योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga Among School Girls in India ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Yoga Among School Girls in India

One week, we had the most satisfying and fulfilling experience in our journey of Laughter Yoga. We gave a presentation on Laughter Yoga before 100 girl students in the age group of 9 to 15 years and their teachers at Sri Sarada Rama Krishna Misson School,Indore.. The connect was instant and the atmosphere turned ethereal within a few moments.

Earlier, the Principal of the school had shared with us that the students were finding it difficult to concentrate on their studies and appeared sad, tired and depleted of energy. She felt sad that the children were not cheerful at all and faced a lot of stress. When we told her about the benefits of Laughter Yoga, she readily agreed to give it a try in the school.

The Principal and the Teachers were amazed by the simplicity, instant impact and tremendous trans-formative power of Laughter Yoga. They observed that the children listened to the directions given to them with rapt attention and showed a great sense of discipline during the exercise routine. The children enjoyed the session to the hilt especially Milk Shake Laughter, Mobile Laughter, Silent Laughter and Follow The Leader game.

The Principal said she really did not have enough words to thank us for making the children so joyous and exuberant. She would like her teachers to be trained as Laughter Leaders by us soon so that the children could have their daily dose of laughter medicine. We are feeling really content on being a medium for bringing joy in the lives of little school girls.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (8) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ।।8।।

अतःनियत सब कर्म कर कर्म अकर्म से श्रेष्ठ

बिना कर्म जीवन भी तो अनुचित और अनिष्ट।।8।।

 

भावार्थ :   तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ।।8।।

 

Do thou  perform  thy  bounden  duty,  for  action  is  superior  to  inaction  and  even  the maintenance of the body would not be possible for thee by inaction. ।।8।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ जीडीपी और दद्दू ☆ – श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ  साहित्यकार  श्री रमेश सैनी जी  का   एक बेहतरीन व्यंग्य। श्री रमेश सैनी जी ने तो जीडीपी नाम के शस्त्र का व्यंग्यात्मक पोस्टमार्टम ही कर डाला। यह बिलकुल सही है कि जी डी पी एक ऐसा शस्त्र है  जिसकी परिभाषा/विवेचना सब अपने अपने तरीके से करते हैं। यह तय है कि श्री सैनी जी के पात्र दद्दू जी के जी डी पी  से तो अर्थशास्त्री भी हैरान-परेशान  हो जाएंगे ।)

 

☆ जीडीपी और दद्दू ☆

चुनाव के दिन चल रहे हैं और इसमें सभी दल के लोग जीतने के लिए अपने अपने हथियार भांज रहे हैं. उसमें एक हथियार है, जीडीपी. अब यह जीडीपी क्या होता है. हमारे नेताओं को इससे कोई मतलब नहीं. जीडीपी को समझना उनके बस की बात भी नहीं है. उन्हें तो बस उसका नाम लेना है. हमने कई नेताओं से बात करी. उन्हें जीडीपी का फुल फॉर्म नहीं मालूम. पर बात करते हैं जीडीपी की. वैसे हमारे नेताओं का एक तकिया कलाम है कि जनता बहुत समझदार है. इस जुमले से नेता लोग अपनी कमजोरियों को बहुत ही चतुराई से बचा ले जाते हैं. वे जीडीपी का मतलब भी नहीं समझते हैं. हमारी जनता में से हमारे दद्दू हैं. उनको भी जीडीपी का फुल फॉर्म नहीं मालूम है. किंतु जीडीपी के बढ़ाने में उनका अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष योगदान है, वे अनेक प्रकार से इस प्रयास में लगे हुए हैं.

हमारे दद्दू कहते हैं कि- ठजीडीपी हमारी जीवन शैली है. जीडीपी याने जीवन ढलुआ प्रोग्राम”. इस शैली से अच्छे-अच्छे अर्थशास्त्री जीडीपी में गच्चा खा गए.

दद्दू कहते हैं जब खूबसूरत स्वप्न सुंदरी कहती है- इस लावण्य साबुन से नहाइए. सभी कहते हैं कि जवानी के दिनो में सुंदरी की बात नहीं टालना चाहिए. दद्दू ने भी नहीं टाली और उन्होंने वह लावण्य साबुन खरीदा और नहाने लगे. उन्हें उस साबुन से बहुत प्रेम था. वे सपने में भी साबुन के बहाने स्वप्न सुंदरी को देखते. हमारे दद्दू की नजर साबुन के रैपर बनी स्वप्न सुंदरी की फोटो और उस बट्टी पर बराबर बनी रहती. दादी ने बताया कि साबुन की बट्टी तो उनकी सौतन हो गयीं थी. वे स्वप्न सुंदरी को खुश करने के लिए साबुन की बट्टी खरीदते हैं. उसे किसी को हाथ नहीं लगाने देते. उसे रोज उपयोग करते हैं. जब आधी से कम हो जाती है. तो उसे शौचालय के बाहर में रख देते हैं. जब उससे भी आधी हो जाती और हाथ में पकड़ में नहीं आती है. तब उसे नयी बट्टी में चिपका देते और इस तरह उनका काम चलता. वे उस साबुन से इतना प्यार करते कि नहाते वक्त उस बट्टी को ले जाते, उसे प्यार भरी नजरों से निहारते और बिना साबुन लगाये नहा लेते. इस तरह वे एक महीने  में चार बट्टी की जगह एक बट्टी से काम चला लेते और तीन साबुन बचा कर जीडीपी की ग्रोथ में देश की सेवा करते.

देश की जीडीपी बढ़ाने में हमारे दद्दू का अनेक प्रकार से अतुलनीय योगदान रहा है. वे नया पैजामा सिलवाते. उसे शादी विवाह में पहन कर अपनी शान बखारते, बारात में सबसे आगे चलते, जिससे सबकी नज़र उनके पैजामे पर पड़ सके. जब थोड़ा पुराना हो जाता तो उसे बाजार हाट पहन कर जाते. जब पैजामा नीचे से फटने लगता तो उसे फेंकते नहीं, वरन उसे घुटने के थोड़ा ऊपर से कटवा कर पैताने के दो थैले सिलवा लेते, और ऊपर के हिस्सा से चड्डी का काम लेते. उन्होंने जीवन भर नया थैला नहीं खरीदा और न ही उन्होंने अपने लिए नयी चड्डी भी नहीं खरीदी. इस तरह वे साल में चार थैले और चड्डी बिना खरीदे काम चला लेते. जब थैले फट जाते तो उसे काट छांट कर रुमाल बना लेते और चड्डी के फटने से उसका फर्श पोछने वाला पोछा बन जाता इस तरह वे पैजामे की जान निकलने तक उपयोग करते हैं. अगर कोई घर का सदस्य उनके लिए चड्डी ले आता तो उसे धन्यवाद देने के बजाय इतनी डाँट पिलाते कि उसका दिन का खाना खराब हो जाता था. वे नये थैले, चड्डी और रुमाल खरीदना, पैसे की बरबादी समझते.

दद्दू बचपन में दाँत साफ करने के लिए दाँतौन का उपयोग करते, जो आसानी से मिल जाती थी और दातौन न मिलनेपर राख या कोयले से काम चला लेते. फिर जमाना आया. टूथपेस्ट और ब्रश का. जब पेस्ट खतम होने लगता तो टयूब को हथौड़ी से पीट पीट कर कचूमर निकाल कर पेस्ट बाहर निकल लेते. इतने से वे चुप नहीं बैठते, जब पूरा टयूब पिचक जाता या यों कहें उसकी जान ही निकल जाती है तो फिर वे टयूब को कैंची से काट कर, दो फांक कर देते और ब्रश से पूरी सफाई कर एक दिन का काम चला लेते. इसी तरह ब्रश के बाल घिस जाते तो उससे साईकिल साफ करने का काम लेते. जब ब्रश के बाल पूरी तरह खराब हो जाते तब ब्रश के बालों वाला सिरा काट कर शेष डंडी से पैजामे और चड्डी का नाड़ा डालने का काम ले लेते.

इस सबसे उन्हें बहुत संतोष मिलता. इस तरह से बचत कर देश की आर्थिक स्थिति में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते. उनका मानना था कि पैसा कमाना सरल है, पर पैसा खर्च करना कठिन है. इसे संभाल कर करना चाहिए.

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रमेश सैनी

मोबा. 8319856044  9825866402




हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पिता ☆ – सुश्री सुषमा सिंह

सुश्री सुषमा सिंह 

 

(प्रस्तुत है सुश्री सुषमा सिंह जी की एक अत्यंत भावुक एवं हृदयस्पर्शी कविता “पिता ”।)

 

☆ पिता ☆

 

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो, हां, तुम स्नेह न दिखाते थे

मां की तरह न तुम सहलाते हो, पर हो तो तुम पिता ही ना।

जब मैं गिरती थी बचपन में, दर्द तुम्हें भीहोता था

चाहे चेहरा साफ छिपा जाए, पर दिल तो रोता ही था

माना गुस्सा आ जाता था, हम जरा जो शोर मचाते थे

पर उस कोलाहल में कभी-कभी, मजा तुम भी तो पा जाते थे

चलते-चलते राहों में, जब पैर मेरे थक जाते थे

मां गोद उठा न पाती थीं, कांधें तो तुम्हीं बैठाते थे

मां जब भी कभी बीमार पड़ीं, तुम कुछ पका न पाते थे,

कुछ ठीक नहीं बन पाता था, कोशिश कर कर रह जाते थे

उमस भरी उस गर्मी में, कुछ मैं जो बनाने जाती थी

तब वह तपिश, उस गर्मी की, तुमको भी तो छू जाती थी

जरा सी तुम्हारी डांट पर, हम सब कोने में छिप जाते थे

झट फिर बाहर निकल आते, जो तुम थोड़ा मुस्काते थे

मैं जब दर्द में होती थी, व्याकुल तुम भी हो जाते थे

पलकें भीगी होती थीं, फिर आंखें चाहे न रोती थीं

चेहरा जो तुम्हारा तकती हूं, आशीष स्वयं मिल जाता है

मुख से चाहे कुछ न बोलूं, वंदन को सिर झुक जाता है

तुम पिता हो, सृष्टा हो, रचयिता हो

 

© सुषमा सिंह

बी-2/20, फार्मा अपार्टमेंट, 88, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज डिपो, दिल्ली 110 092

 




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ आकार …..! ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।)

 

☆ आकार …..! ☆ 

 

फिरत्या चाकावर मातीला हवा तसा आकार देताना

आयुष्याचा आकार नेहमीच चुकत गेला….

आख्खं आयुष्य गेलं

ह्या फिरत्या चाकावर मातीला हवा तसा आकार देण्यात

पण हे चाक कधी मला हवं तसं

फिरलंच नाही

आणि परिस्थितीला हवा तसा

आकार मला कधी देताच आला नाही

माझी लेकरं लहान असताना

त्यांची कित्येक स्वप्न मी

नाईलाजास्तव माझ्या

पायाखालच्या चिखलात तुडवत गेलो

आणि त्याच्याच स्वप्नांच्या चिखलाची

त्यांच्यासाठीच

मला हवी तशी स्वप्न दाखवत गेलो

पण आता इतकी वर्षे संभाळून ठेवलेल्या

परिस्थितीचा घडा आता

हळूहळू पाझरू लागलाय

पायाखालचा चिखलही

आता पहील्या पेक्षा कमी झालाय

कारण आता…

लेकरांनी

आपआपल्या स्वप्नांचा चिखल

आपआपल्या पायाखाली तुडवायला सुरवात केलीय

पुन्हा नव्याने परिस्थितीला

त्यांना हवा तसा आकार देण्यासाठी….

 

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626.



योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga For A Better Sex Life ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Laughter Yoga For A Better Sex Life

I have been hesitating for quite a while to share what follows here because the subject remains hush-hush and taboo in the land of Kamasutra and Osho even today.

We had a gentleman, on the wrong side of fifties, in our laughter sessions who was very punctual – a rare virtue in this part of the world – and sincere. He went through and through the literature available on Laughter Yoga and regularly discussed about its health benefits like better respiration, stronger immunity, stress busting, lower blood pressure and cardio-vascular workout.

One day he confided to me over telephone that his married life has improved immensely and he feels happier as a consequence of regular laughter yoga. He and his wife had almost accepted that their sex life was over by virtue of their age but once they started practicing laughter yoga and meditation, the charm of youth slowly revisited them and they enjoyed a more wholesome life.

While most cases of erectile dysfunction have an underlying physical cause, sometimes sexual dysfunction is the result of stress, depression or other psychological and cultural issues. Laughter Yoga gets rid of physical, mental and emotional stress, is a good cure for mild depression and frees one from the psychological problems.

Laughter Yoga may help couples to have a better sex life by relieving stress and bringing about a freer, positive and open approach to life.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (7) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

(ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की श्रेष्ठता का निरूपण)

 

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।

कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।7।।

मन संयम कर इंद्रियों पर रखना अधिकार

अनुष्ठान यह ही है सव से श्रेष्ठ प्रकार।।7।।

भावार्थ :  किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है ।।7।।

 

But whosoever, controlling the senses by the mind, O Arjuna, engages himself in Karma Yoga with the organs of action, without attachment, he excels! ।।7।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – कविता -☆ मूर्ति उवाच ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

☆ मूर्ति उवाच ☆

 

मुझे

कैसे भी कर लो तैयार

ईंट, गारा, प्लास्टर ऑफ पेरिस

या संगमरमर

कीमती पत्थर

या किसी कीमती

धातु को तराशकर

फिर

रख दो किसी चौराहे पर

या

विद्या के मंदिर पर

अच्छी तरह सजाकर।

 

मैं न तो  हूँ ईश्वर

न ही नश्वर

और

न ही कोई आत्मा अमर

मैं रहूँगा तो  मात्र

मूर्ति ही

निर्जीव-निष्प्राण।

 

इतिहास भी नहीं है अमिट

वास्तव में

इतिहास कुछ होता ही नहीं है

जो इतिहास है

वो इतिहास था

ये युग है

वो युग था

जरूरी नहीं कि

इतिहास

सबको पसंद आएगा

तुममें से कोई आयेगा

और

इतिहास बदल जाएगा।

 

मेरा अस्तित्व

इतिहास से जुड़ा है

और

जब भी लोकतन्त्र

भीड़तंत्र में खो जाएगा

इतिहास बदल जाएगा

फिर

तुममें से कोई  आएगा

और

मेरा अस्तित्व बदल जाएगा

इतिहास के अंधकार में डूब जाएगा।

 

फिर

चाहो तो

कर सकते हो पुष्प अर्पण

या

कर सकते हो पुनः तर्पण।

 

© हेमन्त  बावनकर

 




हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 10 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (10)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला। 

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा है, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  इंदौर से श्री सुधीर कुमार चौधरी,  जबलपुर से श्री रमेश सैनी, बैंगलोर से श्री अरुण अर्णव खरे, जबलपुर से डॉ कुन्दन सिंह परिहार, मुंबई से श्री शशांक दुबे,बावनकर एवं देवास से श्री प्रदीप उपाध्याय की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

इंदौर से श्री सुधीर कुमार चौधरी जी का जबाब ___

वस्तुतः साहित्य किसी भी समाज का सेफ्टी वाल्व होता है ।साहित्य समाज के आक्रोश ,कुंठा और तनाव को अभिव्यक्त करता है ।साहित्य समाज के संस्कारों को सहेजता है। साहित्य सामाजिक मूल्यों ,आदर्शों और सिद्धांतों का शिल्पी और रक्षक दोनों ही  होता है। साहित्य के धरातल पर सामाजिक आस्था और विश्वास अंकुरित होते हैं। साहित्य के दर्पण में समाज का चेहरा प्रतिबिंबित होता है।

लेखक अपनी कलम के स्टैथोस्कोप से समाज की धड़कनों का लेखा-जोखा रखता है ।इसमें तनिक भी अनियमितता  अनुभव करने पर वह साहित्य की दवाओं से  इसका उपचार प्रारंभ कर देता है। समाज की नब्ज पर लेखक का सदैव हाथ होता है ।वह समाज की दिनचर्या और आचार व्यवहार पर कड़ा नियंत्रण रखता है। समाज की दिशा निर्धारित करता है ।लेखक की कलम समाज की लगाम को खींच कर रखती है।

साहित्य के पन्नों में समाज स्पंदित होता है ।लेखक समाज की आवाज को मुखरित करता है। वस्तुतः साहित्य समाज का ऊर्जा कोष होता है। लेखक इस ऊर्जा कोष का सजग र्चौकीदार होता है ।लेखक समाज की सीमा पर तैनात वह सिपाही होता है जो उसकी सांस्कृतिक ,चारित्रिक और भाषाई संपदा की रक्षा करता है ।संस्कृति और संस्कारों पर होने वाले हमले की रक्षा कलम की तलवार ही करती है।साथ ही कलम समाज की उच्छृंखलता और विवेक हीनता पर नियंत्रण भी रखती है।समाज को दिग्भ्रमित और दिशाहीन होने से बचाती है ।कलम समाज का परिष्कार और निर्माण के साथ साथ इस पर नियंत्रण भी रखती है।

समाज और साहित्य की सह जीविता से मानवता उन्नत और समृद्ध होती हैं ।लेखक की कलम छैनी  और नश्तर दोनों की ही भूमिका का निर्वाह करती है। एक और कलम समाज को गढ़ती  है वहीं दूसरी और सामाजिक विसंगतियों और विरोधाभासों के  उन्मूलन के लिए वह नश्तर बन जाती है।कलम के नियंत्रण से विहीन समाज पतनशील हो जाता है ।कलम की ऊर्जा से समाज सत्य सदैव गतिशील रहता है ।लेखक की कलम  लगाम बनकर समाज को नियंत्रित करती हैं।

– श्री सुधीर चौधरी, इंदौर 

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जबलपुर से श्री रमेश सैनी जी का जबाब ____

पिछले 50- 60 वर्षों में समाज में काफी परिवर्तन हुआ है. पहले समाज के प्रेम, भाईचारा, मोहल्ले बंदी एक दूसरे से सहयोग की भावना, छोटे-बड़ों में परस्पर सम्मान आदि महत्वपूर्ण तत्व थे,पर अब  समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है आज व्यक्ति का सम्मान उसकी गुणों की अपेक्षा उसकी आर्थिक संपन्नता और सत्ता शक्ति से नापा जाता है. समाज में व्याप्त राजनीति ने भी बहुत बड़ा परिवर्तन किया है. भारतीय समाज की संस्कृति, संस्कार को भी राजनीति ने बहुत प्रभावित किया है. पहले लोग जीवन मूल्य और समाज के अनुशासन को मानते थे. जब लोग इन मूल्यों और अनुशासन के विपरीत आचरण करते थे, और लेखक इन पर संकेत करता था तो उसका प्रभाव होता था. उस समय को कुछ हद तक थोड़ा नियंत्रण/लगाम लेखक कह सकते हैं. यह इसलिए कह सकते हैं कि समाज में लेखक का सम्मान होता था. पर आज आधुनिक तकनीक, बाजारवाद और वैश्वीकरण ने समाज के मूल स्वरूप में सेंध मार दी है.समाज धीरे धीरे बिखरने लगा है, लोगों के आचरण में अनेक मुखौटों ने जगह ले ली है. लेखक भी इससे अछूता नहीं है. लेखक भी समयानुसार अपना आचरण तय करता है. अतः उसका प्रभाव भी कम पड़ा है. अब उसके हाथ से लगाम खिसकने लगी है. इसी का असर है कि सत्ता स्तर पर भी राज्यसभा में मानद सदस्यों का मनोनयन भी उसके गुणों/विशेषज्ञता की वजह से नहीं, व्यक्ति सत्ता के कितने नजदीक है, इससे किया जाता है. यह समाज के बदलते मूल्यों का प्रतिफलन है. आज लेखक के नियंत्रण में कुछ नहीं है. हाँ  यह जरूर है कि पुराने इतिहास को देखकर भ्रम पाले है कि वह घोड़े की लगाम/आंख है.

– श्री रमेश सैनी, जबलपुर  

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बैंगलोर से श्री अरुण अर्णव खरे जी का जबाब ___

बड़ा ट्रिकी प्रश्न है । घोड़ा मनुष्य के सम्पर्क में आने वाला सबसे पहला जानवर है अतएव मनुष्यों से दोस्ती का उसका बहुत पुराना इतिहास है । भारतीय इतिहास में सत, त्रेता और द्वापर युगों में घोड़ों के प्रशिक्षण और उनकी युद्ध में उपयोगिता को लेकर अनेक वृतांत हैं । सूरज के रथ में सात घोड़े हैं । महाभारत में पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास का समय विराट नगर में अश्वों की सेवा में ही व्यतीत किया था । नकुल को अश्व विद्या में निपुणता हासिल थी । महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक को इतिहास में नायकों जैसा स्थान हासिल है । रानी लक्ष्मीबाई को भी उनके अश्व ने तब तक अंग्रेज़ों के हाथों में नहीं पड़ने दिया था जब तक उसमें जान थी । मतलब यह घोड़ा आदि काल से मनुष्यों का सबसे अच्छा मित्र और वफ़ादार रहा है ।

यहाँ सवाल घोड़े की आँख को लेकर है । सवाल  आख़िर घोड़े की आँख ही क्यों ? घोड़े की आँख में ऐसा क्या है जो इस सवाल की ज़रूरत पड़ी ।  शायद ज़मीन पर रहने वाले सभी जानवरों में घोड़े की आँख सबसे बड़ी होती है । घोड़ा दिन और रात के समय में भी आँखें खुली रखता है । घोड़े की आँख सुदूर की चीज़ों को भी सटीकता पूर्वक देख सकती है ।

प्रश्न के उत्तर की तलाश में घोड़े की ऑँख को लेकर इतने विस्तार में जाना ज़रूरी लगा । लेखक का समाज के प्रति दायित्व भी घोड़े की आँख के समान अधिक है । समाज के सभी पक्षों पर सतत नज़र रखना अच्छे सृजन के लिए ज़रूरी है तभी कोई भी लेखक समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।

आज के परिवेश में जब समाज में विघटन बढ़ रहा है, इतिहास की ग़लत व्याख्या हो रही है, मनगढ़न्त और आधारहीन तथ्यों को आधार बनाकर मनचाहा खेल खेला जा रहा है तब लेखक के लिए लगाम लगाने का काम करना भी आवश्यक प्रतीत हो रहा है । लेखक ही ग़लत तथ्यों को सही परिप्रेक्ष्य में समाज के सामने ला सकता है और भ्रम फैलाने वाले प्रयासों पर लगाम लगा सकता है ।

मेरे दृष्टिकोण से लेखक की भूमिका दोनों रूपों में ज़रूरी है .. घोड़े की ऑंख के रूप में जागरूकता फैलाने के लिए और लगाम के रूप लें ग़लत बातों को रोकने के लिए ।

– श्री अरुण अर्णव खरे, बैंगलोर 

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जबलपुर से डाॅ कुंदन सिंह परिहार जी का जबाब ___

लेखक समाज के घोड़े की आँख भी है और लगाम भी।दोनों का अपना अपना महत्व है।आँख का काम देखना है और लगाम का काम नियंत्रण करना। लेखक समाज की आँख है क्योंकि वह सामान्य व्यक्ति की तुलना में स्थितियों को अधिक सूक्ष्मता और स्पष्टता से देख-परख सकता है।लेकिन यह आँख तभी ठीक ठीक देख और दिखा सकती है जब इस आँख के पीछे सही दृष्टि, नीर-क्षीर विवेक और वैज्ञानिक सोच हो।पीलियाग्रस्त, पूर्वाग्रह से पीड़ित आँख, जिसे अंग्रेजी में ‘जांडिस्ड आई’ कहते हैं, न खुद चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में देख सकती है, न समाज को सही दिखा सकती है।जो खुद सही मार्ग न देख सके, वह समाज को सही मार्ग कैसे दिखाएगा?लेकिन सिर्फ देखना ही काफी नहीं होता।कभी कभी आँख दिखाना और तरेरना भी ज़रूरी होता है, अन्यथा सीधी-सादी आँख की कोई परवाह नहीं करता।

लेखक समाज की लगाम या वल्गा तभी बन सकता है जब उसकी समाज में पैठ और समाज पर प्रभाव हो।इसके लिए लेखक को ‘स्व’ से निकलकर ‘पर’ तक आना पड़ता है।इसके लिए समाज से जुड़ना होता है और अपनी चिंता से ज़्यादा समाज की चिंता करनी होती है।इसके लिए लेखक को लेखक के अलावा ‘सोशल एक्टिविस्ट’ बनना पड़ता है।सिर्फ अपने खोल में दुबक कर कागद कारे करते रहने से काम नहीं चलता।

भूतकाल में अनेक लेखकों का समाज पर काफी प्रभाव रहा है।अकबर के नवरत्नों में ‘आईने अकबरी’के रचयिता अबुल फजल, महान गायक तानसेन और अपने दोहों के लिए  आजतक लोकप्रिय ‘रहीम’ थे।तुलसीदास आज भी  भारत के हर घर में उपस्थित हैं क्योंकि उन्होंने रामकथा लिखने के अतिरिक्त समाज के लिए एक आचरण-संहिता प्रस्तुत की।

देश में अनेक कवियों और लेखकों का पर्याप्त सम्मान रहा है तथा समाज और शासन ने उनकी बात सुनी है।इनमें सुभद्राकुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, दादा माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह ‘दिनकर’,नागार्जुन,केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवि रहे हैं।हाल के वर्षों में जब तक परसाई जी स्वस्थ थे, उनका कद और सम्मान  देखते ही बनता था।अन्त तक नगर के छात्र अपनी समस्याओं पर उनकी राय लेने के लिए उन्हें घेरे रहते थे।जबलपुर के उन्नीस सौ साठ  के सांप्रदायिक दंगों के समय दंगों को शांत करने में परसाई जी और उनके मित्रों की भूमिका महत्वपूर्ण रही।

लेखक अपना कच्चा माल समाज से उठाता है, इसलिए उसे उसी परिमाण में समाज को लौटाना होगा।तभी समाज उसे अपने ऊपर लगाम डालने की अनुमति देगा।आज लेखक समाज से और समाज लेखक से विमुख है।सब तरफ ‘अहो रूपं,अहो ध्वनि’ का शोर है।लेखक ‘नार्सिसस कांप्लेक्स’ से ग्रस्त है, आत्मप्रचार और आत्मप्रशंसा में सारे वक्त मसरूफ है।अब हर लेखक के हाथ में आइना है,जिसके पार देखने की उसे फुरसत नहीं है।सारा वक्त अपनी नोंक-पलक संवारने में ही बीतता है।व्यवस्था की जांच-परख करने के बजाय लेखक सरकारी पुरस्कारों और सम्मानों के लोभ में ऐसा फंसा है कि व्यवस्था के सामने वह दयनीय और हीनता-बोध से ग्रस्त है।जिस लेखक को उसका पड़ोसी ही न जानता हो,वह समाज की लगाम के रूप में कितना प्रभावी हो सकता है यह समझा जा सकता है।

– डॉ कुन्दन सिंह परिहार, जबलपुर

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मुंबई से श्री शशांक दुबे जी का जबाब ___

आज  यदि लेखक यह मानकर चल रहा है कि वह समाज के घोड़े की लगाम है, तो इसका मतलब यह है कि वह खुशफहमी के संसार में जी रहा है. साहित्य समाज में व्यापक स्तर पर हलचल पैदा करने में असमर्थ है. जब इलेक्ट्रोनिक चैनलों और सोशल मीडिया का दायरा इतना बढ़ा नहीं था और जब अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम लेखनी हुआ करती थी, तब लेखक में समाज को प्रभावित करने की, उनकी सोच में परिवर्तन लाने की थोड़ी बहुत  क्षमता होती थी. यह क्षमता भी सीमित थी, क्योंकि तब का समाज भी हर किसी लेखक की कही बात का अनुसरण नहीं करता था. अलबत्ता पढ़ा लिखा मध्यवर्ग आज़ादी से पहले गणेश शंकर विद्यार्थी और आजादी के बाद सत्तर के दशक में राजेन्द्र माथुर और अस्सी के दशक में प्रभाष जोशी जैसे साहसिक पत्रकारों की लेखनी से प्रभावित होकर अपने विचार गढ़ता रहा. तब कलम की ताकत थी और लेखक भी इतने ईमानदार थे. आज जो लेखन किया जा रहा है, वह समाज सुधार या जन उद्धार के लिए नहीं किया जा रहा. आज का लेखन महज यश की प्रार्थना के लिए है.  हालांकि इसमें भी अवलोकन के अलावा चिंताएँ हैं, मनोरंजन है, पीड़ाएँ हैं, आक्रोश हैं, खुशियां हैं, लेकिन यह सभी महज अपनी बात को रेखांकित करने के लिए, अपनी बात को प्रभावी बनाने के लिए, अपनी मामूली सी बात में वजन पैदा करने के लिए.  लोक कल्याण की कम है. कहीं है भी तो वह लोक तक पहुँचने और उनका मानस बदलने में असमर्थ है. कहना न होगा, लेखक घोड़े की आँख ही है, लगाम नहीं.

– श्री शशांक दुबे, मुंबई 

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देवास से श्री प्रदीप उपाध्याय जी का जबाब ___

आज के संदर्भ में लेखक समाज के घोड़े की खुली आँख है।लेखक का काम किसी बात को नियंत्रित करना नहीं है,वह किसी बात को होने से रोक भी नहीं सकता, वह राह दिखा सकता है।इस परिप्रेक्ष्य में हम कह सकते हैं कि लेखक समाज के घोड़े की लगाम नहीं है।हाँ,वह अपनी चौकस दृष्टि से समस्त विसंगतिपूर्ण स्थिति को उजागर कर सकता है।अपनी खुली आँख से ही वह अच्छे-बुरे की पहचान कर सकता है।अतः वह समाज के घोड़े की आँख के समान ही है।यहाँ यह भी जरूरी है कि ये आँखें ऐसी न हो जिसे चमड़े का पट्टा चढ़ाकर तीस डिग्री तक ही देखने को मजबूर किया गया हो।लेखक को अपनी आँख का दायरा घोड़े की आँख के समान एक सौ अस्सी डिग्री तक विस्तारित रखना चाहिए, साथ ही उसमें इतनी दूरदृष्टि होना चाहिए कि जो उसके सामने घटित न भी हो रहा हो, वह भी पूर्वभास और पूर्वानुमान के साथ उसकी दृष्टि में तीन सौ साठ डिग्री तक समाहित हो जाए।
लेखक की इसी दृष्टि के कारण हमेशा शक्ति सम्पन्न वर्ग, सत्ता पक्ष और शोषक समाज को कष्ट पहुँचता आया है और अभिव्यक्ति की आजादी पर येनकेन प्रकारेण रोक लगाने के प्रयास होते आए हैं।बुद्धिजीवी वर्ग पर दबाव, डर,लोभ,प्रलोभन द्वारा ऐसा वातावरण उत्पन्न किया जाता रहा है कि वह भी घोड़े की दोनों आँखों पर चढ़े दो चमड़े के पट्टे जिन्हें घोड़ा ऐनक, अंग्रेजी में Blinders या Blinkers कहते हैं, के समान चष्मे लगा लेता है जिससे कि वह अपने  आसपास और पीछे कुछ भी नहीं देख पाए।अपने चालक की इच्छानुरूप सिर्फ एक सीधी राह ही चलता चला जाए।
लेखक को बिना किसी दबाव के अपनी क्षमताओं को पहचानना चाहिए और बिना किसी लोभ-लालच,प्रलोभन, दबाव या डर के घोड़ा ऐनक को छोड़कर समाज के घोड़े की आँख के समान अपनी दृष्टि और दृष्टिकोण रखना चाहिए।तभी वह समाज के हित में अपना सच्चा योगदान दे सकता है।लेखक घोड़े की लगाम तो हो ही नहीं सकता है क्योंकि लगाम हमेशा दूसरों के हाथ ही होती है।लेखक गलत-सही की पहचान करा सकता है, सही दिशा ज्ञान करा सकता है,उचित राह दिखा सकता है।अतः मेरे मत में लेखक समाज के घोड़े की आँखें ही हैं।

– श्री प्रदीप उपाध्याय, देवास 

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ? मी_माझी – #4 – भूक…. ? – सुश्री आरूशी दाते

सुश्री आरूशी दाते

(स्तुत है  सुश्री आरूशी दाते जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “मी _माझी “ शृंखला की   चतुर्थ कड़ी  भूक …। इस शृंखला की प्रत्येक कड़ियाँ आप आगामी  प्रत्येक रविवार को पढ़ पाएंगे। )

(e-abhivyakti की ओर से सुश्री आरूशी दाते जी का ‘काव्यानन्द प्रतिष्ठान, पुणे’ की ओर से विश्व महिला दिवस पर आयोजित काव्य प्रतिस्पर्धा में प्रथम स्थान प्राप्त करने के उपलक्ष में हार्दिक अभिनंदन।)  

 

? मी_माझी  – #4 – भूक …? 

 

भूक हा शब्दच अनेक उलाढाली घडवून आणायला कारणीभूत ठरतो… हो ना!
शाळेत गेलं की आईने डब्यात काय दिलं असेल? किंवा घरी पोचल्यावर आई खायला काय देईल? हे विचार कायम ऑन असतात,

कशासाठी ? पोटासाठी, खंडाळ्याच्या घाटासाठी !
कमवतो कशाला? पोट भरण्यासाठीच ना !

पोट भरण्यासाठी की जिभेचे चोचले पुरवण्यासाठी ?

इथे खरी गोम आहे, नाही का !

चमचमीत खायला मिळालं पाहिजे… माझा भाऊ नेहमी म्हणतो, तळीचा आत्माराम शांत झाला पाहिजे… !

सगळी धावपळ, अट्टाहास ह्याच साठी…

theoretically speaking, ह्याने पोटातली भूक भागते, बाकीच्या भुका आहेत, त्यांचं काय ? बाकीच्या म्हणजे काय हे कळलं नाही ना?

वैचारिक, भावनिक, शारीरिक, आर्थिक, आध्यात्मिक… अहो, इतकंच काय, फेसबुक / व्हाट्सअप्प भूक, वगैरे, वगैरे… माणसाचं आयुष्य समृद्ध करण्यात ह्या सगळ्यांचा हातभार आवशयक आहे…

आता आठवलं न, बरोबर !

आता लक्षात ठेवा आणि मग बघू या प्रत्येक भूक कशी शमवता येते ते, चालेल ना!

बोलू या ह्या विषयावर, लवकरच !

© आरुशी दाते