श्री प्रदीप शर्मा
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “अपेक्षा और उपेक्षा…“।)
अभी अभी # 670 ⇒ अपेक्षा और उपेक्षा
श्री प्रदीप शर्मा
अपेक्षा अगर अवसाद की जननी है, तो उपेक्षा अपमान की जड़ है। अपनों से ही अपेक्षा होती है, परायों की अक्सर उपेक्षा होती है।
क्षण खुशी के हों, या दुःख के, सबसे पहले अपने ही याद आते हैं। थोड़ी भी परेशानी हुई, सबसे पहले अपनों को याद किया जाता है। कभी कभी संकोच भी होता है, समस्या बताने में ! तो कहा जाता है, अपनों से कैसी शर्म, कैसा संकोच। खुलकर कहो, क्या बात है। अपनों से बेतकल्लुफी का यह आलम होता है कि शायर तो कह उठता है, शर्म अपनों से करोगी तो शिकायत होगी।
अपेक्षा का दूसरा नाम उम्मीद है, भरोसा है। मुसीबत में अपना ही काम आता है। कितनी भी बेटी बचा लो, वंश तो बेटा ही चलाता है। बुढापे की लाठी होता है बेटा। लड़की तो पराई जात है।।
लेकिन जब अपने ही काम नहीं आते, बुढापे की लाठी, वंश को चलाने वाला, एकमात्र सहारा, जब पत्नी को लेकर काम के बहाने परदेस चला जाता है, तो अपेक्षा, मन मसोसकर रह जाती है। अकेलापन काटने को दौड़ता है। इससे तो लड़का नहीं होता तो अच्छा था। इसी दिन के लिए बेटा पैदा किया था।
लोग बहुत समझाते हैं, सबकी अपनी अपनी मज़बूरियां हैं लेकिन मन को तसल्ली नहीं होती। लोग दोस्तों से उम्मीद लगाए बैठते हैं। दोस्त वही, जो मुसीबत में काम आए। A friend in need, is a friend indeed. जो मुसीबत में काम नहीं आया, वह काहे का दोस्त ! आज से दोस्ती ख़त्म।।
जहाँ से हमें अपेक्षा हो, वहाँ से बदले में अगर उपेक्षा मिले, तो मन न केवल दुःखी और विक्षिप्त होता है, हम अपमानित भी महसूस करते हैं। अपेक्षित व्यवहार तो अपनों, परायों सब से होता है। आप जिससे अच्छी तरह परिचित हैं, अगर दस लोगों के बीच वह आपकी उपेक्षा करेगा, तो आपको बुरा तो लगेगा ही। यह व्यवहार-कुशलता का तकाजा है कि परिचित लोगों से मिलने पर औपचारिक कुशल-क्षेम का आदान-प्रदान न सही, कम से कम अभिवादन तो किया ही जाए।
दफ़्तर में सुबह जाते ही, गुड मॉर्निंग से एक दूसरे का अभिवादन किया जाता है। अगर आपको अपने अभिवादन का प्रत्युत्तर नहीं मिलता, तो आप उपेक्षित महसूस करते हैं। आगे से आप भी उसे गुड मॉर्निंग कहना छोड़ देंगे। ताली दो हाथ से बजती है। हम जैसा व्यवहार लोगों से करेंगे, वैसा ही व्यवहार हमें उनसे मिलेगा। उपेक्षा और अपमान में ज़्यादा अंतर नहीं होता।।
अपेक्षा एक मानवीय गुण है और उपेक्षा एक असहज स्थिति ! मेहनत के बाद फल की अपेक्षा स्वाभाविक ही है। अब तो बेलि फैल गई, आणंद फल होई। यही आस, यही उम्मीद, भक्त को भगवान से और आत्मा को परमात्मा से मिलाती है। आस ही अपेक्षा है, निरास अवसाद की स्थिति। इन दोनों से इंसान को गुजरना पड़ता है। उसकी उपेक्षा भी होती है, उसका अपमान भी होता है।
अपेक्षा किसी से न करें ! जो मिल गया, उसे मुकद्दर समझें, जो खो गया, मैं उसको भुलाता चला गया। पुरानी फ़िल्म दुश्मन (1939) में कुंदनलाल सहगल का एक गीत है, जिसमें आशा और निराशा, अपेक्षा और अवसाद, दोनों स्थितियों का बड़ा सुंदर वर्णन किया गया है। करूँ क्या आस, निरास भयी की स्थिति से कहो ना आस निरास भयी, तक का, मानवीय संवेदनाओं का, सुंदर चित्रीकरण है यह अमर गीत।।
© श्री प्रदीप शर्मा
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