श्री जयपाल
(ई- अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध लेखक श्री जयपाल जी का स्वागत है। आप पंजाब शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। आपका एक कविता संग्रह ‘दरवाजों के बाहर‘ आधार प्रकाशन से प्रकाशित। (इस संग्रह पर कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र में शोधकार्य), कुछ कविताएं पंजाबी में अनुदित (पुस्तक रूप में प्रकाशित)।पत्र-पत्रिकाओं में लगातार रचनाएं प्रकाशित। देस-हरियाणा पत्रिका (कुरुक्षेत्र) के सह संपादक । प्रदेशाध्यक्ष- जनवादी लेखक संघ हरियाणा।
आज प्रस्तुत है श्री द्वारका भारती जी द्वारा लिखित पुस्तक “मोची (आत्मकथा)” पर चर्चा।
☆ “मोची (आत्मकथा)” – लेखक… श्री द्वारका भारती ☆ चर्चा – श्री जयपाल ☆
पुस्तक चर्चा
पुस्तक — मोची (आत्मकथा)
लेखक — श्री द्वारका भारती
पृष्ठ संख्या – 120
कीमत – 100 रुपए (पेपर-बैक)
प्रकाशक – नवचेतना पब्लिकेशन जालंधर (पंजाब)
संपर्क –90415-23025(प्रकाशक), –83603-03781-(लेखक)
☆ मोची का ठीहा – श्री जयपाल ☆
‘मोची ’ 75 वर्षीय लेखक द्वारका भारती की आत्मकथा है जिसे उसने ‘एक मोची का अदबी जिंदगीनामा’ नाम दिया है। हिंदी साहित्य में शायद ही कोई ऐसी पुस्तक हो जिसका शीर्षक मोची हो। मोची शब्द की त्रासदी के बार में वे अपने आत्मकथ्य में लिखते हैं—‘उस व्यक्ति की क्या आत्मकथा हो सकती है जिसके साथ मोची शब्द चस्पां हो। इस देश में मोची होने का अर्थ है—‘चमड़े की सडांध में पैदा होना और उसी सडांध में मर जाना–उसके कठोर हाथ, काले पड़े नाखून उसके जीवन की कहानी बयान करने को बहुत हैं।‘ श्री द्वारका भारती ने यह आत्मकथा अपनी दुकान (टांडा रोड़, सुभाष नगर होशियारपुर-पंजाब) पर बैठकर लिखी है। यहीं पर बैठकर उन्होंने आचार्य रजनीश, राहुल सांकृत्यायन, रोमिला थापर, देवीप्रसाद चटोपाध्याय, गोर्की, अंबेडकर, मार्क्स, लेनिन, बुद्ध आदि का अध्ययन किया..साहित्य, इतिहास, समाज, धर्म, दर्शन आदि को आलोचनात्मक ढंग से जाना। आज भी वे यहीं अपनी मोची की दुकान पर, जिसे वे ‘मोची का ठीहा’ कहते हैं, अपना काम करते हुए मिल जाते हैं। रचनाकार और पाठक वहीं पर आकर उनसे संवाद करते हैं। केवल दसवीं कक्षा तक ही पढ़ सके इस लेखक की रचनाएं देश की बड़ी पत्र-पत्रिकाओं जैसे जनसत्ता, नवां जमाना, पंजाबी ट्रिब्यून, जनतक-लहर, अभियान, संडे मेल, साप्ताहिक ब्लिट्ज, युद्धरत आम-आदमी, धर्मयुग आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। दलित साहित्य पर विचार-विमर्श के लिए उन्हे साहित्यिक सेमिनारों में आमंत्रित किया जाता है।
उनकी रचनाओं पर पीएचडी (पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़) के लिए शोध भी हो चुका है और उनकी एक कविता ‘आज का एकलव्य’-‘इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय दिल्ली’ की एम. ए. हिंदी के पाठ्यक्रम में संकलितहै। मोची आत्मकथा के अतिरिक्त उनकी चार अन्य पुस्तकें भी हैं। हालांकि लेखक को चौंकीदार, बिजली विभाग में लाइनमैन, बगदाद(इराक)में मजदूरी जैसे काम करने पड़े। लेकिन उन्होने हौसला नहीं छोड़ा। आत्मविश्वास को कम नहीं होने दिया। निरंतर वे जातीय भेदभाव से संघर्ष करते रहे और इसके खिलाफ लिखते भी रहे
अपने ससुर के बारे में वे लिखते हैं कि एक बार गुस्से में आकर उनके ससुर ने यहां तक कह दिया था—‘ओए तूं है की..? इक जुत्तियां गंडन वाला इक मोची..तेरी दुकान च जिन्नियां जुत्तियां टंगियां..उन्नी तां मेरे इक कनाल च कणक हो जांदी आ..’ परिजनों और सगे-संबंधियों का हमेशा यह दबाव रहा कि वे इस काम को छोड़कर कोई दूसरा काम कर लें।
वे लिखते हैं…आज भी बहुत से लोग मेरी दुकान पर आते हैं। कुछ की नजरों में मैं एक असहाय-सा नीचे जमीन पर बैठ कर काम करने वाला मोची हूँ, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो कि मुझसे इतनी आत्मीयता से मिलते हैं कि मेरे मोची होने का एहसास मानो कहीं दफन हो जाता है। जो लोग यह जानते हैं कि मैं इस काम के साथ- साथ कलम भी पकड़ता हूँ, तो उनसे मुझे बहुत सम्मान भी मिलता है, लेकिन इसके साथ ही मुझे यह सोचकर दिमाग में खलबली भी होती है कि यही सम्मान सिर्फ मेरे काम को लेकर भी क्यों नहीं मिलता। ठीक उसी तरह जिस तरह सोने के आभूषण बनाने वाले सुनार को मिलता है…
..मेरे बहुत से साहित्यिक मित्र मुझे आज का रैदास भी कहते हैं। क्योंकि मैं भी पत्थर की सिल पर संत रैदास की भाँति जूतियां गढ़ता हूं। मैं आज तक भी यह नहीं जान पाया हूँ कि मेरे दोस्त मुझे ऐसा व्यंग्य से कहते हैं या अपनत्व जताने के लिए। सोचता हूँ क्या यह संत भी मेरी तरह निरीश्वरवादी थे, बिल्कुल नहीं…संत रविदास की वाणी हमें बताती है कि वह घोर ईश्वरवादी थे या ईश्वर की लीला पर विश्वास करते थे और मेरे विश्वास संत रविदास से एक दम भिन्न है। संत रविदास के नाम लेवा उनके धर्म-स्थान बनाते हैं और वहाँ वे सब कुछ वही करते है, जो दूसरे धर्मों वाले करते है। इन अर्थों में … मैं इस समाज का बगावती हूँ और अंत तक रहूंगा भी..।
मार्क्सवाद पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं–आप उसकी दशा का अनुमान लगाएं जो की निर्धन भी है, भूमिहीन भी है और सबसे बड़ा सितम यह कि वह दलित भी है। जाति के तौर पर अब यहाँ अंतर यह है कि मार्क्सवादी सिर्फ उसको एक भूमिहीन या श्रमिकवर्ग के तौर पर देखते हैं लेकिन एक दलित के तौर पर नहीं। ‘
वे मार्क्सवादी दलित कवि मदन वीरा के बारे में कहते हैं– ‘उनकी कविताओं में दलित जीवन का या दलित के साथ होते व्यवहार का वर्णन तो कहीं-कहीं होता है लेकिन उसके लिए प्रयोग होने वाले बिम्ब प्रतिबिंब मार्क्सी आंगन से चुनते हैं। एक दलित का झाड़ू या चमड़ा छीलने वाला औजार उसकी कलम से काफी दूर पड़ा दिखाई देता है। वह एक दलित की दुर्दशा को बखान तो करता है लेकिन एक आम मजदूर या शोषित व्यक्ति की तरह ही। ‘ उसके बावजूद भी मदन वीरा एक मंज़ा हुआ कवि है।
साहित्य में दलित साहित्य की अवधारणा का वे खुलकर समर्थन करते हैं। द्वारका भारती को पंजाब के कुछ नामी साहित्यकारों– रमेश सिद्धु, सोहनलाल शास्त्री, सुरेंद्र शर्मा अज्ञात, ज्ञानसिंह बल, महाशय कृष्ण कुमार बोधि, लाहौरी राम बाली, जनतक-लहर के संपादक जरनैल सिंह के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के लेखक राजेन्द्र यादव, रमणिका गुप्ता, मोहनदास नेमिशराय, विमल थोराट, डाॅ धर्मवीर, ओम प्रकाश वाल्मीकि, बजरंग बिहारी तिवारी, तुलसीराम, कंवल भारती श्यौराजसिंह बेचैन आदि का भी सहयोग और साथ मिला। आज पंजाब के दलित साहित्य में उन्हें एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। *
उनकी आत्मकथा के कुल नौ अध्याय हैं। कुल पृष्ठ 120 औेर मुल्य 100 रुपए। आत्मकथा में साहित्यिक प्रवाह है। दलित जीवन के दर्द और संघर्ष को बहुत ईमानदारी और खुद्दारी से अभिव्यक्ति प्रदान करती यह पुस्तक विचारोत्तेजक तो है ही, मानवीय संवेदनाओं को जगाने वाली एक बहती नदी भी।
चर्चाकार… श्री जयपाल
संपर्क- 112-ए /न्यू प्रताप नगर, अम्बाला शहर( हरियाणा)-134007 – फोन-94666108
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈
मोची का ठीहा: मास्टर जयपाल की दृष्टि में दलित चेतना और आत्म-संघर्ष का बौद्धिक विमर्श एक मोची की दुकान से उठी हुई यह आत्मकथा केवल चमड़े की गंध नहीं, बल्कि विचारों की तपिश और अनुभवों की ईमानदार आवाज़ है। लेखक द्वारका भारती की रचना “मोची (आत्मकथा)” पर मास्टर जयपाल की टिप्पणी साहित्यिक विवेक और सामाजिक विवेचना की एक उत्कृष्ट मिसाल है। वे मात्र आलोचक नहीं हैं, एक संवेदनशील द्रष्टा हैं—जो शब्दों के पीछे छिपी पीड़ा को पढ़ना जानते हैं, और तथाकथित नीच कहे जाने वाले जीवन के उच्चतम नैतिक आयामों को पहचानते हैं। जयपाल जी की कलम जब भारती की… Read more »
बहुत ही प्रेरक रचना है।हम सब को पढ़नी चाहिए।
जयपाल जी की समीक्षा या पुस्तक के बारे में जानकारी देना पढ़ने को लालायित करती है।