हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कविता – आत्मघात ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – कविता – आत्मघात  ??

उसके भीतर

ठंडे पानी का

एक सोता है,

दुनिया जानती है..,

 

उसके भीतर

खौलते पानी का

एक सोता भी है,

वह जानता है..,

 

मुखौटे ओढ़ने की

कारीगरी

खूब भाती है उसे,

गर्म भाप को कोहरे में

ढालने की कला

बखूबी आती है उसे..,

 

धूप-छाँव अपना

स्थान बदलने को हैं

जीवन का मौसम

अब ढलने को है..,

 

जैसा है यदि

वैसा रहा होता

शीतोष्ण का अनुपम

उदाहरण हुआ होता..,

 

अपनी संभावनाएँ

आप ही निगल गया

गंगोत्री-यमुनोत्री

होते हुए भी

ठूँठ पहाड़ ही रह गया…!

©  संजय भारद्वाज

(सांझ 4:52 बजे, 13.5.2021)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा #113 – “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन” – श्री शंकर शरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका पारिवारिक जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री शंकर शरण जी की पुस्तक “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन”  की समीक्षा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 113 ☆

☆ “भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन” – श्री शंकर शरण ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆  

पुस्तक.. भारतीय इतिहास दृष्टि और मार्क्सवादी लेखन

लेखक.. शंकर शरण

प्रकाशक.. कृति कृति प्रकाशन कोलकाता

मूल्य 560 रु

पृष्ठ..224

भारतीय संस्कृति में  आत्म प्रदर्शन को बहुत अच्छा नहीं माना जाता था  यही कारण है कि  कालिदास जैसे महान लेखकों की जीवनी तक सुलभ नहीं है. इसलिये तटस्थ वास्तविक भारतीय इतिहास अलिखित रहा.अतीत पर गर्व करना मनुष्य की आदत रही है जिसका शासन रहा उसके महत्व को अधिक प्रदर्शित करते हुए तोड़फोड़ कर इतिहास लिखे गए.

एनसीईआरटी नई दिल्ली के प्रोफेसर शंकर शरण ने बहुत तार्किक और संदर्भ सहित भारतीय इतिहास दृष्टि, कार्ल की भारत दृष्टि, इतिहास लेखन में राजनीति, धर्म और सांप्रदायिकता, दोहरे मानदंडों का घालमेल, कवि निराला और रामविलास शर्मा,भूमिका,तथा

उपसंहार  इन खंडो में यह बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। आजादी के बाद से देश के एकेडमिक संस्थाओं में मार्क्सवादी विचारधारा के समर्थकों का प्रभाव रहा जिसके चलते भारतीय इतिहास का जो लेखन किया गया उसमें मार्क्सवादी विचारधारा का प्रभाव रहा.   इतिहास वास्तविकता से भिन्न रूप में वर्णित हुआ. देश की मिली जुली संस्कृति  का श्रेय इन इतिहासकारों ने इस्लाम को दिया जबकि वास्तविकता यह है कि इस्लामी शासकों ने कोई कसर नहीं छोड़ी की हिंदू संस्कृति का विनाश कर केवल इस्लाम को ही एक धर्म के रूप में स्थापित किया जाए.दरअसल यह  हिंदू संस्कृति एवं धर्म की विशेषता ही है की इन नितांत दुष्कर तथा कठिन परिस्थितियों में भी हिंदू संस्कृति जीवित बनी रही. इसी तरह युद्धों के वर्णन, अंग्रेज तथा मुगल शासको की राज व्यवस्था के इतिहास लेखन में भी हिंदूवाद की उपेक्षा की गई है, जिसकी ओर तार्किक तथ्यों के आधार पर इस पुस्तक में सविस्तार वर्णन है. पुस्तक पठनीय है व सन्दर्भों के लिये महत्वपूर्ण है.

लोगो को इतिहासकारों द्वारा यह बताया ही नही गया की निराला ने रामायण पर 20 खंडों में टीका लिखी है महाराणा प्रताप भी इस भक्त प्रहलाद भक्त ध्रुव पर पूरे पूरे उपन्यास लिखें इनके अलावा निराला के विस्तृत निबंध ओं लेखों के शीर्षक ही देख ले तो तुलसीकृत रामायण में अद्वैत तत्व विज्ञान और गोस्वामी तुलसीदास श्री देव राम कृष्ण परमहंस युग अवतार भगवान श्री राम कृष्ण भारत में श्री राम कृष्ण अवतार आदि लेख उन्हीं के हैं किंतु उन्हें इतिहासकारों ने मार्क्सवादी विचारधारा का कवि ही निरूपित किया है इस तरह के शुद्ध पूर्ण तथ्य इस पुस्तक में उजागर किए गए हैं.

टिप्पणी… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 121 – लघुकथा – दायरा… ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है प्रेमविवाह  एवं नए परिवेश में  पुराने विचारधारा के बीच सामंजस्य पर आधारित अतिसुन्दर लघुकथा  “दायरा … ”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 121 ☆

☆ लघुकथा – दायरा 

मोबाइल पर मैसेज देखकर सुधीर समझ नहीं पा रहा था कि अपनी पत्नी को क्या कहे – – – कि पिताजी ने अकेले ही घर बुलाया है। इसी बीच वैशाली आकर कहने लगी…. मुझे मायके जाना है। हालांकि मेरा वहां कोई नहीं पर, जहां पुराना घर है वहां के सभी लोग मुझे मानते हैं और मम्मी पापा की इच्छा थी कि मैं घर की देखभाल करते रहूँगी।

बस बात बनती देख सुधीर ने चुपचाप हा कह दिया।

तुम अपने घर चली जाना, मुझे ऑफिस के काम से बाहर जाना हैं। आज सुधीर बस में बैठ कर अपने घर  के बारे में सोच रहा था। शायद पिताजी मुझे माफ करेंगे या नहीं क्योंकि कुछ साल पहले जहां पर पढ़ाई करने गया था, वहीं एक लड़की से अपनी पसंद से शादी कर लिया था।

पिताजी अपनी जगह सही थे क्योंकि पुराने ख्यालात और घर परिवार की रजामंदी को सर्वोपरि माना जाता था। शादी के बाद पत्नि को घर लेकर गया किन्तु, पिताजी ने घर के अंदर पैर भी रखने नहीं दिया।

वैशाली ने इसका कोई विरोध नहीं किया चुपचाप रही, सुधीर उल्टे पांव उसको लेकर शहर चला गया था। समय जैसे चलता रहा, कहना चाह रहा हो… जो गलती ने सुधीर किया है वह कोई बड़ी गलती नहीं है। आजकल यह सब होने लगा है।

सुधीर के पिता जी प्राइवेट काम करते थे। आफिस में कुछ रुपये पैसों का बड़ा घोटाला हुआ। उसकी वजह से कार्यवाही हुई अपनी सफाई में सुधीर के पिताजी कुछ नहीं कह सके!!! इस कारण उनको निकाल दिया गया था। घर की स्थिति बिगड़ने लगी थी। किसी तरह वैशाली को पता चला। अपनी सादगी, सहजता और कार्यकुशलता से सास ससुर को सहायता करने लगी।

जिसका सुधीर को बिल्कुल भी एहसास नहीं था परंतु बाप बेटे के मनमुटाव को कम नहीं कर सकी।

पिताजी अपनी अड़ी पर थे.. बेटा आकर माफी मांग ले और सुधीर संदेह में रहा.. कि शायद पिताजी माफ नहीं करेंगे।

बस रुकते ही बैग उठा पगडंडी के रास्ते घर के दरवाजे पर पहुंचा। सामने पिताजी की गोद में अपनी बिटिया को देखकर कुछ देर के लिए आवाक हो गया।

आंखों पर ज़ोर देकर फिर से देखा.. हाथ में पानी का गिलास लिए वैशाली निकलकर दरवाजे पर खड़ी थी। पिताजी ने अपने अंदाज में कहा…बहू समझा दे इसको बेटा ही घर का चिराग, सहारा या बैसाखी नहीं होता.. बहू भी बन सकती है।

सुधीर पिता जी के इस बदले रुप को समझ नहीं पाया।

गिलास ले कर एक ही सांस में पानी पी डाला। उसकी समझ में अब आने लगा कि जब भी बाहर होता था वैशाली अपने ही मायके जाने की जिद करती थी। आज समझ में आया वह मायके नहीं उसके घर आती थीं।

पिताजी और मां का सहारा बन चुकी वैशाली विश्वास, दया, ममता और मां पिता जी की बेटी बन चुकी थी।

सिर झुकाए वह वैशाली के प्रति कृतज्ञ था कितना विशाल दायरा है। वह झूठ बोल कर उसे क्या समझाना चाह रहा था?

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ पनवाड़ी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।”

आज प्रस्तुत है संस्मरणात्मक आलेख – “पनवाड़ी” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख ☆ पनवाड़ी ☆ श्री राकेश कुमार ☆

बचपन में ये शब्द खूब सुना था।  अब पान की दुकान के नाम से जाना जाता हैं। इनके भी अपने बड़े ठाठ होते थे। कुछ पनवाड़ी अभी भी आपने ठाट को बनाए हुए हैं।

घर से नाश्ता, खाना या चाय पीकर लोग पास की दुकान/ गुमटी/ टपरिया जो अधिकतर नुक्कड़ में हुआ करती थी, पहुंच जाते थे, अपनी पसंद का पान खाने के लिए। चलते हुए कह देना “लिख लेना” या आंखों ही आंखों में उधारी खूब चलती थी।

इनका कारोबार कभी भी मौसम से प्रभावित नहीं होता था। उस जमाने में गूगल भी नहीं था, रास्ता बताना या उस क्षेत्र के निवासियों की पूरी जानकारी प्रदान करने की सुविधा देर रात्रि तक निशुल्क प्रदान की जाती थी।

यदि आपको किसी से कोई काम करवाना हो या खुश करना हो, तो उसकी पसंदीदा पान की दुकान से उसका बीड़ा पार्सल पैक करवा कर ले जावे, फिर देखिए बड़े बड़े काम भी आसानी से हो जाते हैं।

पनवाड़ियों ने भी अपने कारोबार में वृद्धि करने के लिए श्वेत दंतिका का विक्रय भी अपने धंधे से जोड़ लिया था। मुफ्त माचिस और विद्युत से सिगरेट सुलगाने की सुविधा भी मुहैया करवाई जाती हैं।

ट्रिन ट्रिन, घर की घंटी बजी है। शायद खाद्य दूत (स्विगी) पान की डिलीवरी के लिए आया होगा। आगे की चर्चा पान खाने के बाद करेंगे। 👄

© श्री राकेश कुमार

संपर्क –  B  508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 15 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #15 (76 – 80) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -15

 

शुद्ध ऋचा सावित्री ज्यों जाती रवि के पास।

त्यों मुनि सीता सहित सुत पहुँचे रामनिवास।।76।।

 

सजल नयन भगवा वसन शील-राशि, गुणखान।

शांत भाव लख सभी ने किया शुद्ध अनुमान।।77।।

 

जैसे खुद जाती है झुक पकी धान की बालि।

झुक गई आँखें सभी की दोषारोपन वाली।।78।।

 

मुनि बोले- ‘‘पुखी सिया सबका तुम पर नेह –

पति समक्ष जन-मन बसा, दूर करो संदेह’’।।79।।

 

सीता ने कर आचमन पावन जल ले हाथ।

जो ला शिष्यों ने दिया बोली सात्विक बात।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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ई-अभिव्यक्ति – संवाद ☆ १२ एप्रिल – संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर ☆ ई-अभिव्यक्ति (मराठी) ☆

सौ. गौरी गाडेकर

? ई -अभिव्यक्ती -संवाद ☆ १२ एप्रिल -संपादकीय – सौ. गौरी गाडेकर -ई – अभिव्यक्ती (मराठी) ?

भानुदास बळीराम शिरधनकर

भानुदास बळीराम शिरधनकर ऊर्फ भानू शिरधनकर (मृत्यू :12 एप्रिल 1977) हे मराठी लेखक होते.
त्यांची शैली सुबोध होती. त्यांनी लिखाणात नवेनवे विषय हाताळले. नवे शब्द तयार करून ते रूढ करण्याचा प्रयत्न केला.
स्वतःला वेगळे अनुभव घेता येत नाहीत, तर ते स्वतः वेगळे अनुभव घेणाऱ्यांपर्यंत पोहोचत.शिकारी, कोळी, सर्कसमधील लोक, जंगल अधिकारी वगैरेंच्या मुलाखती घेऊन त्यांनी त्यांचे अनुभव वाचकांपर्यंत पोहोचवले.

शिरधनकरांची ‘उधानवारा’, ‘सागरसंग्राम’, ‘शिमाळ आलं,शिमाळ आलं!!’ ही रिपोर्ताजरुपी लेखांची सागरी जीवनावरील इत्यंभूत माहिती देणारी मराठीतील पहिली-वहिली पुस्तके. ‘कारवारचा काळुराम’ (शिकारकथा), ‘तराईच्या जंगलात’, ‘रानातील सावल्या’, ‘घनु वाजे घुणघुणा’ ही त्यांची शिकारी लोकांचे अनुभव शब्दबद्ध करणारी पुस्तके.
‘सर्कसचे विश्व’, ‘वाघ-सिंह माझे सखेसोबती'(दामू धोत्रे यांचे सर्कस अनुभव), ‘चिडियाँघर’, ‘जिवाचं मैतर तुम्ही माझ्या’, ‘फोर्डस्डेलवरील फुफाटा’ ही प्राणी -पक्षांच्या बाबतीतील कुतूहल शमवणारी पुस्तके, ‘ऑलिम्पिकची नवलकथा’, ‘इस्पितळाच्या वाटेवरून’, ‘पुस्तकांची दुनिया’,’गुन्हेगारांच्या मागावर’, ‘कस्टमला झुकांडी’ आणि विद्यार्थ्यांसाठी लिहिलेलं ‘एस एस सी नंतरच्या वाटा’……

शिरधनकरांच्या पुस्तकांची नुसती नावं जरी बघितली, तरी त्यातलं विषयांचं वैविध्य बघून चकित व्हायला होतं.

त्यांनी अनुवादही केले होते. अमेरिकन लेखक हर्मन मेलविल यांच्या ‘बिली बड’ आणि ‘टायपी’ या दर्यावर्दी जीवनावरील कादंबऱ्यांचा त्यांनी केलेला अनुवाद म्हणजे ‘पाचूचे बेट’ व ‘शिस्तीचा बळी’.

दुर्दैवाने शिरधनकरांच्या एकूण पुस्तकांपैकी थोड्याच पुस्तकांच्या प्रती आता उपलब्ध आहेत.

भानू शिरधनकर यांच्या स्मृतिदिनी त्यांना आदरांजली. 🙏🏻

☆☆☆☆☆

सौ. गौरी गाडेकर

ई–अभिव्यक्ती संपादक मंडळ

मराठी विभाग

संदर्भ : साहित्य साधना, कऱ्हाड शताब्दी दैनंदिनी, लोकसत्ता.कॉम – पंकज भोसले.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ जीवन जगता जगता… ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

? कवितेचा उत्सव ?

☆ जीवन जगता जगता… ☆ सौ राधिका भांडारकर

 मागे वळून बघताना

 आठवतात क्षण संघर्षाचे

किती बोचले काटे

किती वेचले खडे संकटाचे..

 

पोळले कितीदा तरी

ज्यांना  मानले आपले

ठेवला विश्वास निस्सीम

त्यांनीच जेव्हा फसवले…

 

नव्हती फार मोठी झेप

नव्हते चुंबायाचे आकाश

मूठभर सुखशांतीच्या कल्पना

वाट चालायची होती सावकाश….

 

सोसली निंदा ऐकले टोमणे

काळजात किती घरे पडली

नसता कसलेही कुणाचे देणेघेणे

नकळे बोलणी ही कशास साहली…

 

सदा वागले विवेका स्मरुन

सुविचारा नाही त्यागिले

नाही गमावला आत्मविश्वास

निर्धाराने तमास ऊजळविले…

 

होती कणखर रथाची दोन चाके

निभावल्या सार्‍या वळणवाटा

आता निवांत विसाव्याच्या क्षणी

कशास आठवाव्या सुटलेल्या जटा…

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 133 ☆ गुलामी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 133 ?

☆ गुलामी ☆

गुलामी मी तुझी केली मला सांभाळ आयुष्या

छळाया गाठतो कायम तुझा वेताळ आयुष्या

 

मिळाला जन्म भूवरती किती आनंदलो होतो

इथे तर स्वर्ग नाही रे इथे पाताळ आयुष्या

 

तनावर मारला आहे फवारा अत्तराचा मी

मनाच्या सागरी आहे तरीही गाळ आयुष्या

 

दिले ना पंख तू मजला गगन मी भेदले नाही

जुळेना ही तुझी माझी कशी रे नाळ आयुष्या ?

 

शमवण्या आग पोटाची करावे लागते सारे

सुखाने घातले पायी कुठे मी चाळ आयुष्या

 

जिथे जावे तिथे अडचण उभी ही ठाकते आहे

कशी ही नांगरावी मी भुई खडकाळ आयुष्या

 

किती सोसायची दुःखे सुखाचे दिवस हे काही

दिवाळी ईदच्या सोबत असे नाताळ आयुष्या

 

तख़ल्लुस मागते आहे मला मक्त्यात ही कायम

समजती लोक तर येथे मला नाठाळ आयुष्या

 

हरावे मी कशासाठी तुझ्या पाहून ह्या ज्वाळा

सुवर्णाचीच ही काया कितीही जाळ आयुष्या

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ भय ☆ सुश्री त्रिशला शहा ☆

सुश्री त्रिशला शहा

परिचय

नँशनल असोसिएशन फाँर दि ब्लाईंड या संस्थेच्या सभासद. अंधांचे बचतगट  १० वर्षांपासून चालवितात. महाराष्ट्रातील पहिला प्रयोग म्हणून याला मान्यता मिळाली आहे. स्वतः अंशतः अंध. अपंग सेवा केंद्र, सांगली व सांगली महापालिका या दोन्ही चे ‘प्रेरणा पुरस्कार’ मिळाले.

महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मुलन समिती शाखा सांगली यामध्ये सक्रिय कार्यकर्ती म्हणून काम.

चमत्कारामागील विज्ञान यासाठी ‘हसत खेळत विज्ञान’ या नाटयप्रयोगात अभिनय, तसेच चळवळीची गाणी म्हणणे, इतरही अनेक कामे या समितीतर्फे केली जातात. जटानिर्मुलन, सत्यशोधक विवाह, भोंदूबाबा पकडणे याकामात  सहभाग असतो.

कविता, लेख लिहून सादर करतात. काही अंधांसाठीचे व्हाँटस अँप ग्रुपवर असे कविता लेख रेकॉर्डिंग करून पाठविते.

काही एकट्या रहाणाऱ्या जेष्ठांची बँकेची कामे करते.

लग्नसमारंभात मंगलाष्टके रचून म्हणते तसेच काहीइतरही खास समारंभासाठी गाणी लिहून सादर करतात.

नँब शाखा सांगलीवरही  मागणीवरून गीत लेखन केले आहे.

?  विविधा ?

☆ भय ☆ सुश्री त्रिशला शहा 

जीवन खूप सुंदर आहे. जगताना प्रत्येक गोष्टीचा पुरेपुर आनंद घेत गेलो तर दुःखाचा लवलेशही उरणार नाही, दुर्दैवाने ज्या वाईट घटना घडतात, त्यांना मागे टाकून जीवनाची पुढील वाटचाल करीत राहिलो तर आयुष्य खूप सुंदर होईल हे नक्की, परंतु या वाटचालीत काही वेळा मात्र भयदायी असतात. अगदी लहान असताना बालपणात एक भय आपली पाठ सोडत नाही, ते म्हणजे बागुलबुवा. थोडा जरी हट्ट केला, रडून निषेध नोंदवला तर घरातील आई, आजी, बाबा हे सगळे एकच भिती घालतात, “तो बघ बागुलबुवा आला “मग आम्ही आपल घाबरून गप्प!शिकत असताना शाळेतील शिक्षकांची भिती, परिक्षेची भिती, अभ्यास कितीही चांगला झाला तरी निकालाची भिती. यशस्वीपणे पास झालो तर नोकरीची भिती, नोकरी चांगली लागली तर बाँसची भिती. लग्न झाल्यावर तर विचारुच नका. पैसे पुरवायची भिती, मुलांच्या शिक्षण, पालनपोषणाची जबाबदारी युक्त भिती कायमच असते. सगळं सुरळीत झालं, आयुष्यातील बऱ्यापैकी जबाबदाऱ्या पार पाडल्यावर एक मोठी भिती आपल्या मनात ठाण मांडून बसते ती म्हणजे असलेल्या किंवा होणाऱ्या आजाराची भिती. त्यातून परत जोडीदाराची काळजीयुक्त भिती असतेच. हे सगळं निभावताना वार्धक्यात मुलं आपल्याला बघतील कि नाही हि भिती तर मरेपर्यंत सुटतचं नाही. एकूण काय भय आपली पाठ सोडत नाही. जीवन आहे तिथे आनंद, उत्साह, सुख असतेच, आनंदाने जीवन जगावे हेही खरेच पण त्याच्या जोडीला दुःख, भय हे सुध्दा आहे.  याच वाटचालीत जगत असताना हे सुध्दा लक्षात ठेवावे वाटते, ‘भय इथले संपत नाही.’

© सुश्री त्रिशला शहा

मिरज 

 ≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एक (अ) विस्मरणीय प्रकाशन समारंभ – भाग-2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

?जीवनरंग ?

☆ एक (अ) विस्मरणीय प्रकाशन समारंभ – भाग-2 ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

(मागील भागात आपण पाहिलं, – पुस्तक छापून झालं. सुबोध म्हणाला, ‘‘प्रकाशन समारंभ अगदी शानदार झाला पाहिजे!” आता इथून पुढे )

‘‘करेक्ट! त्याशिवाय लेखकाचं नाव होणार कसं? आणि त्याचा वणवा जगभर पेटणार कसा?” हे तारे नकुलने तोडले.

‘‘नाही तरी पुस्तक छापण्यासाठी इतका खर्च केलाहेस, त्यात आणखी थोडी भर… म्हणजे भरल्या गाड्यावर फक्त आणखी एक सूप…” इति सुबोध.

‘‘खर्च मी कुठे केलाय. शऱ्यानं केलाय. मी त्याला फक्त पैसे उधार दिले.”

‘‘उधार… वाट बघ… पैसे परत मिळतील! नाही… ते परत मिळतील… नक्की मिळतील… पण मग तुला फक्त सुपाचाच खर्च… म्हणजे प्रकाशन समारंभाचा. पण तो झाला की तुझं नाव सुपाएवढं… सॉरी… आभाळाएवढं होईल की नाही? म्हणजे नाव आभाळाएवढं आणि काळीज सुपाएवढं…”

आता नाव आभाळाएवढं होईल, की सुपाएवढं, जेवढं केवढं व्हायचं असेल, तेवढं होऊ दे… पण विचार केला, तीस तिथे चाळीस आणि मित्रांच्या सूचनेला मान्यता देऊन टाकली.

प्रकाशन समारंभ करायचे नक्की ठरले, तेव्हा आमचे सारे दोस्त… सख्खे चुलत, मावस, मामे, आत्ये इ. इ. समारंभाचं स्वरुप नक्की करण्यासाठी पुढे सरसावले. खूपशी चर्चा, वाद, खडाजंगी, बरेचसे कप चहा, भजी, वडे आणि अन्य उपहार रिचवून झाल्यावर कार्यक्रमाचं स्वरुप निश्चित करण्यात आलं. समारंभाचे अध्यक्ष, स्वागताध्यक्ष, पुस्तक ज्यांच्या हस्ते प्रकाशित करायचं ते पाहुणे यांच्या नावांबद्दल दोस्त मंडळींच्यामध्ये खूप मतभेद झाले. अखेर खडकमाळ साखर कारखान्याचे चेअरमन हे कार्यक्रमाचे अध्यक्ष ठरले. या संदर्भात, सरस्वती ही लक्ष्मीची बटीक असून, लक्ष्मी ज्याच्या घरात पाणी भरते, त्याच्या घरात सरस्वती ही आपोआपच पाणी भरते, हा संबंध एका दोस्ताने स्पष्ट करून सांगितला आणि कार्यक्रमाचे अध्यक्ष ख.सा.का. चे चेअरमन नक्की करण्यात आले. पुढे-मागे परिसरातील एक होतकरू लेखक म्हणून गणपती बिणपती उत्सवात छोटा-मोठा सत्कार निदान ख.सा.का. च्या वतीने होईल, हा विचार अगदी मनात आला नाही, असं नाही. विद्यापीठाच्या क्रमिक पुस्तकाच्या बॉडीवर असलेल्यांपैकी एका मेंबरला प्रकाशनासाठी बोलवावं, ही वश्याची सूचना. त्यामुळे कादंबरीचा निदान पक्षी त्यातील एखाद्या उताऱ्याचा क्रमिक पुस्तकात अंतर्भाव होण्यास मदत होईल, असे त्याचे मत. स्वागताध्यक्ष म्हणून एखाद्या खासदाराला बोलवावं, म्हणजे त्यांच्याबरोबर येणाऱ्या कार्यकर्त्यांच्या लव्याजम्यामुळे थोडासा का होईना मॉब वाढेल, असं आपलं मलाच वाटलं. अखेर त्या बैठकीत कार्यक्रमाचे अध्यक्ष म्हणून ख.सा.का. चे चेअरमन आबासाहेब पाटील, स्वागताध्यक्ष खासदार नरदेव व प्रमुख पाहुणे म्हणून निर्मीती मंडळाचे सभासद प्रा.डॉ. कळंबे यांची अत्यल्प बहुमताने निवड करण्यात आली.

सकाळच्या सत्रात पुस्तक प्रकाशन, दुपारच्या सत्रात ‘‘आजची कादंबरी दशा नि दिशा” या विषयावर परिसंवाद हे नक्की झालं. निमंत्रण पत्रिकेत मात्र ‘‘दशा न् दशा” असे छापले गेले. रात्रीच्या सत्रात कविसंमेलन घ्यावे. कवी अनेक असतात. त्यामुळे अनेक जण समारंभास उपस्थित राहतील, अशी सूचना कवी म्हणून थोडंफार नाव मिळवू लागलेल्या नकुलने मांडली, पण अन्य मित्रांनी ती कल्पना फेटाळून लावली. कादंबरीचे प्रकाशन आहे, तर रात्रीच्या सत्रात कादंबरीचे अभिवाचन करावे, असे ठरले. कादंबरीवाचन परिणामकारक व्हावे, म्हणून आमच्या गावातील सुप्रसिद्ध आकाशवाणी निवेदक मनवापासून ते सुधीर गाडगीळ, तुषार दळवी, भरत जाधव, मकरंद अनासपुरे, श्रीराम लागू यांच्यापर्यंत नावे पुढे आली. आता ही माझी जानी मानी याने की जान घेऊन मान मोडू घातलेली दोस्त मंडळी मला केवढ्या खड्ड्यात पाडणार, की पाताळात गाडणार याचा अंदाजच मला बांधता येईना. कादंबरी वाचन मीच करेन, अगदी परिणामकारक… अगदी सुचवण्यात आलेल्या नावांपेक्षाही परिणामकारक, असं म्हणून मी चर्चेला पूर्णविराम दिला. अखेर कादंबरीचा जन्मदाता मी होतो ना… माझ्याइतका न्याय तिला दुसरं कोण देऊ शकेल?

प्रकाशन समारंभ पाच-सहा दिवसांवर येऊन ठेपला. मी एका संध्याकाळी सुबोधला म्हटलं, ‘‘समारंभाची रुपरेषा तशी ठीक आहे… पण?”

‘‘आता कसला पण?”

‘‘सगळ्या सत्रात श्रोत्यांची चांगली उपस्थिती असेल, तर समारंभ शानदार होणार ना? आज-काल असल्या सांस्कृतिक उपक्रमासाठी वेळ कुणाला आहे? जवळचे नातेवाईक, दोस्तमंडळी सगळ्यांच्या अडचणी त्याच वेळेत निघतात. कुणाच्याकडे अचानक पाहुणा टपकतो. कुणाकडे अगदी त्याच वेळी जवळचा कुणी तरी आजारी पडतो. श्रोतेच नसले, तर समारंभ शानदार होणार कसा?”

‘‘मी आहे ना! तू कशाला काळजी करतोस?”

‘‘तू एकटा काय करणार? त्या एखाद्या जादुई सिरिअलप्रमाणे एका सुबोधचे शंभर खुर्च्यांवर शंभर सुबोध बसवशील का?”

‘‘नाही! तसं नाही मी करू शकणार! पण शंभर खुर्च्यांवर शंभर श्रोते बसवण्याची व्यवस्था मी करू शकतो.”

‘‘असं? ते कसं?” आणि सुबोधने त्याची योजना विस्ताराने मला समजावून दिली. सुबोधचा एक दोस्त होता. त्याने म्हणे अलीकडेच एक एजन्सी उघडली होती. या एजन्सीद्वारे भाड्याने श्रोते पुरवले जायचे. ‘‘आपण आपल्या समारंभापुरते भाड्याने श्रोते आणूयात.” सुबोध म्हणाला.

‘‘झक्कास!” मी म्हटलं.

मी आणि सुबोध दुसऱ्या दिवशी एजन्सीत पोहोचलो. एजन्सीचं नाव होतं, ‘‘हेल्पलाईन फर्म.” सुबोधच्या मित्राची काही तिथे भेट झाली नाही. पण त्या फर्मच्या पी.आर.ओ. ने मोठ्या आदराने आणि विनम्रतेने आमचे स्वागत केले. सुबोध आमच्या समस्येबद्दल त्यांच्याशी बोलला. त्याने एक निवेदनपत्रवजा जाहिरात आमच्या हातात ठेवली आणि आम्हाला आत जाऊन सुशीलाजींना भेटायला सांगितलं. इंटरकॉमवरून आमच्या येण्याची सूचनाही दिली.

क्रमश:…

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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