हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 86 ⇒ आषाढ़ का एक दिन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “आषाढ़ का एक दिन।)  

? अभी अभी # 86 ⇒ आषाढ़ का एक दिन? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आषाढस्य प्रथम दिवसे पर अगर कालिदास का कॉपीराइट है तो आषाढ़ के एक दिन पर मोहन राकेश का। मुझे संस्कृत नहीं आती, अतः मैं कालिदास के अभिज्ञान शाकुन्तल, कुमारसंभव और मेघदूतम् नहीं पढ़ पाया। कालिदास को हिंदी में पढ़ना शेक्सपीयर को हिंदी में पढ़ने जैसा है। जिसे संस्कृत नहीं आती, वह सुसंस्कृत नहीं कहलाता और जिसे अंग्रेजी नहीं आती, आजकल वह पढ़ा लिखा नहीं कहलाता। हमने मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन पढ़ लिया और संस्कृत नहीं आने के अपराध बोध से मुक्त हो गए।

हमारे अभिन्न मित्र श्री हृदयनारायण जी, जब प्रेम के ढाई अक्षरों में भी धाराप्रवाह संस्कृत बहा देते हैं, तो हमारी हिंदी हमें थाम नहीं पाती। जिसे तैरना नहीं आता, उसे भाषा के प्रवाह में बह जाना चाहिए। भाषा का प्रवाह सबको पार लगा देता है। जिसे एक बार भाषा का ज्ञान हो जाता है फिर वह ज्ञान के सागर में डुबकियां लगाता रहता है। ज्ञान के मोती भी उसी के हाथ लगते हैं। ।

आषाढ़ के प्रथम दिन का शायद मेघदूत से संबंध है। इस बार आषाढ़ के पहले दिन ही एक बूंद भी पानी नहीं गिरा। शुक्र है फागुन की तरह, आषाढ़ के दिन चार नहीं होते, आषाढ़ निकलता जा रहा है, मेघदूत जल्दी कर, हरी अप।

इस बार आषाढ़ के दिनों में और भी कई दिन मिक्स हो गए। एक दिन तो ऐसा आया जिस दिन कई दिन एक साथ आ गए। आजकल दिन, दिवस हो जाता है, और दिवस, डे।

साल में वैसे तो सिर्फ 365 दिन होते हैं लेकिन अगर मदर्स डे, वेलेंटाइन्स डे और फादर्स डे की तरह अन्य दिवस अर्थात days का हिसाब लगाया जाए, तो वे 365 से अधिक ही बैठेंगे, कम नहीं। फरवरी का तो पूरा सप्ताह days’ week अर्थात् दिवसों का सप्ताह कहा जा सकता है। रोज़ डे, प्रोमिस डे, चॉकलेट डे, दिल दे, दिल ले, इत्यादि इत्यादि।

अभी अभी टाइपराइटर्स डे निकला, फादर्स डे भी अकेला नहीं आया, साथ में योग दिवस भी लेकर आया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, रोज दिन में तीन चार बार चाय पीने वाले हम भारतीय, चाय दिवस भी मनाते हैं। बस मैगी दिवस और पास्ता दिवस की कमी है शायद। ।

मेरे लिए ” आषाढ़ का एक दिन ” बहुत महत्वपूर्ण है।

कथाकार और नाटककार स्व.मोहन राकेश का यह पहला नाटक (1958) है। जो संस्कृत के ज्ञाता हैं, वे कालिदास को पढ़ें, हमारे जैसे हिंदीभाषी लोगों के लिए मोहन राकेश एक बहुत बड़ा काम कर गए। कितने कम समय में कोई इंसान सृजन के क्षेत्र में इतना कुछ कर जाता है ; (1925-1972) कि विश्वास ही नहीं होता। उनके दो और नाटक भी यहां उल्लेखनीय हैं, आधे अधूरे और लहरों के राजहंस।

अभी देव सोये नहीं हैं। मेघ हम पर मेहरबान नहीं। आषाढ़ के किसी भी दिन झमाझम हो सकती है। आप भी आषाढ़ के किसी एक दिन फुर्सत निकालकर मोहन राकेश का “आषाढ़ का एक दिन”, पढ़ ही लें। अगर पढ़ भी लिया हो, तो भी बार बार पढ़ने लायक है। जो नाट्य विधा अर्थात् स्टेज से जुड़े हैं, वे इसकी मंचीय खूबियों से भली भांति अवगत होंगे।

स्वागत, अभी आषाढ़ मास के कुछ दिन बाकी हैं। ।

आषाढ़ के एक दिन की तरह शायद एक दिन विश्व नाट्य दिवस का भी अवश्य होगा। संस्कृत में कालिदास के अलावा भास और भवभूति भी नाटककार हैं। उधर अंग्रेजी साहित्य में भी विलियम शेक्सपियर और क्रिस्टोफर मार्लो के अलावा भी कई नाटककार हुए हैं।

हमारे देश में आज हिंदी की अपेक्षा मराठी मंच अधिक सक्रिय है।

कारण अच्छे मंचीय कलाकारों की फिल्मों में मांग। फिलहाल तो लगता है राजनीति साहित्य और संस्कृति को पूरी तरह लील रही है। कहीं हमें ऐसा दिन ना देखना पड़े कि लोग पूछें कौन कवि कालिदास और कौन मोहन राकेश..!!

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदाफूली ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सदाफूली ??

वे खोदते रहे

जड़, ज़मीन, धरातल,

महामार्ग बनाने के लिए,

नवजात पादप रौंदे गए,

वानप्रस्थी वृक्ष धराशायी हुए,

वह निपट बावरा

अथक चलता रहा

पगडंडी गढ़ता रहा,

पगडंडी के दोनों ओर

आशीर्वाद बरसाते

अनुभवी वृक्ष खड़े रहे,

चहुँ ओर बिखरी हरी घास के

पगडंडी को आशीष मिले,

महामार्ग और सरपट टायर

के समीकरण विशेष हैं,

पग और पगडंडी

शाश्वत हैं, अशेष हैं,

हे विधाता!

परिवर्तन के नियम से

अमरबेलों को बचाए रखना,

पग और पगडंडी के रिश्ते को

यूँ ही सदाफूली बनाए रखना..!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ आषाढ़ मास साधना- यह साधना आषाढ़ प्रतिपदा तदनुसार सोमवार 5 जून से आरम्भ होकर देवशयनी एकादशी गुरुवार 29 जून तक चलेगी। 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #188 ☆ भावना के चित्राधारित दोहे… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 188 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के चित्राधारित दोहे ☆

देख रही है वह मुझे, दरवाजे की ओट।

मंद मधुर मुस्कान है, नहीं दिख रही खोट।।

कजरारी आँखें लिए, काले -काले बाल।

लुक छिपकर वह देखती, कुंडल झूमें गाल।।

देख उसे मन खिंच रहा, उभरा यौवन आज।

बिंदिया मुझे बुला रही, हूँ सजनी का साज।।

नयन अभी कुछ कह रहे, भरा हुआ है जाम।

आ जाओ अब तुम सजन, लिखा तेरा ही नाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – जीवन यात्रा ☆ किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए… ☆ श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

श्री अजीत सिंह

(हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी (पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन) हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए विचारणीय आलेख, वार्ताएं, संस्मरण साझा करते रहते हैं।  इसके लिए हम उनके हृदय से आभारी हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अविस्मरणीय संस्मरण ‘किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए…’।)

☆ जीवन यात्रा – किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…डायबिटीज की अनदेखी न कीजिए… ☆  श्री अजीत सिंह, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन ☆

किस्सा मित्र राजेंद्र रॉय की दुखद मृत्यु का…

ऑल इंडिया रेडियो के पूर्व समाचार निदेशक राजेंद्र रॉय का बुधवार को गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित एक अस्पताल में निधन हो गया।  वे 78 वर्ष के थे और कुछ समय से किडनी की बीमारी से पीड़ित थे।

 एक हँसमुख व्यक्ति जो अपने ऊपर ही चुटकुले सुनाता था और दूसरों को खुश करता था, रॉय अपने दोस्तों के बीच बेहद लोकप्रिय थे, जिन्होंने उनके चरित्र के गुणों को याद करते हुए  भावभीनी श्रद्धांजलि पेश की हैं।

लेकिन राजेंद्र रॉय के कुछ दोस्तों को लगता है कि उन्होंने एक तरह से खुद ही आत्महत्या की है।  रॉय इस बात पर अड़े थे कि मधुमेह और बीपी की गंभीर स्थिति के बावजूद वह एलोपैथिक दवाएं नहीं लेंगे। उनका मानना था कि एलोपैथिक चिकित्सा प्रणाली एक माफिया है जहां डॉक्टरों और फार्मा कंपनियों ने आम लोगों को लूटा है।

वह सादा भोजन लेते थे और भ्रामरी प्राणायाम जैसे व्यायाम करते थे और दोस्तों से उनके उदाहरण का अनुसरण करने का आग्रह करते थे।  वह यह दावा करने के लिए अपने लैब परीक्षण पोस्ट करते थे कि उन्होंने बिना किसी दवाई के अपनी शुगर और कोलेस्ट्रॉल को पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया है।  शायद उन्हें अपनी एचबी1एसी के अत्यधिक उच्च स्तर की रिपोर्ट के निहितार्थ के बारे में पता नहीं था, जिसमें उनके रक्त में शर्करा के तीन मासिक औसत स्तर को दर्शाया गया था।  यह वांछित 6.0 के मुकाबले 9.7 था।  दोस्तों ने उन्हें इस संबंध में सावधान किया और उन्हें अपने आहार के साथ-साथ मेटफॉर्मिन जैसी एलोपैथिक दवाएं लेने की सलाह दी।  एक मित्र ने अपने डॉक्टर के हवाले से कहा कि मधुमेह रोगी की किडनी पर हर बार छोटा या बड़ा निशान बनाता है, जब शुगर सामान्य स्तर को पार करता है।  रॉय को कोई परवाह नहीं थी. शायद, उन्होंने इसी की कीमत चुकाई है।

राजेंद्र रॉय कट्टर विचारों के व्यक्ति थे।  वे हमेशा कहते थे कि कोविड-19 बड़ी फार्मा कंपनियों द्वारा किया गया एक बड़ा धोखा है, जो बड़ा डर पैदा करके लोगों को लूटने के लिए किया गया है।  उन्होंने अपनी बात को साबित करने के लिए बार-बार खुद को गंभीर कोरोना मरीजों के बीच भर्ती होने की पेशकश की।  कोई भी ऐसे प्रस्ताव को स्वीकार कैसे कर सकता था।

वैसे रॉय यारों के यार थे.  उन्होंने अपने सेवा सहयोगियों के हितों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक कई कानूनी लड़ाइयाँ लड़ीं।  वह किसी ऐसे दोस्त की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे जिसे प्रमोशन या अन्य मुद्दों पर अन्याय महसूस होता हो।

लेकिन सेवाकाल में खुद उन्हें बहुत कष्ट भी सहना पड़ा.  भारी काम के बोझ से दबे होने के कारण, उन्होंने आकाशवाणी रांची से क्षेत्रीय समाचार बुलेटिन में एक समाचार प्रसारित किया, जिसमें क्षेत्रीय समाचार इकाई में कर्मचारियों की कमी के कारण खराब स्थिति के लिए सरकार को दोषी ठहराया गया।  उन्हें निलंबन का सामना करना पड़ा और बाद में पदोन्नति में रुकावट आ गई। उन्हें अपने कुछ उचित लाभों को बहाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।

कानूनी मामलों में दोस्तों की निःशुल्क मदद करना सेवानिवृत्ति जीवन में उनका पूर्णकालिक शौक बन गया।

मूल रूप से बिहार के एक सुदूर इलाके के रहने वाले रॉय 1970 में भारतीय सूचना सेवा में शामिल हुए। उन्होंने मुख्य रूप से दिल्ली, पटना, भोपाल और रांची में काम किया और 2004 में ऑल इंडिया रेडियो के समाचार सेवा प्रभाग से समाचार निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए।

रॉय ने अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीया और कोई अन्याय बर्दाश्त नहीं किया।  वे हमेशा मित्रों व परिजनों की यादों में रहेंगे। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

राजेंद्र रॉय की कहानी का एक निष्कर्ष यह भी है कि डायबिटीज की बीमारी की अनदेखी मत कीजिए। सदा जीवन, खान पान और प्राणायाम और वर्जिश बेहतर हैं पर दवाई भी लेते रहिए।

© श्री अजीत सिंह

पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन हिसार।

मो : 9466647037

(लेखक श्री अजीत सिंह हिसार स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं । वे 2006 में दूरदर्शन केंद्र हिसार के समाचार निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए।)

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #174 ☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…” ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है – “एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं…”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 174 ☆

 ☆ एक पूर्णिका – “कई चाहतें खड़ी हुई हैं☆ श्री संतोष नेमा ☆

खींचा-तानी   मची   हुई    हैं

आकांक्षाएँ     बढ़ी   हुई    हैं

 

जिस थाली  में करते  भोजन

वही  छेद   से  भरी   हुई  हैं

 

कौन  किसे समझाये  अब तो

समझ  सभी  की  बढ़ी हुई  हैं

 

उलझाते   आपस  में   सबको

फितरत  उनकी  सड़ी  हुई   हैं

 

हमी   रहें   बस   सबसे   आगे

यही   हसरतें   पली    हुई    हैं

 

अंधे   हो  गये  इश्क  में वह तो

आँख   में  पट्टी   चढ़ी   हुई   हैं

 

कैसे   अब    संतोष     मिलेगा

कई    चाहतें   खड़ी    हुई    हैं

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पालखी… ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ पालखी… ☆ प्रस्तुती – सौ. गौरी गाडेकर ☆

निघाली पंढरपूरी पालखी llध्रुll

 

पालखीतही मीच विराजे

मीच वाहते माझे ओझे

विठूमाऊली, दुखले खांदे

फुंकर तू घाल की      ll1||

 

मोह, क्रोध, मद सांडत गेले

निर्मळ, पावन, हलके झाले

हीण असे जे उरलेसुरले

तूच विठू जाळ की     ||2||

 

शेवटची ही मजल गाठली

विठूचरणी या मुक्ती लाभली 

नि:संगावर माझ्या उरली

विठूचीच मालकी      ||3||

 

© सौ. गौरी गाडेकर

संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.

फोन नं. 9820206306

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ वारकरी नाचे… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

☆ वारकरी नाचे… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

(उत्कृष्ठच !वाखरीचे रिंगण असो देहु-आळंदीहून पालखींचे प्रस्थान हा सोहळाही नयनरम्य भक्तीचा असतो)

आकाशाला गवसणी घालणारा

पांडुरंगाशी अभंगी बोलणारा

आषाढाचा थेंबसरी झेलणारा

संसाराचे सुख-दुःख पेलणारा.

 

आत्मज्ञान साक्षात्कार तो दैणारा

दिंडी-दिंडीत पाप-पुण्य घेणारा

काय महती पंढरीस नेणारा

भेदाविन भक्तासंगे संत होणारा.

 

हाच तो कृष्ण सावळा  घन सांडतो

पंढरीच्या वाळवंटी खेळ मांडतो

मुक्ता जनाईसवे दैवही कांडतो

पुंडलीक सावतासंगे जो भांडतो.

 

असा हा विठ्ठल तिन्ही लोका सांभाळे

वारकरी नाचे टाळ गर्जे आभाळे.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #181 ☆ पांडुरंग… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 181 – विजय साहित्य ?

🌼 पांडुरंग…! 🌼 ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

वारकरी पंथ । झाला एकरूप  ।।

दावी निजरूप  । पांडुरंग ।।१।।

 

युगे अठ्ठावीस । वाहे चंद्रभागा ।।

अंतरात जागा  । पांडुरंग ।।२।।

 

माळ वैजयंती  । हात कटीवर ।।

शोभे रमावर  । पांडुरंग  ।।३।।

 

संत सज्जनांची । पुण्यमयी ठेव।।

आशिर्वादी पेव। पांडुरंग  ।।४।।

 

वैष्णवांचा मेळा  । करीतसे वारी ।।

कैवल्य कैवारी । पांडुरंग  ।।५।।

 

हरिनाम मुखी। सदा घेत जाऊ ।।

जीवनात  पाहू । पांडुरंग  ।।६।।

 

कविराज वाणी । चिंतनात रंग।।

जोडीला व्यासंग  । पांडुरंग  ।।७।।

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ आषाढी वारी विशेष – “वारकरी संप्रदायाचे कार्य…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ आषाढी वारी विशेष – “वारकरी संप्रदायाचे कार्य…” ☆ सौ राधिका भांडारकर

उत्कट भक्ती, सदाचार, नीती यावर आधारलेला सरळ मार्गी  आचारधर्म म्हणजे वारकरी संप्रदाय.

विठ्ठलाच्या वारीला जाणाऱ्या लोकांच्या संप्रदायाला वारकरी संप्रदाय म्हणतात. आणि या संप्रदायाचा आद्य प्रवर्तक भक्त पुंडलिक समजला जातो.

वारी म्हणजे एक सामुदायिक पदयात्रा.  विठ्ठलाच्या दर्शनासाठी आपापल्या गावाहून वारकरी या पदयात्रेत भक्तिभावाने सामील होतात.

संत ज्ञानेश्वरांच्या घराण्यात वारकरी संप्रदायाची  परंपरा होती आणि संत नामदेव,  संत तुकाराम, संत एकनाथ, संत भानुदास यांनी हाच प्रवाह चालू ठेवला.

या वारीची प्रथा आजतागायत त्याच भावनेनेने टिकून आहे हेच खरे वारीचे महात्म्य.  भगवंतांचे नामस्मरण करणे हे या संप्रदायाचे मुख्य तत्व.  संसारातील बंधनातून,  मोहमायेतून हळूहळू दूर होऊन,  भजन कीर्तनाच्या माध्यमातून, नामस्मरण करून  पांडुरंगाशी  एकरूप व्हावे हा संप्रदायाचा साधा सोपा भक्ती मार्ग आहे.  वारकरी संप्रदाय म्हणजे एक संस्कारक्षम सांस्कृतिक केंद्र आहे असे म्हटले तरी अतिशयोक्ती होणार नाही.

या संप्रदायाचे प्रवेशद्वार सर्व जाती पंथांच्या स्त्री-पुरुषांसाठी खुले आहे.  जातीय समता हा या संप्रदायाचा कार्य केंद्रबिंदू आहे.  येथे उच्च, नीच,  गरीब,  श्रीमंत असा भेदभाव नाही.  येथे सर्व समान.  सर्वांचे स्थान एकच.  शास्त्रप्रामण्याला, जातीव्यवस्थेला धक्का न लावता स्त्री व शूद्रांना आत्मविकासाचा मार्ग या संप्रदायाने मोकळा करून दिला. स्वातंत्र्य व समतेचे वातावरण निर्माण केले.  भक्ती पंथांच्या साहाय्याने आध्यात्मिक उन्नती साधता येते, नैतिक सामर्थ्य वाढवून प्रापंचिक  दु:खावर मात करता येते असा विश्वास या वारकरी पंथाने लोकांप्रती निर्माण केला.

वारकरी संप्रदायात व्रत—वैकल्याचे स्तोम नाही.  कर्मठपणा नाही.  त्याग, भोग,  नैष्कर्म्य,  स्वधर्माचरण याचा मेळ घालण्याचा उपदेश यात आहे.  या संप्रदायाचे कार्य लोकाभिमुख आहे.  लोकांमध्ये राहून नवचैतन्य निर्माण करण्याचा प्रयत्न यात आहे.  श्रद्धा व विवेक यांच्या एकात्मतेवर भर देण्याचे त्यांचे उद्दिष्ट आहे.  प्रपंच व परमार्थ याचा समन्वय साधण्याची शिकवण हा संप्रदाय समाजाला  देतो.  त्यांचे एकच सांगणे असते की कर्तव्यनिष्ठेला व सामाजिक नीतिमत्तेला पोषक अशीच कर्मे करावीत.  एकनाथ महाराज, चोखामेळा, गोरा कुंभार, सावता माळी सारेच वारकरी संत गृहस्थाश्रमी व कुटुंब वत्सल होते.

।। आधी प्रपंच करावा नेटका।। ही शिकवण त्यांनी समाजाला दिली. स्त्रियांच्या आणि शूद्रांच्या जीवनातलं जडत्व नाहीसं करून त्यांच्या निरस जीवनाला आध्यात्मिक ज्ञानाची ओळख करवली.  आणि त्यांच्या सुप्त शक्तींची व भावनांची जाणीव त्यांना  करून दिली.

वारकरी संप्रदायाने मराठीचा अभिमान बाळगला.  बोलीभाषेला वाङमयीन प्रतिष्ठा मिळवून दिली.  वारकरी संतांनी बहुजन समाजासाठी प्रथम मराठीत लेखन केले.  फुगड्या, पिंगा, भारुडे, गवळणी, अभंग, ओव्या, कीर्तने यांच्या माध्यमातून आपले विचार लोकांपर्यंत पोहोचवले. लोकांना रुचेल, समजेल,  त्यांच्या ओठावर राहील असेच लेखन त्यांनी केले.

। वेदांचा तो अर्थ आम्हासीच ठावा।

। येरानी  वहावा भार माथा ।।

असे संत तुकाराम आत्मविश्वासाने समाजाला सांगतात.

थोडक्यात वारकरी संप्रदायाने सामाजिक समतेचा पाया रचला.  तुळशी माळ, बुक्का,  गोपीचंदन,  गेरूच्या रंगात बुडवून तयार केलेले जाड्या भरड्या कापडाचे,  विशिष्ट आकाराचे निशाण म्हणजे संप्रदायाची पताका ही वारीच्या उपासनेची साधने आहेत.  

संप्रदायाचे मुख्य दैवत श्री विठ्ठल.  आणि हे कृष्णाचे रूप आहे.

 राम कृष्ण हरी हा वारकऱ्यांचा महामंत्र.

आणि “पुंडलिक वरदा हरी विठ्ठल श्रीगुरु  ज्ञानदेव तुकाराम” हे वारकरी संप्रदायाचे घोषवाक्य आहे.

टाळ मृदंगाच्या गजरात,  उन्हातान्हात,  पावसात,  थंडी वाऱ्यात,  ही वारी निघते आणि एकात्मतेची जागृती समाजात निर्माण करत भगवंत चरणी लीन होते.

।। राम कृष्ण हरी ।।

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ कथा – ‘क्वचित कधीतरी…’ – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? जीवनरंग ❤️

☆ कथा – ‘क्वचित कधीतरी…’ – भाग – 2 ☆ श्री अरविंद लिमये

(पूर्वसूत्र – “हे बघ अश्विनी, अविनाश हुशार आहे.समंजस आहे.पणअतिशय घुमा आणि एककल्ली आहे. तूच आता त्याला वेळोवेळी समजून घ्यायचंस. तो चुकतोय असं वाटेल तेव्हा आधार देऊन त्याला सावरायचंस” बोलता बोलता आण्णांचा आवाज त्यांच्याही नकळत भरून आला…”)

“आण्णा, इतक्या गंभीरपणे तुम्ही विचार करावा असं खरंच काही नाहीये. काल बँकेत कामं आवरायला उशीर झाला आणि सगळेच बाहेर जेवायला गेले. दोन दिवस आपला फोन बंद आहे, एरवी त्यांनी निरोप दिला असता.”

अश्विनीला खरंतर स्वतःलाही हे जाणवत होतं की आपण आण्णांना बरं वाटावं म्हणून हे बोलतोय. तिने स्वतःला कसंबसं सावरलं आणि ती अविनाशला उठवायला गेली.

“बघितलंत? प्रत्येक गोष्टीत  सूतावरुन स्वर्ग गाठता आणि उगीचच काळजी करता.तो एवढ्या लहान वयात बॅंकेत आॅफिसर म्हणून नोकरीला लागला,नवा संसार थाटला.कांही  म्हणून तोशीश ठेवली नाहीय,ना कधी कसला घोर लावलायन् तुमच्या जीवाला. चार दिवस आलो आहोत त्याचं सुख पहायला तर कधी जवळ बसवून प्रेमानं कौतुकाची थाप दिलीयत कां त्याच्या पाठीवर? आजारपण असो नसो सतत आपले कडू औषधाचे डोस देत रहायचं. हे कर,ते करु नको.रांगतं बाळ आहे कां हो तो अजून ?अशाने तो कशाला तुमच्यासमोर येतोय न्  तुमच्याशी मोकळेपणाने बोलतोय..?”

आण्णांना एकदम गहिवरून आलं. त्यांना खूप बोलायचं होतं, सांगायचं होतं. पण नेमके शब्द चाचपडत ते गप्प बसले….

‘आजवरचं आपलं आयुष्य म्हणजे सगळा खाचखळग्यातला प्रवास! पायपीट करता करता धडपडत,पडत, ठेचकाळत इथवर आलो.या नवसासायासाने जगल्या-वाचलेल्या एकुलत्या एका मुलाला तळहाताच्या फोडासारखं जपलं. वाढवलं. खंबीर आधार देणारे आई-वडील, समंजस बायको, भक्कम पगाराची नोकरी,या सगळ्यामुळे तो गाफील असल्यासारखा वागला तर त्याला मी सावध नाही का करायचं? माझ्या अनुभवांच्या शिदोरीतला एखादा घास तरी त्याच्यापर्यंत नाही का पोचवायचा? त्याला नाही भरवायचा?…’ ते स्वतःतच हरवले.

“अहो,..कसला विचार करताय?”

“तुला सांगू? आयुष्यात सुखाचे,आनंदाचे क्षण नेहमी नाचत-बागडत,हुंदडत येतात. गाजावाजा करत येतात. पण अडचणी आणि वाईट वेळा मात्र लपतछपत येतात. दबा धरून अचानक घाला घालतात. अशा वेळी नेमका हा जर गाफील राहिला तर…?”

“किती काळजी कराल त्याची?तो लहान आहे का हो आता?त्याचं त्याला सगळं छान समजतंय.मोठ्ठा साहेब झालाय तो.त्याला पांघरुणात लपवून ठेऊन त्याच्या जागी रोज तुम्ही जाऊन बसणार आहात का?आणि बसलात तसे,तरी ते व्याप तुम्हाला झेपणारायत का?मग त्याचं स्वत:चं आयुष्य,त्याचं म्हणून जसं येईल तसं जगू दे ना त्याचं त्याला.तुमचं सांगणं, विचार करणं मी समजू शकते हो. पण हे सगळं गोड गोळीसारखं दिलंत तर त्याला घ्यावंसं वाटेल ना? कडू औषध दिलंत तर तो झिडकारतच राहील. आणि याही पलीकडचं एक सांगू? या वयात कुणी आपणहोऊन मागितला तरच सल्ला द्यावा माणसानं. नाहीतर हरी हरी करीत स्वस्थ बसावं.”

————-

“अहोs,उठा बरं आता. आणि पटकन् तोंड धुऊन घ्या.मी तुमचा आणि आण्णांचा चहा ठेवतेय”

ऐकलं आणि आळसावलेली झोप झटकून अविनाश ताडकन् उठलाच.

“आण्णा मघाशीच फिरून आलेत ना गं?” तो त्रासिकपणे म्हणाला.

“हो”

“मग? त्यांचा अजून चहा झाला नाहीये?”

“पुन्हा घेतील अर्धा कप. त्या निमित्ताने तरी दोघं एकमेकांशी बोलत बसाल”

अविनाश छद्मीपणाने हसला.

“का हो?”

“त्यांच्याशी बोलायचं कधी असतं का गं कांही?.फक्त ते बोलतील ऐकायचंच तर असतं. ते किती चांगले, किती व्यवस्थित, किती काटेकोर, किती हुशार… आणि मी ?आळशी,धांदरट, गचाळ, मूर्ख… “

“किती लहान मुलासारखा विचार करता हो तुम्ही?”     अश्विनीला त्याचं हसूच आलं.

“तुला हसायला काय जातंय? तू त्यांची मुलगी असतेस ना म्हणजे समजलं असतं.”

“समजायचंय काय त्यात? आवडलं असतं मला ते. चुकीचं किंवा काही वाईट कुठं सांगत असतात ते? काही सांगायचा, शिकवायचा एरवीही त्यांना हक्क आहेच ना?. तुम्ही उठा बरं आता. मी जातेय. या लगेच.

अविनाशला अश्विनीच्या या सरळपणाचा हेवा वाटत होता आणि कौतुकसुद्धा !

“हं.काय म्हणतेय बॅंक?”

“कांही नाही.ठीक आहे.”

“कशी चाललीय नोकरी?”

“छान.मजेत.”

“छान चालू दे.पण मजेत नको.हरघडी साक्षात् लक्ष्मीशी संबंध येतोय तुझा.ती अनेक मायावी रुपात तुझ्यासमोर येईल.त्या प्रत्येक वेळी तू कणखर आणि जागरुक असायला हवंस.”

त्याने होकारार्थी मान हलवली पण त्याची अस्वस्थता वाढत होतीच.

“अहो त्याला सकाळचा चहा तरी शांतपणे घेऊन देणार आहात का?”

“तो त्याच्या कानाने चहा पीत नाहीये ना? ऐकू येतंय ना त्याला चहा घेता घेता?”

“होय हो.पण आता त्याचं त्याला आवरु दे ना. त्याला आधीच उठायला उशीर झालाय ‌”

“मी तेच म्हणतोय. रात्रीची एवढी जागरणं करायचीच कशाला? वेळच्यावेळी घरी यावं. नियमित जेवण आणि ठराविक झोप घ्यावी. तरच शरीराचं यंत्र ठणठणीत राहील न् दामदुप्पट काम देईल. त्याच्या या अनियमित वागण्यामुळे निम्मी तब्येत खलास झालीय त्याची.”

“आण्णा, पण मी कामासाठीच तर…”

“योजनाबध्द रीतीने कामं केलीस, तर रात्री बारा बारा वाजेपर्यंत ताटकळायची आवश्यकता रहाणार नाही. एकत्र येऊन बाहेर जेवायला आणि चकाट्या फिटत बसायला बँकेच्या कामाचं निमित्त कशाला हवं?”

मनात साठत चाललेल्या संतापाचा आता स्फोट होणार हे जाणवताच चहा तसाच अर्धवट टाकून अविनाश उठलाच. तडक बेडरूममधे निघून गेला. कावरी बावरी झालेली अश्विनी त्याला समजवायला त्याच्यामागे धावली.. पण..

“थांब अश्विनी. जाऊ दे त्याला. अगं, तुला हे नवीन असेल पण त्याला कळायला लागल्यापासून आमचा हा लपंडावाचा खेळ असाच सुरू आहे आणि तेव्हापासून कितीही दम लागला, तरी डाव नेहमी असा माझ्यावरच येत रहाणाराय.”

तिची समजूत घालायला हे बोलताना ते वरकरणी हसत होते पण मनातून ते दुखावलेत हे त्या हसण्यातूनही अश्विनीला कळून चुकलं होतं!

—————-

“असं मधेच उठून कशाला आलात हो?”

“नसतो आलो तर अजून तासभर तरी त्यांचं प्रवचन संपलं नसतं.”

“हे फार होतंय हं”

“आता तूही मला..”

“आपलं लग्न झाल्यापासून गेले सहा महिने मी प्रत्येक पत्रातून त्या दोघांना आग्रहाने इकडे बोलवत होते तेव्हा कुठे यावेळी ते पहिल्यांदाच आलेत. ते इथे रहातील तितके दिवस त्यांना आनंदाने राहू द्या ना. तुम्ही शांत रहा आणि कृपा करून घरचं वातावरण बिघडवू नका. ते दुखावून किंवा कंटाळून निघून गेले ना तर मला चैन पडणार नाही सांगून ठेवते.” तिच्या डोळ्यांत टचकन् पाणीच आलं.

“मी भांडलोय का त्यांच्याशी? त्यांना कांही बोललोय तरी कां? “

“तुमचं हे काही न बोलणंच त्यांच्या जिव्हारी लागतं.”

“काहीही बोललो, काहीही सांगितलं तर ऐकून तरी घेतात का ते? वर त्यांचं म्हणून काहीतरी असतंच.तरीही तू त्यांचीच री ओढतेयस.”

“ते रागावून,चिडून, संतापून का़ही बोलले असते तर ते मलाच आवडलं नसतं. पण ते आपला प्रत्येक शब्द अतिशय शांतपणे मांडत असतील तर तुम्ही एक तर तो व्यवस्थितपणे खोडून तरी काढायला हवा किंवा तो मान्य करून स्वीकारायला तरी हवा “

“स्वीकारतेस काय? बँकेत तिथं किती कामं असतात हे यांना घरी बसून काय माहित?” त्याचा आवाज चढलाच.

“तुम्ही स्वतःचं समर्थन ठामपणे करू शकत नाही ना त्याचाच राग येतोय तुम्हाला.”

“म्हणजे मी..मी बँकेत झोपा काढतोय असं म्हणायचंय का तुला? “तो तारस्वरात ओरडला.

“हे बघा, हळू बोला. आण्णांना हे ऐकू जावं म्हणून ओरडून बोलत असाल तर सरळ त्यांच्या खोलीत जाऊनच बोला ना आणि अगदी खरं, प्रामाणिकपणानं सांगा त्यांना काल रात्री तुम्हाला यायला कां उशीर झाला होता ते आणि आलात तेव्हा तुमच्या तोंडाला कां आणि कसला वास येत होता तेसुध्दा… “

“अश्विनी?”

“येत होता ना? ” अश्विनीच्या घशाशी हुंदका दाटून आला.

“…… “

“मग एकत्र येऊन जेवायला आणि चकाट्या पिटायला बँकेचं काम तुम्ही निमित्त म्हणून वापरता असं आण्णा म्हणाले तेव्हा त्यांचा राग कां आला तुम्हाला? ते बोलले त्यात चुकीचं कांही नव्हतं याचाच ना? “

“अश्विनी, मित्रांच्या आग्रहाने कधीतरी एखाद्या पेग घेतला म्हणून मी लगेच दारुड्या होत नाहीss  “

अश्विनी संतापाने त्याच्याकडे पहात राहिली.’  … ‘…आता जे कांहीं बोलायचं ते आत्ता न् या क्षणीच.नाहीतर नंतर बोलू म्हंटलंस तर वेळ हातातून निघून गेलेली असेल..’ तिने स्वत:ला बजावलं.

क्रमश:

©️ अरविंद लिमये

सांगली

(९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈