हृदय की बायपास सर्जरी करवा कर रामदीन कुछ दिन भोपाल में विश्राम के बाद बहु-बेटे के साथ आ गया।
ऑपरेशन के बाद सारे परिचित , शुभचिंतक वहां घर पर मिलने आते रहे। इन सब के बीच कालोनी में ही रहने वाले अपने अंतरंग मित्र शेखर की अनुपस्थिति रह-रह कर कचोटती रही।
अपने मित्रों की सूची में जब भी शेखर की बात आती, रामदीन विषाद व रोष से भर जाता। एक वर्ष बीतने को आया किन्तु इस अवधि में न तो शेखर की ओर से और न, ही रामदीन की ओर से परस्पर एक दूसरे से सम्पर्क कर वस्तुस्थिति जानने का प्रयास हुआ।
इतने अनन्य मित्र की इस बेरुखी से स्वाभाविक ही शेखर के प्रति रामदीन के मन में खीझ भरी इर्ष्या ने घर कर लिया था। समय बेसमय जब भी मित्र की याद आते ही मुंह कसैला सा होने लगता था।
वर्षोपरान्त रामदीन का पुनः मेडिकल चेकअप के लिए भोपाल जाना हुआ। वहां अस्पताल में अनायास ही शेखर से सामना हो गया, देखकर हतप्रभ रह गया।
देखा कि- शेखर अपनी पत्नी का सहारा लिए कंपकंपाते हुए डॉक्टर के केबिन से बाहर निकल रहा है।
पता चला कि, रामदीन के ऑपरेशन के समय से ही वह पार्किसंस की असाध्य बीमारी से ग्रसित चल रहा है।
विस्मित रामदीन के मन में अनजाने ही संवादहीनता के चलते मित्र शेखर के प्रति उपजे अब तक के सारे कलुषित भाव एक क्षण में साफ हो गए।
(34 years ago in the night of December 2-3, 1984, MIC gas was leaked from the Union Carbide, Bhopal. My poem is a tribute to all those people who lost their life in this incident. This poem has been cited from my book “The Variegated Life of Emotional Hearts”.)
(आज से 34 वर्ष पूर्व 2-3 दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड, भोपाल से मिक गैस रिसने से कई लोगों की मृत्यु हो गई थी । मेरे काव्य -संग्रह ‘शब्द …. और कविता’ से उद्धृत गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)
हम
गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।
बन्द
हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।
यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।
जलाओ
शौक से जलाओ
आखिर
ये सब
प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।
बरसों पहले
हिटलर के गैस चैम्बर में
कुछ इंसान
तिल तिल मरे थे।
हिरोशिमा नागासाकी में
कुछ इंसान
विकिरण में जले थे।
तब से
हमारी इंसानियत
खोई हुई है।
अनन्त आकाश में
सोई हुई है।
याद करो वे क्षण
जब गैस रिसी थी।
यूका प्रशासन तंत्र के साथ
सारा संसार सो रहा था।
और …. दूर
गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।
ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।
अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।
उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।
जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।
धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।
सबको श्रद्धांजलि!
गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!
(वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय श्री जयप्रकाश पाण्डे जी हमारी पीढ़ी के उन सौभाग्यशाली लोगों में शामिल हैं जिन्हें कई वरिष्ठ हस्तियों से व्यक्तिगत रूप से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिनमें प्रमुख तौर पर स्व श्री हरीशंकर परसाईं और आचार्य रजनीश जैसी हस्तियाँ शामिल हैं। हम समय समय पर उनके संस्मरणों का उल्लेख अपने पाठक मित्रों से साझा करते रहेंगे।)
इन दिनों डर और अविश्वास ने हम सब की जिंदगी में ऐसा कब्जा जमा लिया है कि कुछ भी सच नहीं लगता, किसी पर भी विश्वास नहीं होता। कोई अपनी पुरानी यादों के पन्ने खोल कर किसी को बताना चाहता है तो सुनने वाला डर और अविश्वास की चपेट में लगता है।
जिस दोस्त को हम ये कहानी बता रहे हैं, वह इस कहानी के सच के लिए तस्वीर चाह रहा है, सेल्फी देखना चाह रहा है, विडियो की बात कर रहा है। उस जमाने में ये सब कहां थे। फिर कहां से लाएं जिससे उसे लगे कि जो वह सुन रहा है सच सुन रहा है। लड़कपन की कहानी है जब हम छठवीं या सातवीं में पढ़ रहे थे गांव से पढ़ने शहर आये थे गरीबी के साथ गोलबाजार के एक खपरैल कमरे में रहते थे बड़े भाई उन दिनों डॉ महेश दत्त मिश्रा जी के अंडर में इण्डियन प्राइम मिनिस्टर संबंधी विषय पर पीएचडी कर रहे थे। पिता स्वतंत्रता संग्राम के दिनों नौकरी छोड़कर आँखें गवां चुके थे। माँ पिता जी गाँव में थे। घर के पड़ोस में महाकौशल स्कूल था और उस पार अलका लाज के पास साहू के मकान में महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डाक्टर महेश दत्त मिश्र जी दो कमरे के मकान में रहते थे। सीमेंट से बना मकान था। अविवाहित थे, खुद अपने हाथों घर की साफ-सफाई करते, खाना बनाते, बर्तन और कपड़े धोते। खेलते खेलते कभी हम उनके घर पहुंच जाते। एक दिन घर पहुँचे तो वे फूली फूली रोटियां सेंक रहे थे और एक पुरानी सी मेज में बैठे दाढ़ी वाले सज्जन को वो गर्म रोटियां परोस रहे थे, हम भी सामने बैठ गए, हमें भी गरमा गर्म एक रोटी परोस दी उन्होंने। खेलते खेलते भूख तो लगी थी वे गरम रोटियां जो खायीं तो उसका प्यारा स्वाद आज तक नहीं भूल पाए।
मिश्र जी गोल गोल फूली रोटियां सामने बैठे दाढ़ी वाले को परोसते जाते और दोनों आपस में हंस हंसकर बातें भी कर रहे थे। वे दाढ़ी वाले सज्जन आचार्य रजनीश थे जो उन दिनों विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाते थे। लड़कपन था खाया पिया और हम बढ़ लिए…. ।
कुछ दिन बाद शहीद स्मारक के सामने हम लोग खेल रहे थे, खेलते खेलते शहीद स्मारक भवन के हाल में हम लोग घुस कर बैठ गए तो सामने मंच में बैठे वही दाढ़ी वाले रजनीश कुछ कुछ बोल रहे थे, थोड़े बहुत जो लोग सुन रहे थे वे भी धीरे-धीरे खिसक रहे थे पर वे लगातार बोले ही जा रहे थे। इस तरह से लड़कपन में आचार्य रजनीश से बिना परिचय के मिलना हुआ।
बड़े भैया के साथ परसाई जी के यहां जाते तब भी वहां ये बैठे दिखे थे पर उस समय हम न परसाई जी को जानते थे और न ये दाढ़ी वाले आचार्य रजनीश को। कमरे के पीछे आचार्य रजनीश के भाई अरविंद जैन रहते थे जो डी एन जैन महाविद्यालय में पढ़ाते थे।
अभी दो तीन साल पहले जब पूना के आश्रम घूमने गए तो वहां हमारे एक दोस्त मिल गए, उनसे जब लड़कपन के दिनों की चर्चा करते हुए ओशो से भेंट की कहानी सुनाई तो पहले वे ध्यान से सुनते रहे फिर फोटो की मांग करने लगे……
अब बताओ कि 48 साल पहले की फोटो दोस्त को लाकर कहाँ से दिखायें, जब हमें ये भी नहीं मालूम था कि फोटो – ओटो भी होती थी। हमने कहा पूना आये थे तो सोचा ओशो आश्रम भी घूम आयें और आप मिल गए तो यादों के पन्ने भी खुल गए तो सोचा इन यादों को आपसे शेयर कर लिया जाए, फोटो तो नहीं हैं पर मन मस्तिष्क में सब यादें अचानक उभर आयीं। तब दोस्त ने एक अच्छी सलाह दी कि अब बता दिया तो बता दिया, अब किसी के सामने मत बताना, नहीं तो लोग सोचेंगे कि दिमाग कुछ घूम गया है…….
(आदरणीय श्री शांतिलाल जैन जी का यह व्यंग्य कुछ समय पूर्व सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा था। सम्पूर्ण व्यंग्य मात्र एक पोस्ट की तरह जिसमें कहीं भी उनके नाम का उल्लेख नहीं था। जब यह व्यंग्य उन्होने मुझे भेजा और मैंने इस सच्चाई से उन्हें अवगत कराया तो बड़ा ही निश्छल एवं निष्कपट उत्तर मिला – “मैंने इन चीजों पर कभी ध्यान नहीं दिया। लिखा, कहीं छप गया तो ठीक, फिर अगले काम में लग गए।” उनके इस उत्तर पर मैं निःशब्द हूँ, किन्तु ,मेरा मानना है की हम सबको सबके कार्य और नाम को यथेष्ट सम्मान देना चाहिए।)
“हलो अम्मा, हम गोपाल बोल रहा हूँ…..परणाम……हम ठीक हूँ अम्मा…वारंगल आ गया हूँ….काहे ? काहे क्या अम्मा, हम बताये था ना आपको… हम ‘यो यो टेस्टवा’ पास कर रहे हैं. का बतायें अम्मा…..जिनगी के खेल में बने रहना है तो यो यो टेस्टवा तो पास करना ही पड़ेगा ना… का है कि फेल हो जाते तो मार दिये जाते….क्या पूछ रही हो…..कि क्या होता है ई टेस्टवा में. केतना तो छप रहा पेपर में. हम भी पेपर में ही पढ़े हैं. तुम समझ नहीं सकोगी अम्मा फिर भी बताये दे रहे हैं….ई टेस्टवा में दो सीधी गईल लाइन पर तनिक तनिक दूरी पर कई कोनवा रखे जाते हैं जिनके बीच बीस मीटर की दूरी होईल है. दौड़नेवाला एक लाईनवा के पीछे अपना पांव रखकर शुरुआत करता है और ईशारा मिलते ही दौड़ने लगता है. दो कोनवा के बीच की दूरी पर बनी दो लाईनों के बीच लगातार दौड़ना पड़ता है अम्मा और जब एक घंटी सी बजती है जिसे बीप कहते हैं तब मुड़ना होता है. हर बीप पर तेज़ और तेज दौड़ना होता है. तो अम्मा…शहर क्या कोन्स समझो. छपरा से सिलचर. सिलचर से जयपुर. जयपुर से रायपुर. रायपुर से भिवंडी. भिवंडी से राजकोट. राजकोट से वारंगल. दूरी मीटरवा में नहीं किलोमीटरवा में. लट्ठ की बीप बज उठती है तो पहले से तेज़ भागना पड़ता है अम्मा. ये हमरे जिन्दा रहने के‘यो-यो बीप टेस्ट’ हैं. आप तो जानती हो अम्मा पाँव जिस रेखा के पीछे रहा उसे ये लोग गरीबी की रेखा कहते हैं, बाबा के संकेतवा पे दौड़ना शुरू किये थे. पहला कोन सिलचर में रहा, दूसरा भिवंडी में, अभी आखिरी बीपवा राजकोट में बजल रहा.
…बस अम्मा आपका आशीरवाद ठहरा जो किसी तरह इस कोनवा तक आ गए. रेल छत पर भी तिल रखने की जगह नही थी. हम तो तीन बार बिजली के तार से टकराते टकराते बचे हैं मगर हाजीपुरवाला नरेन अँधेरे में छत से कब कहाँ गिरा पता भी नहीं चला. रोओ मत अम्मा….दरद कैसा ? टेस्टवा पास करने की खुसी में डंडा खाने का दरद भूल गए हैं.
अम्मा….बाबा बचपन में कहते थे ना हम भारतीय हैं – गलत कहते थे. हर कोन पर हम बिहारी हैं अम्मा. बीप बजानेवाले असमी, मराठी, गुजरती, तेलुगु या ऐसे ही कुछ कुछ हैं. केतना केतना दौड़े हैं – भारतीय कोई नहीं मिलल. का बताई अम्मा… टेस्टवा की बीप बजानेवाले महीनों काम करा लेते हैं फिर बिना पगार दिए बीप बजा देते हैं ससुरे. हम तो फिर भी दौड़ लेब अम्मा – आपकी बहू मुश्किल से दौड़ पाती हैं. चिंकू को गोद में उठाये, परी को पीठ पर लादे गिरस्ती का सामानवा लिए दौड़ते हैं अम्मा. किसी तरह पहुँच जाते हैं दूसरे कोन पे…..हेलो अम्मा.. सुन रही हो….बाबा कहते थे ना अम्बेडकरजी लिखलवा क़ानून का केताब में कि सब बराबर हैं – ऊ गलत कहिन. लट्ठ उनकी केताब पे भी भारी पड़ता है. .. अभी रहेंगे यहाँ हम…यहाँ नई राजधानी बन रही है सो बीप बजने में समय बाकी है अभी… चलो रखते हैं… दस रूपये का रिचार्ज करवाए थे. बेलेंस ख़तम होने को है. खुसी बस इतनी कि जिनगी का यो यो टेस्ट किलियर करते जा रहे हैं…. अपना ख़याल रखना अम्मा. परणाम.
(वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कुन्दन सिंह परिहार जी विगत पाँच दशक से भी अधिक समय से साहित्य सेवा के लिए समर्पित हैं। चालीस वर्ष तक महाविद्यालयीन अध्यापन के बाद 2001 में जबलपुर के गोविन्द राम सेकसरिया अर्थ-वाणिज्य महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त। आप म.प्र. हिन्दी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार एवं राजस्थान पत्रिका के सृजनशीलता सम्मान से सम्मानित हैं। आपके पाँच कथा संग्रह एवं दो व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साथ ही 200 से अधिक कहानियाँ एवं लगभग इतने ही व्यंग्य विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। e-abhivyakti में हम आपके इस प्रथम व्यंग्य को प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं भविष्य में भी साहित्यिक सहयोग की अपेक्षा करते हैं।)
बब्बू भाई करीब पैंतीस साल की शानदार सेवा करके दफ्तर से बाइज़्ज़त और बेदाग़ रिटायर हो गये। रिटायर होने के बाद ज्यादातर रिटायर्ड लोगों की तरह न घर के रहे, न घाट के। रोज सवाल मुँह बाये खड़ा हो जाता कि कहाँ जायें और क्या करें। घर में ज्यादा धरे रहें तो आफत, ज्यादा घूमें घामें तो आफत।
बब्बू भाई की पूजा-पाठ में कभी रुचि रही नहीं। कभी घरवालों का जोर पड़ा तो मंदिर हो लिए, कभी घर में पूजा हुई तो यंत्रवत खानापूरी कर ली, और उसके बाद फुरसत। इसलिए रिटायरमेंट का वक्त पूजा-पाठ में गुजारने का वसीला नहीं बना, जो बहुत से रिटायर्ड लोग करते हैं।
बब्बू भाई सबेरे उठकर पास के पुल की तरफ निकल जाते। वहाँ धीरे धीरे टहलते रहते। पुल की दीवार से टिककर कानों में इयर फोन लगाकर पसंद के गाने सुनते रहते। इसी में घंटा डेढ़ घंटा कट जाता। कोई परिचित मिल जाता तो आराम से बात भी हो जाती।
इधर कुछ दिन से बब्बू भाई पास के पार्क में जाने लगे हैं। पार्क साफ-सुथरा है। घूमने के लिए पक्की पट्टी है, बैठने के लिए पत्थर की बेंचें हैं, बीच में हरी घास का मैदान है। बब्बू भाई गीत-गज़ल के शौकीन हैं। समझ भी रखते हैं। मोबाइल में यू-ट्यूब पर गज़लें लगा लेते हैं। बेंच पर बैठकर बड़ी देर तक सुनते रहते हैं और वाल्यूम बढ़ा देते हैं ताकि आसपास के लोग भी आनंद लें। बेगम अख्तर, जगजीत सिंह, मेंहदी हसन, गुलाम अली, फरीदा खानम, नूरजहां, मलिका पुखराज के स्वर देर तक गूंजते रहते हैं। आजू-बाजू में टहलते लोग उन सुरों को सुनकर कुछ देर ठमक जाते हैं।
बब्बू भाई पार्क से संतुष्ट होकर, अच्छे संगीत को बांटने का एहसास लेकर लौटते हैं। बड़ी देर तक मूड अच्छा बना रहता है।
लेकिन मुहल्ले में बब्बू भाई के खिलाफ कुछ और खिचड़ी पकने लगी। मुहल्ले की महिलाओं ने बब्बू भाई की पत्नी से शिकायत की कि बब्बू भाई के लच्छन कुछ अच्छे नहीं हैं, वे पार्क में बैठकर ऊटपटाँग गाने सुनते रहते हैं। शिकायत है कि उनका आचरण बुजुर्गों जैसा कम और लफंगों जैसा ज्यादा है।
बब्बू भाई की पत्नी किराने की दूकान पर मुहल्ले की ‘बुआ जी’ से मिलीं तो बात और तफसील से हुई। बुआ जी बोलीं, ‘बहन अब क्या बतायें। आपके हज़बैंड पार्क में रोज इश्क विश्क वाले गाने लगाकर बैठ जाते हैं। कोई बेगम हैं जो गाती हैं– ‘अय मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, कोई गाती हैं ‘आज जाने की जिद न करो, यों ही पहलू में बैठे रहो’, मतलब यह सब कि सब काम-धंधा छोड़कर इनके बगल में धरे रहो। एक और गाती हैं ‘अभी तो मैं जवान हूँ।’ अब बताओ भैना, आपके हज़बैंड को इस उमर में ये गाने सुनना शोभा देता है क्या? बुढ़ापे में कोई गाये कि अभी तो मैं जवान हूँ तो कैसा लगेगा? एक और पाकिस्तानी गायक हैं जो गाते हैं कि तेरा छत पे नंगे पांव आना याद है। अब बताओ मुहल्ले के लड़के ये गाने सुनेंगे तो उनके दिमाग पर क्या असर पड़ेगा? वैसे ही नयी पीढ़ी का सत्यानाश हो रहा है। आपके हज़बैंड को चाहिए कि परलोक की चिन्ता करें और भजन कीर्तन वगैरह सुनें। उन्हें सत्संग में भेजा करो। संस्कार चैनल दिखाया करो। इस उम्र में इश्क के गाने सुनकर परलोक नहीं बनने वाला।’
बुआ जी आगे बोलीं, ‘और फिर आपके हज़बैंड ज़्यादातर पाकिस्तानी गायकों के गाने क्यों सुनते हैं? पाकिस्तान हमारा दुश्मन है। हम पाकिस्तानी गायकों को घुसने नहीं देते। लेकिन आपके हज़बैंड उन्हें कान से और दिल से चिपकाए रहते हैं। ये अच्छी बात नहीं है। इससे आपके हज़बैंड की देशभक्ति पर सवाल उठता है।’
बब्बू भाई की पत्नी ने लौटकर सब पति को बताया। बब्बू भाई भी चिंता में पड़ गये। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी!
अब बब्बू भाई पार्क में बैठते तो मुहल्ले की महिलाएं टहलते टहलते रुककर सुझाव देने लगतीं -‘भाई साहब, हरिओम शरन लगा लीजिए। ‘तेरा राम जी करेंगे बेड़ा पार’ या ‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊँ ‘।अनूप जलोटा को लगाइए। गजल वजल सुनना भूल जाएंगे। ‘ बब्बू भाई अब इयरफोन से ही सुनते ताकि आसपास के लोगों को हवा न लगे कि वे क्या सुन रहे हैं।
बब्बू भाई के पास अब सत्संग में चलने के निमंत्रण आने लगे। बब्बू भाई बहाना बनाकर बचते। मुहल्ले वाले उन्हें सुधारने पर आमादा हो गये थे। बुआजी ने बब्बू भाई की पत्नी को यह सलाह दे दी थी कि हर साल बब्बू भाई को तीर्थयात्रा पर ले जायें और हर महीने घर में सुन्दरकांड का पाठ करायें।
इस चौतरफा हमले से परेशान बब्बू भाई फिलहाल अंतर्ध्यान हो गये हैं। सुना है कि वे ससुराल-सेवन के लिए निकल गये हैं। एक दो महीने वहाँ रहेंगे, फिर दूसरी रिश्तेदारियां खंगालेंगे। फिलहाल उनका शहर लौटने का इरादा नहीं है। उम्मीद की जा रही है कि उनकी अनुपस्थिति से मुहल्ले का प्रदूषण-स्तर कुछ कम हो जायेगा।
यह भी चर्चा है कि उनका इरादा नर्मदा किनारे एक दो एकड़ ज़मीन खरीदने का है जहाँ वे कुटिया बनाकर रहेंगे और जहाँ उन्हें टोकने और नसीहत देने वाला कोई न होगा।
(‘पंचमढ़ी की खोज’ श्री सुरेश पटवा की प्रसिद्ध पुस्तकों में से एक है। आपका जन्म देनवा नदी के किनारे उनके नाना के गाँव ढाना, मटक़ुली में हुआ था। उनका बचपन सतपुड़ा की गोद में बसे सोहागपुर में बीता। प्रकृति से विशेष लगाव के कारण जल, जंगल और ज़मीन से उनका नज़दीकी रिश्ता रहा है। पंचमढ़ी की खोज के प्रयास स्वरूप जो किताबी और वास्तविक अनुभव हुआ उसे आपके साथ बाँटना एक सुखद अनुभूति है।
श्री सुरेश पटवा, ज़िंदगी की कठिन पाठशाला में दीक्षित हैं। मेहनत मज़दूरी करते हुए पढ़ाई करके सागर विश्वविद्यालय से बी.काम. 1973 परीक्षा में स्वर्ण पदक विजेता रहे हैं और कुश्ती में विश्व विद्यालय स्तरीय चैम्पीयन रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत सहायक महाप्रबंधक हैं, पठन-पाठन और पर्यटन के शौक़ीन हैं। वर्तमान में वे भोपाल में निवास करते हैं। आप अभी अपनी नई पुस्तक ‘पलक गाथा’ पर काम कर रहे हैं। प्रस्तुत है उनकी पुस्तक पंचमढ़ी की खोज पर उनका आत्मकथ्य।)
मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िला की सोहागपुर तहसील में 1860 से 1870 के दशक में दो अत्यंत महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं जिन्होंने न सर्फ़ तहसील के जीवन को पूरी तरफ़ बदल कर रख दिया अपितु एक नया शहर पिपरिया अस्तित्व में आ गया, जिसे पंचमढ़ी के प्रवेश-द्वार और प्रोटीन से भरपूर तुअर दाल के लिए पूरे देश में जाना जाता है। अंग्रेज़ों के सोहागपुर को रेल का ठिकाना बनाने से बस्ती के बाशिंदों को नई अंग्रेज़ी शिक्षा के द्वार खुल गए 50 किलोमीटर के घेरे से लोग पढ़ने-लिखने वहाँ आने लगे। इलाक़े में यह उलाहना पूर्ण कहावत चल पड़ी कि “पढ़े न लिखे सोहागपुर रहते हैं”, जिसके जवाब में एक नई कहावत बाजु के नरसिंघपुर जिले में बन गई कि “पढ़ौ न लिखो होय, मनो नरसिंघपुरिया होय”। यह प्रतिस्पर्धा निरंतर है।
पहली घटना थी, सोहागपुर से इटारसी-जबलपुर खंड की रेल लाइन का बिछाना जिसके लिए लकड़ी सिलीपाट, लाल मुरम, पलकमती की बारीक रेत और सस्ता श्रम सोहागपुर की बस्ती ने उपलब्ध कराया। दूसरी घटना थी, जबलपुर को सेंट्रल प्राविन्स की राजधानी बनाकर होशंगाबाद को कमिशनरी और ज़िला मुख्यालय बनाना एवं होशंगाबाद जिले का सीमांकन और फ़ौजी ठिकाने हेतु कैप्टन जेम्ज़ फ़ॉर्सायथ द्वारा खेतिहर ज़मीन की पहचान, कोयला के भण्डारों का पता लगाना व सुरक्षित अभयारण्य की स्थापना हेतु पंचमढ़ी की खोज।
जबलपुर से पंचमढ़ी तक की इस यात्रा में वन्य-जीवन, आदिवासी संस्कृति, सतपुड़ा की वनस्पति, आदम खोर का शिकार और क़दम-क़दम पर जोखिम के रोमांच है।
पंचमढ़ी की खोज से ……..
जेम्स फ़ॉर्सायथ ने जनवरी 1862 में जब पंचमढ़ी की तरफ अपनी यात्रा शुरु की तब तक रेल लाइन डालने के लिए बावई से बागरा तक आकर, रेल लाइन के किनारे-किनारे गिट्टी, रेत, सिलिपाट मजदूर मशीन और दूसरी अन्य चीजें ले जाने के लिए लाल मुरम डालकर एक कच्ची सड़क नरसिंघपुर तक बन गई थी। फ़ॉर्सायथ के पास एक बहुत होशियार और समझदार ऊँट था, जिसे उसने बुंदेलखंड में विद्रोहियों और ठगों की सफाई की मुहिम के दौरान पकडा था। वह ऊँट लावारिस घूम रहा था संभवत: उसके मालिक को ठगों ने ठिकाने लगा दिया हो और माल लूटकर ऊँट छोड दिया होगा। उस ऊँट की एक अजीब सी आदत थी कि वह कुछ दिनों के लिए फ़ॉर्सायथ को छोडकर जंगल की तरफ की तरफ ऊंटनी की खोज में निकल जाता था और निपट सुलझ कर पूँछ हिलाते हुए वापस मालिक के पास आ जाता था। तब उसकी आँखो और शरीर में एक चमक होती थी। प्रतिवर्ष अक्टूबर से दिसम्बर तक वह ऐसा ही करता था इसलिए फ़ॉर्सायथ ने उसका नाम ‘जंगली’ रख दिया था। जब वह जंगल से वापस आता तो जुगाली में मुँह चलाते हुए एकटक फ़ॉर्सायथ को देखता रहता था मानो कह रहा हो हमको तो मेम मिल गई पर तुम्हारी ऊँटनी कहाँ है।
आप अमेरिका का नक्शा देखें। उसमें उनके 52 राज्य की सीमाएँ आयताकार हैं। राज्य बनाने के लिए 1780 के आसपास सीथी-सीधी रेखाएँ खींच दी गईं थीं क्योकि तब तक ऊबड़-खाबड़ जमीन, कहीं-समतल, कहीं-पहाड़, कहीं-नदी, कहीं घाटी और कहीं खाइयाँ नापने के सूत्र विकसित नहीं हुए थे । ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और ग्लासगो विश्वविद्यालयों में पाइथागोरस के रेखागणित और बीजगणित के सूत्रों और सिद्धांतों पर फार्मूले विकसित किए गए जिनसे उन्नीसवीं सदी में सबसे पहले हिंदुस्तान को नापा गया। उस समय इंग्लैंड के लिए हिंदुस्तान सबसे महत्वपूर्ण था क्योंकि अमेरिका हाथ से निकल चुका था और आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिणी अफ्रीका और कनाडा पूरी तरह हाथ में नहीं आए थे। ग्रीक के एरेटोस्थेनेस ने पृथ्वी के व्यास की गणना पता करने के लिए सूत्रों का प्रयोग किया था तदनुसार इंग्लैंड के भूगर्भशास्त्रियों ने पृथ्वी के केंद्र से सतह की दूरी 6371 किलोमीटर आँकी थी। अग्रेजों ने हिदुस्तान को नापने के लिए Great Trigonometric Survey नाम से एक प्रोजेक्ट 1802 में शुरू की, जिसमें भारत को कई ट्राइएंगल याने तिकोने में बाँटा गया। उन ट्राइएंगल का क्षेत्रफल निकाल कर सूबे और फिर देश का क्षेत्रफल आँका गया था।
प्रोजेक्ट के मुखिया थे विलियम लामटन, उनके सहायक थे जॉर्ज एवरेस्ट और उनके सहायक एंड्रू स्कॉट वॉ थे। विलियम 1823 में सिरोंज, मध्यप्रदेश तक का सर्वेयर जनरल ऑफ इंडिया बनाया गया जिसने 1861 तक माउंट एवरेस्ट को नाप दिया, उसे मलेरिया हो गया वह इंग्लैंड लौट गया। लेकिन काम पूरा न होने की वज़ह से प्रोजेक्ट एंड्रू स्कॉट वॉ को सौंपी गई जिसने 1871 में काम पूरा करके भारत का पहला अधिकृत नक्शा बना कर दिया। उन्हीं एंड्रू स्कॉट वॉ की ब्रिटिश आर्टिलरी में एक कैप्टन थे जेम्स फ़ॉर्सायथ जिन्होने पंचमढ़ी को खोज निकाला और आज की पंचमढ़ी की नींव रखी थी।
हिंदुस्तान के सर्वे के दौरान नर्मदा घाटी को मोटा-मोटा नाप में तो ले लिया गया था परंतु नाप के ट्राइएंगल हरदा से नर्मदा पार करके हँडिया, सिहोर, श्यामपुर दोराहा, विदिशा से सिरोंज शिवपुरी ग्वालियर होते हुए आगरा, दिल्ली तरफ निकल गए थे। दूसरी तरफ नागपूर से गोंदिया, राजनांदगांव, दुर्ग, रायपुर और बिलासपुर होते हुए बिहार होकर गोरखपुर निकल गए थे। इसी बीच 1857 का संग्राम शुरू हो क्या तो काम रुक गया, वह पुनः 1861 में जाकर शुरू हुआ। सवाल उठना लाजिमी है, तो फिर अकबर के जमाने में टोडरमल ने क्या किया था। उसने सिर्फ कृषि जोत योग्य ज़मीनों को गुणवत्ता के हिसाब से नाप कर लगान तय किया था। जिलों और नगर की सीमाएं नदी नालों के अनुसार तय होतीं थीं जो आज भी देखी जा सकती हैं। जैसे तवा नदी के इस तरफ सोहागपुर तहसील और उस तरफ होशंगाबाद तहसील या नर्मदा के दक्षिण में नरसिंहपुर या होशंगाबाद जिले और उत्तर में सागर और रायसेन जिले। मुगल काल तक हिंदुस्तान के वैज्ञानिक गणना आधारित नक्शे नहीं बने थे।