श्री जयपाल
(ई- अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध लेखक श्री जयपाल जी का स्वागत है। आप पंजाब शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। आपका एक कविता संग्रह ‘दरवाजों के बाहर‘ आधार प्रकाशन से प्रकाशित। (इस संग्रह पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में शोधकार्य), कुछ कविताएं पंजाबी में अनुदित (पुस्तक रूप में प्रकाशित)।पत्र-पत्रिकाओं में लगातार रचनाएं प्रकाशित। देस-हरियाणा पत्रिका (कुरुक्षेत्र) के सह संपादक । प्रदेशाध्यक्ष- जनवादी लेखक संघ हरियाणा।)
ई-अभिव्यक्ति में 10 जून को “मोची (आत्मकथा)” शीर्षक से श्री जयपाल जी द्वारा पुस्तक समीक्षा प्रकाशित की गई थी।
यह समीक्षा आप निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं। 👇
हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “मोची (आत्मकथा)” – लेखक… श्री द्वारका भारती ☆ चर्चा – श्री जयपाल ☆
इस संदर्भ में हमें हमारे प्रबुद्ध एवं विद्वान पाठक श्री एस पी भाटिया जी, (वरिष्ठ पत्रकार, अजीत समाचार) द्वारा एक विचारणीय प्रतिक्रिया प्राप्त हुई है, जिसे हम अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा कर रहे हैं। यह प्रतिक्रिया अपने आप में एक प्रतिक्रियात्मक आलेख है।
☆ मोची का ठीहा: जयपाल जी की दृष्टि में दलित चेतना और आत्म-संघर्ष का बौद्धिक विमर्श – श्री एस पी भाटिया ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक — मोची (आत्मकथा)
लेखक — श्री द्वारका भारती
पृष्ठ संख्या – 120
कीमत – 100 रुपए (पेपर-बैक)
प्रकाशक – नवचेतना पब्लिकेशन जालंधर (पंजाब)
संपर्क –90415-23025(प्रकाशक), –83603-03781-(लेखक)
एक मोची की दुकान से उठी हुई यह आत्मकथा केवल चमड़े की गंध नहीं, बल्कि विचारों की तपिश और अनुभवों की ईमानदार आवाज़ है। लेखक द्वारका भारती की रचना “मोची (आत्मकथा)” पर जयपाल की टिप्पणी साहित्यिक विवेक और सामाजिक विवेचना की एक उत्कृष्ट मिसाल है। वे मात्र आलोचक नहीं हैं, एक संवेदनशील द्रष्टा हैं—जो शब्दों के पीछे छिपी पीड़ा को पढ़ना जानते हैं, और तथाकथित नीच कहे जाने वाले जीवन के उच्चतम नैतिक आयामों को पहचानते हैं।
जयपाल जी की कलम जब भारती की आत्मकथा पर चलती है, तो वह न केवल समाज के मौन को तोड़ती है, बल्कि वह हमारे चेतन अवचेतन को झिंझोड़ती है। जिस आत्मकथा को ‘चमड़े की सड़ांध में जन्म और मृत्यु’ का प्रतीक कहा गया, उसी में जयपाल ने दर्शन, विद्रोह और मानवीय गरिमा के सबसे पवित्र अंश खोज निकाले।
वह बताते हैं कि कैसे द्वारका भारती की दुकान महज़ एक ‘ठीहा’ नहीं, बल्कि एक बौद्धिक केंद्र बन जाती है, जहाँ बैठकर लेखक रजनीश, अंबेडकर, मार्क्स, राहुल सांकृत्यायन को पढ़ता है और इतिहास, धर्म, समाज, राजनीति पर विवेकपूर्ण दृष्टिकोण विकसित करता है। जयपाल जी इस स्थान को ‘मोची का ठीहा’ कहकर जैसे एक प्रतीक रच देते हैं—जहाँ श्रम और शास्त्र, अपमान और आत्मगौरव, दोनों का समागम होता है।
जयपाल जी की दृष्टि इस आत्मकथा को न केवल सामाजिक आलोचना का विषय बनाती है, बल्कि इसे एक ऐसी धारा में परिवर्तित करती है, जिसमें करुणा, विद्रोह और आत्म-गौरव की त्रिवेणी बहती है। वे कहते हैं—यह आत्मकथा एक बहती नदी है, जो दलित जीवन की संघर्षगाथा को इतने स्वाभाविक, प्रवाहमय और भावात्मक रूप में प्रस्तुत करती है कि हर पाठक की आत्मा तक भीग जाती है।
उनकी यह टिप्पणी केवल समीक्षा नहीं, बल्कि एक सृजन का पुनः-सृजन है, जिसमें एक श्रमिक की पीड़ा, एक लेखक की साधना और एक विचारक की दृष्टि—तीनों एकाकार हो जाते हैं। जयपाल जी ने जिस गहनता, संतुलन और गंभीर सौंदर्य के साथ इस कृति को विश्लेषित किया है, वह आज के समय में विचारधारा और संवेदना के बीच एक दुर्लभ सेतु है।
– श्री एस. पी. भाटिया
वरिष्ठ पत्रकार,अजीत समाचार।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈