डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। हमने अपने जीवन में यह देखा है कि यदि मनुष्य कोई बात मन में ठान ले और उसे पूरी करने पर उतर आये तो उसे पूरी अवश्य कर लेता है जैसा शीर्षक है वैसी ही कहानी है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस हृदयस्पर्शी लघुकथा को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 28 ☆
☆ लघुकथा – मन के हारे हार है, मन के जीते जीत ☆
अम्माँ देखो ये क्या है तुम्हारे बक्से में? दो थैलें रखे हैं, इन पर लिखा है- विश्वास और संतुष्टि. किसने लिखा ये ? तुमने कि बापू ने? क्यों लिखा था अम्माँ बोलो ना –
वह बक्से में पुराने कपडे देख रही थी कि बेटी की नजर सूती कपडों के बने दो थैलों पर पडी. उसने ही सहेज कर रखे थे, सोचने लगी – कितने रंग दिखाती है ये जिंदगी? एक पल के लिए लगता है कि सब कुछ खत्म और कभी वहीं से जीवन में नई कोपलें फूट पडती हैं . उन थैलों को हाथ में लेते ही ऐसा लगा मानों किताब के कई पन्ने एक साथ फडफडा कर पीछे पलट गए हों.
सन् 2020 की बात है. नया साल शुरु हुआ ही था. शुभकामनाओं के संदेश अभी फीके भी नहीं पडे थे. खबर सुनाई पड रही थी कि विदेश में कोरोना नाम की बीमारी आई है हजारों लोग हर दिन मर रहे हैं. चीन, इटली, स्पेन में बीमारी की खबर सुनते – सुनते अपने देश में भी फैल गई. और फिर एक दिन घोषणा हुई कि पूरे देश में कामकाज बंद. सबसे बडी मुसीबत पडी मजदूरों पर, कमाएं ना तो खाएं क्या बेचारे? भूखों मरने की नौबत आ गई थी. बस, ट्रेन सब अचानक बंद करवा दी गई. बडे- बडे शहरों में आसपास के गांवों से ना जाने कितने मजदूर आते हैं काम करने, सब परेशान थे.
हम और तुम्हारे बाबू ने भी सोचा कि गांव जाना ही ठीक रहेगा. बीमारी हारी में अपनों के पास रहना ही ठीक होता है. तुम दोनों बहुत छोटे रहे, उसी समय हमने दो बडे थैले बनाए – एक पर लिखा विश्वास दूसरे पर संतुष्टि. जरूरत का सामान साथ रख हम पैदल चल दिए गांव की ओर. मन में विश्वास था कि हम अपने गांव पहुँच जाएंगे, संतोष इस बात का था कि हमारे पास जो कुछ है, बहुत है. रास्ते में बहुत लोग खाने – पीने का सामान बाँट रहे थे पर हम मना कर दिए लेने से. तुम्हारे बाबू बोले जिन लोगों के पास खाने को कुछ नहीं है आप उनको दें. हम कई दिन चलते रहे, थक जाते तो कहीं सडक किनारे रुक जाते, अपने विश्वास के सहारे गांव पहुँच ही गए बिटिया.
बिटिया की आँखें आश्चर्य से फैल गईं – अपना गांव तो दिल्ली से बहुत दूर है अम्माँ,इतना चले कैसे हम दोनों को गोद में उठाकर?
रमिया की आँखों के सामने उस सफर का हरेक पल साकार हो रहा था, आँखें भर आईं. बडे प्यार से बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए इतना ही बोली – मन के हारे हार है मन के जीते जीत.
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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शानदार