श्रीमती समीक्षा तैलंग
☆ खबरों से बेखबर मीडिया ☆ श्रीमती समीक्षा तैलंग ☆
काकी कहिन – खबरों से बेखबर मीडिया
आज सुबह टहलते हुए पुराने साथी पत्रकार टकरा गए। अब टकराहट की आवाज तो होनी ही थी। जैसे अभी पाक पर हमले की आवाज पूरी दुनिया में गूँजी। रिटायर हो गए तो पंचायत सूझने लगी अगले को।
कहने लगे कि “आजकल मीडिया में खबरों के अलावा सब आने लगा है”।
हमने कहा “जे बात तो सही है। खबरची बचे नहीं तो खबरें लाएगा कौन?”
बोले “हमारे समय में देखो कैसे ढूँढ-ढूँढकर खबरें लाते थे। समझो कि तीनों तल एक कर देते थे”।
“हमने कहा कि वही आदत तुम्हें खा गई”।
“ कैसे?”
“तुम क्या हमें इतने मासूम समझते हो?”
“नहीं”।
“बाकी हमें हकीकत सारी पता है”।
“कैसी हकीकत? आजकल जिसे देखो वो हकीकत की खोज में है। सामने जो है उसे झूठ ही मानता है”।
“तुम्हें याद है! तुमने एक फोटू खेंची थी। हम मना करते रहे कि किसी की निजी जिंदगी में दखल मत दो मगर तुम नहीं माने। हमें पता है कि तुम्हारी दुकान क्यों तोड़ी गई!”
“फोटो का दुकान से क्या लेना-देना?”
“या तो तुम हमें मूरख समझते हो या सच्चाई छुपा रहे हो। ट्रम्प की सच्चाई नहीं छुपी तो तुम कौन से तोपची हो?”
“मैंने तो ढेरों फ़ोटो ली। तुम किसकी बात कर रही हो?”
“अच्छा तो सारी फ़ोटो लेने के बाद दुकान टूटी? ऐसा है कि अतिक्रमण वाला क्षेत्र वही माना जाता है जब उसके ब्लैक होल को लक्ष्मी से भरा न जाए। और तुमने तो उनकी बिटिया की उसके दोस्त के साथ वाली फोटो ली थी। उस फोटो की कभी खबर बनी?”
“नहीं”।
“कभी विचार नहीं किया कि खबर क्यों नहीं बनी? ऐसे ब्लैक होल हर जगह हैं। वहाँ तुम्हारे ऊपरवालों ने ब्लैक मेल करके होल भरवा लिए। और यहाँ तुम अपनी हेकड़ी में रहे कि कौन हाथ लगाएगा! उसके बाद तुम कहीं नहीं टिक पाए”।
“तुम्हें सब पता है! कहाँ से पकड़ लेती हो सब!”
“छोड़ो वो सब! अब देखो बेहिसाब बारिश हो रही है। सोचा कि टीवी पर इसकी खबर देख लें। पहले नेशनल चैनल लगाए तो वो पाक-पाक चिल्ला रहे थे। आंचलिक लगाए तो वो भी पाक-पाक चिल्लाकर बागी हुए जा रहे थे। इस पाक की लड़ाई में हमारे देश की प्राचीन संस्कृतमय पाककला पर भी कुछ लोगों की नापाक दृष्टि पहुँच गई। ये देखने के बाद आश्चर्य की सीमा भी खत्म हो गई थी कि अभी तक हमारा मीडिया पानी में डूबा कैसे नहीं? पता चला कि अभी तक वो पाक में ही डूबा है”।
“सही है। भूकंप आने पर यही मीडिया काँपने लगता है। कोई मर रहा हो तब ये वहीं जाकर उस मरते आदमी से बाइट लेकर आता है। उनके घरवालों के लिए जैसे ये स्नेक बाइट हो!”
“आजकल नेशनल पर फलाने शहर की गली नंबर एक का छुरा भोंकने वाला केस दिखाया जाता है। और हवाई जहाज के टर्बुलेंस से जहाज के घायल होने की खबर खबरों के टर्ब्युलेंस में फंस जाती है। खबर पढ़ने के लिए अगली सुबह का इंतजार करना पड़ता है। कब अखबार आए और पढ़ने मिले”।
“अखबार में सही खबर मिल जाती है? वहाँ भी विचारधारा हावी रहती है। कोई अखबार किसी पार्टी की तो कोई किसी पार्टी की जयकारा करता है”।
“देखो! जयकारा एक तरह का जयघोष होता है। विचारधारा हावी होती रहे मगर आमजन की खबरें तो मिल ही जाती हैं। देश के इतने बड़े वैज्ञानिक हमारे बीच से चल बसे। इधर मीडिया कुंभकर्ण की नींद सो रहा है। एक स्ट्रिप नहीं चलायी। इतना बड़ा नक्सली मारा गया। कोई खबर नहीं चली। गधा मजदूरी इसी को कहते होंगे! अब सारी मुख्य खबरें सोशल मीडिया से मिलती हैं।”
“कैसे चलायेंगे! आजकल मीडिया का अर्थ केवल राजनीतिक खबरें बचा है। उसमें भी आधी झूठी निकल आती हैं। बाकी रही-सही कसर फर्जी डीबेट पूरी कर देती है। इससे अच्छी चर्चा हमारे घर के ओटलों पर हो जाया करती थी। देश-दुनिया की खबरों के साथ पास-पड़ौस की भी मालूमात होती थी। अब तो हाल ये है कि चौबीस घंटे चलने वाली न्यूज के बीच भी हम बेखबर हैं। सतत न्यूज़ का दबाव असली न्यूज़ को ही दबा देता है”।
“हमारी पड़ौसन आजकल इन एंकरों की तरह चिल्लाने लगी है। पता चला पूरा टाइम न्यूज़ चैनल देखने से उसके दिमाग पर असर हो गया है। इंजक्शन लग रहे हैं। एक वो जमाना था साढ़े आठ वाला। आजकल के लोग देख लें तो शांति के कारण उनके कानों से ज्वालामुखी फटने लगेगा। उन्हें शोर की आदत जो पड़ी है। इस शोर में सच दब जाता है। कौन बताए इन मीडिया वालों को कि खबरों का एक्सीडेंट करके उन्हें पेश करने से एक्स-रे साफ नहीं आता।
(स्वदेश – साप्ताहिक सप्तक – 25 मई 2025)
© श्रीमती समीक्षा तैलंग
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈