श्री हरभगवान चावला
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति…)
☆ पुरस्कार, प्रशस्ति-पत्र और प्रशस्ति… ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
2019 की बात है। किताबों की अलमारी की सफ़ाई करते हुए कहीं से एक प्रशस्ति-पत्र निकल आया। उसमें लिखा था- लघुकथा की विकास-यात्रा में आपके योगदान को कोटिशः नमन। मुझे याद आया कि मैंने एक लघुकथा-सम्मेलन में लघुकथा भेजी थी, ख़ुद नहीं जा पाया था। मेरे शहर के एक लेखक के ज़रिये मुझ तक यह प्रशस्ति-पत्र तथा सम्मेलन में पढ़ी गई सभी लघुकथाओं का पुस्तकाकार संग्रह भेजा गया था और उस संग्रह के लिए मुझे शायद दो सौ रुपये चुकाने पड़े थे। मैंने पुस्तक और प्रशस्ति-पत्र यूँ ही कहीं रख दिए थे। सफ़ाई के दौरान मैंने प्रशस्ति-पत्र को पढ़ा और मुझे हँसी आ गई। क़ायदे से तो मुझे गर्व और आभार से भर जाना चाहिए था, लेकिन मैं गहरी सोच में पड़ गया कि मैंने कब लघुकथा के विकास में योगदान दिया था। बता दूँ कि तब तक मेरा एक भी लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। दस- बीस लघुकथाएँ लिख लेने भर से मेरा ऐसा प्रचंड योगदान कि मैं ‘कोटिशः नमन’ का पात्र हो गया। जिस किसी ने भी वहाँ लघुकथा पढ़ी होगी, उसे ठीक ऐसा ही प्रशस्ति-पत्र दिया गया होगा। एक साथ साठ-सत्तर लोग कोटिशः नमन के पात्र हो गए होंगे। इस तरह के सम्मान से वितृष्णा नहीं होती? आज इस तरह के प्रशस्ति-पत्रों से लोगों के घरों की दीवारें भरी पड़ी हैं। उन्हें देखकर मुझे कभी नहीं लगा कि फलाँ बड़ा लेखक है। प्रशस्तियों के आदान-प्रदान का धंधा आज चरम पर है। लोग जुगाड़ लगाकर पुरस्कार झटक रहे हैं। यहाँ तक कि एंट्री फ़ीस भरकर पुरस्कार ले रहे हैं। त्रासदी यह भी है कि प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, पंत, महादेवी, नीरज जैसे साहित्यकारों के नाम पर राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान किए जा रहे हैं, जिनकी पुरस्कार राशि महज़ पाँच सौ रुपये भी हो सकती है। संभव है कि इससे ज़्यादा एंट्री फ़ीस ही हो। लेखक प्रशस्ति-पत्र को दीवार पर टाँगकर मेहमानों पर अपने अंतरराष्ट्रीय लेखक होने का रौब ग़ालिब कर देते हैं, जबकि वे जानते हैं कि वे कितने पानी में हैं। आजकल यह भी सिलसिला चल निकला है कि आप एक संस्था बनाकर किसी शहर के दस-बीस लेखकों को बुलाकर थोक के भाव राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से ‘सम्मानित’ कर दें और कुछ दिनों बाद उस शहर के लेखक आपके शहर के दस-बीस लेखकों को उसी तरह से सम्मानित कर दें। प्यार भी बना रहेगा, दीवारें भी सजती रहेंगी। पुरस्कार के लिए नाम कैसे भी रखे जा सकते हैं। बड़े-बड़े लेखक तो हैं ही (आपकी ओछी हरकत से महान लेखक अपमानित होता है तो आपकी बला से), इनके अलावा साहित्य के साथ भूषण, विभूषण, रत्न, मनीषी जैसे शब्द जोड़ कर पुरस्कार का नाम रखा जा सकता है। हज़ारों विशेषण उपलब्ध हैं। मेरा एक प्रश्न है- आपकी तुलना कोई ताॅलस्ताॅय, गोर्की, मोपासां, चेखव, शेक्सपियर, बालज़ाक वगैरह से करे तो आप यक़ीन कर लेंगे? नहीं न! आप समझ जाएँगे कि सामने वाला बन्दा आपका उल्लू खींच रहा है। ऐसे ही आपके अति साधारण लेखन के लिए (कभी-कभी दो कौड़ी के लेखन के लिए) विलक्षण, अलौकिक प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग सचमुच गाली देने जैसा ही है। लेखक सोचता है कि चलो, महान होने के अहंकार और धोखे में ही जी लिया जाए। लेखक का सम्मान उसका लेखन ही है, प्रशस्ति पत्र नहीं ।
ख़ैर, उस प्रशस्ति पत्र को मैंने कूड़ेदान के हवाले कर दिया और यक़ीन मानिये, ऐसा करते हुए मुझे कोई अफ़सोस नहीं हुआ, बल्कि मैंने राहत ही महसूस की कि मैं एक पाखण्ड भरे झूठ से मुक्त हो गया।
मैं डंके की चोट पर कहता हूँ कि सैंकड़ों पुस्तकें लिख देने से कोई लेखक महान नहीं होता और न सैंकड़ों पुरस्कार प्राप्त कर लेने से कोई लेखक महान होता है। लेखक के अच्छे या बुरे होने की एक ही कसौटी है – उसका लेखन। महत्वपूर्ण यह है कि उसने क्या लिखा, क्यों लिखा और कैसा लिखा? महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उसने कितना लिखा और उसने कितने पुरस्कार प्राप्त करने में सफलता हासिल की।
© हरभगवान चावला
सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा, सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈