श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “कल और आजकल …“।)
अभी अभी # 691 ⇒ कल और आजकल
श्री प्रदीप शर्मा
आज कल में ढल जरूर जाता है लेकिन फिर वह आज नहीं रह जाता। आज गुजर जाता है, कल वह फ्रेश होकर आता है और आज बन जाता है। कल को आज बनने के लिए कल तक का इंतजार करना पड़ता है। आज को जाने की जल्दी नहीं, लेकिन कल को तो आने की जल्दी है।
आजकल कल और आज एक जैसे ही चल रहे हैं, इसलिए किसी को कल का इंतजार नहीं। बस आज किसी तरह गुजर जाए।
वैसे देखा जाए तो कल भी कल ही था और कल भी कल ही होगा। बस यह हमारा जो आज है न, यह ही कलकल करके बहता रहता है और हम इसे आज का नाम दे देते हैं। समय का प्रवाह भी एक झरना ही तो है। जिस दिन यह समय का झरना सूख जाएगा, आज कल में ढलना बंद हो जाएगा। ईश्वर की टकसाल भी बंद हो जाएगी।।
हम समय से हैं, समय हम से नहीं ! समय का झरना, सूर्य का उदित होना अस्त होना है वृक्ष पर पत्तियों का उगना, पल्लवित होना, फलना फूलना और समय के साथ झरना भी है, लेकिन तब तक, आज की कोमल पत्तियां कल पुनः वृक्ष को हरा भरा कर देगी। प्रकृति के विनाश में ही नीड़ के निर्माण के बीज भी हैं। हर कली में एक फूल है, हर अंडे में एक चूजा, समय का झरना कभी नहीं सूखता। इसके कलकल की आवाज ही इसका कल था, इसका आज है और इसका कल भी रहेगा।
हमने कभी अतीत की, यानी गुजरे कल की चिंता नहीं की, केवल चिंतन किया। अच्छा बुरा जैसा भी था, व्यतीत हो गया। लेकिन हमें आज की चिंता है और कल आने वाले कल की भी। जब हमारा आज अच्छा होता है, तो हम कल की तरफ से निश्चिंत रहते हैं। लेकिन जब आज ही गड़बड़ होता है, तो कल में भी गड़बड़ी नजर आती है। पूत के पांव पालने में।।
लेकिन यह अच्छी बात नहीं है सबै दिन न होता एक समाना ! रहने दीजिए अटल जी। एक साल से देख रहे हैं, हर दिन एक जैसा गुजर रहा है। याद कीजिए आपने भी आपातकाल में जेल से एक कविता लिखी थी, जिसे बाद में जगजीत सिंह ने गाया था, एक बरस बीत गया ;
झुलसाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्मन रीत गया
एक बरस बीत गया …
हमें भी एक बरस बीत गया। आपकी तो अभिव्यक्ति की आजादी छिनी थी, हमारे तो मुंह पर ही पट्टी बांध दी गई है। हमने भी प्यासा सावन देखा है और झुलसाता जेठ मास देखा है। हमारे अंतर्मन में भी कोई लड्डू नहीं फूट रहे। किसको दोष दें, सरकार को, या उस अलबेली सरकार को। हम भी बरबस, यह कह उठते हैं ;
आज कल में ढल गया
दिन हुआ तमाम
तू भी सो जा, सो गई
रंग भरी शाम ….
अतीत गवाह है, अगर रामायण के प्रसंग में से प्रभु श्रीराम के चौदह बरस निकाल दिए जाएं, तो रामायण में कुछ बचे ही नहीं न अंगद, न बाली, न सुग्रीव और ना ही रामदूत बजरंग बली। न रावण का वध होता और न हम दशहरा और दीपावली जैसा उत्सव मनाते ;
तेरे फूलों से भी प्यार,
तेरे कांटों से भी प्यार।
तू जो भी देना चाहे,
दे दे करतार,
दुनिया के पालनहार।।
झरने की तरह कलकल करते कल भी गुजरा, आज भी गुजर जाएगा, उम्मीद की कली फिर खिलेगी, आशाओं का एक नया सूरज निकलेगा, बहारें फिर भी आती हैं, बहारें फिर भी आएंगी। कल आने वाला कल, आज से बेहतर होगा। आजकल समय भी उम्मीद से है।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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