श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “राहगीर ।)

?अभी अभी # 685 ⇒राहगीर ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जो रास्ते पर चले, उसे राही कहते हैं।

राही मनवा दुख की चिंता क्यूं सताती है, दुख तो अपना साथी है ;

राही तू मत रूक जाना, तूफां से मत घबराना। कभी तो मिलेगी, तेरी मंजिल, कहीं दूर गगन की छांव में ;

अक्सर राहगीर पैदल ही चलता है। उसकी यह यात्रा मुसाफिर भी बन जाती है, जब वह किसी वाहन का उपयोग यात्रा के लिए कर लेता है। साइकिल से लेकर हवाई जहाज तक का पैसेंजर बन बैठता है वह। पदयात्रा की गिनती तो आजकल तप और रोमांच का प्रतीक बन गई है। भक्त गण नवरात्रि में, वारकरी संप्रदाय के लोग विट्ठल के अभंग गाते हुए पद यात्रा करते हैं तो श्रावण मास में कावड़िए भी शिवजी के अभिषेक का जल लिए कावड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। राजस्थान में यह भक्त समुदाय रामदेवरा और नाथद्वारा के श्रीनाथ जी की ओर उमड़ता हुआ देखा जा सकता है। लोकतंत्र में कभी पदयात्रा का उपयोग सत्याग्रह की तरह राजनीतिक हथियार की तरह भी प्रयुक्त होता था। अब जमांना ट्रैक्टर और ट्रॉली रैलियों का आ गया है। लोकतंत्र अब इतना पैदल भी नहीं रहा।

एक समय था, जब आज के इंदौर जैसा महानगर पूरी आसानी से पैदल नापा जा सकता था। लोग तीन चार किलोमीटर तक के लिए किसी वाहन का प्रयोग नहीं करते थे। जल्दी और दूरी के स्थान के लिए एकमात्र साइकिल ही विकल्प था। और वहां की खुद की नहीं, किसी किराए की साइकिल का ही उपयोग किया जाता था। काम हुआ और साइकिल सरेंडर। रात भर के कौन रुपया आठ आने एक्स्ट्रा दे। ।

शहर में इतनी होटलें, इतने बाजार और इतनी पान की दुकानें थीं, कि पैदल सड़क का रास्ता नापते ही नापते कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था। ठंड के मौसम का इंदौर का रविवार तो खुली सड़क और खुले आसमान के हवाले ही कर दिया जाता था।

घर से निपट सुलझकर बिना नहाए ही पहले पास के किसी केश कर्तनालय के आइने में अपना चेहरा देख, कंघे से बाल ओंछकर तसल्ली कर लेते, मैं वही हूं। मास्टरजी, किती वेळ ?

मास्टरजी के मुंह में पहले से ही पान विराजमान। कितनी देर है मास्टर जी।

पान के छींटों के साथ जवाब आता, बस इनके बाद आपका ही समझो। आधा घंटा मान लो कम से कम। ।

घर केश कर्तनालय में एक अदद रेडियो होता था, और ग्राहकों के लिए एक सुषमा, सरिता मुक्ता युक्त, मनोरंजक पुस्तकालय के साथ ही मनोरंजन के किस्से भी होते थे। वे कभी कभी तो इतने रुचिकर होते थे, कि पु. ल.देशपांडे की याद दिला देते। केश कर्तनालय में कौन श्रोता और कौन वक्ता, कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता। इतने से माहौल में देश की सरकार हिल जाती, लेकिन तभी अचानक एक कुर्सी खाली हो जाती। कपड़े झटकते हुए, बालों को जिम्मेदारियों का बोझ झाड़ते हुए, वे कुर्सी की सत्ता और किसी को सौंप जाते और देश का लोकतंत्र बहाल हो जाता।

यह तो पैदल यात्रा की शुरुआत होती थी। जेलरोड पर प्रशांत के पोहे और सिख मोहल्ले में दामू अण्णा की कचौरी बड़ी बेसब्री से इंतजार में गर्म होती रहती थी। दो लोग हों तो बड़ा चाय का प्याला अन्यथा छोटा कप। ।

वहां से काफी हाउस कहां दूर ? दस कदम ही तो चलना है। कभी बुद्धिजीवियों का स्वर्ग था कॉफी हाउस, बुद्धू बक्से ने सब कबाड़ा कर दिया। आजकल तो कॉफी हाउस में भी एक टेबल से दूसरे टेबल पर व्हाट्सएप मैसेज ही भेजे जा रहे हैं। आदमी या तो खा रहा है, या फिर मोबाइल देख रहा है।

काफ़ी हाउस में घड़ी तब ही देखी जाती थी, जब बारह बजने का अंदेशा होता था। अरे सब्जी भी तो लेना है। थैला तो टिका दिया, अब टांगो सब्जी की थैली कंधे पर और चलो सब्जी मार्केट। जब तक घर पहुंचेंगे, और नहा धोकर फ्रेश होंगे, पेट में चूहे कूद रहे होंगे। पूरा दिन कैसे कट गया, सरे राह चलते चलते। थोड़ी सी आंख लग जाए तो शाम को परिवार के साथ अलका टाकीज में फिल्म देखी जाए, यहीं पास में ही तो है और मैनेजर भी अपने वाला ही है। ।

साहब तो दिन भर भटक लिए, एक राहगीर की तरह, अब तो बीवी और बच्चों की फरमाइश की शाम। रीगल में ही फिल्म देखेंगे और बाद में वोल्गा में छोटे भटूरे खाएंगे। बहुमत से स्वीकृति। संतुष्टि और थकान में जब रात्रिकालीन सभा समाप्त होती थी, तो राहगीर सोमवार को पुनः तरो ताज़ा होकर अपनी राह पर निकल पड़ता था।

लेकिन आज सड़कें खाली नहीं, फुटपाथ पर अतिक्रमण। पैदल आजकल उतना ही मजबूरी में चलता है, जितना गाड़ी पार्क करके चलना पड़ता है। किसी भी फंक्शन अथवा विवाह समारोह में जाना हो, तो गाड़ी कई किलोमीटर आगे पीछे पार्क करनी पड़ती है। पहले परिवार को गार्डन में छोड़ो, फिर पार्किंग के लिए सुरक्षित जगह ढूंढो। इतने में एक सज्जन गाड़ी निकालने में जब इनसे मदद मांगते हैं, तो इन्हें भी थोड़ी सी जगह की उम्मीद बन जाती है। भगवान सबका भला करे।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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