श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश से श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव जी एक प्रेरणादायक महिला हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से समाज में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उन्हें 2024 में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मान से नवाजा गया। उनके द्वारा संवाद टीवी पर फाग प्रसारण प्रस्तुत किया गया और विभिन्न राज्यों के प्रमुख अखबारों व पत्रिकाओं में उनकी कविता, कहानी और आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी लेखनी में समाज के प्रति संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का सुंदर संगम देखने को मिलता है।
☆ आलेख ☆ || मातृत्व छांव || ☆ श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव ☆
ममा या मम्मी नहीं गाँव में अम्मा होती है…
वह साड़ी में पिन नहीं लगातीं बल्कि आंचल स्वतंत्र खुला रखतीं हैं…
उसके साड़ी के पल्लू में बंधे हुए होते हैं सिक्के या कुछ रुपये जो बच्चों के हाथों में आसानी से आ जाते हैं…
अम्मा को सब कुछ पता होता है जैसे कब भुखे होगें बच्चे और कब नहीं…
अम्मा के रसोई में हमेशा खाना उपलब्ध होता है…
मैगी नूडल्स खाकर बड़ी नहीं हुई पहले की पीढ़ी बल्कि, रोटी, चीनी या रोटी, अचार बहुत प्रेम से खाते थे…
अम्मा मेला या हाट कम जाती थी…
तीज त्योहार में अक्सर बाबूजी ही कपड़ा लाते केवल अम्मा के लिए ही नहीं बल्कि, बुआ के लिए भी…
बुआ का तीजा दादाजी के देहांत के उपरांत भी जाता रहा, जब तक बुआ और बाबूजी जीवित रहे, यह क्रम चलता रहा ना जाने कौन सा प्रेम का अटूट नाभि बंधन था पहले के लोगों में 👥 उस जमाने में ✍️
फर्क़ ही नहीं पड़ता था बच्चा किसके पास है?
अम्मा डांटती तो बड़की माई (बड़ी मां) आंचल में समेट लेती और अम्मा से कहतीं
“खबरदार जो मेरे सामने बच्चों को डांटा”
जेठानी की बाते सुन लेतीं
कुछ नहीं कहतीं बल्कि दोनों जेठानी- देवरानी शब्दहीन अतंस से बातचीत कर लेतीं
घर के सारे पुरुष -समाज खाना खा लेते, तो ना जाने कौन -कौन सी चटनी के साथ अम्मा बिना सब्जी के ही चावल खा लेतीं…
उनके थाली में कभी सब्जी होता और कभी नहीं भी, फिर भी वह खा लेतीं…
अम्मा को खुद पता नहीं…
कौन सी सब्जी पंसदीदा थी उनकी ?
बाबूजी भी नहीं जानते थे…
बाबूजी जब तक जीवित रहे उन्होंने रसोई के अंदर प्रवेश नहीं किया और अम्मा -बाबूजी की आवश्यकता सदा अद्भुत कौशल गृहणी बन करतीं रही…
अम्मा को ना कभी ज्वार हुआ ना ही कभी उन्होंने कहा कि मुझे भी तारीफ़ के दो शब्द सुनने है…
अम्मा तो एक गंभीर सांचे में ढली देहांती बहू जो सीधा पल्लू पहनी देहरी तक सीमित रहतीं…
उम्र के साथ साथ जैसे जैसे बडी़ हुई मालूम चला अम्मा तो शहर से हैं!
यह बात ना जाने कब से कील बन चुभती मन के कोने में पड़ी रही…
अम्मा को बस निहारती रही…
कभी अल्हड़ उन्मुक्त उंमगो की जीवंतता अम्मा मे भी होगा…
परिवर्तन कैसे हो गया??
आखिर कब कैसे उड़ान भरने वालीं अम्मा ने कोशिश करना छोड़ दिया…
प्रश्न अधूरा सा रहा और वक़्त चलता रहा…
अम्मा की उड़ान भरने वालीं लाडो, खुद अम्मा बन चुकी है…
हर प्रश्न का जवाब मिल चुका है आज…!
जिम्मेवारी के पतीले में ना जाने कहाँ छूट जातें हैं मध्यवर्गीय सपने और बच्चों के पालन पोषण में जायका का स्वाद कहाँ गुम हो जाता है?
मिर्ची -निबू का नज़र कवच घर में टांगते- टांगते बस देहरी में सिमट जाता है अल्हड़पना…
ना जाने कब कैसे एक बच्चे के जन्म के साथ ही एक अल्हड़ उन्मुक्त उंमगो वाली बेटी दम तोड़ देती है और एक परिपक्व माँ का जन्म हो जाता है?
ना जाने कौन से रेस्टोरेंट से अम्मा ने अचार बनाया?
अक्सर वही अचार प्लेट में नज़र आ जाते हैं…
अम्मा ने सच ही कहा है 👧
सह कर तेज ज्वार तब प्रफुल्लित होता है माँ के जैसा व्यवहार…
अनसुनी अनकही माँ के जज्बात, जो आंगन की चुप्पी में जाने कहाँ खो गई पीढ़ी दर पीढ़ी…
लिखने की कोशिश कर रही हूँ… अनवरत…
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© श्रीमति अभिलाषा श्रीवास्तव
गोरखपुर, उत्तरप्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈