सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ कविता ☆ सबेरा… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
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धुआँ धुआँ
धुँधलाती शाम
टूट रही है
कतरा कतरा
रात होने में
कुछ ही घड़ियां बाकी हैं
वक्त के चेहरे पर
कालिख पोतने
तैयार बैठा है
अंधेरा
जुगनुओं को
कम न आँको
उन्हें आवाज़ दो
चकमक पत्थर वालों को भी
ढिबरी कंदील दीये मशाल
बिजली के लट्टू
जो भी मिले
जलाना शुरु कर दो
रोशनी के औजार तेज करो
सान पर चढ़ाओ
उन्हें
वे ही लेकर आयेंगे
सबेरा
तुम देखना।।
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© सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈