श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “सिल बट्टा और खलबत्ता…“।)
अभी अभी # 715 ⇒ सिल बट्टा और खलबत्ता
श्री प्रदीप शर्मा
क्या आपके रसोड़े में आज भी यह जोड़ी मौजूद है ? पत्थर की सिल्ला और पत्थर की ही लोढ़ी, और लोहे का खल और लोहे का ही बत्ता ! जब तक मैं ज़मीन से जुड़ा रहा, ये मुझसे जुड़े रहे। आज मैं जमीन से ऊपर उठ गया हूं, एक फ्लैट में शिफ्ट हो गया हूं। आप कह सकते हैं, न तू ज़मीं के लिए है, न आसमां के लिए। तेरा वजूद है, सिर्फ़ 2BHK, लेट कम अटैच बाथ के लिए। अब मेरे फ्लैट की चार इंच की दीवारें और चमकदार नाज़ुक टाइल्स इनका बोझ नहीं सह सकती। पुराने घर में जहां मन करे, एक कील ठोंको और छतरी टांग दो। यहां तो अपनी ही दीवार में एक कील लगाने के लिए ड्रिलिंग करना पड़ता है। पूरी बिल्डिग जान जाती है, कहीं एक कील ठुक रही है। आज न सिल न बट्टा, और ना ही खलबत्ता। कोई फर्क नहीं अलबत्ता।
सिल अथवा सिल्ला, एक तरह की पोर्टेबल पत्थर की शिला ही तो होती है, जिसके मुंह पर चेचक के दाग की तरह खुरदुरे छेद होते हैं। इन पत्थरों को टांका जाता है। मोहल्ले में एक पत्थर और घट्टी टांकने वाला आवाज लगाता था। घट्टी भी एक पत्थर की छोटी चक्की ही होती थी, जिसमें पक्षियासन की मुद्रा में दोनों पाँव फैलाकर अनाज पीसा जाता था, और दालों को दला जाता था। तब दो ही तो कहावतें मशहूर थी कहासुनी के वक्त ! कौन सी चक्की का आटा खाते हो, और आ जाओ मैदान में, अगर मां का दूध पीया है तो ?
तब कहां घरों में मिक्सर ग्राइंडर होते थे। मेहनत और पसीने की खड़े मसालों की, सिल पत्थर पर पिसी चटनी का स्वाद ही कुछ और होता था। गर्म गर्म मुंगौड़ों के लिए पहले मूंग की दाल भिगोना और फिर उसे सिल बट्टे पर दरदरी पीसना, अदरक, हरी मिर्ची और धनिये के साथ। गणेश चतुर्थी के लड्डू के लिए पहले मुठिया तली जाती, फिर उसे खलबत्ते में कूटा जाता। खलबत्ते की आवाज के साथ मोहल्ले में खुशबू फैल जाती। फुर्सत ही फुर्सत, स्वाद ही स्वाद।
आज समय, स्वास्थ्य और तकनीकी ज्ञान ने सब कुछ कितना आसान कर दिया है। एक वह दिन, जब रसोई घर यानी पाक शाला में बिना स्नान प्रवेश वर्जित। पाक और नापाक का क्या साथ ! चूल्हे में अगर आग नहीं, तो गुलजार साहब पड़ोसी के चूल्हे से आग ले आते। ये मर्द नहीं मानते, उसी से बीड़ी भी जला लेते हैं। सो अनहाइजेनिक। दिन भर धुआं ही धुआं और रात भर रसोई में चिमनी का धुआं। और एक आज, रसोई में बढ़िया स्टैंडिंग किचन, वॉश बेसिन, एक्वा गार्ड, चार बर्नर वाला गैस स्टोव, फिलिप्स का मिक्सर, ग्राइंडर, माइक्रोवेव ओवन और रसोईघर का धुआं और प्रदूषण निकलने के लिए अत्याधुनिक बिजली की चिमनी। ।
सब कुछ कितना आसान, आरामदेह और आधुनिक हो गया। जो समय के साथ चला, वह आगे निकल गया, जो साइकिल से आगे नहीं बढ़ा, वो मोरसली गली में ही अटक गया। कांसे और पीतल के बर्तन बिक गए, अनब्रेकेबल क्राकरी भी तेजी से आई और निकल गई। बोन चाइना में हड्डियां पाई गई। दीनदयाल स्टेनलेस स्टील के बर्तन लेकर आए और येरा कांच के बर्तन।
जो चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा हुए हैं, वे शायद आज भी चांदी के डिनर सेट में खाना खाते हों।
अगर इंसान हो हट्टा कट्टा, तो आजमा ले सिल बट्टा और खलबत्ता का स्वाद खट्टा मीठा। समय और सुविधा का तकाजा तो यही है, स्वाद से समझौता करें, स्वस्थ और तंदुरुस्त रहें। पहले शरीर को आराम देओ और बाद में बाबा रामदेव। सिलबट्टा, खलबत्ता नहीं हंसी ठट्टा, दोनों से कट्टम कट्टा।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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