ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–31               

कई बार विलंब एवं अत्यधिक थकान के कारण आपसे संवाद नहीं  कर पाता। कई बार प्रतिक्रियाएं भी नहीं दे पाता और कभी कभी जब मन नहीं मानता तो अगले संवाद में आपसे जुड़ने का प्रयास करता हूँ।

अब कल की ही बात देखिये । मुझे आपसे कई बातें करनी थी फिर कतिपय कारणों से आपसे संवाद नहीं कर सका। तो विचार किया कि – चलो आज ही संवाद कर लेते हैं।

प्रोफेसर चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी केंद्रीय विद्यालय, जबलपुर में मेरे प्रथम प्राचार्य थे। उनका आशीष अब भी बना हुआ है। ईश्वर ने मुझे उनके द्वारा रचित श्रीमद् भगवत गीता पद्यानुवाद की शृंखला प्रकाशित करने का सौभाग्य प्रदान किया। ईश्वर की कृपा से वे आज भी स्वस्थ हैं एवं साहित्य सेवा में लीन हैं। यदि मेरी वय 62 वर्ष है तो उनकी वय क्या होगी आप कल्पना कर सकते हैं?

श्री जगत सिंह बिष्ट जी भारतीय स्टेट बैंक में भूतपूर्व वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं। योग साधना, ध्यान  एवं हास्य योग में उन्होने महारत हासिल की है। इसके अतिरिक्त वे एक प्रेरक वक्ता के तौर पर भी जाने जाते हैं। हास्य योग पर आधारित उनकी हास्य योग यात्रा की शृंखला अत्यंत रोचक बन पड़ी है।

श्री रमेश चंद्र तिवारी जी की “न्यायालय के आदेश के परिपालन में लिखी गई किताब – भारत में जल की समस्या एवं समाधान” पुस्तक पर श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी की टिप्पणी काफी ज्ञानवर्धक एवं रोचक है। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी ने स्वयं इसी परिपेक्ष्य में  काफी शोध के पश्चात “जल, जंगल और जमीन” पुस्तक लिखी है।

सुश्री ऋतु गुप्ता जी की लघुकथा “वृद्धाश्रम” एवं आज डॉ मुक्ता जी की कविता “कुम्भ की त्रासदी” वृद्ध जीवन के विभिन्न पक्षों से हमें रूबरू कराती है। किन्तु इसके विपरीत कभी कभी मुझे क्यों लगता है कि वृद्ध जीवन की त्रासदी के लिए हम बच्चों को ही क्यों दोष देते हैं? क्या कभी हमने अपने जीवन में झांक कर देखा कि हममे से कितने लोगों ने अपने माता पिता की सेवा की है जो अपने बच्चों से अपेक्षा करें। फिर निम्न मध्य वर्ग के परिवार के पालक गण के तौर पर हम ही तो बचपन से उन्हें विदेश में पढ़ने बढ़ने के लिए स्वप्न देखते और स्वप्न दिखाते हैं।  यह पक्ष भी विचारणीय है।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का व्यंग्य “वो दिन हवा हुए” हमें अपने जमाने के चुनावों, चुनाव चिन्हों और माहौल से रूबरू कराती है।

अंत में सुश्री सुजाता काले जी कविता “खारा प्रश्न”, खारा ही नहीं बल्कि “खरा प्रश्न” जान पड़ता है। इस संदर्भ  में मुझे मेरी कविता “दिल, आँखें और आँसू” की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं जिसमें मैंने पुरुष की आँखों केहै।  खारे पानी की कल्पना की है।

 

कहते हैं कि –

स्त्री मन बड़ा कोमल होता है

उसकी आँखों में आँसुओं का स्रोत होता है।

 

किन्तु,

मैंने तो उसको अपनी पत्नी की विदाई में

मुंह फेरकर आँखें पोंछते हुए भी देखा है।

 

उसे अपनी बहन को

और फिर बेटी को

आँसुओं से विदा करते हुए भी देखा है।

 

उसकी आँखों में फर्ज़ के आँसुओं को तब भी देखा है

जब वह दूसरे घर की बेटी को

विदा करा कर लाया था।

अपनी बहन के विदा करने के अहसास एहसास के साथ।

अपनी बेटी के विदा करने के अहसास के साथ।

 

उसकी आँखों में खुशी के आँसुओं को तब भी देखा है

जब तुमने आहट दी थी

अपनी माँ के गर्भ में आने की।

 

उसकी आँखों में खुशी के आँसुओं को तब भी देखा है

जब वह तुम्हें अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाता था

जब तुम गर्भ में थे

ताकि तुम सहर्ष निकल सको

जीवन के चक्रव्यूह से।

 

उसकी आँखों में विवशता के आँसुओं को तब भी देखा है

जब उसने स्वयं को विवश पाया

तुम्हारी जरूरी जरूरतों को पूरा करने में।

 

आज बस इतना ही।

 

हेमन्त बवानकर 

2  मई 2019

 

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विवेक

सार गर्भित टिप्पणियों से आप गागर में सागर भर देते हैं ।