार साहब ?”
“देखते नहीं , चेकिंग चल रही है । अपने वाहन को किनारे खड़े कर साहब को कागजात दिखाओ ।”
हमने अच्छे नागरिक के दायित्व का परिचय देते हुए उसे समस्त कागजात दिख दिये । इंस्पेक्टर ने मेरा ऊपर से नीचे तक  मुआयना किया और मुझे घूरते हुए मेरे कागजात को उलट पलट कर देखा तथा गुस्से में बोला – “साला बहुत ईमानदार बनता है , पूरे कागजात लेकर चल रहा है , तुझे अभी देखता हूँ । यहां किनारे खड़े हो जाओ , पहले इन चार  पांच ग्राहकों को निबटा दूं ।”
हमने देखा कि अन्य लोगों ने इंसपेक्टर को वाहन के कागजात दिखाने की जगह अपनी गाड़ी की हैसियत मुताबिक सौ रुपये , दो सौ रुपये दिये और वाहन चालू कर चलते बने ।
हम आश्चर्य से खड़े देख रहे थे । यातायात हवलदार गजब का मनोवैज्ञानिक लग रहा था । वह केवल उन्हीं लोगों को रोक रहा था  जिनसे आसानी से रुपये प्राप्त हो सकते थे । मेरे देखते – देखते असामाजिक तत्व टाइप के व्यक्ति एक ही वाहन पर 3–3 सवार होकर भी फर्राटे के साथ उसके सामने से निकल रहे थे । वह उन्हें नहीं रोक रहा था । कुरता पायजामा वाले व्यक्ति भी आराम से निकल रहे थे , वह उन्हें सलाम ठोंक रहा था । कालेज के लड़के लड़कियां भी  मुंह पर कपड़ा बांधे हवलदार को  चिढाते हुए निकल रहे थे । इनकी आड़ में मुंह पर कपड़ा बांधे अपराधी तत्व वही निकल गये होंगे । उन्हें तो ये लोग वैसे भी नहीं रोकते, हां उनको पकड़ने के नाम पर नाकाबंदी कर सामान्य जन को अवश्य परेशान करते हैं ।
वह हवलदार केवल धीमी गति से यातायात के नियमों का पालन करते चल रहे सज्जन व्यक्तियों को ही रोक रहा था । वहीं इंस्पेक्टर उन व्यक्तियों के वाहन जब्त करने की धमकी देकर जबरन उनसे रुपये वसूल रहा था ।
हमनें एक व्यक्ति से पूछा — “जब आपके पास वाहन के समस्त कागजात हैं तो आपने रुपये क्यों दिये ?”
“अरे कौन इनके चक्कर में फंसे, सौ रुपये देकर आगे बढ़ो ।”  तभी इंस्पेक्टर ने मेरी ओर मुखातिब होकर कहा — “क्यों बे बड़ा पत्रकार बन रहा है , उससे क्या इंटरव्यू ले रहा था ?”
“कुछ नहीं यूं ही ——— “
“यूं ही के बच्चे, कागजात पूरे हैं तो क्या तू समझता है कि बच जावेगा । मेरे चंगुल से आज तक कोई नहीं बच कर गया है । —— कहते हुए उसने मेरी मोपेड का आगे से पीछे तक निरीक्षण करना शुरू किया ।  लाइट क्यों नहीं जल रही ?
“अभी अंधेरा नहीं हुआ साहब, इसीलिए लाइट नहीं जलाई । वैसे मेरी गाड़ी की आगे पीछे दोनों की लाइट बराबर जलती है । इंडिकेटर भी दोनों ठीक हैं । गाड़ी का बीमा भी है और ——- “
Oओ”बस बस ज्यादा बात नहीं , हम स्वयं चेक कर लेंगे । वाहन का निरीक्षण करते करते अचानक उसके चेहरे पर चमक आ गई और उसने मुझे घूरते हुए कहा — ये नम्बर प्लेट पर क्या लिखा है ?”
“नम्बर प्लेट पर नम्बर ही लिखे हैं  और क्या लिखा होगा ।”
“ये नम्बर किस भाषा में लिखे हैं ? “
     ‘
“जी , हम हिंदी के पक्षधर हैं अतः नम्बर प्लेट में हिंदी में शब्द और अंक लिखे हैं । म . प्र . 20  च  0420 “
“अबे ये च की अंग्रेजी क्या है? “
“जी,   सी . एच . ।  जैसे के . ए . की हिंदी का ,  एच. ए.  हा , एफ . ए . फ़ा , एम .ए . मा , उसी तरह हमने सी .एच. को च  लिखा है ।”
“हूँ , अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे । बहुत चतुर बनता है चालान कटेगा , जुर्माना लगेगा 500 रुपये । “
हम अब थोड़ा घबरा गए । हमने कहा -“500 रुपये किस बात के ।”
“नम्बर गलत ढंग से लिखने के । तुम किसी को टक्कर मारकर भागोगे तो तुम्हारे वाहन का नम्बर कोई भी यातायात का सिपाही आसानी से नहीं पढ़ पावेगा । सीधी सादी अंग्रेजी में नम्बर क्यों नहीं लिखे  और ये 420 नम्बर के अलावा तुम्हें और कोई नम्बर नहीं मिला ? “
“इंस्पेक्टर साहब , जब हम आर . टी . ओ . ऑफिस गये थे  तब वहां पर हमें बताया गया कि कुछ विशेष नम्बर लेने पर अतिरिक्त रुपये लगेंगे , जैसे 001 , तीन इक्के 111, सात सौ छियासी 786 , आदि आदि , तब हमबेन उनसे कह दिया था कि हम अतिरिक्त रुपये नहीं दे सकेंगे  । अतः जो नम्बर कोई न ले वह मुझे दे देना । सो उन्होंने मुझे यह नम्बर दे दिया । अब आप लोगों का रोज का ही यह काम है कि सज्जन व्यक्ति को चोर साबित करें —— “
“बस बस अपना भाषण अपने पास रखो और निकालो पांच सौ रुपये ।”
बहुत देर तक बहस बाजी चलती रही, आखिरकार सौदा 100 रुपये में तय हो गया  । मुझे लगा सज्जनता का चालान कट रहा है । में 100 रुपये देते हुए सोच रहा था कि  घन्टा भर समय व्यर्थ नष्ट किया , इससे तो अच्छा था कि पहले ही बिना बहस किये रुपये देकर निकल जाते । इनसे पार पाना मुश्किल ही है ।
हम आगे बढ़ गये थे, लेकिन  मस्तिष्क में विचारों  का अंतर्द्वंद्व तीव्र हो गया था । रह रह कर अनेक प्रश्न मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे – क्या हमेशा ही सज्जनता की हार होती रहेगी ? गलत को प्रश्रय और सही को सजा मिलती रहेगी ?
© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,म .प्र . 482002

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व्यंग्य
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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – * उधार प्रेम का बंधन है * – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

उधार प्रेम का बंधन है

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  व्यंग्य – “उधार प्रेम का बंधन है”।)

आज रामलाल की दूकान पर पान खाने पहुँच गया। पान खाकर पैसे देने लगा तो उन्होंने नोट देखकर कहा – भैया छुट्टे नहीं हैं। तब मैंने कहा – कल ले लेना। तब नई-नई चिपकी सूक्ति की ओर इशारा किया जिसमें लिखा था – उधार प्रेम की कैंची है। दूसरी ओर इशारा किया, वहाँ लिखा था – आज नगद कल उधार। बस मेरा भेजा उखड़ गया – क्या तमाशा है, यह सब गलत है, इस संबंध में भ्रम फैला रहे हो तुम। मैंने कहा तो यह सुनकर वह मुस्करा दिया। उसकी मुस्कराहट में व्यंग्य छिपा था, जो मुझे अंदर तक भेद गया। अब वक़्त आ गया है कि उन्हें एक लम्बा डोज़् पिलाऊं। वैसे उनकी आदत है साल-छः महीने में एक लम्बे डोज़् की। तभी वे काफी समय तक ठीक रहते हैं।

रामलाल जी आप गलतफहमी मत पालिए आज उधार का जमाना  है – उधार बिन सब सून। उधार प्रेम का बंधन है। उधार से प्रेम के रिश्ते बनते हैं और लम्बे चलते हैं। नहीं चलते हैं तो चलाना पड़ता है। उधार ऐसा माध्यम है जिसमें दोनों पक्षों को प्रेम सम्बंध बनाए रखना पड़ता है। इससे ऐसी संभावना बलवती रहती है कि सम्बंध बने रहेंगे। ऐसे सम्बंध में हर रंग और स्वाद मौजूद रहता है। आप उधार ले लो, उधार देने वाला आपकी पूरा ध्यान और खोज-ख़बर रखने लगता है। वह समय-समय पर आपको फोन करता है। कभी-कभी आपके घर भी आ जाता है, यह पता लगाने के लिए आप ठीक-ठाक तो हैं न…। आप ठीक रहेंगे तो उधार भी चुका ही देंगे। यहाँ वह याचक सा हो जाता है। अपने पैसे की सलामती के लिए वह भगवान से दुआ मांगता है कि आप स्वस्थ और प्रसन्न रहें। प्रसन्नता का निर्णय उधार देने वाला करता है। आप बीमार हैं तो आपको इलाज के लिए पैसा दे देता है ताकि आप ठाक हो जाएं। वरना उसकी उधारी…? पहले उधारी शर्म की बात मानी जाती थी। मगर आज वही शान की बात है – कि देखो हमारी औकात इतनी है, कि लोग हमें उधार देने खड़े रहते हैं।

मान लीजिए कि उधार अब एक फैशन हो गया है। आपके पास इतना पैसा है कि आपका काम आसानी से चल सकता है। फिर भी आप उधार लेते हैं। टी.व्ही., फ्रिज, सिलाई मशीन, मिक्सी, मोबाइल, प्रेशर कुकर, माइक्रोवेव आदि अनेक चीज़् बाजार में हैं जो आपके घर आने को उतावली हैं। बस आप अपनी इच्छा व्यक्त कीजिए, एक-एक कर वे घर आने लगेंगी। इज्जत का फालूदा न निकले इसलिए पहले लोग उधार छिपाते थे। पर इसके उलट अब प्रचार करते हैं कि उन्होंने मकान, गाड़ी या किसी अन्य चीज़् – जो उनका सम्मान बढ़़ाती है – के लिए लोन लिया है। मतलब यह कि घर में जो महँगी नई चीज़् है वह लोन की। अब यह बताना पड़ता है कि कौन सी चीज़् बिना लोन के खरीदी गई है। जो लोग लोन नहीं लेते उन्हें पिछड़ा समझा जाता है। और जो पिछड़ा नहीं दिखना चाहते या कहलाना चाहते वे लोन लेकर कुछ ने कुछ खरीदते ज़रूर हैं।

उधार विकास की कुंजी है।’ इसके बिना विकास रूपी ताला खुल नहीं सकता। उधार से आप सम्पन्न हो जाते हैं। उधार से आपके पास हर चीज़् पलक झपकते आ सकती है। विकास की गति तीव्र हो जाती है। बस इशारा करना पड़ता है। उधार का बंधन ऐसा अटूट है कि आदमी उसमें जकड़ जाता है। उधार या कहें लोन के लिए एक बात और निहायत ज़रूरी है… कि आप उधार लो और भूल जाओ… वरना आप हर पल तनाव में रहोगे। यह काम अगले का है कि वह आपका ख़्याल रखे। मतलब ‘टेंशन लेने का नहीं देने का…।’ अपन यह कह सकते हैं कि अधार टेंशन मुक्त जीवन का अवसर देता है। बस, आपमें उधार लेने का टेलेण्ट होना चाहिए कि आप अवसर का लाभ उठा सकें। जो लोग उधार लेकर टेंशन में रहते हैं उनके लिए ‘बेवकूफ’ से अच्छा शब्द किसी कोश में नहीं।

उधार की महिमा अपरम्पार है।’ जिसने इस सूक्ति वाक्य को समझ लिया उसका इहलोक तो संवर ही गया, परलोक भी सुधर जाता है। आगे आने वाली पीढ़ियाँ आपको याद कर इस रास्ते पर आत्मविश्वास से विकास रथ पर सवार हो आगे बढ़ती जाती हैं।

यह संसार विचित्र है। यहाँ उधार देने वालों की कतार लगी रहती है। आप एक से उधार मांगते हो और कई लोग कतार तोड़ आप पर झपट्टा मारने के दौड़ पड़ते हैं। इसलिए उधार लेने वालों के आजकल भाव बढ़े हुए हैं। उधार देने वाले से उधार लेने वाले अब बड़े माने जाने लगे हैं।

उधार लेने और देने से चरित्रगत परिवर्तन भी आ जाते हैं। ऐसे लोग सामान्य धारा से अलग दिखते हैं। देने वाले के चेहरे पर आत्मविश्वास टपकता-टपकता सा दिखाई देता है। चेहरे पर कठोरता आ जाती है। रहम का भाव केवल उधार देते वक़्त दिखाता है। उसकी भाषा विकसित हो जाती है। माषा में माँ-बहन से सम्बंधित मृदु वचन धारा प्रवाह निकलने लगते हैं। उसकी सहनशक्ति विकसित हो जाती है। कज़र्दाता चाहता है कि उसे ब्याज मिलता रहे। मूलधन न भी मिले तो चलेगा। वह उपदेशक हो जाता है। साधुओं के बाद वही अर्थतंत्र और बाजार तंत्र की व्यवस्था को समझता समझाता है। एक सिद्ध पुरुष की तरह उसे अपने ऊपर पैसा खर्चना अपमान लगता है। सिर्फ उधार लेने वाले से पैसा खर्च करवाना अपना उसे धर्म प्रतीत होता है।

इसी तरह उधार लेने वाले के चरित्र में भी आमूल परिवर्तन आ जाता है। उसमें  माँ-बहन से सम्बंधित वचन सुनने और सहने की क्षमता बढ़ जाती है। कभी-कभार एकाध हाथ भी सह लेता है। वह पैसे की महत्ता को समझने लगता है। उसे पैसे लौटाने की अपेक्षा लटकाने में अधिक विश्वास रहता है। वह छुपा-छुपी के खेल में भी माहिर हो जाता है, बहाने बनाना सीख जाता है। समय आने पर बहानों का, वह रक्षा कवच की तरह भलीभाँति उपयोग करने लगता है। उसमें एक कला और विकसित हो जाती है। वह टोपी बदलना सीख कर अपनी टोपी दूसरे, तीसरे को पहनाने की कुशलता हासिल कर लेता है। यह अद्भुत कला अर्थतंत्र में जादुई महत्व रखती है। और उधार लेने की कला से ही यह गुण पनपता विकसित होता है।

बड़े-बड़े लोग और उनकी कम्पनियाँ उधार लेना अपनी शान समझती हैं। खुद का पैसा लगाना उन्हें बेवकूफी लगती है। वह कम्पनी, कारख़ाना, प्रतिष्ठान खोलने के लिए सरकार या बैंक को चूना लगाते हैं। उनको लगता है पराये चूने से पान का रंग और स्वाद बढ़ जाता है। ‘‘हर्रा लगे न फिटकरी और रंग चोखा।’’ बिन पैसे का खेल और उसका मजा। मतलब  बाय वन  गेट वन फ्री। मतलब धंधा चल कर रफ़्तार पकड़ गया तो पैसा चुका दिया और साख बनाकर दुगना उधार ले लिया और न चला तो कुण्लली मार कर चिंता का त्याग कर चुपचाप बैठ जाओ। देश में न बैठ सको तो विदेश में आसन जमा लो। चिन्ता फिर सरकार करेगी या बैंक। बस कोशिश यह होनी चाहिए कि उधार इतना हो कि सरकार या बैंक वसूलते वसूलते थक जाएँ, पर वसूल न कर पायें। प्रतिभाशालियों के लिए यह बहुत आसान है। इसमें शान तो बनती ही है मुफ़्त में प्रचार भी मिलता रहता है। इसमें राजयोग और तंत्रयोग का सहयोग मिलना निहायत ज़्ारूरी है अन्यथा उधार योजना में आपकी सफलता संदेह से परे नहीं।

अभी कुछ समय पहले की बात है। एक उद्योगपति शराब पिलाकर पहले दूसरों को हवा में उड़ाते रहे। फिर उन्होंने सोचा कि ख़ुद ही क्यों न उड़ा जाये। सरकार, बैंक और अन्य शासकीय संस्थाओं की मदद से वे हवा में उड़ने लगे। फिर उन्होंने इतनी ऊंचाई पर उड़ान भरी कि सबके होश उड़ गये। मदद देने वाले और उसमें हाथ बंटाने वालों के तो हाथ-पाँव ही फूल गए। वे उड़ते गये… ऊंचे और ऊंचे… जब उन्हें समझ में आया कि अब ज़्यादा उड़ना ख़तरनाक होगा तो अपनी लेंडिंग विदेश में कर ली। अब जिम्मेदार लोग उनकी लेंडिंग देश में कराने के प्रयास में जी जान से लगे हैं। अब वह बड़ा उधारची है। यह सब उधार का कमाल है।

अब यही लफड़ा देश के मामले में है। देश का विकास करना है तो उधार लो भी और दो भी। उधार नहीं दोगे तो कोई माल को नकद नहीं खरीदेगा और माल डंप होगा। उधार और विकास का चोली-दामन का सम्बंध है। दोनों एक दूसरे के लिए बने हैं। एक दूसरे के बिना दोनों असहाय।

मुझे रोकते हुए रामलाल ने कहा – भाई साहब बस करो अब। मैं पूरी तरह समझ गया। मुझे माफ कर दो। आपसे पैसा मांगकर हमने गल्ती कर दी। आप अब उधार ही रहने दें। रामलाल ने खड़े होकर भाई साब से माफी मांगने लगे और भाई जी पीक को दूकान के बाजू में थूककर आगे बढ़ गये।

© रमेश सैनी , जबलपुर 

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