हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “माखी और गुड़”।)  

? अभी अभी # 51 ⇒ माखी और गुड़? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

गुड़ और मक्खी का साथ बहुत पुराना है, बस यह मानिए, जब से हमने हमारे गुरुकुल में पोथी बांचना शुरू किया, तब से ही इस गूंगे के गुड़ और ढाई आखर की मक्खी का प्रेम, हम देखते चले आ रहे हैं। इन्हें आपस में लाने का यह पवित्र कार्य संत कबीरदास जी ने कुछ इस तरह से किया ;

माखी गुड़ में गड़ी रहै

पंख रह्यौ लिपटाय ;

हाथ मलै और सिर धुने

लालच बुरी बलाय।

हमारे कबीर साहब के दोहों में उलटबासी होती थी, और उनकी सीख, साखी कहलाती थी। सुनो भाई साधो, उनका तकिया कलाम था! भाई, सिर्फ सुनो ही नहीं, उसको साधो भी, जीवन में, अमल में भी लाओ। ।

गुड़ मीठा है, इसमें गुड़ का कोई दोष नहीं, मक्खी को भी मीठा पसंद है और हमें भी! मीठा किसे पसंद नहीं। तो क्या इसमें मक्खी के पंख का दोष है। अगर उसके पंख नहीं होते, तो शायद वह भी चींटियों की तरह, गुड़ का पहाड़ अपने मजदूरों की सहायता से अपने घर में ले जाती। ।

ईश्वर ने प्राणियों के पंख उड़ने के लिए बनाए हैं, लेकिन कबीर साहब कब गलत कहते हैं, लालच बुरी बलाय। मक्खी का क्या है, उसे गुड़ और गोबर में कहां भेद करना आता है। वह तो उल्टे, जहां बैठती है, वहीं अंडे दे देती है। नाली से उड़कर आएगी और हलवाई के थाल पर बैठ जाएगी। बर्फी का सब रस, गुड़ गोबर हुआ कि नहीं।

कबीर साहब की सीख हमें तब समझ में नहीं आई, तो अब क्या आएगी। हमारे भी पंख हैं, अरमानों के, हमारे भी सपने हैं, पैसे का भी लोभ है और जमीन जायदाद औलाद का भी।

मत कहिए लालच, उसे कुछ और नाम दे दीजिए। ।

लालच से मीठा कोई गुड़ नहीं। हमसे तो मीठा ही कंट्रोल नहीं होता, बिना पंख के, केवल हमारी रसना ही हमें यहां वहां उलझाती रहती है, ललचाती रहती है। यह तो इतनी चतुर है कि मीठा बोलकर भी जहर घोलने में माहिर है।

माखी ही हमारे लिए कबीर की साखी है। भगवान दत्तात्रेय ने इसीलिए कीट, पतंगों तक को अपना गुरु माना। कबीर साहब के शब्द ही इसीलिए गुरु ग्रंथ साहब के सबद बन प्रकट हुए हैं। संत का सत्संग ना सही, सबद ही काफी है। अपने जीवन से लालच को मक्खी की तरह निकाल फेंके। शब्दों का लालच तो देखिए, प्रकट होने से बाज नहीं आ रहे। हम नहीं सुधरेंगे। ।

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© श्री प्रदीप शर्मा

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈