सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ कुछ क्षणिकाएं… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

(२३ मई विश्व विवशता दिवस और विश्व कछुआ दिवस के उपलक्ष्य में)

[ १ ]

नेपथ्य में

सुविधाजीविता

स्टेज पर अभिनीत

मजबूरी

दिखा देती है सच से

मीलों दूरी

[ २ ]

विवशता

स्वयं को विवश पा रही है

महंगाई डायन की तरह

अपना कद

बढ़ाती ही जा रही है।।

[ ३ ]

बहुत लुभाती हैं

सोने की जंजीरें

बाँधते बाँधते

खोलती जाती हैं

तुम्हारा हर राज़

धीरे धीरे।।

[ ४ ]

नदियों को

कूड़ादान बनाकर

खाली पीली बहसते हो

वृथा हैं तुम्हारे

वाद और प्रतिवाद

सुनाई नहीं देता

उनका आर्त्तनाद।।

[ ५ ]

हमें पता है

तुम रावण के सिर

आसानी से गिन लोगे

पर मजबूरी के कितने ?

जवाब कहाँ से दोगे।।

[ ६ ]

जंगल उजाड़कर

पर्यावरण की

रक्षा करोगे

मौसम दुर्वासा है

 बच न सकोगे

कोप से।।

[ ७ ]

लगभग

समान हैं दोनों के

गुणधर्म

कछुए की फितरत और

मजबूरी का मर्म।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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