आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (45) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌।।45।।

 

और यत्न करता हुआ हो पवित्र परिशुद्ध

पाता सदगति सफलता होता है संबुद्ध।।45।।

 

भावार्थ :  परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करने वाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कारबल से इसी जन्म में संसिद्ध होकर सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है॥45॥

 

But, the  Yogi  who  strives  with  assiduity,  purified  of  sins  and  perfected  gradually through many births, reaches the highest goal. ।।45।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (44) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ।।44।।

 

सहज पूर्व अभ्यास वश खिचंता उसका ध्यान

 केवल शाब्दिक ज्ञान से,जिज्ञासा बलवान।।44।।

 

भावार्थ :  वह (यहाँ ‘वह’ शब्द से श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पुरुष समझना चाहिए।) श्रीमानों के घर में जन्म लेने वाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसंदेह भगवान की ओर आकर्षित किया जाता है तथा समबुद्धि रूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल को उल्लंघन कर जाता है ।।44।।

 

By that very former practice he is borne on in spite of himself. Even he who merely wishes to know Yoga transcends the Brahmic word. ।।44।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (43) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ।।43।।

 

वहां पूर्व संयोग से ,फिर लेकर नयी आश

कुरूनंदन जाता नहीं कोई व्यर्थ प्रयास।।43।।

 

भावार्थ :  वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किए हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! उसके प्रभाव से वह फिर परमात्मा की प्राप्तिरूप सिद्धि के लिए पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है ।।43।।

 

There he comes in touch with the knowledge acquired in his former body and strives more than before for perfection, O Arjuna! ।।43।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (42) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌।।42।।

 

बुद्धिमान योगी का कुल पाता है वह बाद

इस प्रकार दुर्लभ जनम नहि होता बरबाद।।42।।

 

भावार्थ :  अथवा वैराग्यवान पुरुष उन लोकों में न जाकर ज्ञानवान योगियों के ही कुल में जन्म लेता है, परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसंदेह अत्यन्त दुर्लभ है।।42।।

 

Or he is born in a family of even the wise Yogis; verily a birth like this is very difficult to obtain in this world.।।42।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ रंजना जी यांचे साहित्य #-19 – मनकवडा ☆ – श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मानवीय रिश्तों पर आधारित  चारोळी विधा में  रचित एक भावप्रवण कविता  – “मनकवडा। )

 

 ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य #- 19☆ 

 

 ☆ मनकवडा  ☆

 

भाव माझा भाबडा, देव तू रे  मनकवडा ।

न मागताच देशी मला हा योग केवाढा।।धृ।।

 

शाशू वायी मी अजाण, स्वछंदी असे मन।

क्रिडेमधे बालपण , भले बुरे नसे ज्ञान।

किशोरवयी गाजवती मित्र पगडा।।१।।

 

तरुणपण लागताच, तरंगलो मी हवेत।

वाटे मज घ्यावे जणू , जग सारे हे कवेत।

स्वप्न रंगी रंगलो मी प्रेम वेडा।।२।।

 

संसाराची धुंदी चडे, बायका मुले चोहिकडे।

होस मौज भागेना , हे मजशी कोडे।

स्वार्थासाठी होई कसा मार्ग वाकडा।।३।।

 

वृद्धपणी दीनवानी, दुःखाचा मी होता धनी।

संसारी हो कुचकामी,  तत्त्वज्ञान जागे मनी।

सांग कुठे शोधू तुला, हा मार्ग  तोकडा।।४।।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (41) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ।।41।।

 

पुण्यवान के लोक में रहकर समुचित साथ

योग श्रेष्ठ फिर जन्मता सदगृहस्थ घर तात।।41।।

 

भावार्थ :  योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात स्वर्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान पुरुषों के घर में जन्म लेता है।।41।।

 

Having attained to the worlds of the righteous and, having dwelt there for everlasting years, he who fell from Yoga is reborn in the house of the pure and wealthy।।41।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (40) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

श्रीभगवानुवाच

पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।

न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ।।40।।

 

भगवान के कहा-

पार्थ ! न ही इस लोक में न ही परलोक विनाश

थोडे भी शुभ कर्म का कभी न होता नाश।।40।।

            

भावार्थ :  श्री भगवान बोले- हे पार्थ! उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है और न परलोक में ही क्योंकि हे प्यारे! आत्मोद्धार के लिए अर्थात भगवत्प्राप्ति के लिए कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।।40।।

 

O Arjuna, neither in this world, nor in the next world is there destruction for him; none, verily, who does good, O My son, ever comes to grief!  ।।40।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (39) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।

त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ।।39।।

 

मेरे इस संदेह को करने दूर समर्थ

सिवा आप के कृष्ण हे ! कौन कहेगा अर्थ।।39।।

 

भावार्थ :  हे श्रीकृष्ण! मेरे इस संशय को सम्पूर्ण रूप से छेदन करने के लिए आप ही योग्य हैं क्योंकि आपके सिवा दूसरा इस संशय का छेदन करने वाला मिलना संभव नहीं है।।39।।

 

This doubt of mine, O Krishna, do Thou completely dispel, because it is not possible for any but Thee to dispel this doubt. ।।39।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (38) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।

अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ।।38।।

 

असफलता से कहीं हो छिन्न आत्म विश्वास

ब्रम्ह प्राप्ति के मार्ग पर पाता नहीं विनाश।।38।।

 

भावार्थ :  हे महाबाहो! क्या वह भगवत्प्राप्ति के मार्ग में मोहित और आश्रयरहित पुरुष छिन्न-भिन्न बादल की भाँति दोनों ओर से भ्रष्ट होकर नष्ट तो नहीं हो जाता?।।38।।

 

Fallen from both, does he not perish like a rent cloud, supportless, O mighty-armed (Krishna), deluded on the path of Brahman? ।।38।।

 

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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – षष्ठम अध्याय (37) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

षष्ठम अध्याय

( योगभ्रष्ट पुरुष की गति का विषय और ध्यानयोगी की महिमा )

 

अर्जुन उवाच

अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।

अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ।।37।।

 

अर्जुन ने कहा-

श्रद्धा रखते,यत्न कम चंचल मन का व्यक्ति

योग सिद्धि न हुई तो पाता है क्या गति ।।37।।

भावार्थ :  अर्जुन बोले- हे श्रीकृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला है, किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।।37।।

 

He who is unable to control himself though he has the faith, and whose mind wanders away from Yoga, what end does he meet, having failed to attain perfection in Yoga, O Krishna? ।।37।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

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