श्री यशोवर्धन पाठक
(ई-अभिव्यक्ति में हम समय-समय पर साहित्य एवं कला के क्षेत्र में प्रतिष्ठित महान विभूतियों के जीवन से संबन्धित जानकारी अपने प्रबुद्ध पाठकों को देने का प्रयास करते रहते हैं। आज इस संदर्भ में प्रस्तुत है आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध संगीत साधक लोकगंधर्व पं. रुद्रदत दुबे जी की जीवन पर आधारित संस्मरणात्मक आलेख। साहित्य, संस्कृति एवं संगीत को समर्पित गूँज अंतर्राष्ट्रीय कलामंच, जबलपुर द्वारा लोकगंधर्व पं रुद्रदत्त दुबे जीवंत सम्मान स्थापित किया गया है। विगत 25 मई को यह सम्मान दतिया निवासी आकाशवाणी ग्वालियर की सुप्रसिद्ध सुश्री गायिका रजनी अरजरिया जी को प्रदान किया गया है। 💐🙏)
☆ जीवन यात्रा ☆ “सुप्रसिद्ध संगीत साधक लोकगंधर्व पं. रुद्रदत दुबे” ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆
बचपन के हमारे मित्र श्रवण कुमार नामदेव के पूज्य पिता एवं सुप्रसिद्ध सितार वादक श्री राजाराम जी नामदेव जब प्रतिदिन सितार बजाते तो हम लोग बड़े ध्यान से उनके पास बैठकर सितार सुनते और उत्सुकता से उनकी ओर देखा करते। एक दिन मैंने पूछ ही लिया कि सितार का संगीत में क्या मायने होता है। तब उन्होंने कहा कि संगीत को मनमोहक और मधुर बनाने में जैसे तबला, हारमोनियम, बांसुरी, गिटार इत्यादि मददगार बनते हैं वैसे ही सितार वादन की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उन्होंने कहा कि जीवन को मनमोहक बनाने में सितार भी संगीत में जरुरी होता है।
आज जब मैं श्रद्धेय श्री रुद्रदत जी दुबे की संगीत साधना के विषय में कुछ लिखने बैठा हूं तो मुझे मित्रवर श्रवण के पूज्य पिता की बातें रह रह कर याद आ रही हैं और मैं सोच रहा हूं कि उनकी सारगर्भित बातों पर श्री रुद्रदत दुबे जी की संगीत साधना पूरी तरह तरह खरी उतरती है। तभी तो उनकी संगीत साधना के कारण उन्हें राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो ख्याति मिली, उस पर हम सभी गोरवान्वित और हर्षित हैं।संगीत को मनमोहक और लोकप्रिय बनाने में उसके वाद्य यंत्रों का महत्वपूर्ण योगदान होता है और अगर किसी संगीतकार का व्यक्तित्व और कृतित्व ही मनमोहक हो तो उसकी प्रभावशीलता में चार चांद लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही आदरणीय श्री रुद्रदत दुबे जी के साथ भी है। उनकी सादगी, सरलता और व्यवहार की मधुरता किसी भी व्यक्ति के मन को बड़े गहरे तक प्रभावित करती हैं। उनके सितार वादन के जादू और मनमोहक एवं निस्वार्थ बातचीत ने साहित्य, समाज और संगीत के क्षेत्र में उनको जो पहचान दी है वह बहुत कम लोगों को नसीब हो पाती है।
संगीत सृजन के अंतर्गत सुरमोही, रसनू, झपतारी, निरगारी, राजीवसुरा, पूरन अंशी जैसे लोक रागों के सृजन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह करने वाले श्री रुद्रदत दुबे जी का जन्म 20 अप्रैल 1941 को जबलपुर के पाटन क्षेत्र के लुहारी ग्राम में हुआ।जीवन में प्रगति के सोपान गढ़ने की प्रेरणा उन्होंने अपने पूज्य पिता पं. पूरनलाल जी दुबे और पूज्यनीया मातृ श्री श्रीमती फूलमती देवी दुबे से मिली। शिक्षा के क्षेत्र में एम . एक., एम . लिट की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके संगीत प्रभाकर और भाव संगीत विशारद की उपाधि भी अर्जित की।आदरणीय श्री दुबे जी ने संगीत के क्षेत्र में राज्य स्तरीय सम्मान तो प्राप्त किए ही साथ ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मान प्राप्त कर संस्कारधानी को राष्ट्रीय स्तर पर गौरवान्वित किया। राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने राष्ट्रीय लोक कला गौरव सम्मान, कटक, गंर्धव सम्मान पश्चिम बंगाल, नेशनल संगीत महारथी सम्मान, उड़ीसा, राष्ट्रीय लोक कला साधक सम्मान उत्तर प्रदेश, व्रज तेजस्वी सम्मान वृंदावन जैसे सम्मानों से सम्मानित होकर संगीत समाज को गौरवान्वित किया।
श्री रुद्रदत दुबे जी आज अपनी संगीत साधना से राष्ट्रीय ही नहीं वरन् अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिष्ठित हो चुके हैं। संगीत सेवा साधना से प्रभावित होकर उन्हें नेपाल, मलेशिया, इंग्लैंड, थाइलैंड, रुस और अमेरिका जैसे देशों ने भी संगीत गौरव के रुप में अभिनंदित किया है और उन्होंने इन देशों में विभिन्न संगीत आयोजनों में भाग लेकर भारत का गौरव बढ़ाया है। आज हम अंत्यंत गौरवशाली हैं कि जबलपुर का राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व करने वाले श्री दुबे जी की संगीत साधना पर शोध कार्य भी किए जा रहे हैं। दुबे जी ने अनेक मनमोहक और प्रभावी काव्य रचनाएं लिखी हैं और उनकी विभिन्न काव्य कृतियां प्रकाशित होकर हम सबके बीच आ चुकी है। साहित्य जगत में भी अनेक साहित्यिक संस्थाओं उनका सम्मान कर स्वयं अभिनंदित हुई है।आदरणीय श्री रुद्रदत जी दुबे ने साहित्य, संगीत और समाज में अपनी सक्रियता से सभी को प्रेरित और प्रोत्साहित किया है और उनकी ये सराहनीय गतिविधियां राष्ट्र कवि स्व. श्री मैथिलीशरण गुप्त की इन पंक्तियों की सार्थकता सिद्ध करती नजर आती हैं –
कुछ काम करो, कुछ काम करो,
जग में रहकर कुछ नाम करो।
यह जन्म हुआ, किस अर्थ अहो,
समझो जिसमें कुछ व्यर्थ न हो।
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© श्री यशोवर्धन पाठक
पूर्व प्राचार्य, राज्य सहकारी प्रशिक्षण, संस्थान, जबलपुर
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈