हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 256 ⇒ चोली दामन का साथ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “चोली दामन का साथ।)

?अभी अभी # 256 ⇒ चोली दामन का साथ… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

चोली दामन का साथ एक मुहावरा है, जिसका प्रयोग बोलचाल की भाषा में बहुतायत से किया जाता है। अच्छी मित्रता हो, घनिष्ठ संबंध हो, एक के बिना दूसरे की उपयोगिता ना हो, वहां चोली दामन उदाहरण स्वरूप चले आते हैं।

कुछ उदाहरण तो आदर्श होते हैं, मसलन राम और सीता, राम और लक्ष्मण, राधा और श्याम और कृष्ण के अधरों पर बांसुरी। जुम्मन शेख और अलगू चौधरी हों, अथवा ये दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगे वाले शोले के जय और वीरू। लोग तो शोले, दीवार और त्रिशूल वाली सलीम जावेद की जोड़ी को भी याद करते हैं। लेकिन दोनों में कौन चोली और कौन दामन, समझना मुश्किल ! आज देखिए कहां चोली और कहां दामन। जावेद के दामन में आज शबाना और सलीम भाई के आंचल में भाई सलमान।

चोली दामन नहीं हुए, बदलते हुए सितारे हो गए।।

क्या पांव की जूते की जोड़ी में चोली दामन का साथ नहीं, एक से काम भी नहीं चलता, और दूसरे पांव में जोड़ी की जगह चप्पल भी नहीं चलती। एक समय था जब लेखक बिना कलम के और हज्जाम बिना उस्तरे के किसी काम का नहीं था। झूठ क्यूं बोलूं, मेरी आंखों का और मेरे चश्मे का भी चोली दामन का बचपन से ही साथ है।

हमारे शरीर का सांसों के साथ कितना गहरा संबंध है, हम नहीं जानते। वैसे देखा जाए तो एक मां और उसकी संतान का तो साथ चोली दामन से भी कई गुना अधिक होता है, जिसकी व्याख्या करना इतनी आसान भी नहीं। लेकिन हां चोली दामन के साथ पर हम जरूर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं।।

चोली को आप चाहें तो स्त्रियों का अंग वस्त्र कह सकते हैं। जिस तरह फिल्म शोले में ठाकुर यानी संजीव कुमार हमेशा एक शॉल ओढ़े रहता था, उसी तरह चोली को दामन अर्थात् आंचल अथवा पल्लू से हमेशा ढंका रखा जाता है। पुरुष का क्या है, वह तो बड़ी आसानी से कह उठता है ;

चुनरी संभाल गोरी

उड़ी चली जाए रे ….

क्योंकि उसको तो उड़ती पतंग को काटने और लूटने में बड़ा मजा आता है। पतंग और डोर का ही तो साथ है, चोली और दामन का।

लेकिन पुरुष में कहां हया और शरम ! ईश्वर ने उसे ना तो आंचल ही दिया और ना ही दामन। वह तो कमीज के बटन खोलकर, सीना तानकर चलता है। वह क्या जाने एक चोली का दर्द। दामन में दाग भी स्त्री को ही लगता है और आंचल भी उसे ही फैलाना पड़ता है।।

केवल एक मासूम सा, नन्हा सा बालक ही समझ सकता है, चोली दामन का उसके लिए क्या महत्व है। क्योंकि मेरी दुनिया है मां, तेरे आंचल में। उसी आंचल में, उस नन्हीं सी जान के लिए दूध है, और रात भर जागी हुई आंखों में ममता भरा पानी। वहां मां के दामन में उसके लिए खुशियां ही खुशियां हैं। यह होता है, चोली दामन का साथ।।

फिल्म मॉडर्न गर्ल (1961) का एक खूबसूरत सा गीत रफी साहब की आवाज में ;

नज़र उठने से पहले ही

झुका लेती तो अच्छा था।

तू अपने आपको पर्दा

बना लेती तो अच्छा था।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #216 ☆ लघुकथा – करनी का फल… ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक विचारणीय लघुकथा करनी का फल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 216 – साहित्य निकुंज ☆

☆ लघुकथा –  करनी का फल… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

जीवन के रंग कितने निराले हैं। आज जैसे ही लल्लन ने सूचना दी कि …”बड़ी चाची नहीं रही।”

हमने कहा …”ठीक है हम थोड़ी देर में पहुंचते हैं।”

लल्लन ने कहा.. “कोई बात नहीं हमने बहुत पहले ही फॉर्म भर दिया था देहदान के लिए।”

इसका मतलब तो यह हुआ जब  देहदान कर ही दिया है तो घर जाने का  क्या अर्थ?

तब सारी परतें खुलने लगी वह क्षण याद आने लगा जब 4 महीने के बच्चे को छोड़कर फूफा जी नहीं रहे थे। तब बुआ ने मुश्किल से लल्लन का पालन पोषण किया था और उसे कलेक्टर बनाया लेकिन वह अपनी बेवकूफी में कलेक्ट्री हाथ से धो बैठा और गलत संगत में पड़ गया इस कारण पत्नी बच्चे भी छोड़ कर चले गए केवल मां ही उसके लिए एक सहारा बची  थीं मां जानते हुए भी कि बच्चा अपनी राह से भटक चुका है फिर भी उसे कई बार राह पर लाने की कोशिश की जिसका नतीजा यह हुआ कि उन्हें जो जीवन में कभी नहीं सोचा था  वह हुआ, बच्चे के हाथ से मार भी खानी पड़ेगी तिल तिल कर के उस बच्चे ने जाने किस जन्म का बदला लिया। वह सिर्फ अपनी अय्याशी अपनी मनमर्जी करना चाहता था उसे जब जब चाची ने रोका टोका तब तब उसने उस बात की अवहेलना की। और 3 दिन पहले ही पता चला कि चाची घर पर गिर पड़ी है और  वह कोमा में चली गई ।आज जैसे ही देह दान का पता चला अंतर्मन से सिर्फ एक ही आवाज निकली लल्लन को उसकी करनी का फल जरुर मिलेगा।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #197 ☆ संतोष के दोहे – सब मिल गाओ गीत प्रेम के ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – ऊँचे हिमगिरि के शिखरआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 197 ☆

☆ संतोष के दोहे  – सब मिल गाओ गीत प्रेम के ☆ श्री संतोष नेमा ☆

आज  अवध  में धूम  मची है

सरयू -सलिला  सजी-धजी है

आएंगे    प्रभु    राम    हमारे

ढोलक  घंटी  झाँझ  बजी  है

बरसों  से  थी  आस   हमारी

आज मिली हैँ  खुशियां सारी

सब मिल गाओ  गीत प्रेम  के

प्रभु मिलन की  आई  घड़ी है

प्रभु  का मन्दिर भव्य बना है

बिराजे  जिसमें राम लला  हैँ

केंद्र  बना  सबकी  आशा का

सबको अब आने  की पड़ी है

हर   घर  में  उत्सव   दीवाली

खूब  सजीं   पूजा  की  थाली

दिल की बातें कर लो  प्रभु से

आज  कृपा की   हवा चली है

सारे   जग  से   न्यारा   मंदिर

हम  सबका   है  प्यारा  मंदिर

आस   दरश “संतोष” लिए  है

बढ़ी   हृदय  में   उतावली   है

आज  अवध  में  धूम मची है

सरयू सलिला  सजी-धजी  है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ पर्यावरण… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

 

☆ पर्यावरण… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

 जसं तान्ह्या बाळास पांघरूण,

तसं अवनीस घातले आवरण !

आतून उबदार, बाहेर देखणे,

निसर्गाचे ल्यायले तिने लेणे !

सृजन निर्मिती करीतसे धरा,

सिंचन तिला पावसाचे करा!

माती पाण्याच्या संगतीत,

हिरवी रोपे भूवर तरतात!

जगवते ती प्राणिमात्रांना,

जाणीव ठेवा तिची मना!

सांभाळावी जीवापाड  तिला,

हानी न करावी भूतलाला!

पंचमहाभूतांची निर्मिती,

ईश्वरे केली प्राणीमात्रांसाठी!

जपू या पर्यावरणाला,

 उतराई होऊ या सृजन सृष्टीला!

जाणीव कायम मनात ठेवू,

पर्यावरणाला जपून राहू!

नाही पर्यावरणाचा एकच दिन,

साथ देऊ त्यास आपण रात्रंदिन!

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 205 ☆ शब्द तुझे का स्वरात माझ्या… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 205 – विजय साहित्य ?

☆ शब्द तुझे का स्वरात माझ्या… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(गागा गागा लगाल गागा)

चिंतेचे घर मनात माझ्या

घरघर त्याची उरात माझ्या .

 

बोलत जातो तुझ्या स्मृतींशी

हळवे वारे घरात माझ्या.

 

मोठे झाले कधी लेकरू

घुटमळतो मी पदात माझ्या .

 

बांधावरती ओली बाभळ

सळसळ बोली सुरात माझ्या.

 

हाती माझ्या प्रगती पुस्तक

रेघ लाल का सुखात माझ्या.

 

निरोप नाही नसे खुशाली

शब्द तुझे का स्वरात माझ्या.

 

लेखणीस या फुटला पाझर

हरवशील तू जगात माझ्या .

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ डोळस दसरा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

? विविधा ?

डोळस दसरा…  ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

नऊ महिने नऊ दिवस पूर्ण झाले आणि डोळेझाक करता न येणार्‍या प्रसव वेदना तिला सुरू झाल्या.

डोळयाला डोळा लागत नव्हता . वेदनेने सुलोचना  डोळे घट्ट मिटत होती. अचानक तिच्या डोळ्यांपुढे काजवे पसरले, डोळ्यात पाणी तरळले ज्या क्षणाकडे ती डोळे लावून बसली होती तो क्षण आला आणि एका मोठ्या वेदनेच्या क्षणी ती प्रसूत झाली. वेदनेने तीचे डोळे बंद झाले. पण क्षणात टॅहॅ टॅहॅच्या आवाजाने तिने झटकन डोळे उघडले. जडावलेल्या डोळ्यातही मातृत्वाची वेगळी चमक दिसली आणि सुलोचनाने दसर्‍याच्या मुहूर्तावर जन्मलेल्या आपल्या परीला कुशीत घेत डोळे भरून पाहिले.

जणू शैलपुत्रीचे दर्शन तिला झाले होते. दसर्‍याच्या मुहूर्तावर जन्मली म्हणून तिचे नाव दुर्गा ठेवले.

डोळ्यात तेल घालून ती तिला जपत होती. जरासुद्धा डोळ्याआड तिला होऊ देत नव्हती. जणू काळजीचा तिसरा डोळाच तिला लागला होता. असे ब्रह्मचारिणीचे रूप तिचे १० वर्षाचे डोळ्याचे पाते लवते न लवते तोच संपले होते.

दुर्गा सगळ्य़ात हुषार होती.तिची हुषारी सगळ्यांच्या डोळ्यात येत होती. असे करता करता जणू ही चंद्रघंटा दहावीत प्रथम क्रमांकाने पास झाली होती. तेव्हा तिचे टपोरे डोळे अधिकच पाणीदार भासले होते. काहींच्या डोळ्यावर हे येत होते  डोळ्यात खुपत होते हे न कळायला तिने डोळ्यावर कातडे नव्हते ओढले.  पण ती त्याकडे काणा डोळा करायची.

दुर्गाची दहावी झाली आणि तिने मिल्ट्रीमधे जायचा हट्ट धरला. हे ऐकून सुलोचनाच्या डोळ्यांपुढे अंधेरीच आली .तिच्या डोळ्यातून गंगा जमुना वाहू लागल्या . पण मिल्ट्रीत जायचा निर्धार दुर्गेच्या डोळ्यात स्पष्ट दिसत होता. ती दुसर्‍या गावी जाणार म्हणजे दोन डोळे शेजारी पण भेट नाही संसारी अशी अवस्था होणार होती. तरी तेव्हा कुष्मांडासारखी ती धैर्यशील भासत होती.

ट्रेनिंग घेत असतानाच एक मुलगा एका मुलीची छेड काढत असलेला तिच्या डोळ्यांनी पाहिले. डोळ्यात अंगार भरला तिने त्याला पकडला . डोळे वटारून तिने त्याला अपादमस्तक न्याहाळले. खाडकन त्याच्या मुस्कटात लगावून डोळे फडफडवून तिने त्याला समज दिली पुन्हा जर वाईट नजरेने मुलींकडे बघशील तर डोळे काढून गोट्या खेळीन मग तुझ्या डोळ्याच्या खाचा होतील.  त्याच्या डोळ्यात मूर्तीमंत भिती दाटली .डोळे पांढरे झाले. माफी मागून त्याने कशीबशी स्वत:ची सुटका करून घेतली. तिचे ते रूप स्कंदमातेप्रमाणे करारी तरीही क्षमाशील भासले.

हे तिचे रूप शिवाच्या डोळ्यात भरले. ज्या डोळ्यात धाक होता त्याच डोळ्यांना डोळा भिडवला .तिने डोळे आले आहेत या बहाण्याचेही काही चालले  नाही. वेगळा भाव त्यामधे दाटताच तिला डोळा मारला. तिच्या पाणीदार डोळ्यांकडे तो डोळे रोखून पाहू लागला. तिला डोळे फिरवणे शक्यच नाही झाले. क्षणात तिने डोळे झुकवले.  हे तिचे रूप त्याला कांत्यायनी सारखे भासले.

अर्थातच डोळ्यात धूळ फेकणे कोणाला शक्यच नव्हते. डोळ्यात डोळे घालणे चालूच होते. ती मिल्ट्रीमधे रुजू झाली. तो पण कॅप्टन पदावर होता. तरीही दुर्गा त्याला पहाताच नकळत डोळे मोडीत चालायची. दुर्गाला चांगली नोकरी लागावी हे स्वप्न असतानाच चांगला जोडीदार मिळाला पाहून आंधळा मागतो एक डोळा देव देतो दोन डोळे याचा प्रत्यय आला होता.  घरच्यांनी त्यांचा शानदार विवाह लावून दिला. असा सोहळा पाहून डोळ्याचे पारणे फिटले . कौतूक आनंद कोणाच्याच डोळ्यात मावत नव्हते. हे रूप सगळ्यांनाच  महागौरीचे वाटले.

लग्नानंतर तिने तिचे काम चालूच ठेवले होते. अनेक नराधमांचे लागलेले डोळे उखडले होते. त्यांना समज देऊन डोळे उघडले होते. उघड्या डोळ्यांनी जग बघायला शिकवून  डोळे असून आंधळ्यासारखे राहू नये शिकवताना डोळ्यात अंजन घातले होते. हे तिचे रूप कालरात्रीचे भासले.

नंतर मात्र अचानक तिच्या जीवनात एक दुर्घटना घडली. तिच्या सासर्‍यांच्या डोळ्यात फुल पडले . डॉक्टरही कधी कधी डोळ्यात कचरा कानात फुंकर सारखी ट्रिटमेंट देतात याचा अनुभव आला. त्या नादात सासर्‍यांचे डोळे फुटले होते. त्यांचे डोळे निर्विकार झाले होते. तिचे प्रथम कर्तव्य  सासर्‍यांची सेवा करणे असल्याने तिने राजीनामा दिला होता. तिच्या डोळ्यांचा पहारा कायम ती देत होती.

अशातच तिच्या पण तब्येतीच्या तक्रारी सुरू झाल्या आणि चाचणीअंती समजले की तिला आतड्याचा कॅन्सर आहे आणि ती काही दिवसांचीच पाहुणी आहे.  ती दिसायला चांगली होती पण आतून तब्येत बिघडली हे पाहून डोळे व कान यात चार बोटांचे  अंतर असते  हे पटले होते. सासर्‍यांच्या डोळ्यात पडलेल्या फूलाचे कुसळ तिला दिसले होते पण स्वत:च्या डोळ्यात म्ह्मणजे तब्येतीत घुसलेले मुसळ तिला दिसले नव्हते.

सगळ्यांच्याच डोळ्यांपुढे आता पुढे काय हे प्रश्नचिन्ह उभे होते. तर दुर्गेला तिच्या सासर्‍यांबद्दल डोळा हेकणा किधर भी देखणा असे कोणी म्हणू नये असे वाटल्याने डॉक्टर आणि शिवाला सांगून नेत्रदान करण्याचा व डोळे सासर्‍यांना बसवण्याचा निर्धार सांगितला. ती खूप थकली होती. तिचे डोळे किलकिले होत होते. ती मुश्किलीने डोळे उघडे ठेवण्याचा प्रयत्न करीत होती पण तिला ते जमत नव्हते. तिचा डोळा लागला आहे असे वाटत असतानाच तिचे डोळे निवले आहेत आणि तिने कायमचे डोळे मिटले असल्याचे डॉक्टरने सांगितले.

लगबगीने डोळ्यांच्या डॉक्टरांनी तिचे डोळे काढून एक तिच्या सासर्‍यांना आणि एक गरजूला बसवला होता. दोन्ही ऑपरेशनस् यशस्वी झाली होती. आता ती डोळ्यांच्या रुपाने या दुनीयेत शिल्लक होती. तशातही तिचे रूप सिद्धीदात्रीचे भासले

शिवाला तिच्या कार्याचा फार अभिमान होता. आज दसरा होता आणि दुर्गेचा वाढदिवस , प्रथम स्मृतीदिन होता. त्याने दवाखान्यात जाऊन नेत्रदानच नाही तर देहदानाचा फॉर्म भरला होता. खर्‍या अर्थाने एक डोळस दसरा आज साजरा केल्याचे समाधान त्याच्या डोळ्यातून ओसंडत होते.

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ फूल ज़रा आहिस्ता फेको…… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ फूल ज़रा आहिस्ता फेंको… फूल बडे नाजुक होते हैं… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

फुलं आणि मुलं उमलताना सुकोमल असतं… दिसताना तसचं दिसत असतं…ममतेने, प्रेमाने त्यांची काळजी घेणारे हात…मुग्धावस्थेत लालन पालन करणाऱ्यांची असते का त्यांना  साथ… पण हे सगळं प्रत्येकाच्या नशिबात कुठे असते.. भाग्याचा अभंग  खडक परिस्थितीच्या चौकात वाट पाहात असतो त्यांची… अशी दुर्भाग्य पूर्ण बालकांची नि फुलांची… अबोल भावना दोघांच्याही.. एक हाताने चौकात कुठे फुलांची माळ विकावी तेव्हा कुठे मिळणाऱ्या दमडीतून पोटाची खळगी भरावी… फुलांना तरी हट्ट करायला कुठे मिळते स्वातंत्र्य…कधी मूर्तीवर,प्रतिमेवर तर कधी पांढऱ्या शुभ्र वसनातील कलेवर…आजचं फुलणं, सुगंधाची पखरण करणं आणि आणि  संध्यासमयी कोमेजून आपलचं निर्माल्य होणं… काय तर म्हणे निसर्ग चक्र.. आजवरी यात कधी तसुभर बदल झालाय काय?  आणि होईल कसा?… बाल्यावस्थेतील मुलाची निसर्गाच्या नियमाने होत जाणारी वाढ थांबवता येते का?.. परिस्थितीतचा नकाशा मात्र व्यापक नि विस्तृत झालेला… चौकातच जिना और चौकातच मरना अपनी अपनी औकात पहचानना… फुलांच्या माळेने नाकाला सुगंध जाणवतो तो जगणं किती सुंदर असतयं याचा क्षणाचा भास दाखवतो…मला विकुन तुझं पोट भरता येईल… विकत घेणाऱ्याला सुगंधाचा आनंदही देईन माझ्या अंतापर्यंत… पण पण मला काय मिळेल.. चौकातला दगडी कटृटा निर्विकारपणे मुलाला नि फुलाला जवळ बसवून घेत असतो… सिग्नलचा लाल पिवळा हिरवा रंगाचा …थांबा पाहा पुढे जाचा खेळ मांडून बसतो…वाहनांमधले, पदपथावरले माणसांना क्षण दोन आपल्या विश्वातून भानावर या संवेदनशीलता जागरूक ठेवून सजगतेने अवतीभवतचं अवलोकन करा… कुणी गरजु असेल तर त्यास न हिचकिचता मदतीचा हात पुढे करा… हिच खरी मानवता… नाहीतर आहेच आपली कोरडी शुष्क घोषणाबाजी बसवर नि भिंतीवर रंगवलेली.. मुलं म्हणजे देवा घरची फुलं.. झाडं लावा झाडं जगावा… बालकांना शाळेत पाठवा… आणि आणि आणि बालमजुरी करायला लावणं हा समाजाचा शासनाचा नैतिक अध: पात आहे…कायदेशीर गुन्हा आहे…हिरवा सिग्नल लागताच वाहनं बसेस पळू लागतात नि त्यावरील घोषणा पोकळच ठरतात… निर्जीव भिंतीना रंग चोपडून घोषणा गोंदवून घेतात पण त्याकडे माणूस नावाचा प्राणी फक्त बघत नसतो… त्याच्याशी त्याचं काहीच देणं घेणं नसतं… रूपायाचं चाफ्याचं  फुलं मात्र दहाच पैश्यालाच हवं असतं… महागाईला धरबंध काही उरलाच नाही हे तत्त्वज्ञान मात्र चौकात मांडायचं असतं…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ ।। आंधळी माया ।। – भाग-2 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

।। आंधळी माया ।। – भाग-2 ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

(सावनीचे सगळे लाड आजीने पुरवले ! किती attached होती सावनी आजीला !) इथून पुढे — 

सावनी आजीला दर आठवड्याला फोन करायची गप्पा मारायची.कधी एकटं वाटू दिलं नाही तिनं आजीला! सावनी चं एम एस झालं आणि तिला खूप सुंदर जॉब मिळाला.   दरम्यान आजीही अचानकच कालवश झाल्या!आता अमितवर कोणतीही जबाबदारी उरली नाही. सावनीने बोलावले म्हणून तो अमेरिकेला जाणार होता. अरुंधतीला त्याने हे अगदी कॅज्युअली सांगितले.ती म्हणाली,’ मला आणि आनंदला इथे टाकून तुम्ही लाडक्या लेकीकडे जाणार हो?आम्हाला पण सांगा तिला तिकडे न्यायला!’अमित संतापाने बघतच राहिला.’अरुंधती,शरम वाटते का काही बोलायला?ती तुझीही मुलगी होती ना?काय केलंस ग तिच्यासाठी?सतत हा मतिमंद मुलगा बसलीस सांभाळत आणि आमची आयुष्य उध्वस्त केलीस. बिचारी माझी गुणी मुलगी आजी आजोबांच्या छायेत वाढली!माझे आईवडील नसते तर कठीण होतं बरं तिचं!रहा इथेच,तूआणि तुझा हा लाडका लेक.

मी सावनीकडे जाणारच.कोणत्या तोंडाने म्हणतेस ग आम्ही येतो?शी!स्वार्थीपणाचीही हद्द झाली तुझ्या. आता बोलतोच!पत्नी म्हणून काय सुख दिलंस ग मला हा झाल्यापासून?माझं तरुण शरीर तळमळत असायचं  रात्रंदिवस! सतत हा  मुलगा घेऊन बसत होतीस,मी पण कमी नाही केलंय याच्यासाठी! प्रत्येक गोष्टीला लिमिटअसतेअरुंधती!तुझ्यातली फक्त आईतीही या आनंदची, सावनीची नाहीच ! शिल्लक राहिली आणि माझ्या आयुष्याचे वाळवंट झाले. दुसऱ्या दिवशीच्या फ्लाईटने अमित निघून गेला.

 एअरपोर्ट वर सावनी आणि एक उमदा तरुण आले होते. बाबा,हा शिशिर!माझा कलिग आहे.आम्ही एकत्रच  एम एस केलं.शिशिरला आईवडील नाहीत.तो आत्याकडे इथेच usa मध्ये वाढला. एवढी ओळख पुरे सध्या!’सगळे सावनीच्या फ्लॅट मध्ये आले.किती सुंदर ठेवला होता तिनं फ्लॅट!अमितसाठी सुंदर स्वयंपाक करून ठेवला होता.

जेवल्यावर शिशिर त्याच्या घरी गेला. सावनी  बाबांजवळ बसली’.बाबा,बरे आहात ना?किती  वर्षांनी असे घराबाहेर पडत असाल ना?सगळं होतं हो तुमच्याकडे!हौसपैसा सगळं. पण एकेकाळी हौशी असलेली आई किती बदलली ना! सतत आनंद हेच दैवत झालं तिचं! बरोबर होतं तेही पण तिने  ढोर मेहनत करून तो सुधारणार होता का? ती सगळ्या लोकांपासून तुटत गेली.कधीही तिनं मान्य केलं नाही की हा मुलगा गतिमंद आहे.काय  मेहनत  घ्यायची ती हो बाबा!एकेक अक्षर तिने  शंभर शंभर वेळा शिकवलंय त्याला.पुन्हा दुसऱ्या दिवशी त्याची पाटी कोरीच. पण निदान त्या स्पेशल स्कूल मध्ये घातल्याने तिथे सगळी मुलं अशीच असल्याने तो  इतका तरी शिकू शकला. आईने त्याला धडपड करून छोटासा का होईना जॉब मिळवून दिला.  बाबा,या सगळ्यात तुम्हाला फार सोसावं लागलं हो.आणि मलाही.मला आईचं प्रेम कधीच मिळालं नाही.तुम्ही आजीनं ती उणीव भरून काढलीत नाहीतर माझं काय झालं असतं बाबा? बाबा,अनेक घरात असं  मूल येतं की जन्माला पण त्याचा कोणी इतका बाऊ करत नाही.शक्य तेवढं  सगळं करतात आईवडील आणि आपलं आयुष्यही सुखात जगतात.आपल्या आई सारखं स्वतःचं आयुष्य गहाण नाही हो टाकत. आईला हे असं मूल म्हणजे तिचा अपमान, कमीपणा वाटायचा.आणि मग मलाही तिने कधीच  न्याय दिला नाही हो. बाबा,मी शिशिरशी लग्न करायचं म्हणतेय.तुम्ही इथे आहात तर आमचं लग्न लावूनच जाल का?मला फार आनंद होईल हो बाबा.आता तर आजीआजोबा ही नाहीत माझं हे कौतुक बघायला. ‘बोलताना पाणी आलं सावनीच्या डोळ्यात.’ अग वेडे,रडतेस कशाला?तुझा बाबा भक्कम उभा आहे तुझ्या पाठीशी.मला खूप आवडलाय शिशिर.उत्तम जोडीदार निवडलास ग बाळा!

तू आता लग्नाची झाली आहेस,हेही अरुंधतीने लक्षात घेतलं नाहीये.पण देव असतो बघ पाठीशी उभा.मी आनंदाने लग्न लावून देईन ग पोरी.आधी बोलली असतीस तर आजीने तुला दिलेले सगळे दागिने घेऊन आलो असतो सावनी! ‘नको हो बाबा,मला काही नको .फक्त तुमचे आशीर्वाद द्या,तेच खूप मोलाचे आहेत आमच्यासाठी!लग्न झाल्यावर मग आईला मी तुम्ही,सावकाश कळवूया.तिला त्याचं काहीच सुखदुःख नसणार बाबा.जाऊ दे.माझे वडील हेच माझ्यासाठी आई बाबा दोन्हीही आहेत असं मी समजत आलेय.’ ठरलेल्या मुहूर्तावर सावनी आणि शिशिरचं लग्न खूप छान थोडक्यात करून दिलं अमितने! शिशिरच्या आत्याबाईही हजर होत्या. लग्न झाल्यावर सावनी  सासरी शिशिरच्या फ्लॅट मध्ये गेली.दुसऱ्या दिवशी सावनी पुन्हा आपल्या घरी आली आणि म्हणाली,’बाबा तुम्ही आता सहा महिने इकडे रहात जा.मी तुमचं ग्रीन कार्ड प्रोसेस करीन.तुम्ही इथेच छानसा जॉब बघा आणि रहा इथेच.तुम्हाला नक्की मिळेल जॉब हो बाबा,आणि पैशासाठी नाही पण मन गुंतावे म्हणून करा तुम्ही जॉब!बघा कसं वाटतंय ते!’ मी आग्रह नाही करत हं पण मला वाटतं तुमच्या बुद्धीचंही इथे चीज होईल आणि खरं तर तुम्हाला त्या घरापासून सुटका मिळेल हो बाबा. सावकाश विचार करा. आत्ता ठरवलंय तुम्ही तसे परत जा आणि मग पुढच्या वेळी याल तेव्हा मला निर्णय सांगा नक्की बाबा!’जड अंतःकरणाने तिचा निरोप घेऊन अमित परत आला पण मनात अतिशय समाधान होते,की सावनीचं भलं झालं.आपल्यालाशोधूनही असा उमदा मुलगा मिळाला नसता तिच्यासाठी!’  अरुंधतीला त्याने लग्नाचे फोटो पाठवले होतेच. चार दिवसांनी अमितने तिला  सांगून टाकलं  अरुंधती, मी सध्यातरी ग्रीन कार्ड होई पर्यंत सहा महिने सावनी कडे राहणार आहे आणि ग्रीन कार्ड नंतर मी तिकडेच राहीन.तुला भरपूर पेन्शन मिळेल आणि मीही तुला  इतके इतके पैसे फिक्स मध्ये टाकून जाणार आहे. याच घरात तुम्ही दोघेही रहा,तू आणि आनंद! मला मात्र आता इथे राहायचं नाही.बस झाला संसाराचा  फार्स.  आणि आता मला  अडवू नकोस.मी जायचा निर्णय घेतला आहे, त्यात बदल होणार नाही.  तू तुझा मुलगा सुखाने रहा इथे’. निर्विकार पणे अरुंधतीने हे ऐकून घेतलं आणि एक शब्दही न बोलता, ती आत निघून गेली. अमित थक्क झाला.निदान, असे जाऊ नका, माझं चुकलं असेलही,हे तिने म्हणावे ही अपेक्षाही चुकीचीच ठरली अरुंधतीच्या बाबतीत!तिने सावनीच्या लग्नाबद्दल अवाक्षर ही काढले नाही.   अमितला अतिशय वाईट वाटले.काय विचित्र योग असतील आपल्या गुणी मुलीचे तिच्या सख्ख्या आईशी,याचं त्याला नेहमीच आश्चर्य वाटलं आलं होतं.ठरलेल्या वेळी अमित  अमेरिकेला निघून गेला.

राहिली ती अरुंधती आणि ज्या मुलासाठी रक्ताचं पाणी केलं तो आनंद.ज्याला तेवढंसमजण्याचीही कुवत नव्हती की आई आपल्यासाठी सगळी नाती तोडून  झिजत राहिली. जन्मभर तोडलेली नाती उतारवयात अरुंधती समोर फेर धरू लागली.आणि सोन्यासारखी मुलगी आपण गमावली तिच्या लग्नालाही तिने   आपल्याला बोलावलं नाही,याचं वाईट  वाटून तरी उपयोग नव्हताच.जसं तिनं पेरलं तसंच उगवलं. या एका मुलापायी नवरा, मुलगी सगळं सगळं गमावून बसली अरुंधती!वेळ निघून गेली होती आणि  आपली  असणारी माणसं तिने स्वतःहूनच परकी केली. अरुंधतीला ही पुढची अत्यंत अवघड वाट एकटीने चालायची होती.आता पश्चाताप करून काय फायदा होता?

तिच्या आईवडिलांनीही तिला किती तरी वेळा सांगितलं होतं,की अग बाई,तू या एका मुलापायी संसार उध्वस्त करतेआहेस.अमित सारखा नवरा आणि सावनीसारखी मुलगी भाग्यानेच मिळते बरं!काय तो आनंद घेऊन बसतेस जवळ सारखी ग!

करायचे ते सगळे प्रयत्न झालेत करून!त्याच्या पायी तू अतिशय अन्याय करते आहेस सगळ्यामाणसांवर.’त्याहीवेळी तिला आईवडिलांचेही पटले नाहीच. आता एवढ्या मोठ्या घरात उरली एकटी अरुंधती आणि हा  खुळा आनंद.वेळ निघून गेली आणि आता परतीचे दोरही स्वतःच कापून टाकलेली अरुंधती त्या भकास घरात एकटी उरली.

– समाप्त – 

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ डाह्याकाका ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

डॉ. जयंत गुजराती

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☆ डाह्याकाका ☆ डॉ. जयंत गुजराती ☆

खरंतर डाह्याकाका हे माझे सख्खे काका नव्हते. सुरतेला माझ्या मावस भाऊबहिणींचे ते काका होते. माझ्या मावशीचे दीर. आम्ही लहानपणी सुट्टीत मावशीकडे जाऊन रहायचो. मग ते आमचेही काका झाले. छोट्या चणीचे. थोडेसेच जाडगेलेसे, विशेषतः त्यांचा खालचा ओठ खूपच जाड. फारसे चपळ नसलेले त्याला कारण होतं, दुर्दैवाने ते थोडेसे मंदबुद्धी होते. याचा अर्थ त्यांना कळत नसे असं नाही. सगळं कळत असे. पण स्वतःची हुशारी कमी. कोण्या विद्वानाने त्यांचं नाव डाह्याकाका ठेवलं होतं कुणास ठाऊक!! डाह्यो म्हणजे गुजरातीत शहाणा. डाह्यो मारो छोकरो वा डाही मारी छोकरी हे म्हटलं जातं, शहाणं माझं बाळ या अर्थाने. मात्र डाह्याकाकांना ते चपखल बसत नव्हतं. त्यांचं खरं नाव हसमुखराय होतं. ते मात्र त्यांना शोभून दिसणारं. ते सदा हसतमुख असायचे. इतकं चांगलं नाव असूनही सगळे त्यांना डाह्याकाकाच म्हणायचे. 

सुरतेला मावश्यांकडे भिक्षुकी होती. खत्री (क्षत्रियो) जातीचे ते गुरूजी लागत. बहुतेक तालेवार घराणी. कुणाची कापडाची मिल, कुणाचा मसाल्याचा व्यापार. व्यापार उदीम बरोबर नोकरी वा छोटेमोठे धंदे करणारे सर्वसामान्य ही खूप. सगळे देवभोळे. साधी घराच्या खिडकीची चौकट बदलायची असेल तरी त्यांना ग्रह नक्षत्र, मुहूर्त लागायचा. माहेरी चार दिवस रहायला आलेल्या मुलीला सासरी  पाठवायची असेल तरी गुरूजींना विचारायला यायचे की कोणत्या दिवशी पाठवू. मग मावशे म्हणायचे, की, तुला मुलगी जड झालीय का?राहू दे दोन दिवस अधिक, परवाचा मुहूर्त चांगला आहे तेव्हा पाठव. यजमान त्यालाही मान डोलवायचे.पत्रिका बघणे व त्यातून यजमानांची कामे मार्गी लावणे. हा व्यवसाय. म्हणतात की लग्नाच्या गाठी स्वर्गात पडतात. मात्र खत्री समाजात लग्नाच्या गाठी मात्र मावशेच पत्रिकेवरून लावून द्यायचे.  एक आषाढ महिना सोडला तर मावशेंना कामाची धामधूम असायची सदैव. कुणाकडे सत्यनारायण वा चंडीपाठ, कुणाकडे वास्तुशांती, क्रियाकर्म, लग्नसराईत तर एका दिवसात चौदा चौदा लग्न लावलेली मी पाहिली आहेत. महिना दीड महिन्यात तर शेकड्यांनी. मग दीडेक वर्षात तिच मंडळी परत यायची. मुलगी वा सुनेचं खोळा भरण कार्यक्रमासाठी. मग मावश्यांना आठवायचं. ह्यांच्याकडे मुलगी दिलीय तेच ना. मग सासर माहेर दोन्ही घरांकडून दक्षिणा मिळायची. भिक्षुकी म्हटली की पूजापाठ  झाले की घरी यायचा तो शिधा. त्यात सप्तधान्य, गुळ खोबरं, साजूक तूप, सुकामेवा यांच्या झोळ्या असायच्या.  फळफळावळ, मिठाईचे बॉक्स वेगळे. मग डाह्याकाकांकडे या झोळ्या सुट्या करून त्यातील सामान व्यवस्थित डब्यांमधे भरणे हा उद्योग असायचा. कधीकधी तर त्यांना ते करताना दिवस पुरायचा.  शिधा सुटा करताना त्यात गुप्त दान म्हणून सुटे पैसे असायचे. ते मात्र डाह्याकाका खिशात घालायचे. हे सर्वांना ठाऊक होतं. मग ते त्या पैशांतून दाढी, कटिंग करून घ्यायचे. ते नेहेमी क्लीन शेव करूनच यायचे. शिधा सुटा करताना सुकामेव्यातील, काजू बदाम, बेदाणे थोडेफार फस्तही करत. मिठाई वरही ताव मारत. सगळे त्याकडे काणाडोळा करत. बऱ्याच वेळा त्यावरून कसं पकडलं वगैरे चेष्टा करत मग हसमुखराय छानपैकी हसत. 

माझे मावसभाऊबहिणी, चार भावंडं, त्यांच्या अंगाखांद्यावर खेळूनच मोठे झालेत. त्यांना तर त्यांचा विशेष लळा होता व आदराचे स्थानही. दिवसातून कुणी ना कुणी सारखं त्यांची दखल घ्यायचं. डाह्याकाकांना तितकंच बरं वाटे. ते फारसं कधी बोलत नसे. आपण काही विचारलं तर पच म्हणजे हो, वा पचपच म्हणजे नाही. असं मोजकंच बोलणं होई. मात्र घरात सगळे एकत्र बसून चर्चा करत असतील तर लक्षपूर्वक ऐकत व मधून एखादं वाक्य बोलून जात. ते तितकं महत्वाचं नसायचं पण आपली उपस्थिती नोंदवायची त्यांची तऱ्हा होती. काम नसलं की ते ओट्यावर जाऊन बसायचे. ओटा पुरूषभर ऊंच होता. त्यावरून ते वाहती वर्दळ बघत बसायचे. आपण अवचित गेलो की छानपैकी हसून स्वागत करायचे. 

डाह्याकाकांकडे देवपूजेचा मान होता. सकाळीस आंघोळ झाली की गंध उगाळून देवपूजेला बसायचे. मावशीकडे देवघर मोठे असलेले. फळ्यांची चढणच. त्यावर तितकेच देव. ते सर्व देव ताम्हणात घेऊन त्यांना आंघोळ घालून, स्वच्छ पुसून, गंध हळदीकुंकू लावून फळ्यांवर ठेवायची. मग फुलं वाहून, धूप, दीप, आरती गुळखोबरं फळं याचा नैवेद्य सगळं साग्रसंगीत करायचे.  सर्वात वरच्या फळीवर, गणपती, देवी व लंगडा बाळकृष्णाचा मान. बहुतेकदा ते रंगनाथ वर ठेवताना गडगडून खाली यायचा. मग मावशे म्हणायचे, बघ देवाला आज तुझ्या बरोबर खेळायचंय त्यावरही हसमुखराय हसायचे. 

डाह्याकाका व मावशीचं एक अनोखं नातं होतं. ते दीर असले तरी मावशींनी त्यांना आपलं मुलच मानलं होतं. ती नेहेमी त्यांना जपायची. त्यांना लागलं खुपलं ते लगेच द्यायची. डाह्याभई अशी हाक मारली की डाह्याकाका कुठेही असले तर लगेच हजर व्हायचे. मावशीचं, घरातलं कोणतंही काम विनातक्रार करायचे. पण ते सांगकामे नव्हते. मावशींनी त्यांचा तेवढा आब राखला होता. घरात काही चांगला पदार्थ बनवला तर तो चाखण्याचा मान डाह्याकाकांचा असायचा. जेवण वाढतानाही मावशी त्यांच्या पोळीवर जास्त तूप लावून द्यायची. ते त्यांच्या लक्षात यायचं. तितकेच ते खुश होऊन जायचे. 

डाह्याकाकांनी कधीच काही मागण्या केल्या नाहीत ना कुठलाही हट्ट. कापडचोपड यजमानांकडून यायचं त्यातून सदरा व लेंघा शिवून घ्यायचे. गरजा कमीच. चार गोड शब्द बोलले की गडी खुश. चार भिंतीमधलं आयुष्य ते आनंदाने जगले. भाचे मंडळींनी देवदर्शनाला वा बागेत नेले तर जायचे. वर्षातून एकदा लांब आजोळी महिनाभर राहून यायचे. तेव्हा ताप्ती रेल्वेलाईनची मजा अनुभवायचे. असं सगळं असलं तरी त्यांना रागलोभ ही होताच. कधी काही मनाप्रमाणे नाही झालं की रूसायचे. मग एका कोपऱ्यात बसून राहायचे. कोणी पाहत नाही हे पाहून हळूच डोळे पुसायचे. हे मावशीच्या लक्षात यायचे. मग त्या, “ काय डाह्याभई? ” म्हटलं की घळाघळा रडायचे पण ते तेवढ्यापुरतंच. मग आभाळभर हसायचे. २००५साली सुरतेत तापीला महापूर आला होता. मोठं नुकसान झालं. बरीच रोगराई पसरून बरीच माणसं मेली होती. डाह्याकाका वार्धक्यामुळे वारले तर त्यांना सोवळ्यात नेले होते. खांदेकरी ही सोवळ्यात. स्मशानात बरीच गर्दी होती. डाह्याकाकांना नेलं तेव्हा सगळी गर्दी बाजूला झाली. ब्राह्मणाचं आलेलं दिसतंय म्हणत. स्मशानातही त्यांना मान मिळाला. असं मानाचं जगणं जगले व गेले तेही मानाने. 

© डॉ. जयंत गुजराती

नासिक

मो. ९८२२८५८९७५

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ४ — ज्ञानकर्मसंन्यासयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ४ — ज्ञानकर्मसंन्यासयोग — (श्लोक १ ते १०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

श्रीभगवानुवाच 

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ । 

विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥ ४-१ ॥ 

कथित भगवान

अव्यय योग कथिला मी विवस्वानाला

त्याने कथिला स्वपुत्राला वैवस्वताला ।। १ ।।

अपुल्या सुतास कथिले त्याने मग मनुला

इक्ष्वाकूला मनुने कथिले या अव्यय योगाला ॥१॥

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । 

स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ ४-२ ॥ 

अरितापना राजर्षींनी योग जाणला परंपरेने

वसुंधरेवर नष्ट पावला तो परि कालौघाने ॥२॥

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः । 

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌ ॥ ४-३ ॥ 

योग हा तर अतिश्रेष्ठ अन् कारकरहस्य

प्रिय सखा नि भक्त असशी माझा कौन्तेय 

मानवजातीला उद्धरण्या घेउन आलो हा योग

तुजला कथितो आपुलकीने पार्था ऐक हा योग ॥३॥

अर्जुन उवाच 

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । 

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ॥ ४-४ ॥ 

कथिले अर्जुनाने

हे श्रीकृष्णा जन्म तुझा तर अर्वाचीन काळाला

अतिप्राचीन सूर्यजन्म  कल्पारंभी काळाला

महाप्रचंड अंतर तुम्हा दोघांच्याही काळाला

मला न उमगे आदीकाळी कथिले कैसे सूर्याला ॥४॥

श्रीभगवानुवाच 

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । 

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥ ४-५ ॥ 

कथित श्रीभगवान

कितीक जन्म झाले माझे-तुझे ऐक परंतपा कुंतीपुत्रा

तुला न जाणिव त्यांची परी मी त्या सर्वांचा ज्ञाता ॥५॥

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ । 

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ४-६ ॥ 

अजन्मा मी,  मी अविनाशी मला न काही अंत

सकल जीवांचा ईश्वर मी नाही तुजला ज्ञात

समग्र प्रकृती स्वाधीन करुनी देह धारुनी येतो

योगमायेने मी अपुल्या प्रकट होत असतो ॥६॥

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥ ४-७ ॥ 

जेव्हा जेव्हा धर्माची भारता होत ग्लानी 

उद्धरण्याला धर्माला येतो मी अवतरुनी ॥७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌ । 

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ४-८ ॥ 

विनाश करुनीया दुष्टांचा रक्षण करण्या साधूंचे

युगा युगातुन येतो मी  संस्थापन करण्या धर्माचे ॥८॥

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । 

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ४-९ ॥ 

जन्म माझा दिव्य पार्था कर्म तथा निर्मल

मोक्ष तया मिळेल जोही या तत्वा जाणेल

देहाला सोडताच तो मजला प्राप्त करेल

पुनरपि मागे फिरोन ना पुनर्जन्मास येईल ॥९॥

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः । 

बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ ४-१० ॥ 

क्रोध भयाला नष्ट  करुनी निस्पृह जे झाले होते

अनन्य प्रेमाने माझ्या ठायी वास करूनि स्थित होते

ममाश्रयी बहु भक्त पावन होउनिया तपाचरणे ते

कृपा होउनी प्राप्त तयांना स्वरूप माझे झाले होते ॥१०॥

– क्रमशः भाग चौथा 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈