मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ ORS चे जनक डॉ. दिलीप महालानोबिस – सुश्री योगीन गुर्जर ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? इंद्रधनुष्य ?

☆ ORS चे जनक डॉ. दिलीप महालानोबिस सुश्री योगीन गुर्जर ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे  ☆

आज आपल्याला अचानक अशक्तपणा आला , जुलाब वगैरे आजारामुळे शरिरातील पाणी कमी झाले तर डॉक्टर आपल्याला ORS– oral rehydration therapy– घ्यायला सांगतात. बाजारात सहज उपलब्ध असलेले पाच रुपया पासून लहान लहान पाकिट sachet आपण पाण्यात घोळुन पितो व दोन पाच मिनिटांत तरतरी वाटते .

आज जगभरात ORS वापरले जाते. या ORS चे जनक एक भारतीय डॉक्टर होते हे वाचून तुम्हाला धक्का बसेल.

ते आहेत प.बंगाल मधील प्रसिद्ध बालरोग तज्ञ डॉ दिलीप महालानोबिस. 

डॉ दिलीप महालानोबिस हे एक भारतीय बालरोगतज्ञ होते, जे अतिसाराच्या आजारांवर उपचार करण्यासाठी “ओरल रिहाइड्रेशन थेरपी “ च्या वापरासाठी प्रख्यात होते. १९६० च्या मध्यात त्यांनी भारतातील कलकत्ता येथील जॉन्स हॉपकिन्स इंटरनॅशनल सेंटर फॉर मेडिकल रिसर्च अँड ट्रेनिंग येथे कॉलरा आणि इतर अतिसाराच्या आजारांवर संशोधन केले. 

अशा जगभरातील कोट्यवधी लोकांचा जीव वाचवणाऱ्या डॉक्टरांचे १६ ऑक्टोबर २०२२ रोजी वयाच्या ८७ व्या वर्षी कोलकता येथील एका इस्पितळात निधन झाले. 

( जन्म १२ नोव्हेंबर १९३२ )

त्यांचे कार्य नोबेल पारितोषिक मिळण्याइतके मोठे होते.

पण भारत सरकारने सुद्धा पद्म पुरस्कार दिला नाही.

तळ टिप:- यांच्या निधनाची मराठी माध्यमांनी दखल घेतली नाही म्हणून हा छोटासा लेख.

लेखिका : सुश्री योगीन गुर्जर 

संग्राहिका : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 34 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 34 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

५२.

तुझ्या गळ्यातला गुलाबांचा हार

मागून घ्यावा असं वाटलं पण

मागायचं धाडस झालं नाही. सकाळ झाली.

तू निघून गेलास. बिछान्यावर काही पाकळ्या

राहिल्या होत्या आणि भिकाऱ्यासारखी मी

सकाळी एखाद- दुसरी पाकळी शोधीत राहिले.

 

अरे देवा! मला काय मिळालं?

तुझ्या प्रेमाची कोणती खूण?

फूल नाही, सुगंध नाही की गुलाबदाणी नाही.

विजेच्या आघातासारखी चमचमणारी

जडशीळ अशी तुझी तलवार!

 

चिवचिवाट करून पहाटपक्षी विचारत होता,

‘ बाई गं! तुला काय मिळालं?’

‘ नाही फूल, नाही अत्तराचा सुगंध,

 नाही गुलाबदाणी.फक्त तुझी भयानक तलवार!

 

मी विचार करीत बसले ‘ ही कसली तुझी भेट!’

ती मी कुठं लपवू? मी ती पेलू शकत नाही

याची शरम वाटते. कारण मी इतकी नाजूक!

मी ती पोटाशी धरते तेव्हा ती मला खुपते.

तरीसुद्धा तू दिलेल्या दु:खाच्या ओझ्याचा हा मान,

तुझी भेटवस्तू मी ऱ्हदयाशी धरते.

 

या जगात मला कसलीच भीती आता नाही.

माझ्या लढाईत तुझाच विजय होत राहील.

 

तू माझ्या सोबत्यासाठी मरण ठेवलंस.

मी त्याला आयुष्याचा शिरपेच चढवीन.

मला बंधनातून मोकळं करायला

तुझी ही तलवार आहे.

मला या जगात आता कशाचीच भीती नाही.

 

माझ्या ऱ्हदयस्वामी! क्षुद्र साजशृंगार मी

व्यर्ज केले आहेत.

आता कोपऱ्यात बसून मी रडणार नाही;

अवनत होणार नाही, उन्नत होईन व राहीन.

 

या तलवारीचा अलंकार तू मला बहाल केलास.

बाहुल्यांचा खेळ आता कशाला?

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

 

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #165 ☆ व्यंग्य – मोटी किताब लिखने के फायदे ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘मोटी किताब लिखने के फायदे ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 165 ☆

☆ व्यंग्य – मोटी किताब लिखने के फायदे

लेखकों-कवियों के ये दुर्दिन हैं। किताबें लिखी खूब जा रही हैं, छप भी रही हैं, लेकिन पढ़ने वाला कोई नहीं है। दूर-दूर तक बस धूल उड़ती दिखती है। कहाँ गया रे पाठक? कवि आँख मूँदे पुकार रहा है— ‘आ लौट के आजा मेरे मीत, तुझे मेरे गीत बुलाते हैं’, लेकिन मीत यानी पाठक ‘डोडो’ पक्षी की तरह अंतर्ध्यान हो गया है।

वैसे लेखक और कवि अभी पूरी तरह मायूस नहीं हुए हैं। जेब से पैसे लगाकर अपनी किताबें छपवा रहे हैं और प्रकाशकों की जेब गर्म कर रहे हैं। कोई कन्या के दहेज के लिए रखे पैसे निकाल रहा है तो कोई बीमारी-विपदा के लिए रखे पैसे बढ़ा रहा है। कुछ ऐसे समर्पित लेखक हैं जो पत्नी के ज़ेवर बेचकर अमर होने का इंतज़ाम कर रहे हैं। लेकिन इन पुस्तकों को पढ़ने वाला कहाँ है? यानी पकवान तो बन रहे हैं लेकिन उनका स्वाद लेने वाला ग़ायब है। अब लेखक ही लिखे और लेखक ही पढ़े।

ज़्यादातर प्रकाशक भी पाठकों के बूते किताबें नहीं छापते। उनकी नज़र या तो थोक ख़रीद पर रहती है या पुरस्कारों पर। प्रकाशक सही कमीशन देने को तैयार हो तो कितनी भी मँहगी किताब कितनी भी संख्या में बिक जाएगी। साहब से लेकर मुसाहब तक सब का हिस्सा देने के बाद किताबें विभागों को ढकेल दी जाएंगीं जहाँ उन्हें शेल्फों में ठूँस कर अंतिम प्रणाम कर लिया जाएगा। पाठक को छोड़कर लेखक, प्रकाशक, अफसर, बाबू सब खुश क्योंकि सबको ज्ञान का प्रसाद मिल जाता है। यानी किताब की स्थिति यह होती है कि ‘आये भी वो,गये भी वो, ख़त्म फ़साना हो गया’। इसीलिए आजकल उन लेखकों की किताबें आसानी से छपती हैं जो ऊँचे ओहदे पर या ताकतवर हैं और किताबें बिकवाने की कूवत रखते हैं।

बहुत से लेखकों को सामान्य पाठक पसन्द नहीं आते। वजह यह है कि बहुत से पाठक कुछ नासमझ यानी खरी खरी बात करने वाले होते हैं। लेखक की रचना पढ़कर बेबाक आलोचना कर देते हैं जो लेखक के दिल पर चोट करती है। ये नादान पाठक यह नहीं समझते कि लेखक बेहद संवेदनशील होता है, आलोचना उसे बर्दाश्त नहीं होती। ‘फुलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट।’ ऐसे लेखक सामान्य पाठक को अपनी रचना के पास नहीं फटकने देते। दस बारह यारों को घर पर बुला लेते हैं और उच्च कोटि की जलपान व्यवस्था के बाद रचना पर अपनी बहुमूल्य राय प्रस्तुत करने का अनुरोध करते हैं। मित्रों को अपनी भूमिका मालूम होती है, अतः वे रचना का अंश कान में पड़ते ही सिर धुनना शुरू कर देते हैं। फिर वे गदगद स्वर में कहते हैं कि ऐसी महान रचना सुनकर वे स्तब्ध हैं और ऐसी रचना न पहले लिखी गयी, न भविष्य में लिखी जा सकती है।वे रुँधे कंठ से यह भी कहते हैं उन्हें पता नहीं था कि उनके बीच ऐसा गुदड़ी का लाल छिपा है। प्रशंसा से मगन लेखक अनुपस्थित आम पाठक को अँगूठा दिखा कर लंबी तान कर सो जाता है।

ताज्जुब है कि ऐसे शत्रु-समय में भी कुछ लेखक पूर्ण निष्ठा और मनोयोग से मोटी मोटी किताबें लिख कर साहित्य के प्रांगण में पटक रहे हैं। पृष्ठ संख्या पाँच सौ से हज़ार तक, कीमत पाँच सौ से छः सौ तक। हर साल ऐसे महाग्रंथ धरती पर उतर कर उस में कंपन उत्पन्न कर रहे हैं। ये कौन अटूट आशावादी लेखक हैं जो ज़माने की तरफ पीठ करके पोथे रचने में लगे हैं? उन्हें कौन पढ़ेगा? कौन खरीदेगा? लेखक से पूछिए तो उनका भोला सा उत्तर होगा कि विश्व के ज़्यादातर क्लासिक वज़नदार रहे हैं और जहाँ तक कीमत का सवाल है, महान साहित्य के लिए पाठकों को त्याग करना ही पड़ेगा।

ऐसी वज़नदार किताबें आते ही धड़ाधड़ उनकी समीक्षाएँ और लेखक के इंटरव्यू आना शुरू हो जाते हैं। इन समीक्षाओं और साक्षात्कारों  को लिखने के लिए अनेक रिटायर्ड लेखक धूल झाड़ कर पुनः प्रकट हुए हैं और अनेक नये समीक्षकों का जन्म हुआ है। सभी समीक्षाओं से एक बात स्पष्ट होती है कि साहित्य में नयी ज़मीन टूट चुकी है और पवित्र जल फूटने को ही है।

इन पोथों का विमोचन भी कम दिलचस्प नहीं होता। हिन्दी के एक लेखक अपनी पुस्तकों के प्रकाशन की धीमी गति से ऐसे अधीर हुए कि उन्होंने अपना प्रकाशन गृह खोल डाला और अपना एक भारी-भरकम उपन्यास छाप दिया। उपन्यास के लिए वित्त कहांँ से आया होगा यह सोचकर ही रूह काँपती है क्योंकि लेखक लक्ष्मी जी के लाड़ले नहीं थे।

पुस्तक के विमोचन हेतु एक मशहूर बुज़ुर्ग लेखक आमंत्रित हुए। बुज़ुर्ग लेखक ने अपने भाषण में जो कहा वह आँख खोलने वाला था। उन्होंने कहा कि उन्होंने वह पुस्तक तो नहीं पढ़ी थी, लेकिन लेखक की अन्य रचनाएं पढ़ी थीं जिनके आधार पर वह कह सकते थे कि—। यह बुज़ुर्ग लेखक की ईमानदारी थी कि उन्होंने स्वीकार कर लिया उन्होंने किताब पढ़ी नहीं थी, अन्यथा ऐसे वक्ता भी होते हैं जो पुस्तक को बिना पढ़े उस पर एक घंटा बोलने का माद्दा रखते हैं।

मोटी किताबों के प्रकाशन का गणित साफ है। यदि पाठक को खारिज कर दिया जाए तो मोटी और मँहगी किताबें लेखक, प्रकाशक और अफसरों-बाबुओं के लिए दुबली और सस्ती किताबों के मुकाबले ज़्यादा फायदेमन्द होती हैं। पच्चीस पचास किताबों की खरीद में ही वारे-न्यारे हो जाते हैं।

मोटी पुस्तकें पुरस्कार की दृष्टि से भी अच्छी होती हैं क्योंकि पुरस्कारों के सूत्र जिनके हाथों में होते हैं वे पुस्तकों को बाहर से ही देखते हैं। मोटी किताब रोब पैदा करती है और लेखक के दावे को पुख़्ता करती है। बाकी काम जुगाड़ से होता है जिसके लिए पुस्तक की उपस्थिति ही काफी होती है। पढ़कर विद्वान लेखक के प्रति अविश्वास कौन जताये? विश्वविद्यालयों में भी पीएच.डी. के लिए मोटा पोथा ज़रूरी माना जाता है।

वैसे पढ़ने की बात छोड़ दें तो मोटी पुस्तकों के बहुत से दीगर उपयोग हैं। घर में तकिया न हो तो मोटी किताब ख़ासा सुकून दे सकती है। आम लेखक अहिंसक होता है, घर में असलाह नहीं रखता, इसलिए घर में चोर-लुटेरा घुस आए तो पुस्तक फेंककर उसका जबड़ा तोड़ा जा सकता है। लेकिन इसके लिए पुस्तक का हार्ड बाउंड होना ज़रूरी है। पेपरबैक इस लिहाज से बेकार है।

चलते चलते आम लेखक के लिए यह नसीहत ज़रूरी है कि मोटी पुस्तक अपने खर्चे से न छपवाये वर्ना वह अपना जबड़ा भी तोड़ सकती है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ और बेटी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर विचारणीय कविता – माँ और बेटी।)

☆ कविता – माँ और बेटी☆ श्री हरभगवान चावला ☆

1.

धूप में गेहूँ साफ़ करती माँ

बार-बार पसीना पोंछती

लम्बी साँस लेती जा रही थी

बेटी ने अपनी क़लम उठाई

माँ की परिक्रमा करते हुए

उसने धूप पर लिखा – छाया!

तपता सूरज तुरंत चाँद हो गया।

 

2.

थकी ऊँघती माँ के सिर पर

नन्हीं बेटी ने तेल उँड़ेला

और उँगलियों से थपथपाने लगी

माँ की देह वीणा में बदल गई

ईश्वर किसी कोने में दुबका

वीणा से फूटते संगीत को सुन रहा था।

 

3.

बेटी जैसे-जैसे बड़ी होती गई

माँ वैसे-वैसे छोटी होती गई

जिस दिन बेटी ससुराल गई

उस दिन गुड़िया जित्ती रह गई माँ।

 

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्री महालक्ष्मी साधना सम्पन्न हुई 🌻

आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

☆  संजय उवाच # 161 ☆ तमसो मा ज्योतिर्गमय ☆?

दीपावली, भारतीय लोकजीवन का सबसे बड़ा त्योहार है। कार्तिक मास की अमावस्या को सम्पन्न होने वाले इस पर्व में घर-घर दीप जलाये जाते हैं। अपने घर में प्रकाश करना मनुष्य की सहज और स्वाभाविक वृत्ति है किंतु घर के साथ परिसर को आलोकित करना उदात्तता है। शतपथ ब्राह्मण का उद्घोष है,

असतो मा सद्गमय,
तमसो मा ज्योतिर्गमय,
मृत्योर्मामृतं गमय…!

‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ से भौतिक संसार में प्रकाश का विस्तार भी अभिप्रेत है। हर दीप अपने स्तर पर प्रकाश देता है पर असंख्य दीपक सामूहिक रूप से जब साथ आते हैं तो अमावस्या दीपावली हो जाती है।

इन पंक्तियों के लेखक की दीपावली पर एक चर्चित कविता है, जिसे विनम्रता से साझा कर रहा हूँ,

अँधेरा मुझे डराता रहा,
हर अँधेरे के विरुद्ध
एक दीप मैं जलाता रहा,
उजास की मेरी मुहिम
शनै:-शनै: रंग लाई,
अनगिन दीयों से
रात झिलमिलाई,
सिर पर पैर रख
अँधेरा पलायन कर गया
और इस अमावस
मैंने दीपावली मनाई !

कथनी और करनी दो भिन्न शब्द हैं। इन दोनों का अर्थ जिसने जीवन में अभिन्न कर लिया, वह मानव से देवता हो गया। सामूहिक प्रयासों की बात करना सरल है पर वैदिक संस्कृति यथार्थ में व्यष्टि के साथ समष्टि को भी दीपों से प्रभासित करने का उदाहरण प्रस्तुत करती है। सामूहिकता का ऐसा क्रियावान उदाहरण दुनिया भर में मिलना कठिन है। यह संस्कृति ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ केवल कहती नहीं अपितु अंधकार को प्रकाश का दान देती भी है।

प्रभु श्रीराम द्वारा रावण का वध करके अयोध्या लौटने पर जनता ने राज्य में दीप प्रज्ज्वलित कर दीपावली मनाई थी। श्रीराम सद्गुण का साकार स्वरूप हैं। रावण, तमोगुण का प्रतीक है। श्रीराम ने समाज के हर वर्ग को साथ लेकर रावण को समाप्त किया था। तम से ज्योति की यात्रा का एक बिंब यह भी है। स्वाभाविक है कि सामूहिक दीपोत्सव का रेकॉर्ड भी भारतीयों के नाम ही है। यह सामूहिकता, सामासिकता और एकात्मता का प्रमाणित वैश्विक दस्तावेज़ भी है।

तथापि सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि वर्तमान में चंचल धन और पार्थिव अधिकार के मद ने आँखों पर ऐसी पट्टी बांध दी है कि हम त्योहार या उत्सव की मूल परम्परा ही भुला बैठे हैं। आद्य चिकित्सक धन्वंतरी की त्रयोदशी को हमने धन की तेरस तक सीमित कर लिया। रूप की चतुर्दशी, स्वरूप को समर्पित कर दी। दीपावली, प्रभु श्रीराम के अयोध्या लौटने, मूल्यों की विजय एवं अर्चना का प्रतीक न होकर केवल द्रव्यपूजन का साधन हो गई।

उत्सव और त्योहारों को उनमें अंतर्निहित उदात्तता के साथ मनाने का पुनर्स्मरण हमें करना ही होगा। अपने जीवन के अंधकार के विरुद्ध एक दीप हमें प्रज्ज्वलित करना ही होगा। जिस दिन एक भी दीपक इस सुविधानुसार विस्मरण के अंधेरे के आगे सीना ठोंक कर खड़ा हो गया, यकीन मानिए, अमावस्या को दीपावली होने में समय नहीं लगेगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 114 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

?  Anonymous Litterateur of Social Media # 114 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 114) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like,  WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 114 ?

Open Book… ☆

मैं कोई खुली क़िताब तो नहीं

कि दिलनशीं  हर कोई पढ़ ले…

पहले हासिल तो करो जनाब

फिर पढ़ने पढ़ाने की बात करो…!

☆☆ 

I am not an open book

that everyone could read

Just try getting it first

then talk about reading…!

☆☆☆☆☆

पहले लोग फना होते थे

उनकी रूहें भटकती थीं,

आजकल रूहें मारा करतीं हैं

और लोग भटकते रहते हैं…!

☆☆ 

Earlier people used to die,

their souls would wander…

Now souls keep dying and

people wander around…!

☆☆☆☆☆

 न हम मंज़िलों को और न

ही रहगुज़र को देखते हैं

अजब सफ़र है ये कि बस हम

सिर्फ हमसफ़र को देखते हैं…!

☆☆ 

Neither at the destination

nor do I look at the roads…

What a strange journey is this,

that I just gaze at my companion…!

☆☆☆☆☆

 इतना तो किसी ने

चाहा भी ना होगा,

जितना कि हमने…

सिर्फ सोचा है तुम्हें…!

☆☆ 

Nobody would have even

loved you so much

As much as I just…

thought about you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 113 ☆ मुक्तिका~ जरा रुक-डट… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित मुक्तिका~ जरा रुक-डट)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 113 ☆ 

☆ मुक्तिका~ जरा रुक-डट ☆

अरे! चल हट।

कहा मत नट।।

 

नहीं कुछ दम

परे चल झट।

 

फरेब न कर

न भूल, न रट।

 

शऊर न तज

न दूर; न सट।

 

न नाव; न जल

नहीं नद-तट।

 

न हार; न जय

नहीं चित-पट।

 

न भाग; ठहर

जरा रुक-डट

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१०-४-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आत्मानंद साहित्य #145 ☆ आलेख – पश्चाताप ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 145 ☆

☆ ‌आलेख – पश्चाताप ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

ताप शब्द गर्मी का प्रतीक है,यह जब उग्र अवस्था में होता है तो सब कुछ जला कर खाक कर देता है, यह अपने पराए का भेद भाव नहीं करता, इसका स्वभाव ही ज्वलनशील है, इसके चपेटे में आने वाली हर वस्तु का जल कर नष्ट होना तय है, वहीं पश्चाताप की अग्नि आप के हृदय को शुद्ध कर देती है , यह मानव पश्चाताप की अग्नि में तब जलता है,जब मानव को अपने कर्मों का यथार्थ बोध हो जाता है, और उसे अपने गलत कर्मो का आभास होता है, पश्चाताप की अग्नि व्यक्ति के हृदय को निर्मल बना देती है, तथा आत्मचिंतन का मार्ग प्रशस्त कर देती है, पश्चाताप की अग्नि में जलता हुआ हृदय, व्यक्ति को सन्मार्ग पर ले जाता है,वह आत्मनिरीक्षण कर के गलत मार्ग
छोड़ सही रास्ता अपना लेता है।

यही तो हुआ डाकू रत्नाकर के साथ जब उसे अपने कर्मों के यथार्थ का ज्ञान हुआ तो उनका हृदय पश्चाताप की अग्नि में जल उठा ,उन्हें बड़ा दुख और क्षोभ हुआ अपने दुष्कर्मों तथा अपने दुर्भाग्य पर और पश्चाताप की अग्नि में खुद को तिल तिल जला कर तपश्चर्या के मार्ग को अपनाया, सारे दुष्कर्म पश्चाताप की अग्नि में होम कर दिया, तब कहीं उनके अज्ञान का अंधकार दूर हुआ,ज्यों ही ज्ञान की प्राप्ति हुई ,बन बैठे महर्षि वाल्मीकि और माता सीता के आश्रय दाता की भूमिका ही नहीं निभाई, बल्कि भगवान राम के अंशजों के गुरु की भूमिका का भी निर्वहन किया। और गुरुपद धारण किया, आप खोजेंगे तो और भी बहुत सारे पौराणिक उदाहरण मिल जाएंगे।

पश्चाताप की आग में जलते हुए इंसान को अपने कर्मों पर खेद होता है, अपने भीतर के सवेदन हीन पाषाण हृदय का परित्याग कर , संवेदनशील हृदय का स्वामी बन जाता है तभी तो महर्षि वाल्मीकि संस्कृत साहित्य के प्रथम कवि बन जाते हैं,और क्रौच पक्षी के कामातुर जोड़े के बिछोह की पीड़ा की अनुभूति की अभिव्यक्ति कर पाते हैं, और काव्य रचना कर देते हैं, लिखते है-

मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।

इस प्रकार बाल्मिकी जी उस बहेलिये को शाप दे देते हैं। क्यों कि कवि हृदय संवेदनशील होता है ,और उसी में यह क्षमता विद्यमान होती है

जो परिस्थितिजन्य पीड़ा दुख दर्द, सुख के क्षणों का एहसास आक्रोश आदि के भावों का हृदय से अनुभूति करने में सक्षम होता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पश्चाताप की अग्नि नये व्यक्तित्व का निर्माण करने में सहायक होती है। और समाज के लिए उपयोगी व्यक्तित्व पैदा करती है,ऐसा तब होता है जब व्यक्ति पश्ताचाप की आंच में तपता है।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

दिनांक-21-10-22 समय–4-40बजे

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ खरं सांग ना… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ खरं सांग ना🍃 सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

अरे माझिया मना

 तू खरं सांग ना

गुंतलासी असा कुठे

कानी बोल ना

 

स्पर्श तो धुंद अधिर

चांदणेही भावमधुर

शब्दाविना संवादची

नी अंतरात झंकार

 

काय असे जाहले

अंगांगची मोहरले

भेटीची ओढ मनी

क्षण क्षण गंधाळले

 

 दुर्मिळसा  भाग्याने

क्षण असा लाभतो

स्वप्नातील वाटेने

चांदण्यात नेतो

 

भारलेल्या क्षणाने

वेड असे लावले

फिरूनी त्या वाटेवरी         

ओढाळ मन थांबले

 

 परिस स्पर्श लाभला

अंगांगी सुवर्ण झळा

 मोरपिशी स्पर्शाचा

लागतो कसा लळा

 

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ बलिप्रतिपदा व भाऊबीज ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे

?  विविधा ?

☆ बलिप्रतिपदा व भाऊबीज ☆ सौ.उज्वला सुहास सहस्त्रबुद्धे ☆

बलिप्रतिपदा किंवा पाडवा

तिसरा दिवस बलिप्रतिपदा किंवा पाडवा ! या दिवशी आपले नवीन वर्ष सुरू होते. पाडवा हा एक चांगला मुहूर्त असतो, त्यामुळे सोने खरेदी, वाहन खरेदी यासारख्या मोठ्या खरेद्या या दिवशी केल्या जातात. पती-पत्नीच्या नात्याला नव्याने उजाळा देण्याचे काम पाडव्याच्या निमित्ताने होते. त्यामुळे बायकांना या दिवशी नवऱ्याकडून मनासारख्या भेटी मिळवता येतात. या दिवशी स्त्रिया पतीला ओवाळून मिळणाऱ्या ओवाळण्याची आतुरतेने वाट बघत असतात! असा हा आनंदाचा पाडवा असतो…. भाऊबीज दिवाळीचा शेवटचा दिवस म्हणजे भाऊबीज! बहिण भावाच्या आनंदाचा दिवस! यानिमित्ताने मुली माहेरी येतात आणि आई वडील भावंडां बरोबर सण साजरा करतात. दिवाळीचा आनंद आता शिगेला पोहोचलेला असतो. दिवाळीच्या निमित्ताने प्रत्येकालाच काही ना काही भेटी मिळालेल्या असतात तसेच एकमेकांच्या भेटी ही होतात. सणाचे दिवस कसे संपतात कळत नाही पण चार दिवसाची दिवाळी आपल्याला वर्षभरासाठी ऊर्जा देऊन जाते! तसेही आता आपण वर्षभर फराळाचे पदार्थ खातोच, कपडे खरेदी तर कायमच चालू असते त्यामुळे याचे महत्त्व फारसे वाटत नाही.

पण पूर्वीच्या काळी फराळाचे पदार्थ, कपडा खरेदी या गोष्टी प्रासंगिक असत. त्यामुळे दिवाळी कधी येते याची सर्वजण आतुरतेने वाट बघत असत. तरीही अजूनही आपल्याकडे दिवाळी म्हणजे दिव्यांचा आनंदाचा सण म्हणून आपण उत्साहाने साजरा करीत असतो…

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈