हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ दरार ☆ – डॉ. कुंवर प्रेमिल

डॉ कुंवर प्रेमिल

☆ जगह ☆

(प्रस्तुत है डॉ कुंवर प्रेमिल जी  की एक बेहतरीन एवं विचारणीय लघुकथा। आखिर सारा खेल जगह का  ही तो है । ) 

 

उसके पास कुल जमा ढाई कमरे ही तो  है। एक कमरे में बहू बेटा सोते हैं तो दूसरे में वे बूढा – बूढी। उनके हिस्से में एक  पोती भी है जो पूरे पलंग पर लोटती  है।  बाकी बचे आधे कमरे में उनकी रसोई और उसी में उनका गृहस्थी का आधा  अधूरा सामान ठुसा पड़ा है।

कहीं दूसरा बच्चा आ गया तो…..पलंग  पर दादी अपनी पोती को खिसका -खिसका कर दूसरे बच्चे के लिए जगह बनाकर देखती है।

बच्ची के फैल – पसर कर सोने से हममें से एक ☝ जागता एक सोता है। दूसरे बच्चे  के आने पर हम दोनों को ही रात ? भर जागरण करना पड़ेगा……बूढा  कहता।

तब तो हमारे लिए  इस पलंग पर कोई जगह ही नहीं रहेगी।

तीसरी पीढ़ी जब जगह बनाती है तो पहली पीढ़ी अपनी जगह गँवाती है। सारा खेल इस जगह का ही तो है। देखा नहीं एक -एक इंच जगह के लिए कैसी हाय तौबा मची रहती है। दादी सोच रही थी।

न जाने कैसी हवा चली है कि आजकल बहुएं,  बच्चों को अपने पास सुलाने का नाम ही नहीं  लेती। यदि वे अपनी बच्चों को अपने पास सुला लेती तो थोड़ी बहुत जगह हम बूढा बूढी को भी नसीब  हो जाती।

 

© डॉ कुँवर प्रेमिल 
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782




हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ अब मुझे सपने नहीं आते ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

☆  अब मुझे सपने नहीं आते ☆

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  की  सार्थक, सटीक एवं  सामयिक कविता  “अब मुझे सपने नहीं आते”।)

 

अब मुझे सपने नहीं आते

उन्होंने आना कर दिया है बंद

उनका नहीं

दोष मेरा ही है

वे तो आना चाहते है

अपने नए-नए रंग में

पर मैने ही मना कर दिया है

मत आया करो मेरे द्वार

फिर भला कौन आएगा

अपमानित होंने के लिए

 

अब मुझे नींद भी नहीं आती

जब नींद नहीं आती तो

भला सपनों क्या काम

 

समय के थपेड़ों ने कर दिया है

गहरे तक मजबूत

आदत सी पड़ गयी है

सपनों के बिना जीने की

 

कभी -कभी आ जाती है

झपकी या नींद

तब संभाल लेता हूँ

चिकोटी काट कर

कहीं सपने बस न जाएँ

मेरी आँखों में, क्योंकि

पहले ही बसा लिया था

गरीबी हटाओ और

अच्छे दिन आने वाले है

इन सुबह आने वाले सपनों को

विश्वास करता था, इस अंधविश्वास पर

होते हैं सच, सुबह वाले सपने

 

पर अब आ गया है समझ

अपनी आँखों को

रखता हूँ खुली

और सपनों को

आँखों से दूर

*

© रमेश सैनी , जबलपुर 

मोबा . 8319856044

 




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? शिवबाचे गुणगान… ? –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? शिवबाचे गुणगान… ?

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की  छत्रपति शिवाजी महाराज का गुणगान करती एक अतिसुन्दर कविता ।  )

 

भारतदेशी होऊन गेला राजा एक महान

एकमुखाने चला गाऊया शिवबाचे गुणगान…

 

सर्व धर्म अन् जाती त्यांना होत्या एकसमान

कधी नाही भेद केला रयतेस मानी संतान…

 

यवन स्त्रीसही माता म्हणतो राखून त्यांचा मान

माता काय पण परस्त्रीचाही होई तिथे सन्मान…

 

बाजी, तानाजी कामी आले वीर हे बलवान

राजांसाठी ठेवी मावळे हातावरती प्राण…

 

सुवर्ण फाळ करणारा राजा एकच तू रे जाण

सुवर्ण फाळ पाहुन धर्तीला वाटला अभिमान…

 

शिवशाहीला माझे वंदन आणि लवूनी प्रणाम

कवन शिवाचे गाता गाता शाहीर हा बेभान…

 

© अशोक भांबुरेधनकवडी

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆Self Sustaining Laughter Clubs ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Self Sustaining Laughter Clubs

We feel happy to share with you the inspiring stories of three self sustaining laughter clubs. These are not formally formed and run laughter clubs. Nevertheless, they meet on all working days and have a hearty laugh!

For the past one year, we have been regularly conducting a laughter yoga session every Tuesday morning at the Rotary Paul Harris School for the mentally challenged children at Indore. They have included Laughter Yoga in their curriculum and have a session earmarked for it every day in the time table, thanks to Rotarian Radhe Shyam Maheshwari and Rotarian Rajesh Singh Parmar. The principal, Neeti Billore, and all teachers of the school conduct the sessions with great dedication. And, the students simply love it! This is probably a unique example where students and their teachers have discovered deep value in laughter yoga and adopted it on their own! This has given us fulfillment as nothing else in our lives. If we have to choose one good work that we have ever done, this would be it.

We had made a presentation on Laughter Yoga at the Local Head Office of State Bank of India at Bhopal on 26th January, 2012 – the Republic Day of India. The audience included the staff, senior officials and their families. They appreciated it very much. Mr S K Mishra, then Chief General Manager, who is now a Deputy Managing Director of the State Bank of India, the largest bank of this country, desired that we record an audio track containing instructions for a brief laughter session. The track is played every morning at 11 o’clock over the public address system at the Local Head Office and more than five hundred employees spread on five floors of the building chant ‘Very Good Very Good Yay” and laugh in unison every working day. This is another unique self sustaining laughter club. Mr Rajesh Gupta, Assistant General Manager, Human Resources deserves special kudos for ensuring the success of this club on an ongoing basis.

Iram Ahmad happened to visit Suniket Laughter Club, Indore one fine Sunday morning and enjoyed the laughter session so much that she just had to tell her boss Akshay Jain about it the next morning. Lo and behold! They asked us to conduct a laughter session at their office on Saturday. We presented Laughter Yoga before the staff of Viscus Infotech, Indore and laughter reverberated as we had never heard before. That was it. Next day onwards, they started laughter sessions on their own in their office. They have one in the morning around 11o’clock and the second one in the evening at 4 o’clock. Their CEO, Akshay Jain, one of the finest laughers on this planet, inspires and leads them from the front.

We take this opportunity to express our sincere appreciation and heartfelt gratitude to all those who have made it possible to carry forward these clubs by their enthusiasm and love for laughter. We are sure there would be many more such self sustaining laughter clubs across the globe which have not been reported or documented. Please share if you know of any one. Love and Laughter!

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (65) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

 

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ।।65।।

 

निर्मल मन रखता उसे आंनदित निष्काम

अचल बुद्धि नहि जानती किन्ही दुखों का नाम।।65।।

 

भावार्थ :   अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।।65।।

 

In that  peace  all  pains  are  destroyed,  for  the  intellect  of  the  tranquil-minded  soon becomes steady. ।।65।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  डॉ कुन्दन सिंह जी के पात्रों  के सजीव चित्रण का मैं कायल हूँ। लगता है उनके पात्र हमारे आस पास ही हैं। आवश्यकता से अधिक ज्ञान प्राप्त करना और उसे बांटने में अपनी ऊर्जा खत्म कर तनाव झेलना आम हो गया है। फिर ऐसी समझदारी का त्रासद अन्त कैसे होता है वह आप ही पढ़ लीजिये।)

रामसुख अपने नाम के हिसाब से ही हमेशा शान्त और सुखी रहते हैं। दफ्तर से लौटते हैं, थोड़ी देर टाँगें सीधी करते हैं, फिर टहलने निकल जाते हैं। लेकिन उनका टहलना दूसरों के टहलने जैसा नहीं होता। दूसरे लोग स्वास्थ्य-वर्धन के लिए, भोजन पचाने के लिए टहलते हैं, रामसुख सिर्फ दुनिया देखने के लिए, मन बहलाने के लिए टहलते हैं। दाहिने बायें देखते हुए, धीरे धीरे चलते हैं। जहाँ कुछ दिलचस्प दिखा, रुक गये। कोई मजमा, कोई तमाशा, झगड़ा, मारपीट होती दिखी, रुक गये। जितनी देर झगड़ा, मारपीट चलती रही, देखते रहे, फिर धीरे धीरे आगे बढ़ गये। कहीं भाषण होता दिखा तो वहीं रुक गये। थोड़ी देर सुना, फिर आगे बढ़ गये। रास्ते में कोई मंदिर पड़ा तो भीतर जाकर सिर झुकाकर प्रसाद ले लिया। भजन-कीर्तन हो रहा हो तो थोड़ी देर उसमें शामिल हो गये, नहीं तो प्रसाद फाँकते आगे बढ़ गये।

ऐसे ही रामसुख एक शाम एक ऐसी सभा में पहुँच गये जहाँ एक संत का प्रवचन चल रहा था। रामसुख टाइम काटने को भाषण सुनने बैठ गये, लेकिन जल्दी ही उनके कान खड़े हुए। संत बड़ी दिलचस्प बातें कह रहे थे। कह रहे थे—–‘भक्तजनो! हम पुरूष बहुत बड़ी गलती करते हैं कि अपनी पत्नियों को वैधव्य के लिए तैयार नहीं करते। जीवन अनिश्चित है, आज है कल नहीं। सामान सौ बरस का है, कल की खबर नहीं। पति को अचानक कुछ हो जाता है तो पत्नी को न उसके बैंक का पता होता है, न पासबुक का। यह भी पता नहीं होता कि उसका बीमा कितने का है, बीमा दफ्तर कहाँ है। किससे कितना लेना है, किसे कितना देना है। कई स्त्रियों ने तो अपने पति का दफ्तर तक नहीं देखा। पति एकाएक परलोक सिधार जाए तो पत्नी असहाय हो जाती है। उसे समझ में नहीं आता कि कहाँ जाएँ, क्या करें। यह हाल पढ़ी-लिखी स्त्रियों का भी है, बेपढ़ी लिखी स्त्रियों को तो छोड़ ही दीजिए।

‘इसलिए पतियों को चाहिए कि पत्नियों को इस बात की पूरी जानकारी दें कि यदि उनका ऊपर से अचानक बुलावा आ जाए तो उन्हें क्या करना है, किस तरह रहना है। अपने को अमर समझकर नहीं रहना चाहिए।’

सुनकर रामसुख के दिमाग़ में जैसे बल्ब जला। क्या मार्के की बात कही है! जिंदगी का क्या ठिकाना?सौ नयी बीमारियां पैदा हो गयी हैं। अभी सड़क पर चल रहे हैं, दूसरे पल पता चला ऊपर ट्रांसफर हो गया। सड़क पर इतने वाहन चलते हैं। थोड़ा धक्का लगा और छुट्टी। लूट-मार इतनी बढ़ गयी है कि अंधेरे में कहीं से निकलने में डर लगता है। आजकल लौंडे बात बाद में करते हैं, पहले चाकू निकालते हैं। संत जी ने ठीक कहा। पत्नी को सब जानकारी दे देना चाहिए।

घर आये तो खटिया पर लेट गये। पत्नी शकुंतला देवी को बुलाकर पास बैठा लिया। छत की तरफ देखकर दार्शनिक अंदाज़ में बोले, ‘जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं है। आज यहां कल वहां।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘क्या हुआ? कोई मर वर गया क्या?’

रामसुख गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं! मैं तो आदमी की जिंदगी के बारे में सोच रहा था। क्या पता कब क्या हो जाए! जिंदगी और मौत के बीच कितना फासला है, किसे मालूम?’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘टीवी में किशन जी महाराज जो गीता का परवचन दे रहे हैं, लगता है उसी का असर हो गया है।’

रामसुख बोले, ‘नहीं! आज एक संत जी का भाषण सुना। वे कह रहे थे कि आदमी की जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है, इसलिए पत्नी को घर-द्वार के बारे में सब समझा कर रखना चाहिए।’

शकुंतला देवी गुस्से में बोलीं, ‘चूल्हे में जाएं ऐसे संत। खबरदार जो आगे ऐसी बात मुँह से निकाली। जिंदगी जाए तुम्हारे दुश्मनों की।’

वे झपट कर घर के भीतर चली गयीं। रामसुख तम्बाकू की जुगाली करते, छत की तरफ ताकते, लेटे सोचते रहे।

दूसरी शाम उन्होंने अपनी दोनों पासबुक निकालकर तकिये के नीचे रख लीं, फिर शकुंतला देवी को बुलाया। जब वे आकर बैठ गयीं तो पासबुक निकालकर उन्हें दिखाकर बोले, ‘बताओ ये पासबुक किन बैंकों की हैं।’

शकुंतला देवी भौंहें चढ़ाकर बोलीं, ‘हमें क्या मालूम।’

रामसुख दुखी भाव से बोले, ‘यही तो गड़बड़ी है। देखो, यह काली वाली पासबुक महाराष्ट्र बैंक की है और गुलाबी वाली नागरिक बैंक की।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘होगी। तो हम क्या करें?’

रामसुख बोले, ‘अरे भाई, जरा समझो तो। सब दिन मूरख ही बनी रहोगी। आओ तुम्हें समझायें कि पासबुक में रकम कहाँ लिखी होती है।’

शकुंतला देवी फिर झटक कर खड़ी हो गयीं। बोलीं, ‘तुम पर फिर कल वाला भूत सवार हो गया। पहले तो कभी कभी भांग खाते थे, अब लगता है रोज जमाने लगे हो। ज्यादा आंय बांय बकोगे तो ओझा जी को बुलाकर तुम्हारा भूत उतरवाऊँगी।’

रामसुख चुप्पी साध गये।

लेकिन संत जी की बातें उनके दिमाग़ से निकलती नहीं थीं। अगले दिन फिर उन्होंने शकुंतला देवी को बुलाकर बैठा लिया। पुचकार कर बोले, ‘तुम मेरी बात का बुरा मान जाती हो। अरे, मैं मर थोड़े ही रहा हूँ। देखो न काठी एकदम ठोस है, टनाटन। लेकिन आदमी और औरत गिरस्ती की गाड़ी के दो पहिये होते हैं। दोनों को सब चीजों की जानकारी होनी चाहिए। अब देखो, वर्मा जी बीच में पत्नी को बिना कुछ बताये परलोक चले गये तो मिसेज़ वर्मा को कितनी परेशानी हुई। इसलिए सब बातों की जानकारी रखना जरूरी है।’

अब की बार शकुंतला देवी नाराज़ नहीं हुईं। बोलीं, ‘बाद में देखेंगे। अभी ये रामायण बन्द करो।’

रामसुख खुश हुए। चलो, बीजारोपण हो गया। अब धीरे धीरे सब हो जाएगा।

अगले दिन से वे शकुंतला देवी को पासबुक के बारे में समझाने लगे। कहाँ जमा पैसा लिखा जाता है, कहाँ निकाला हुआ, कहाँ बाकी चढ़ता है। शकुंतला देवी थोड़ी देर सुनतीं, फिर ‘उँह, बाद में देखेंगे, काम पड़ा है,’ कह कर उठ जातीं।

धीरे धीरे शकुंतला देवी की दिलचस्पी बढ़ने लगी। अब वे खुद ही पतिदेव से प्राविडेंट फंड, बीमा वगैरः के बारे में पूछताछ करने लगीं। फुरसत में उनके कागजात उलट-पलट कर समझने की कोशिश करती रहतीं। रामसुख और खुश हुए। एक दिन उन्हें अपनी स्कूटर के पीछे बैठा कर बैंक ले गये। वहाँ समझाते रहे कि पैसा कहाँ और कैसे जमा किया और निकाला जाता है। एक दिन बाहर से उन्हें अपने दफ्तर के दर्शन भी करा लाये।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी! जिसका बैंक में खाता है, उसे भगवान न करे कुछ हो जाए तो उसका पैसा पत्नी को मिल जाता है न?’

रामसुख उत्साह से बोले, ‘हाँ, हाँ, बैंक में फार्म भरते वक्त उसका नाम देना पड़ता है जिसे पैसा मिलेगा। कोई दिक्कत नहीं होती।’

लेकिन उत्तर देने के बाद रामसुख के मन में ‘टुक्क’ से डंक जैसा लगा। यह तो एकदम मेरे मरने की सोचने लगी।मन कुछ बुझ गया।

एक दो दिन बाद रामसुख खटिया पर लेटे लेटे शकुंतला देवी को सुनाकर बोले, ‘आजकल सरकार ने अच्छा इंतजाम कर दिया है। कोई सरकारी कर्मचारी मर जाता है तो कफन-दफन के लिए चौबीस घंटे के भीतर आठ-दस हजार रुपये मिल जाते हैं।’

शकुंतला देवी सब्जी काटते काटते बोलीं, ‘यह तो अच्छी बात है।’

रामसुख के मन में फिर ‘टुक्क’ हुआ। यह तो ऐसे सहज भाव से बोल रही है जैसे मैं आलू खरीदने की बात कर रहा हूँ।

तीन चार दिन बाद शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी, यह जो आदमी के मरने के बाद औरत को पिंसिन ग्रेचूटी मिलती है उसमें कोई घपला तो नहीं होता? पूरा पैसा मिल जाता है?’

रामसुख भकुर गये। कुढ़ कर बोले, ‘तुम्हें और कोई काम नहीं है क्या? दिन भर यही फालतू बातें सोचती रहती हो।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘अरे भाई, आजकल हर जगह भरस्टाचार मचा है। इसलिए पूछ रही हूँ।’

रामसुख बड़ी देर तक भकुरे लेटे रहे।

अब रामसुख ने शकुंतला देवी को ज्ञान देना बन्द कर दिया था।शकुंतला देवी ही उनसे जब-तब पूछती रहती थीं। अब उनके हर सवाल पर रामसुख को झटका लगता था। उन्हें लगता जैसे वे उनके परलोक सिधारने का इंतज़ार कर रही हों।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘आदमी नौकरी करता मर जाए तो औरत को कितनी पिंसिन मिलती है?’

रामसुख लेटे थे, उठ कर बैठ गए। खीझ कर बोले, ‘दो चार दिन में मर जाऊँगा तो अपने आप पता लग जाएगा। यही चाहती हो न?’

शकुंतला देवी ठुड्डी पर उंगली रखकर बोलीं, ‘हाय राम! मरें तुम्हारे दुश्मन। तुम्हीं तो कहते थे कि सब जानना चाहिए।’

रामसुख बोले, ‘हाँ, बहुत जान लिया। अब आज से जानना और पूछना बंद करो, नहीं तो मैं पगला जाऊँगा। ज्योतिषी ने कहा है कि मैं नब्बे साल की उमर तक जिऊँगा। बत्तीस साल पेंशन खाऊँगा।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘ए लो। पहले तो हमारे पीछे पड़े रहते थे कि यह जानो वह जानो। अब कहते हैं पगला जाएंगे। हमें क्या करना है, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। अब आगे से हमें किन्हीं संत जी की बातें मत बताना।’

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

 




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 8 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (8)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  आठवाँ  जवाब  अबू धाबी से ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री समीक्षा तेलंगजी  एवं सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

अबु धाबी से सुश्री समीक्षा तेलंग जी का जबाब ___
यदि आप समाज को घोड़ा मानते हैं तो आप खुद को उसकी आंख या लगाम भी मान सकते हैं। पर मैं, लेखक को स्वयं अश्व मानती हूं। आपने हॉर्सपावर सुना होगा…। किसी भी मशीन की क्षमता इसी इकाई से मापी जाती है। घोड़े की बुद्धि और ताकत का कोई सानी नहीं। वो चाहे तो दुनिया को हांक सकता है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि हवा के वेग से भी ज़्यादा होती है। और मनुष्य से अधिक संवेदनशील भी घोड़ा ही होता है। मैं लेखक को भी उतना ही संवेदशील मानती हूँ। तभी वो सृजन भी करता है।
लेकिन एक बात जो लेखकों को ही अपने आप में बाँटती है वो ये कि लेखक अपनी मानसिकता के हिसाब से लिखता है। कुछ लोगों के लिए वह दिशाविहीन लेखन होता है। कोई उसे सृजनात्मक मानता है। तो कोई उस लेखन को किसी दस्तावेज़ से कम नहीं मानता। एक का ही लिखा पढ़ने वाले की मानसिकता और लेखक की अपनी मानसिकता पर निर्भर करता है।
यदि लेखक घोड़ा है तो समाज उस ताँगे की तरह है, जिसके विचारों को लेखक और सुदृढ़ बनाता है। बशर्ते वह लेखन समाज को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। हम भूल जाते हैं कि ताँगे के घोड़े की आँख पर ऐनक चढ़ा होता है। तभी वो अपने ताँगे को सही दिशा में हाँक पाता है, ख़ाली लगाम से नहीं। लगाम उसके वेग को कम ज़्यादा कर सकती है लेकिन दिशा नहीं दिखा सकती।
बग़ैर ऐनक वह आजू बाजू आगे और कुछ हद तक पीछे भी देख सकता है। क्या हो यदि उसे ऐनक न चढ़ाया जाए? वह मात्र भटका हुआ प्राणी हो जाता है। यही स्थिति लेखक की भी है।
मनुष्य भले ही अपनी गर्दन ३६० डिग्री पर नहीं घुमा सकता लेकिन ख़ुद घूमकर सही ग़लत का जायज़ा लेकर समाज में पनप रही विकृतियों को ज़रूर उजागर कर सकता है।
पहले के युद्धों में हरेक राजा का एक प्रिय घोड़ा ज़रूर होता था। किन्हीं स्थितियों तक वह उस राजा की जीत का भागीदार होता था। क्योंकि वह दुश्मन की आहट को बख़ूबी भाँप लेता था। और अपने प्रिय घुड़सवार को उन परिस्थितियों से बचा लेता था।
लेखक की भूमिका समाज के प्रति भी ऐसी ही होनी चाहिए। पीत पत्रकारिता जिस प्रकार समाज को विषैला प्रदूषित कर रही है। उसी प्रकार लेखक के एक एक शब्द का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। इसलिए लेखक, घोड़े की आँख या लगाम बनने से बचें और ख़ुद अश्व बनकर दुनिया की असलियत उजागर करने का दंभ रखें।
– समीक्षा  तैलंग, अबु धाबी (यू.ए.ई.)

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सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का जबाब ___
वर्तमान समाज, बेलगाम घोड़ा है। इसकी लगाम छीन कर कहीं गहरे दफन कर दी गई है। लाख ढूंढो तो भी नहीं मिलेगी। फिर सवाल घोड़े की आंख का है। पहले वे आंखें सीधे ही लक्ष्य पर केन्द्रित होती थीं। भटकने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अब, आंखों का वह दिशा नियंत्रक भी नदारद है और यह बेशर्म घोड़ा अब खूब नैन मटक्का करता है। लेखक भी समाज का अंग है। अत:, आज के सन्दर्भ में लेखक घोड़े की आंख है।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, सवाई  माधोपुर 



हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ चलो….अब भूल जाते हैं ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

☆ चलो….अब भूल जाते हैं ☆

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

जीवन के पल जो काँटों से चुभते हों

जो अज्ञान अँधेरा बन

मन में अँधियारा भरता हो

पल-पल चुभते काँटों के

जख़्मों पे मरहम लगाते हैं

मन के अँधियारे को

ज्ञान की रोशनी बिखेर भगाते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो….

सब भूल जाते हैं….

 

अपनों के दिए कड़वे अहसास

दर्द टूटने का विश्वास

पल-पल तन्हाई की मार

अविरल बहते वो अश्रुधार

भूल सभी कड़वे अहसास

फिर से विश्वास जगाते हैं

पोंछ दर्द के अश्रु पुनः

अधरों पर मुस्कान सजाते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो….

सब भूल जाते हैं….

 

अपनों के बीच में रहकर भी

परायेपन का दंश सहा

अपमान मिला हर क्षण जहाँ

मान से झोली रिक्त रहा

उन परायेसम अपनों पर

हम प्रेम सुधा बरसाते हैं

संताप मिला जो खोकर मान

अब उन्हें नहीं दुहराते हैं

चलो!

सब शिकवे-गिले मिटाते हैं

चलो…..

सब भूल जाते हैं…..

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087



मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #2 – स्वतःपण… ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

? मी_माझी  – #2 – स्वतःपण…? 

(स्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की द्वितीय कड़ी  स्वतःपण… । इस शृंखला की प्रत्येक कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )

 

स्वतःशी बोलता आलं पाहिजे,

बोलता बोलता थांबता आलं पाहिजे…

 

हे कसं जमायचं?

ह्याच विचारात स्वतःशी कधी बोललेच नाही,

आणि जेव्हा बोलले, तेव्हा,

स्वतःची ओळख पटेना !

मी कशी आहे, कशी असायला पाहिजे, कशी होते,

का होते, असे अनेक प्रश्न रुंजी घालतात…

 

उत्तरांच्या जंजाळात मी स्वतःचं स्वतःपण विसरून जाते…

 

खरंच, असं काही आहे का?

 

स्वतः पण…

 

हे काय असतं, कोणी सांगेल का मला?

 

आतून उत्तर येतं, कोणीच सांगू शकणार नाही,

तुलाच ते शोधायचं आहे

आणि त्याबरोबर जगायचं आहे…

स्वतःपण आणि स्वार्थ ह्यात जमीन आसमानचा फरक आहे,

हे विसरू नकोस…

 

मग तुझ्या स्वतःपणला लकाकी येते की नाही बघ…

झोपेतून जागी झाले तेव्हा एवढंच कळलं,

काही तरी नक्की हरवलंय, तेच स्वतःपण नसेल ना !

 

© आरुशी दाते




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ? खरा चेहरा ? –श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? खरा चेहरा ?

(प्रस्तुत है श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी की एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता ।  )

 

तिच्या डोळ्यांपेक्षा

माझा तुझ्यावरच जास्त विश्वास होता

कारण…

माझा खरा चेहरा

फक्त तूच दाखवत होतास

भाव भावनांसह…

कधी कधी मी

तिच्याही डोळ्यांत शोधायचो

माझा खरा चेहरा

पण ती लागुदेत नव्हती थांग

नेमक्या क्षणी

पापण्यांचा पडदा घ्यायची खाली

आणि

ठेवायची कैद करून…

पण तुझं मात्र तसं नव्हतं

खुल्या मनाने दाखवायचास सारं

टिपायचास साऱ्या भाव भावना

जशाच्या तशा…

माझी सुखं, दुःखं, आनंद

सारं सारं मला दिसायचं तुझ्या चेहऱ्यात

कधी कधी तुझा चेहरा

वाटायचा मळकट

मी फिरवायचो आरश्यावरून बोळा

आणि काय आश्चर्य

तू करून टाकायचास

दोन्हीही चेहरे

एकसारखे स्वच्छ…

आज मात्र तू भासलास

तिच्या सारखा

रक्ताचा मागमूसही न ठेवता

किती ओरखडे काढलेस चेहऱ्यावर…

विश्वास आणि आरशाला तडे गेले

की हे असेच होणार…

 

© अशोक भांबुरेधनकवडी

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

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