श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “च्युंइगम…“।)
अभी अभी # 679 ⇒ च्युंइगम
श्री प्रदीप शर्मा
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आप खुशी खुशी कुछ भी चबा सकते हो, लेकिन क्या आपने कभी गम को चबाया है ! हमारे साहित्य के वात्स्यायन, सच्चिदानंद ‘अज्ञेय ‘ फरमाते हैं ;
हम सब काल के दांतों तले
चबते चले जाते हैं
च्युइंगम की तरह
कच, कच कच
बड़ा कठोर सच …
और उधर सभी पीड़ाओं का संगीत से उपचार करने वालों का मानना है कि ;
जब दिल को सताये गम
तू छेड़ सखि सरगम
सा रे ग म पा …
हमारे जगजीत सिंह बड़े भोले हैं। वे नहीं जानते आज की पीढ़ी को। जब भी किसी खूबसूरत युवा चेहरे को मुस्कुराता देख लेते हैं, बेचारे बड़ी मासूमियत से पूछ लेते हैं ;
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या गम है, जिसको चबा रहे हो !
उन्हें कौन बतलाए। आज की पीढ़ी इतनी खुश है, इतनी खुश है, कि कभी खुशी, कभी च्युंइगम। वह मस्ती में झूमते हुए सिर्फ किशोर के ही मस्ती भरे नगमे गाना चाहती है। गम छोड़ के मनाओ रंगरेली।
जिस तरह हाथी के दांत खाने के, और दिखाने के अलग होते हैं, ठीक उसी तरह गम भी दो तरह का होता है, खाने का और चिपकाने का। ठंड में अन्य सूखे मेवों के साथ गोंद के लड्डू बड़े स्वास्थ्य वर्धक होते हैं। नवजात शिशुओं की माता को भी कई औषधीय गुणों से युक्त, शक्तिवर्धक जापे के लड्डू खिलाए जाते हैं। बचपन में हमने भी चखे हैं। हमें तो च्युइंगम से बेहतर लगे। पसंद अपनी अपनी।।
जुगाली के भी सबके अपने अपने तरीके होते हैं। वैसे तो मुंह चलने और जबान चलने में अंतर है, लेकिन कुछ लोग इस भ्रम में रहते हैं कि च्युइंगम से मुंह तो चलता रहता है, लेकिन जबान पर ताला लग जाता है। कुछ सयाने लोग इसे जबड़ों के व्यायाम की संज्ञा भी देते हैं। चोर, चोरी से जाए, लेकिन हेराफेरी से ना जाए। पान आप उसे खाने नहीं दो, यहां वहां थूकने नहीं दो। गुटखा हमारे स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक है ही, जो इनका विज्ञापन कर रहे हैं, हमारी नजर में, वे भी कम खतरनाक नहीं। खुद तो पैसा कमाओ और हमारी आदत बिगाड़ो, यह नहीं चलेगा। हम भले ही अपनी आदत नहीं सुधार पाएं, लेकिन ठीकरा तो आपके माथे पर ही फोड़ेंगे। बॉयकॉट पद्मश्री की त्रिमूर्ति।
च्युंइगम को देख, हमें अपना बचपन याद आ गया। सुबह जब टहलने जाते थे, तो किसी भी नीम के पेड़ की नाजुक टहनियों को तोड़, उसकी दातून बना लेते थे और फिर, बस, उसे दांतों से चबाया करते थे। मसूड़ों और दांतों का व्यायाम होता था और नीम का कसैलापन शरीर में प्रवेश कर जाता था। करैला नीम चढ़े ना चढ़े, तब तो नीम ही हमारा हकीम भी था।।
मुखशुद्धि से मन की भी शुद्धि होती है। तन और मन अगर स्वस्थ रहे सौंफ, इलायची और लौंग का सेवन बुरा नहीं। लेकिन सिर्फ खुशी के खातिर, ऐसा भी क्या किसी गम को चबाना, जो बाद में तकलीफदेह साबित हो।
आप ही आपके चिकित्सक भी हो और निःशुल्क परामर्शदाता भी। गम को चबाना, अथवा गम को गलत करना, दोनों ही गलत है। हमारे होठों पर तो आज सिर्फ तलत है। हमारे सारे गम दूर करती सरगम। हमारी प्यारी कानों के जरिए आत्मा में प्रवेश करती असली च्युंइगम।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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