हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर, विचारणीय एवं चिंतनीय  व्यंग्य – “महासुख का राज रजाई”)

☆ व्यंग्य # 168 ☆ “महासुख का राज रजाई” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

जाड़े का मौसम है, हर बात में ठंड…. हर याद में ठंड और हर बातचीत की भूमिका में ठंड की बातें और बातों – बातों में रजाई… वाह रजाई… हाय रजाई… महासुख का राज रजाई।

सबकी अपनी-अपनी ठंड है और ठंड दूर करने के लिए सबकी अलग अपने तरीके की रजाई होती है। संसार का मायाजाल मकड़ी के जाल की भांति है जो जीव इसमें एक बार फंस जाता है वह निकल नहीं पाता है ऐसी ही रजाई की माया है कंपकपाती ठंड में जो रजाई के महासुख में फंस गया वो गया काम से। ठंड सबको लगती है और ठंड का इलाज रजाई से बढ़िया और कुछ नहीं है रजाई में ठंड दूर करने के अलावा अतिरिक्त संभावनाएं छुपी रहती हैं रजाई में चिंतन-मनन होता है योजनाएं बनतीं हैं रजाई के अंदर फेसबुक घुस जाती है मोबाइल से बातें होतीं हैं जाड़े पर बहस होती है जाड़े की चर्चा से मोबाइल गर्म होता है रजाई सब सुनती है कई बड़े बड़े काम रजाई के अंदर हो जाते हैं रजाई की महिमा अपरंपार है दफ्तर में बड़े बाबू के पास जाओ तो रजाई ओढ़े कुकरते हुए शुरू में कूं कूं करता है फिर धीरे-धीरे बोल देता है जाड़ा इतना ज्यादा है कि पेन की स्याही बर्फ बन गई है जब पिघलेगी तब काम चालू होगा। इस प्रकार अधिकांश आफिस के लोग ठंड के बहाने सबको टरका देते हैं और कह देते हैं कि ठंड सबको लगती है आफिस की सब फाइलें ठंड में रजाई ओढ़ के सो रहीं हैं जबरदस्ती जगाओगे तो काम बिगड़ सकता है फिर आफिस के सब लोग रजाई के महत्व पर भाषण देने लगते हैं।

ठंड से मौत के सवाल पर मंत्री जी के मुंह में बर्फ जम जाती है रजाई में घुसे – घुसे कंबल बांटने के आदेश हो जाते हैं अलाव से प्रदूषण फैलता है लकड़ी काटना अपराध है कंबल खरीदने से फायदा है कमीशन भी बनता है। रजाई के अंदर से राजनीति करने में मजा है।

जब से हमने रजाई को आधार से जुड़वाया है तब से रजाई में खुसफुसाहट सी होने लगी है रजाई हमें पहचानने लगी है शुरू – शुरू में नू – नुकुर करती थी अब पहचान गई है आधार ही ऐसी चीज है जिसमें पहचान से लेकर सेवाओं तक में होने वाली धोखाधड़ी ये रजाई पहचानने लगती है। जाड़े में रज्जो की रजाई में रज्जाक घुसने में अब डरता है क्योंकि वो जान गया है कि सरकार ने आधार को हर सेवा से जोड़ने की कवायद कर ली है। पर गंगू रजाई की बात में कन्फ्यूज हो जाता है पूछने लगता है कि यदि रज्जो की रजाई चोरी हो जाएगी तो क्या आधार नंबर की मदद से मिल जाएगी ? इसका अभी सरकार के पास जबाब नहीं है क्योंकि सरकार का मानना है कि भुलावे की खुशी जीवन में कई दफा ज़्यादा मायने रखती है। गंगू की इस बात पर सभी को सहमत होना चाहिए कि यदि कोई इन्टरनेट बैंकिंग या डिजिटल पेमेंट से रजाई खरीदता है तो उसे जीएसटी में पूरी छूट मिलनी चाहिए। हालांकि गंगू ये बात मानता है कि एक देश एक कर प्रणाली (जीएसटी) ने देश का आर्थिक चेहरा बदलने की शुरुआत की है पर गुजरात के चुनाव ने सबको डरा दिया है जाड़े में चुनाव कराना ठीक नहीं है रजाई के दाम बढ़ने से वोट बंट जाने का खतरा बढ़ जाता है जयपुरी रजाई के दाम तो ऐसे बढ़ते हैं कि दाम पूछने में जाड़ा लगने लगता है। जैसे ही ठंड का मौसम आता है गंगू को अपने पुराने दिन याद आते हैं उसे उन दिनों की ज्यादा याद आती है जब पूस की कंपकपाती रात में खेत की मेढ़ में फटी रजाई के छेद से धुआंधार मंहगाई घुस जाती थी और दांत कटकटाने लगते थे भूखा कूकर ठंड से कूं… कूं करते हुए रजाई के चारों ओर रात भर घूमता था और रातें और लंबी हो जातीं थीं, पर पिछले साल से ठण्ड में कुछ राहत इसलिए मिली कि नोटबंदी के चक्कर में कोई बोरा भर नोट खेत में फेंक गया और गंगू ने बोरा भर नोट के साथ थोड़ी पुरानी रुई को मिलाकर नयी रजाई सिल ली थी नयी रजाई में नोटों की गर्मी भर गई थी जिससे जाड़े में राहत मिली थी इस रजाई से ठंड जरूर कम हुई थी पर अनजाना डर बढ़ गया था जो सोने में दिक्कत दे रहा था गंगू ने कहीं सुन लिया था कि नोटबंदी के बाद बंद हुए पुराने नोट पकडे़ जाने पर सजा का प्रावधान है। गंगू चिंतित रहता है कि भगवान की कृपा से पहली बार नोटभरी रजाई सिली और ठंड में राहत भी मिली पर ये साले चूहे बहुत बदमाशी करते हैं कभी रजाई को काट दिया तो नोट बाहर दिखने लगेंगे और रजाई जब्त हो जाएगी। खैर जो भी होगा देखा जाएगा अभी तो ये नयी रजाई ओढ़कर सोने में जितना मजा आ रहा है उतना मजा वित्तमंत्री को मंहगी जयपुरी रजाई ओढ़ने में नहीं आता होगा।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 110 ☆ # नया वर्ष… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है दीप पर्व पर आपकी एक भावप्रवण कविता “#नया वर्ष …#”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 110 ☆

☆ # नया वर्ष … # ☆ 

बीत गया पुराना साल

लाल हुआ अंबर का भाल

अरुणोदय के संग

किरणों के रंग बिरंगे रंग

बिखेर रहे अपनी छटा

स्याह जुल्फों को हटा

आलोकित करते

फूल और कलियां

गुंजायमान करती

हुई गलियां

नव प्रभात के स्वागत गीत

गा रही है

नई सुबह अंगड़ाई लेकर

हौले-हौले आ रही है

 

वसुंधरा ने

शुभ्र शालू ओढ़ा है

ठंड ने अपना रिकॉर्ड तोड़ा है

जमे हुए पांव, कंपकंपाते हाथ

ठिठुरते हुए बदन

चुभती हुई सर्द हवाएं

अब ढूंढ रही है तपन

लिहाफ में दुबके हुए जिस्म

आंखें खोल रहे हैं

बाहरी ठंड के अहसास को

आलिंगन में तोल रहे हैं

सारी कायनात प्रेम में

खोई हुई है

सब पे दीवानगी सी

छाई हुई है

हर पल एक खुशनुमा

आहट है

नववर्ष आने की

शायद सुगबुगाहट है

बीते वर्ष की कड़वाहट को

भुलाने का समय

आ गया है

प्यार बांटने

खुशियां मनाने

नया वर्ष

अब आ गया है /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




सूचनाएँ/Information ☆ साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 साहित्यिक गतिविधियाँ ☆ भोपाल से – सुश्री मनोरमा पंत 🌹

(विभिन्न नगरों / महानगरों की विशिष्ट साहित्यिक गतिविधियों को आप तक पहुँचाने के लिए ई-अभिव्यक्ति कटिबद्ध है।)  

“मुद्रित पुस्तकों का महत्व सदैव रहेगा” – संतोष चौबे

☆ लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल द्वारा आयोजित पुस्तक पखचवाड़े का शुभंकर जारी ☆

भोपाल, “मुद्रित पुस्तकों का महत्व सदा से रहा है और आगे भी रहेगा। विज्ञान व तकनीक के इस वर्तमान सूचना एवं प्रौद्योगिकी के युग में भले ई-पुस्तकों का प्रचलन बढ़ा हो और समय के अनुसार उसकी आवश्यकता भी हो परन्तु इससे मुद्रित पुस्तकों का महत्व कम नहीं हो जाता।” यह उद्गार हैं वरिष्ठ कथाकार उपन्याकार श्री संतोष चौबे के जो वनमाली सृजन केंद्र एवं विश्वरंग के सहयोग से लघुकथा शोध केंद्र, भोपाल द्वारा 1 जनवरी से 15 जनवरी 2023 तक आयोजित किये जाने वाले पुस्तक पखवाड़े का शुभंकर जारी करते हुए व्यक्त कर रहे थे। आईसेक्ट यूनिवर्सिटी के सभागार में आयोजित एक सादे समारोह में इस अवसर पर लघुकथा शोध केंद्र की निदेशक, श्रीमती कांता रॉय, घनश्याम मैथिल, गोकुल सोनी, मुज़फ्फ़र इकबाल सिद्दीकी, मधुलिका सक्सेना, डॉ. रंजना शर्मा, वीरेंद्र शर्मा, मुदुल त्यागी, संजय आरजू, मनोरमा पंत, सतीश चंद्र श्रीवास्तव सहित लघुकथा शोध केंद्र के अन्य लघुकथाकार साथी एवम पदाधिकारी उपस्थित थे। निदेशक श्रीमती रॉय ने बताया कि पुस्तक पखवाड़े के इस ऑनलाइन आयोजन में देश-भर के रचनाकारों की चुनी हुई विविध विधाओं की कृतियों पर वरिष्ठ साहित्यकार की अध्यक्षता में समीक्षक आलोचक अपने विचार रखेंगे और अनेक वरिष्ठ साहित्यकार अपनी महत्वपूर्ण टिप्पणी देंगे।

☆ दुष्यन्त  कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय का रजत  स्थापना वर्ष संपन्न

दुष्यन्त कुमार स्मारक पांडुलिपि संग्रहालय के रजत  स्थापना वर्ष के समारोह का आयोजन 21 दिसम्बर  को हुआ जिसके मुख्य अतिथि महामहिम राज्यपाल मंगू भाई पटेल थे। सारस्वत अतिथि के रूप में टैगोर विश्व विद्यालय के कुलाधिपति श्री संतोष चौबे थे। विदित हो कि 1-12-22 से 30 /12 / 22 के बीच निरन्तर संग्रहालय में साहित्यिक कार्यक्रम होते रहे।

साभार – सुश्री मनोरमा पंत, भोपाल (मध्यप्रदेश) 

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ नववर्ष सदिच्छा ! ☆ डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

डॉ.सोनिया कस्तुरे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ नववर्ष सदिच्छा ! 🪔 डॉ.सोनिया कस्तुरे ☆

नववर्षात सर्वांना आरोग्य लाभावे

कष्टकरी शेतकरी मजूरांना न्याय मिळावे

 

मालकीहक्क,लाचारी,गुलामी संपावी

अत्याचार, हिंसेला मुठमाती मिळावी.

 

चिंता,संताप , व्यसन, फसवणूक नसावी.

विश्वातील प्रत्येक व्यक्ती सुखाने नांदावी.

 

स्त्रीयांना जगण्याचे नवे बळ मिळावे.

गगनाला भेदण्याचे स्वातंत्र्य गवसावे.

 

अभिमान,स्वाभिमान,आत्मभान जागावे.

मानसिक,भावनिक, वैश्वीक नाते जडावे.

 

नवजात बाळाला विश्वास मिळावा.

वाढत्या वयाने आनंद साठवावा.

 

गोरगरीब,दीन,दुय्यम कुणी नसावे.

दोन वेळच्या जेवणाने तरी तृप्त व्हावे.

 

सत्याच्या वाटेवर सर्व काही असावे

शांततेच्या मार्गावर बुद्धत्व फुलावे.

© डॉ.सोनिया कस्तुरे

विश्रामबाग, जि. सांगली

भ्रमणध्वनी:- 9326818354

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 111 ☆ अभंग… स्मरा कृष्ण… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 111  ? 

☆ अभंग… स्मरा कृष्ण… ☆

श्रेष्ठ सज्जनांचा, संत महंतांचा

आणि आचार्यांचा, मान ठेवा.!!

 

अहंकार जावा, धर्म आचरावा

गर्व ही नसावा, मनांतरी.!!

 

सात्विक आहार, सुंदर विचार

हृदयी आदर, नित्य हवा.!!

 

श्रीकृष्ण प्राप्तीची, उत्कंठा असावी

अप्राप्ती भावावी, श्रीमुर्तीची.!!

 

कवी राज म्हणे, चालता बोलता

उठता बसता, स्मरा कृष्ण.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 50 – स्वामीजी आणि मॅडम कॅल्व्हे ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 50 – स्वामीजी आणि मॅडम कॅल्व्हे ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

अमेरिका आणि युरोप खंडात प्रचंड लोकप्रियता मिळवलेली रंगभूमीवरील गायिका मॅडम एम्मा कॅल्व्हे एका मेट्रोपोलियन ऑपेरा कंपनीबरोबर युरोपातून अमेरिकेत आलेली. तिची रंगभूमीवरची भूमिका, गायन सर्व काही तिनं गाजवलेले. त्यामुळे अमाप संपत्ति आणि प्रचंड लोकप्रियता, प्रसिद्धी मिळाली तरी सुद्धा ती मात्र मनातून पुरती दु:खी होती. खचलेली होती. पैसा आणि प्रसिद्धीमुळेच की काय, कला क्षेत्रात अशी परिस्थिति उद्भवते. पुरुषांच्या दृष्टीकोणातून स्त्री ही भोगवादीच वस्तु असते याचे तिने अनुभव घेतले. उत्कट आणि निरपेक्ष प्रेम तिला मिळत नव्हतं. दोन जणांशी ब्रेक अप झालं. त्यामुळे ती उध्वस्त झाली होती. ही दुसर्‍यांदा घडलेली घटना ताजी असतानाच ती आपल्या लहान मुलीला घेऊन अमेरिकेत आली होती. रंगभूमीची सेवा मात्र चालूच होती . तिच्या जवळच्या काहींना तिनं यातून बाहेर पडावं असा वाटत होतं. शिकागोमध्ये ज्या ऑडिटोरीयममध्ये तिचे कार्यक्रम होत होते, त्या ओपेरा हाऊसचे व्यवस्थापक मिलवर्ड अॅडम्स यांच्याकडे त्यावेळी  विवेकानंद राहत होते आणि वेदांताचे वर्ग घेत होते. अॅडम्स यांनी कॅल्व्हेला “तू विवेकानंद यांना एकदा भेट” म्हणून सांगितलं.

अनेक वेळा सांगूनही तिच्या मनात नव्हते. मैत्रिणीने सुद्धा हेच सांगितले पण तिचेही ऐकले नाही. तिच्या मनात आत्महत्येचे विचार होते. ती या विचाराने बाहेर पडत असे .पण तिचे पाय आपोआप विवेकानंद राहत होते तिकडे  निवासस्थानाकडे वळत आणि आपण एका भयंकर स्वप्नातून जागे झाल्यासारखे वाटे. मग पुन्हा घरी येई. असे चार पाच वेळा झाले. शेवटी एका उद्विग्न क्षणी ती विवेकानंद यांना भेटायला गेली. नोकराने घराचे दार उघडले, कॅल्व्हे  बाहेर खुर्चीवर बसून राहिली. आपल्याच विचारात. थोड्या वेळाने आतून आवाज आला, “ये, मुली,ये ! कोणतीही भीती बाळगू नकोस”. कॅल्व्हे आत गेली आणि समोर विवेकानंद बसले होते त्यांच्याकडे बघत स्तब्ध झाली. कारण ध्यानअवस्थेत विवेकानंद बसले होते. त्यांची भगवी वस्त्रे, खाली नजर अशा अवस्थेतच ते तिच्याकडे न पाहता म्हणाले, “मुली किती विषण्ण आणि मन निराश करणारं, काळवंडून टाकणारं वातावरण तुझ्या भोवती आहे. मन शांत कर. ते फार आवश्यक आहे”. ती कोण? नाव काय? काहीही माहिती नसताना, तिच्याकडे न बघताच यांनी कशी आपल्या मनाची अवस्था ओळखली याचं तिला फार आश्चर्य वाटलं.

आपली परिस्थिति आणि समस्या केवळ आपल्यालाच माहिती आहेत तरीही हे एका अलिप्त आणि समाधान भावनेने आपल्याशी बोलत आहेत. यांना काय घडले ते कसं कळल असेल ? असं वाटून तिच्या लक्षात आलं की हे काहीतरी अद्भुत आहेत. ती विवेकानंद यांना म्हणाली, हे सारं तुम्हाला कसं माहिती? तुम्हाला कोणी बोललं आहे का ? स्वामीजी म्हणाले, “माझ्याजवळ कोणी काही बोलले नाही. तशी काही जरूर आहे असं मला वाटत नाही. एखादं उघडं पुस्तक वाचावं तसं तुझं मन मला स्पष्ट दिसतं आहे. तुला सारं काही विसरून गेलं पाहिजे. पुन्हा एकदा प्रसन्न आणि आनंदी वृत्ती धारण कर.तब्येत सुधार,दु:खाचा सतत विचार करत बसू नको. भावनांना कोणते तरी रूप देऊन व्यक्त हो. ही गोष्ट आध्यात्मिक दृष्टीने आवश्यक आहे. कलेला तर आवश्यक आहेच.

या शब्दांचा आणि स्वामीजींच्या व्यक्तिमत्वाचा काल्व्हे वर सखोल परिणाम झाला. या प्रभावामुळे तर आपल्या डोक्याला ताप देणार्‍या सार्‍या कटकटीच्या  गोष्टी डोक्यातून काढून टाकून, त्याऐवजी स्वत:चे सुस्पष्ट व शांतिप्रद विचार मनात निर्माण केले होते असं काल्व्हे ला वाटलं.स्वामीजींच्या या समर्थशाली विचाराने तिचे मन पुन्हा उल्हसित झाले. आणि ती तिथून बाहेर पडली. हा काही संमोहन विद्येचा परिणाम नव्हता.विवेकानंदांच्या मनाची शुद्धता, त्यांचे सामर्थ्यशाली पवित्र आचरण यामुळे हा परिणाम झालेला होता. मन एकदम निश्चिंत झाले होते.

ही भेट होण्या आधी एक दु:खद प्रसंग घडला होता. तिचा कार्मेंनचा  प्रयोग चालू होता.तिचा अभिनय आणि गाणं ही उत्तम सादर होत होतं. पण मनातून ती वैफल्य ग्रस्त होती. आणि आता पुढच्या अंकात आपण काम करू शकणार नाहीत असं तिच्या मनाने घेतलं. अशाही अवस्थेत ती मनाचा निग्रह करून रंगभूमीवर गेली. तो अंक ही उत्तम झाला, पण दुसर्‍याच क्षणी आपण काम करू शकणार नाही मला बरे वाटत नाही असे सांगून टाकले.आणि पुढचा अंक होऊ शकत नाही असे दिलगिरी पूर्वक सांगा म्हणून सुचविले. परंतु प्रेक्षकांनी तर तिचे काम डोक्यावर घेतले होते.त्यामुळे व्यवस्थापकांनी तिला हर प्रकारे समजाऊन सांगत रंगभूमीवर जवळ जवळ ढकललंच. मग काय काल्व्हे कलेशी निष्ठावान होती तिने पाय ठेवतच सर्व बाजूला सारून आपली भूमिका सादर करू लागली.तिच्या आतल्या वैफल्याच्या भावनांमुळे तिच्या आवाजात आर्तता आणि उत्कटता होती.या वेळचे गाणे तर अत्यंत सुंदर झाले.श्रोत्यांनी प्रचंड दाद दिली होती.पण ती ते ऐकायला अजिबात उत्सुक नव्हती.तडक रंगमंचावरून आत गेली आणि कोचावर आडवी झाली आणि एक आश्चर्य वाटले की बाहेर एव्हढे लोक उभे आहेत मग या क्षणाला सारे निशब्द कसे?असा संशय येऊन ती दाराजवळ आली.तो समोर व्यवस्थापक आणि लोक गोळा होऊन बघताहेत.धीर करून व्यवस्थापकांनी सांगितलं,की “प्रयोग चालू असताना तुमच्या मुलीचा अपघाताने भाजून मृत्यू झाला आहे”. भयंकर धक्का होता तिला. या घटनेनंतर ती पार कोसळून गेली असणार . यातून बाहेर पडण्यासाठी सर्वांच्या प्रयत्नांमुळे तिची व  विवेकानंदांची भेट झाली होती त्यानंतर तीचं आयुष्य पुर्णपणे बदललं.

स्वामीजींच्या संपर्कात आल्यानंतर तिला अनेक विषय नव्याने कळले होते. त्यांच्याशी ती पटलेल्या न पटलेल्या गोष्टी व विषयांची चर्चा करू लागली होती. त्यांचे विचार ऐकून घेत होती. एकदा अमरत्व या विषयावर चर्चा सुरू होती.काल्व्हे या बद्दल म्हणाली, “मला ती कल्पनाच पटत नाही. मी माझ्या व्यक्तीत्वाला चिकटून राहणार.मग ते कितीही क्षुल्लक असेना. मला शाश्वत ऐक्यात मिसळून जाण्याची इच्छा नाही. तो नुसता विचारही मला भयंकर वाटतो”. त्यावर स्वामीजींनी उत्तर दिले. “एके दिवशी अथांग महासागरात पाण्याचा एक थेंब पडला. स्वत:ची ही स्थिति पाहून जलबिंदू रडत तक्रार करू लागला.जशी तुम्ही आता करताहात , महासागर जळबिंदुला हसला. त्याने जलबिंदुला विचारले, की, का रडतोस बाबा?तुझ्या रडण्याचं कारण मला नाही समजत. तू जेंव्हा मला येऊन मिळालास तेंव्हा तू आपल्या सर्व बंधुभागिनींना येऊन मिळालास. त्या इतर जलबिंदूनीच मी बनलो आहे.त्यामुळे तू ही साक्षात महासागररूप झालास. मला सोडून जाण्याची जर तुझी इच्छा असेल तर, एखाद्या सूर्यकिरणावर स्वार हो आणि एखाद्या ढगात जाऊन राहा की झाले. तेथून तू पुन्हा पिपासार्त पृथ्वीला आशीर्वादासारखा व वरासारखा होऊन एखाद्या जलबिन्दूच्या रूपाने खाली येऊ शकतोस.” 

स्वामीजी रूपकांच्या भाषेत बोलत असत असं काल्व्हे म्हणते. ती पुढे स्वामीजिंबरोबर, त्यांच्या स्नेही आणि शिष्यांसोबत तुर्कस्तान, इजिप्त, ग्रीस मध्ये सहलीला गेली होती.त्यांच्या बरोबर फादर लॉयसन,त्त्यांची पत्नी तसेच मिसेस मॅक्लाउड सहलीला होते. ती म्हणते या सहलीत, विज्ञान, तत्वज्ञान आणि इतिहास कोणतीच गुपिते स्वामीजिंपासून लपून राहिली नव्हती. त्यामुळे त्यांची जी विद्वत्तापूर्ण आणि ज्ञानपूर्ण चर्चा चाले ती मी लक्ष देऊन ऐकत असे. वादविवादात मी कधी भाग घेत नसे. पण विद्वान नामांकित असलेले फादर लॉयसन यांच्या बरोबर स्वामीजींची सर्व प्रकारची चर्चा चाले. धर्मासंबधी  चाललेल्या चर्चेत फादर यांना एखाद्या चर्च कौन्सिल ची तारीख खात्रीशीरपणे सांगता येत नसे, पण स्वामीजींना सांगता येई. स्वामीजी एखाद्या धार्मिक ग्रंथातील अवतरण सुद्धा अगदी बिनचूक सांगायचे .  

ग्रीसमध्ये इल्युसिसला भेट दिली तेंव्हा स्वामीजींनी त्याची सर्व रहस्ये समजाऊन सांगितली. तिथल्या सर्व मंदिरातून हिंडवले, जुन्या प्रार्थनांचे मंत्र हुबेहूब प्राचीन पद्धतीने म्हणून दाखवले. इजिप्त मधेही असाच तल्लिंनतेने ऐकण्याचा अनुभव सर्वांनी घेतला. सर्वजण शांतपणे मंत्रमुग्ध होऊन ऐकत असत, एकदा तर, इतके की भान न राहिल्यामुळे तिथल्या स्टेशनवरील प्रतिक्षालयात स्वामीजींनी श्रोत्यांना आपल्या संभाषणाने खिळवून ठेवले होते. तेंव्हा गाडी निघून गेली तरी भान नव्हते. असे अनेक वेळा व्हायचे.

कॅल्व्हे या प्रवासातल्या आपल्या स्वामीजींच्या आठवणी सांगताना म्हणतात,  “कैरो मधला प्रसंग – कैरो मध्ये बोलता बोलता सर्वजण रस्ता चुकले आणि एका अत्यंत घाणेरड्या ओंगळ वाण्या रस्त्यावर येऊन पोहोचलो. आजूबाजूच्या घरांच्या खिडकीतून स्त्रिया स्वताचं अंग प्रदर्शन करीत होत्या. स्वामीजींचे याकडे लक्षच नव्हते. पण तेव्हाढ्यात बाहेर बसलेल्या, गलका करणार्‍या स्त्रिया स्वामीजींना खुणेने आपल्याकडे बोलावू लागल्या. इथून चटकन बाहेर पडावे म्हणून प्रयत्न केला पण  स्वामीजी अचानक त्या स्त्रियांपुढे जाऊन उभे राहिले.म्हणले, “ बिचार्‍या मुली, दुर्दैवी जीव, त्यांनी त्यांचे देवपण त्यांच्या सौंदर्यात निविष्ट केले आहे. पहा त्यांची आता काय दशा झाली आहे ती”. असे बोलून स्वामीजींच्या डोळ्यातून अश्रु वाहू लागले. त्या सर्व अत्रीय एकदम गप्प झाल्या आणि संकोचल्या. एकीने पुढे वाकून स्वामीजींच्या कफनीच्या टोकाचे चुंबन घेतले.आणि स्पॅनिश भाषेत देवमाणूस! देवमाणूस! असे म्हणू लागल्या, दुसरीने हात तोंडावर ठेऊन चेहरा लपविला”. अशा या स्वामीजींबरोबर च्या आठवणी कॅल्व्हेच्या  शेवटच्या आठवणी ठरल्या होत्या. कारण यानंतर स्वामीजी थोड्याच दिवसात भारतात निघून गेले. आणि वर्षभरातच त्यांनी महासमाधी घेतल्याचे कळले.कॅल्व्हे यांनी म्हटलंय, “ एकही पृष्ठ नष्ट न करता त्यांनी आपला जीवनग्रंथ लिहिला”. त्यानंतर काही वर्षानी काल्व्हे भारतात आली तेंव्हा, अखेरचा श्वास जिथे घेतला त्या स्वामीजींच्या बेलूर मठाला तिने भेट दिली. त्यांच्या आईला भुवनेश्वरी देवी यांना भेटली. या माऊलीनेच कॅल्व्हेला या मठात नेले होते .                       

काल्व्हे यांनी आपल्या आत्मचरित्रात हे सर्व लिहून ठेवले आहे. कॅल्व्हे जानेवारी १९४२ ला  वयाच्या ८३ व्या वर्षी निधन पावली. तिच्या उर्वरित आयुष्यात स्वामीजींमुळे खूप मोठा बदल झाला होता. योग्य आध्यात्मिक विचारांची समज आली होती. आत्महत्येपासून परावृत्त करून एक चांगले जीवन जगण्याचा मार्ग स्वामीजींनी तिला दाखवला होता. असे भारताबाहेर अनेक जण स्वामीजींच्या सहवासात आले त्यांचा आयुष्याकडे बघण्याचा दृष्टीकोण बदलला. काहींनी त्यांना रामकृष्ण संघाच्या कामात मदत केली, काही स्वामीजींचे शिष्य झाले.

भारताबाहेरील लोकांना एका भारतीय माणसानेच योग्य दिशा दाखवली होती, आज भारतातच रंगभूमी  आणि चित्रपट क्षेत्रात प्रसिद्धी आणि जीवघेणी स्पर्धा आणि कोटीच्या कोटी पैशांची उड्डाणे आणि त्यामुळे तरुण कलाकारांची, आयुष्याची झालेली वाताहत, कुटुंबाचं उध्वस्तपण हे बघितलं की वाटत यावर अंमल ठेवणारी व्यवस्थाच नाही ? जिथे विवेकानंद यांच्या रूपात पाश्चिमात्य देशात लोकांना मार्गदर्शन मिळत होतं. त्याच विवेकानंद यांच्या भारतात आज काय स्थिति आहे? राजकारण, प्रशासन किंवा कुठल्याही व्यवस्थेत भ्रष्टपणे काम करणारी माणसे/व्यक्ती लहानपणा पासून कशी घडली आहेत? कोणाच्या संगतीत घडली आहेत? आई वडिलांनी काय शिकविले आहे, काय संस्कार केले आहेत? हे अत्यंत महत्वाचे ठरते. कारण नरेंद्रला घडविणारे त्याचे पालक भुवनेश्वरी देवी, विश्वनाथ बाबू आणि गुरु रामकृष्ण परमहंस होते .

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ माऊली… भाग – 2 – सुश्री संध्या सोळंके-शिंदे ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे ☆

सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे

? जीवनरंग ?

☆ माऊली… भाग – 2 – सुश्री संध्या सोळंके-शिंदे ☆ सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

(“काय दिती रं तुझी ती शाळा ‘”) इथून पुढे —-

आयुष्याचे कैक उत्सव, इच्छा वेळोवेळी वजा केलेल्या त्या शिष्याला गुरूने गणितातली वजाबाकी समजावून सांगितली…. त्याक्षणी ते ज्ञानही आधाशागत प्राशन करत  होते त्याचे कान.

संवाद संपला… डोळे मिटून मॅडम विचार करू लागल्या…

‘जगण्यासाठी आयुष्याच्या काही अलिखित अटी गुपचूप मान्य केलेल्या असतात प्रत्येकानेच. अश्वत्थाम्यासारख्या असंख्य जखमा आजन्म मिरवत असतात काही जीव ! पोटातली भुसभुशीत दलदल भुकेच्याही बाहेर एक जग असतं हे विसरून जायला भाग पाडते. सादळलेल्या परिस्थितीचे ओले पापुद्रे सोलण्यात उभा जन्म जातो… अस्तित्वावर बुरशी चढवत ! अस्तित्वहीन जन्माची ठणकही जाणवू देत नाही ती भूक. प्रगतीच्या गुरुत्वाकर्षणकक्षेच्या कोसो दूर हुंदडत उभं आयुष्य जातं अन् एक  दिवस अवेळी अंधार पांघरून निपचित निजतं… खरंच… वास्तवाइतकं परखड, पारदर्शी काहीच नसतं… काहीच !

दीर्घ सुट्टीनंतर ,शाळा भरल्या. वर्गावर्गात हजेरी सुरू झाली… 

१.यश बनसोडे….यस मॅडम…!

२.अथर्व आवड…यस मॅडम…!

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९.माऊली बडे   ……..शांतता…!

त्याक्षणी त्याच्या डेस्कवरची ती रिकामी जागा खूप काही बोलत होती..! त्याचा मंजुळ आवाज, उत्तर देण्यासाठीची धडपड..!… 

शाळा सुटली.. मुले लगबगीनं वर्गाबाहेर पडली.. मॅडम सामानाची आवराआवर करू लागल्या.. पर्स, टाचणवही, हजेरी, पुस्तके, बॉटल….सगळं दोन हातांत घेणं….केवळ अशक्य !… तिथेही ‘त्याची’ आठवण आली.. तो नित्याने थांबायचा.. मॅडमला हे सगळं घेऊ लागायचा. पाण्याची बॉटल हातात घेऊन सर्वांत शेवटी मॅडमसोबत वर्गाबाहेर  पडायचा… पराकोटीची समज अन् माया असते एखाद्या माणसात !

शाळा सुटल्यावर मॅडम गाडीवर घरी निघाल्या. तोच मागून कुणीतरी… ” मॅडम ss ..” अशी हाक मारली.

गाडी थांबवून मागे पाहिलं तर एक छोटी मुलगी पळत आली अन् म्हणाली,  ” तुम्हाला माऊलीच्या आईनं बोलावलंय.”

” त्या इथं कसं काय? कधी आले ते सगळे इकडे? ” म्हणेपर्यंत तर ती मुलगी पळूनही गेली…आश्चर्य अन् आनंदही वाटला. मनोमन सुखावल्या मॅडम. तशीच गाडी माऊलीच्या घराकडे वळवली. रस्त्यावर मुलं खेळत होती..

“मॅडम,मॅडम “.. हाका मारत होती. पण ह्या सगळ्यांत माऊली कुठेच दिसला नाही. घरासमोर आल्या.

कुडाचं, पत्र्याचं घर ते !.. दुरावस्था झालेलं.. सगळं भकास..ओसाड…

दाराआत डोकावलं तर.. भयाण शांतता….त्या शांततेत घोंगावणाऱ्या माशांचा आवाज, जवळच्या नाल्याची दुर्गंधी,

पावसाळ्यात गळणाऱ्या पत्र्यांच्या छिद्रांतून डोकावलेले, जागोजागी दारिद्र्याची लक्षणे दाखवणारे कवडसे..

मागच्या दाराबाहेर खाटेवर दारू पिऊन बेधुंदावस्थेत पसरलेला माऊलीचा बाप….. अन् कुठल्याशा कोपऱ्यात गुडघ्यांत तोंड खुपसून बसलेली माऊलीची आई!

आत जाताच..” माऊली ” हाक मारली.

तोच त्या आईने छताकडे बघत मोठ्याने हंबरडा फोडला…..” माऊली, तुझ्या मॅडम आल्यात रे ! ये की लवकर !”

…. काळजात चर्रर्र झालं! शंकेची पाल चुकचुकली, पण नेमका अंदाज येईना !

तोच मागून आवाज आला,

” काय सांगावं मॅडम, माऊलीचा घात केला हिनं ! मारून टाकलं ह्या बाईनं त्याला !”

…. भोवताली अगणित किंचाळ्या टाहो फोडत घिरट्या घालत असल्यागत झालं एकदम.

घरमालकीण मॅडमजवळ येत म्हणाली, ” मीच निरोप धाडला होता तुमाला बोलवायला. मॅडम,ही बया एकट्या माऊलीला घरी सोडून, पोरींला घेऊन कामावर गेली, जेवणाच्या सुट्टीत आली तर लेकराच्या तोंडाला फेस, अन् हातपाय खोडत होतं ते !.. माऊलीला सर्प डसला वो, लेकरू तडपडुन मेलं ! त्याला नगं न्हेऊ म्हणलं होतं मी हिला.. मी संबाळते म्हणलं होतं त्याला चार महिने !पण हिला ईश्वास न्हाई ! चार पोरीच्या पाठीवर झाल्यालं नवसाचं पोरगं  म्हणून सोबत न्हेलं हिनं, आन काटा निगाला लेकराचा ! लई भांडून गेली होती ना ही तुमाला? मंग नीट संबाळायचं होतं की त्याला! “

…. तिचे शब्द मॅडमच्या कानात लाव्हा ओतल्यागत शिरत होते. पण मेंदू मात्र थंड पडत होता.

 कोरड्या ठक्क डोळ्यांतून रक्ताचे अश्रू तेवढे बाहेर पडायचे बाकी होते ! तरीही अवंढा गिळून जमिनीकडे खिळलेली नजर विचलित न होऊ देता मॅडमने विचारलं,

” दवाखान्यात नेलं नाही का लवकर? “

” इकडं यायला निगाली होती, पण मुकादमानं  येऊ दिलं न्हाई म्हणं. आधी घेतलेली 20,000 उचल दे म्हणला म्हणं !

तितंच कुण्या जाणत्याला दाखवलं म्हणं. दोन दिवस तडपडत होतं म्हणं लेकरू.दवाखान्यात दाखवलं असतं तर हाती लागला असता मावल्या ! … त्याला सदा एकच म्हणायची…’ काय देती रं मावल्या तुझी शाळा?? ‘ त्याच्या वह्या   पुस्तकावर राग राग करायची, म्हणून त्यानं जाताना कपड्याच्या घड्यात घालून न्हेली पुस्तकं ! अन् आता रडत बसलीय !”…. म्हातारी घरमालकीण पोटतिडकीने बोलत होती.

छताकडं शून्यात नजर लावून ती आई बघत होती ! स्वतःच्या लेकराला वाचवू न शकल्याचा आरोप होत होता तिच्यावर !

… त्याच्या शेवटच्या पेपरमधील त्याचं देखणं अक्षर, आईच्या आडून बघत त्याने डोळ्यांनी केलेली आर्जवे, गुपचूप केलेल्या फोनमधील त्याचा दबका, पण सच्चा आवाज … सारं सारं चित्रफितीसारखं डोळ्यासमोरून जात होतं मॅडमच्या !… 

त्या माऊलीचं सांत्वन न करताच  मॅडम उठून दाराकडे चालू लागल्या… पाषाण हृदयाने, निःशब्द…!

तोच मागून आवाज आला, ” मॅडम…पाच भुकेली तोंडं पोसण्यापलीकडं काहीच करू शकले नाही मी उभ्या 

जन्मात ! मावल्या असा सोडून जाईल,असं स्वप्नात देखील वाटलं नव्हतं ! लेकरानं तडपडत माझ्या डोळ्यात बघत, माझ्या मांडीवर जीव सोडला. त्याची आठवण आली तर माझ्याकडं त्याचा साधा एक फोटो पण नाही, ह्याचं लै वाईट वाटायचं ! आज त्याचं सामान बघताना एक गोष्ट सापडली…तुम्हाला मी म्हणलं होतं ना…. ‘ तुमची शाळा काय देती म्हणून? ‘ माझ्या जन्माला पुरंल आशी, त्याची सगळ्यात मोठी आठवण दिलीय मला तुमच्या शाळेनं ! “

… असं म्हणत तिनं छातीशी कवटाळलेल्या हाताच्या मुठीतला ऐवज उघडून मॅडमसमोर धरला…

… शाळेनं दिलेलं ओळखपत्र होतं ते…! 

…. तिच्या काळजाचं ! मातीआड झालेल्या एका हसऱ्या, समंजस दुःखाचं !

— समाप्त   —

(शिक्षक म्हणून भोगलेला अनुभव आहे हा ! …दुर्दैवाने..पात्रांची नावं  बदलली आहेत. आजही तितक्याच तीव्रतेने आठवण येते त्याची..!)

लेखिका – सुश्री संध्या सोळंके-शिंदे, अंबाजोगाई

प्रस्तुती – सुश्री मंजुषा सुनीत मुळे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ माफीनामा… भाग – 2 ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

डॉ अभिजीत सोनवणे

© doctorforbeggars 

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☆ डॉक्टर फॉर बेगर्स ☆ माफीनामा… भाग – 2 ☆ डॉ अभिजीत सोनवणे ☆

(खरा सुखी कोण ? आपल्याकडे सगळं काही असणारे आपण ?? की सर्वस्व गमावलेले ते ???) इथून पुढे —-

बाबांची अवस्था पाहून माझ्या डोळ्यात पाणी आलं…. 

गेले आठ महिने अंघोळ नाही, संडास लघवीवर कंट्रोल नाही आणि त्यामुळे ती कपड्यातच होते, बाबांच्या घरातल्या लोकांनी त्यांची जरी साथ सोडली तरी सुद्धा रस्त्यावरच्या किड्यांनी, माशांनी बाबांची साथ सोडली नव्हती…. ते त्यांच्या डोक्यात आणि हाता पायावर, चेहऱ्यावर मुक्तपणे फिरत होते…!

आम्ही तुमच्या सोबत आहोत बाबा, असं तर या कीड्या आणि माशांना सांगायचं नसेल ? 

…… अडचणीत साथ सोडणारे घरातले आपले ? की संकटाच्या काळात सोबत करणारे हे किडे आणि माशा आपले ?? आपण अडचणीत सापडलो की लोक हात पकडण्याऐवजी आपल्या चुका पकडतात हेच खरं…. ! 

ज्या दिवशी बाबा मला आठ महिन्यांपूर्वी शेवटचे भेटले होते, त्यानंतर त्यांना पॅरालिसिसचा आणखी एक झटका आला होता. ते आता जास्त हालचाल करू शकत नव्हते आणि म्हणून ते एकाच ठिकाणी पडून राहिले….

रस्त्यावर भेटलेल्या अनेकांना त्यांनी माझ्यापर्यंत हा निरोप पोहोचवा असे सांगितले, परंतू आठ महिन्यात एकाही माणसाने माझ्यापर्यंत हा निरोप पोहोचवला नाही….

रोजच्या रस्त्यावर ट्रॅफिक जॅम मध्ये मी अडकावं…. त्यानंतर मी रस्ता बदलावा…. तिथेही पुन्हा ट्रॅफिक मध्ये मी अडकावं…. मला हे बाबा दिसावेत…. ही निसर्गाची योजना होती ! 

बाबांशी बोलत होतो, परंतु डोक्यात विचारांची गर्दी झाली….

काय करता येईल या बाबांचे ?  यांचे आत्ता आधी हॉस्पिटलमध्ये उपचार करून घेणे गरजेचे आहे… त्याआधी यांना संपूर्ण स्वच्छ करायला हवं… ! पुढे बघू नंतर जे सुचेल ते करू…

काही एक विचार करून, मी बाबांना म्हणालो, “ बाबा आज आत्ता शनिवारचा दुपारचा दीड वाजला आहे, मला उद्याचा दिवस द्या…. सोमवारी सकाळी दहा वाजता मी परत इथे येतो… ! “

खरंतर बाबा अतिशय गंभीर अवस्थेत होते…. त्यांना त्याच वेळी ऍडमिट करणे गरजेचे होते, परंतू कायद्याच्या चौकटीत राहून अनेक बाबी करणे अपरिहार्य असतं, आणि त्यासाठी मला थोडा वेळ हवा होता….!

बाबांना मी दोन पंप दिले … दर पंधरा मिनिटांनी ते पंप ओढायला सांगितले…. आठ महिने जगलात तसे आता सोमवार सकाळी दहा वाजेपर्यंत जिद्द सोडू नका, असं सांगून मी तिथून पुढल्या बाबी करण्यासाठी निघणार, इतक्यात बाबांनी मला खुणेने बोलावलं…. खूप मोठ्या मुश्किलीने ते बोलले…. “ काळजी करू नकोस , तू येईपर्यंत मी मरणार नाही…. अरे, डोळे मिटले म्हणून कोणाला मरण येत नाही…. चार चौघांनी आपल्याला खांद्यावरून खाली ठेवलं… बाजूला केलं की येतं ते मरण ! “ बाबांचा रोख त्यांच्या कुटुंबावर होता….! खरं होतं बाबांचं …. मी आता तिथून निघालो…  

शनिवार रविवार आवश्यक त्या कायदेशीर बाबी पूर्ण केल्या… मनीषाने बाबांची पूर्ण बॅग भरली… साबण, टूथपेस्ट पासून अंडरपॅन्टपर्यंत तिने सर्व तयारी केली…न पाहिलेल्या बापाची ती मुलगी झाली होती…!  मी दाढी कटिंग चे सामान तयार ठेवले…. ‘मंगेश वाघमारे’, माझा सहकारी, याला आवश्यक त्या सर्व सूचना देऊन, सोमवारी सकाळी दहा वाजता स्पॉटवर येण्यास सांगितले…. 

रविवारची अख्खी रात्र तळमळण्यात गेली….अतिशय गंभीर अवस्थेत असलेले हे बाबा मी जाईपर्यंत जाणार नाहीत ना… ? ते असतील ना ? मी जाईपर्यंत राहतील ना ? या विचारात पहाटेचे साडेचार वाजले….

एखाद्याची जबाबदारी मनापासून घेतल्यानंतर… ती व्यक्ती पूर्णतः आपल्यावर विश्वास ठेवते… एखाद्याचा हा विश्वास जपण्यात जीवाची किती ओढाताण होते, हे मी शब्दात काय सांगू ??? 

आणि प्रश्न इथे एका बापाचा होता…. ! 

सोमवारी सकाळी लवकर सर्व तयारीनिशी मी गडबडीत निघालो,  लिफ्टमध्ये सर्व सामान घेऊन जाताना मनीषा म्हणाली, “ अरे अभिजीत गडबडीत तू बूट किंवा चप्पल घातलीच नाहीस…” – च्याआयला , गडबडीत खरंच मी पायात काही घातलं नव्हतं…

यानंतर मी पायात बूट अडकवला पण जाणीव झाली, ज्या बापासाठी चाललो आहे, त्या बापाच्या पायात सुध्दा काही नाही… मग जाताना यांना एक बूट घेतला ! हे सगळं करून स्पॉटवर जाईपर्यंत मला अकरा वाजले…. 

मी त्या स्पॉटवर पोहोचलो…. परंतु त्या स्पॉटवर कोणीही नव्हते… ज्या स्पॉट वर बाबा राहत होते तिथे मी पोहोचलो, तेव्हा मला फक्त त्यांचे रिकामे अंथरूण दिसले…. इतर काही साहित्य दिसले … पण बाबा दिसले नाहीत…!

 

हे सर्व पाहून माझं अवसान गळालं… सोमवार पर्यंत सुध्दा बाबा माझी वाट पाहू शकले नाहीत…. ते गेले, या विचाराने माझ्या डोळ्यातून घळाघळा अश्रू यायला सुरुवात झाली…

 

आणि तितक्यात मला एक आवाज आला…” सर आम्ही इकडे आहोत…” . हा आवाज मंगेशचा होता…!

मी वळून पाहिलं…. आमच्या मंगेशने या बाबांना घाणीतून बाहेर काढून दुसऱ्या स्वच्छ ठिकाणी ठेवलं होतं , म्हणून मला ते जुन्या ठिकाणी दिसले नाहीत..!… क्या बात है…! 

मी सुखावलो होतो… मी येईपर्यंत जीव सोडू नका, असं मी माझ्या बापाला सांगून आलो होतो…. आज माझ्या बापानं माझा शब्द पाळला होता….मी खूप आनंदी होतो….

आज मी ऍम्ब्युलन्स आणली होती…. माझा बाप आज जिवंत आहे या आनंदात…. त्यांनी माझा शब्द पाळला या खुशीत,  मी मस्त राजेश खन्ना स्टाईलमध्ये गाडीतून टुणकन खाली उडी घेतली… रजनीकांत स्टाईलने मी गाडीची किल्ली माझ्या बोटाभोवती फिरवत, बच्चन स्टाईलने चालत बाबांजवळ पोहोचलो … ! 

हो…. माझ्या बापाने आज शब्द पाळला होता…. मी  येईपर्यंत तो जगलेला होता… ! निसर्गाने त्यांना जगवलं होतं….

मी लय खुश होतो राव …. इलेक्ट्रिकच्या खांबाच्या आधाराने या बाबांना बसवून आधी मी या बाबांची दाढी कटिंग केली… इलेक्ट्रिकचा खांब लाईट द्यायला नाही, परंतु कोणाच्या आयुष्यात प्रकाश पाडायला आज प्रथमच उपयोगी आला असावा….! 

माझ्या अंगावर ॲप्रन ….गळ्यात स्टेथोस्कोप आणि फुटपाथवर बसून मी रस्त्यावरच्या गलिच्छ दिसणाऱ्या माणसाची दाढी करतो आहे….

मला पाहणाऱ्या अनेकांच्या चेहऱ्यावर प्रश्नचिन्ह होतं…!  हा नेमका डॉक्टर आहे की न्हावी आहे  ??? 

मी मात्र डॉक्टर आणि न्हावी या दोन तीरांच्या मध्ये असलेल्या “माणूस” नावाच्या “पात्रात” डुंबून, न्हाऊन निघत होतो…. ! असो….

यानंतर संडास आणि लघवीने भरलेले कपडे काढून मी फेकून दिले…. बाबा आता पूर्ण उघडे – नागडे झाले रस्त्यावर…. ते थोडे शरमले…. ! नागड्या बाबांना पाहून, इथे मला माझ्या मुलाची, सोहमची आठवण झाली, जन्मला तेव्हा नर्सने तो असाच उघडा नागडा माझ्या ओंजळीत त्याला दिला होता…. !

आज निसर्गाने पुन्हा हे नागडं…. म्हातारं पोर माझ्या ओंजळीत घातलं होतं…. मी पुन्हा बाप झालो…. पुन्हा बाप झालो यार….!!! 

— क्रमशः भाग दुसरा

© डॉ अभिजित सोनवणे

डाॕक्टर फाॕर बेगर्स, सोहम ट्रस्ट, पुणे

मो : 9822267357  ईमेल :  [email protected],

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ नालंदा… ☆ प्रस्तुती – सुश्री अनिता पारसनीस ☆

? इंद्रधनुष्य ?

☆ नालंदा… ☆ प्रस्तुती – सुश्री अनिता पारसनीस ☆

तुर्की शासक बख्तियार खिलजीने भारतावर आक्रमण केले. या दरम्यान खिलजी आजारी पडला. त्याच्या बरोबरच्या हकीमांचं औषध लागू पडेना. मग त्याला नालंदा विश्वविद्यालयातील आयुर्वेद विभागाचे प्रमुख आचार्य – राहुल श्रीभद्र यांचेकडून उपचार करून घ्यावेत, असा सल्ला मिळाला.                                                    

त्याने आचार्यांना बोलावून घेतले आणि दम भरला की, तो कोणतेही हिंदुस्थानी औषध घेणार नाही आणि ठराविक मुदतीत त्याचा आजार बरा झाला नाही तर तो आचार्यांचा वध करेल. आचार्यांनी त्याच्या सवयी जाणून घेतल्या. त्याचे नित्य पठणातील कुराण मागून घेतले आणि ते परत करतांना सांगितले की, खिलजीने रोज किमान एवढी पाने वाचलीच पाहिजेत. तसे केल्यावर खिलजी बरा झाला.                                                       *                                                                          

आचार्यांनी औषधींचा लेप त्या कुराणातील पानांच्या कोप-यात लावून ठेवला होता. खिलजी सवयीने तोंडात बोट घालून, थुंकीने ओले करून, कुराणाचे पान उलटत असे. जेवढी मात्रा पोटात जाणे अपेक्षित होते, तेवढ्याच पानांना लेप लावलेला होता.                                                        *                                                                    

पण या रानदांडग्याला हे कळल्यावर आपल्यापेक्षा हे हिंदु श्रेष्ठ कसे, या वैषम्याने त्याने सर्व गुरूवर्य आणि बौद्ध भिक्षूंची हत्या केली. संपूर्ण नालंदा विश्वविद्यालय जाळून टाकले. तिथले ग्रंथालय एवढे प्रचंड होते की, तीन महिने ते जळत राहिले होते. कृतघ्न खिलजीला प्राणदान मिळाल्याचा मोबदला त्याने असा चुकता केला.

आता आतापर्यंत तिथे मातीचे ढिगारे होते. भारतीय पुरातत्व खात्यातर्फे उत्खनन करायला सुरूवात केल्यावर त्याखाली दडलेले उध्वस्त अवशेष मिळून आले. तिथे गौतम बुद्धाची ८० फूट उंचीची मूर्ति होती, असे चिनी पर्यटक/विद्यार्थी ह्युएन त्संगने लिहून ठेवले होते.            

गुप्त वंशातील कुमारगुप्ताने याची निर्मिती केली. “ नालंदा “ या शब्दाचा अर्थ ->  ना + आलम् + दा :- “ न थांबणारा ज्ञानाचा प्रवाह“.

या अर्थाला जागणा-या आपल्या पंतप्रधानांनी  – श्री.नरेंद्र मोदीजींनी याला पुनर्प्रस्थापित केले. || नमो नमो ||

१९८७ साली कौटुंबिक सहलीदरम्यान तिथे जाण्याचा योग आला, तेव्हा हे सगळे अवशेष पहाण्यात आले होते. 

—जिज्ञासूंनी अधिक माहितीसाठी हा सूत्रधागा अवश्य पहावा. 👉 https://www.indiaolddays.com/naalanda-vishvavidyaalay-kisane-banavaaya-tha/?amp=1   

संग्रहिका : सुश्री अनिता पारसनीस 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – वाचताना वेचलेले ☆ गीतांजली भावार्थ … भाग 42 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी

? वाचताना वेचलेले ?

☆ गीतांजली भावार्थ …भाग 42 ☆ प्रस्तुति – सुश्री प्रेमा माधव कुलकर्णी ☆

७२.

आपल्या अदृश्य स्पर्शाने माझं अस्तित्व

जागवणारा माझ्या अंतर्यामी आहे.

 

या डोळ्यावर आपली जादू टाकून

तो हसत हसत माझ्या ऱ्हदयातील

तारा छेडतो व सुख- दु:खाची धून वाजवतो.

 

सोनेरी-चंदेरी-निळे-हिरवे रंगांचे जाळे तो फेकतो.

ते रंग उडून जाणारे आहेत.

त्याच्या पायघड्यातील अडथळे ओलांडून,

स्वतःला विसरून मी त्याला पदस्पर्श करतो.

 

अनेक नावांनी, अनेक प्रकारांनी

आनंद व दु:खाच्या अत्युत्कट प्रसंगी

तो सतत अनेक दिवस,

अनेक युगं तोच माझ्या ऱ्हदय स्पंदनात असतो.

 

७३.

संन्यासात मला मुक्ती नाही.

आनंदाच्या सहस्र बंधनात मला स्वातंत्र्याची

गळाभेट होते.

 

हे मातीचं पात्र काठोकाठ भरण्यासाठी

अनेक रंगांची आणि अनेक स्वादांची मद्यं

तू सतत त्यात ओतत असतोस.

 

तुझ्या ज्योतीनं शेकडो निरनिराळे दिवे

मी प्रज्वलित करेन व तुझ्या

मंदिराच्या वेदीवर अर्पण करेन.

 

माझ्या संवेदनशक्तीचे दरवाजे

मी कधीच बंद करणार नाही.

पाहण्यात,ऐकण्यात, आणि स्पर्शात असणारा आनंद तुझाच असेल.

 

आनंदाच्या तेजात माझी सारी स्वप्ने खाक होतील.

प्रेमाच्या फळात माझ्या साऱ्या वासना पक्व होतील.

 

७४.

दिवस सरला, पृथ्वीवर अंधार झाला.

घागर भरून आणायला

नदीवर जायची वेळ झाली आहे.

 

पाण्याच्या दु:खमय संगीतानं

सायंकालीन हवा भरून गेली आहे.

सांजवेळी ती मला बोलावते आहे.

रिकाम्या गल्लीत पादचारी नाही.

वारा सुटला आहे,

नदीत पाण्याच्या लाटा उसळत आहेत.

 

मी घरी परतेन की नाही ठाऊक नाही.

मला कोण भेटेल कुणास ठाऊक?

फक्त नदीकिनारी उथळ पाण्यात

छोट्या नावेत कोणी अनोळखी

माणूस सारंगी वाजवतो आहे.

 

मराठी अनुवाद – गीतांजली (भावार्थ) – माधव नारायण कुलकर्णी

मूळ रचना– महाकवी मा. रवींद्रनाथ टागोर

प्रस्तुती– प्रेमा माधव कुलकर्णी

कोल्हापूर

7387678883

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈