डॉ जसप्रीत कौर फ़लक

☆ कविता ☆ श्री रणधीर की मूल पंजाबी सात कविताएँ  ☆  भावानुवाद – डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक 

श्री रणधीर

(भारतीय साहित्य अकादमी, (पंजाबी काव्य) 2023 का युवा कवि पुरस्कार विजेता रणधीर की चर्चित काव्य पुस्तक “ख़त जो लिखने से रह गए” में से चुनिन्दा कविताओं का अनुवाद करते हुए प्रसन्नचित हूँ। उनकी यथार्थ से जुड़ी हुई कविताएँ पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में समर्थ हैं। समाज की कुरीतियों के सामने नये प्रश्न चिन्ह खड़े करती हैं। उनकी कविताएँ देखने में  छोटी हैं किन्तु, उनके भावार्थ का कैनवस बहुत विशाल है। ये प्रेम की अनुभूतियों को नये ढंग से परिभाषित करती हैं। उनकी रचनाओं में से जो जीवन दर्शन की तस्वीर उभरती है उसमें अपनी मर्ज़ी के रंग भरे जा सकते हैं। पंजाबी साहित्य को भविष्य में उनसे बहुत सी उम्मीदें हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह अनुवादित रचनाएँ हिन्दी पाठकों को आनन्दित करेंगी।)

१.  साँचा

होता तो यूँ ही है

एक साँचा होता

एक मनुष्य होता

एक पंछी होता

मोटा-पतला

चलता-फिरता

साँचों के आगे आ बैठता।

 

पर साँचे क्रूर ही होते हैं

उड़ान, क़द, आकार नहीं देखते

लाभ-हानि नहीं झेलते

अपना नाप नहीं बदलते।

 

उड़ान को, परों को

ख़यालों को, ज़रूरतों को, अभाव को

सब कुछ भिक्षा-पात्र में बदल देते हैं

 

मनुष्य ऐसे ही तो नहीं

सीधा चलने लगता

सच-झूठ

पाप-पुण्य कहने लगता

 

होता तो यूँ ही है

बस एक साँचा होता….

 

२. बारिश बनाम कीचड़

खिड़की से बाहर

बारिश हो रही है

 

मैं अपने

कोट और टाई की तरफ़ देखता

डरते-डरते देखता हूँ

बड़े साहब की आँखों की तरफ़

बरसात

जिनके लिए बदबू है

बस कीचड़ और कुछ भी नहीं

 

मेरा मन उड़ कर

बारिश में भीगने को करता है

झुक जाता हूँ

कोट और टाई के बोझ के नीचे

सहम जाता हूँ

बड़े साहब की आँखों में

कीचड़ देख।

३. मैं और वह

अक्सर वह कहता

कि इन्सान के पास

बुद्धि हो

कला हो

महकते फूल हों

जागता आकाश हो

भागता दरिया हो

 

मैं अक्सर महसूस करता

इन्सान के पास

आँख हो

सिर हो

पैर हों

हाथ हों

इन्सान…

सफ़र, दरिया, आकाश, सूरज

स्वयं ही बन जाता।

 

४. प्रेम कविताएं

प्रेम में लिखी कविताएं

प्रेम ही होती हैं

छल-कपट से मुक्त

शोर से दूर

दोष/गुण से परे

चुप-चाप लिखी रहती हैं

पानी के सीने पर

 

एक रात

उतर जाता है आदमी

इस गहरे पानी में

हर खुलते रास्ते को बंद कर

गुम हो जाता है

इसके  गहरे धरातल में

 

आदमी डूब जाता

ऊपर उठ

तैरने लगती हैं कविताएं

निकल जाती हैं

दूर कहीं…

किसी और देश

किसी अनजाने सफ़र पर

 

आदमी को

डूबना ही पड़ता

तांकि तैरती रह सकें हमारे सीने पर

प्रेम  कविताएं।

 

५ . बूँद

मैंने

बारिश की हर बूँद के साथ

महसूस किया

कितने सागरों-दरियाओं को

स्पर्श का अनुभव।

 

६.  तेरे मिलने से पहले

तेरे मिलने से पहले

यह नहीं था

कि हँसता नहीं था

पंछी चहचहाते नहीं थे

दरिया बहते

फूल महकते नहीं थे

या ऋतुओं का आना-जाना नहीं था

यह भी नहीं

कि जीता नहीं था।

 

बस तेरे मिलने से पहले

मैं अर्थहीन था

साँसों से भरा

अहसास से विहीन

फूल की छुअन का अहसास

रंग-ख़ुशबू के नज़दीक ही जानता

पंछियों की बोली की ताल से

बे-ख़बर

इस गाती महकती धुन को रिकॉर्ड करता।

 

जंगलों में भटकता

पेड़ों के बराबर

साँस लेने में असमर्थ

पतंग की उड़ान को

डोर से ही देखता

हाथों की प्यास से अनजान

पानी की मिठास को

जीभ से ही चखता

जी रहा था मैं।

 

तेरे मिलने से पहले

मैं जीवन के इस तरफ़ ही था

तेरा मिलना

कोई दिव्य करिश्मा था

या चमत्कार कोई

जिसने हुनर दिया

इन्सान की हाथों की लकीर से

पार झाँकने का

चुप में मुस्कुराने का

जीवन को बाहों में भर कर

आलिंग्न करने का।

 

वैसे तेरे मिलने से पहले भी

जीता था मैं

मन चाहे रंगों की बात करता

साँस लेता

दूर खड़ा सब कुछ देखता।

 

७. ख़त जो लिखने से रह गए

उन दिनों में

मैं बहुत व्यस्त था

लिख नहीं सका तुझे ख़त

 

कई बार प्रयत्न किया

कोई बोल बोलूँ

शब्द घड़ूँ

पर

शब्द घड़ने की रुत में

पहुँच गया कान छिदवाने

“गोरखनाथ” के टीले

गली-गली घूमता

भटकता

फटे कान  ठीक करवाने

या वालियों का नाप देने के लिए

 

कुछ भी था

मैं बहुत व्यस्त था

इश्क़ को योग बनाने में

योग से इश्क जगाने में

 

अगली बार जब नींद खुली

मेरे पास मशक थी

घनेईया बाबा

पिला रहा था घायलों  को पानी

मैं दूर से ही

दोस्त-दुश्मन गिन रहा था

गिनती के जोड़-घटाव में

रुक गया

मेरे ख़तों का कारवाँ ।

 

उम्मीद नहीं छोड़ी

समय बीतता गया

किसी न किसी तरह

स्वयं को घसीट लाया

तेरे दर तक

चौंक गया

रास्ते की चकाचौंध देख

चुंधियाई आँखों से

शामिल हो गया अन्धी भीड़ में

जो जा रही थी

कहीं मकान गिराने

कहीं अबला की इज़्ज़त लूटने

कहीं बच्चों को अनाथ करने

मेरा क़ुसूर बस इतना था

कि चल पड़ा

उस भीड़ के साथ

नहीं तो उस समय

मैं ज़रूर लिखता तुझे ख़त

 

थोड़ी दूर आ कर

दम लेते हुए सोचा

अब है सही मौक़ा

शब्द उच्चारण का

अचानक देखते ही देखते

मेरे हाथ गले के टायर हो गए

धू-धू करते धधक गए

मेरे सहित कई और लोगों ने

शब्द खो दिए

 

तेरी शिकायत सिर-माथे

मुझे मुआफ़ करना

उम्मीद करता हूँ

सदी के इस साल में

लिख सकूँगा तुझे वो

“ख़त जो लिखने से रह गए”।

कवि – श्री रणधीर 

भावानुवाद –  डॉ. जसप्रीत कौर फ़लक

संपर्क – मकान न.-11 सैक्टर 1-A गुरू ग्यान विहार, डुगरी, लुधियाना, पंजाब – 141003 फोन नं – 9646863733 ई मेल – [email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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