हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 3 – गुड समरीतान – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  गुड समरीतान)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – गुड समरीतान ?

(दो सत्य घटनाओं पर आधारित यह संस्मरण है। दोनों घटनाओं को पढ़ने पर ही संपूर्ण कथा स्पष्ट हो सकेगी।)

भाग एक

समीर मुखर्जी अपने शहर के एक प्रसिद्ध कंपनी में उच्च पदस्थ व्यक्ति थे। धन -दौलत, सामाजिक प्रतिष्ठा, बड़ा सा बंगला और सुखी परिवार ये सब कुछ जीवन में अर्जित था। तीन बेटियाँ थीं जिन्हें प्रोफेशनल एज्यूकेशन दिलाकर  समयानुसार विवाह भी करवा चुके थे और वे तीनों विदेश में रहती थीं।

अब हाल ही में समीर रिटायर हुए। अति प्रसन्न थे कि अब पति-पत्नी  फ्री हो गए और  खूब घूमेंगे। कोलकाता से निकले एक लंबा अंतराल बीत चुका था, कई ऐसे रिश्तेदार थे जो बंगाल के छोटे – छोटेे गाँवों में रहते थे  जिनसे मिले कई वर्ष बीत गए थे। वे फिर उन भूले-बिसरे और शिथिल पड़े तारों को जोड़ना चाहते थे।

समीर और सुमिता कोलकाता जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उससे पहले कंप्लीट मेडिकल चेक अप करवा लेना चाहते थे। यह रेग्यूलर चेक अप था और प्रति वर्ष करवाते रहे तो खास चिंता की बात नहीं थी। पर भगवान की योजना कुछ और ही थी। सुमिता के स्कैन में आंत में कोई ग्रोथ दिखाई दिया और  प्रारंभ हुआ अनेक विभिन्न प्रकार के टेस्ट। बायप्सी हुई और पता चला कि उन्हें कैंसर था जो काफी फैल भी चुका था। दोनों पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। अब शुरू हुआ एक नया युद्ध। अस्पतालों के चक्कर, सर्जरी, और फिर कीमो। जिस घर में सुख शांति और समृद्धि का वास था वहाँ श्मशान की – सी चुप्पी छा गई। सुख और खुशियाँ न जाने किस खिड़की से बाहर निकल गए और दुख- दर्द ने घर भर में पैर पसार लिए।

समीर के बचपन के एक मित्र थे गौतम चौधरी, वे अपने शहर के  मेडिकल कॉलेज के रिटायर्ड डीन थे। अब रिटायर होने पर कोलकाता के पास एक छोटे से गाँव में अपनी विधवा बड़ी बहन को साथ लेकर रहते थे। स्वयं विधुर तथा नि: संतान थे समाज सेवा में मन लगाते थे। गाँव वालों को फ्री ट्रीटमेंट देते, सरकारी अस्पतालों से संपर्क करवाते, भर्ती करवाते और व्यस्त रहते।

उन्हें जब से सुमिता की बिगड़ती हालत की जानकारी मिली वे अक्सर समीर के घर आने लगे और न केवल अपनी बातों से सुमिता को हँसाते रहते, उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहे  बल्कि समीर के लिए बहुत बड़े इमोशनल सपोर्ट भी थे।

तीन – चार माह के भीतर ही सब कुछ खत्म हो गया। कहाँ मुखर्जी दंपति फ्री होकर घूमने – फिरने की योजना बना रहे थे और कहाँ भीषण कष्ट सहती जीवन संगिनी का साथ ही छूट गया। समीर टूट से गए। ईश्वर में जो आस्था थी वह टूट गई। जिस दिन पत्नी की अस्थियाँ बहाने गए थे उस दिन अपना जनेऊ भी न जाने क्या सोचकर नदी में बहा आए।

कुछ दिन बाद घर के छोटे से मंदिर में जितनी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और पूजा की सामग्री थी सब एक कार्टन में डालकर किसी मंदिर में छोड़ आए। गौतम लगातार  चुपचाप समीर का साथ देते रहे। वे उसके मन की हालत को समझ रहे थे। शायद स्वयं इसी दौर से गुज़र चुके थे, भुग्तभोगी थे, इसलिए समीर के दर्द की गहराई को नापने की क्षमता भी रखते थे।

सुमिता ने अपनी आँखें दान की थी, समीर ने दो महीने के भीतर उसकी सभी वस्तुएँ बेटियों और ज़रूरत मंदों में बाँट दी बस उसका चश्मा अपने पास रख लिया। गौतम समीर की मानसिकता को भली-भांति समझ रहे थे। उसे घर से दूर ले जाना जरूरी था इसलिए अपने साथ कोलकाता ले गए।

शुरू-  शुरू में समीर चुप रहते थे, हँसना मानो छोड़ ही दिया था। पर गौतम एक सच्चे दोस्त की तरह निरंतर उसका साथ दे रहे थे। कभी गंगा के तट पर घुमाने ले जाते कभी नाव में सैर कराते, कभी गंगा तट पर बैठ खगदल को अपने वृक्षों पर लौटते हुए निहारते  कभी बँधी नावों से टकराती लहरों का गीत सुनते तो कभी रेत पर बैठकर केकड़ों  के क्रिया कलाप देखते। कभी गाँवों में रहते  रिश्तेदारों से मिलवा लाते तो कभी ताश या शतरंज खेलने के बहाने उसका मनोरंजन करते। समीर के भीतर भीषण खलबली – सी मची हुई थी, जिसे केवल गौतम समझ पा रहे थे। एक बचपन का मित्र ही शायद ऐसा कर सकता है।

भाग दो

देखते ही देखते छह महीने बीत गए। समीर अब फिर से हँसने लगे, बोलने लगे लोगों से मिलकर खुशी ज़ाहिर करने लगे। जिस तरह भारी वर्षा के बाद जब बादल छँट जाते हैं तब दसों दिशाएँ चमकने लगती हैं, एक ताज़ापन-  सा प्रसरित हो उठता है। बस कुछ इसी तरह समीर भी मानो काली घटाओं को पीछे धकेलकर बाहर निकल आए थे।

घर से दूर काफी लंबे समय तक रह लिए थे। यद्यपि सुमिता के बिना घर खाली था पर उसकी यादें उसे पुकार रही थी। अब वे घर लौटना चाहते थे। वे जानते थे सुमिता के बिना घर में रहना कठिन होगा पर कब तक सच्चाई से भागते भला!

गौतम के साथ एक दिन आखिर एयरपोर्ट आ ही गए। एयरपोर्ट के बाहर ही भारी भीड़ दिखाई दी तो दोनों मित्र उस भीड़ में शामिल हुए यह देखने के लिए कि शायद कोई दुर्घटना घटी हो तो सहायता दे सकें।

देखा एक अधेड़ उम्र की महिला रो रही थी और सिक्यूरिटी व पुलिस वाले उससे सवालात कर रहे थे। पास जाकर देखा तो वह महिला समीर के बहुत दूर के रिश्ते की बहन मीनू दीदी थीं। जिनसे वह कुछ माह पहले ही मिलकर आए थे। समीर से आँखें मिलते ही मीनू दीदी “भाई मुझे बचाओ ” कहकर रोने लगीं। उसे शांत किया, पानी पिलाया, भीड़  हटाई गई। एयर पोर्ट के विसिटर लाऊँज में ले जाया गया उसे। थोड़ा स्वस्थ होने पर मीनू दीदी ने जो कुछ कहा वह सुनकर उपस्थित लोग हतप्रभ हो गए।

एक माह पूर्व उनका बेटा अमेरिका से आया था। वह जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से निकला मेधावी छात्र था। नौकरी भी अच्छी मिली थी फिर विदेश जाने का मौका मिला। कुछ वर्ष वहीं अमेरिका में काम करता रहा। शादी हुई, बच्चा हुआ हर साल एक बार परिवार को लेकर आता रहा। इस बार वह अकेला आया और माँ को साथ लेकर जाने की ज़िद करने लगा। पास – पड़ोस के लोगों ने भी मीनू दीदी के भाग्य की सराहना की कि बेटा माँ का ध्यान रखने के लिए साथ रखना चाहता है। बेटे ने कई विभिन्न कागज़ातों पर माँ के अँगूठे लगवाए। पुश्तैनी हवेली थी जिसकी गिरती हालत थी पर ज़मीन की कीमत चढ़ी हुई थी। संपत्ति अच्छे दाम पर बेचकर सारा रुपया पैसा बैंक में जमा किया गया। माँ -बेटे का जॉइंट अकाउंट था। वह निरक्षर थी, जैसा बेटा कहता गया वह करती रही। एक सूटकेस में अपने थोड़े कपड़े और गहने लेकर वे उस दिन सुबह एयरपोर्ट आए। बेटे ने माँ को एयरपोर्ट के बाहर एक काग़ज़ हाथ में लेकर बिठाया और अभी आता हूँ कहकर अपना सामान लेकर जो गया तो अब तक नहीं लौटा।

पिछले पाँच घंटों से मीनू दीदी अपने सूटकेस के साथ बैठी रही। इतनी देर से वहीं होने के कारण सिक्यूरिटी ने सवाल -जवाब करना शुरू किया। उनके हाथ में जो कागज़ थमाकर उनका बेटा गया था वह था मेट्रोरेल का टिकट!! जब उनसे पासपोर्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोलीं कि उनके पास कुछ भी नहीं हैं और पासपोर्ट क्या चीज़ होती है वे नहीं जानतीं। एक यात्री ने अपना पासपोर्ट दिखाया तो उन्होंने कहा कि उनके बेटे के हाथ में उन्होंने वैसी पुस्तक देखी थी। अमेरिका जानेवाली एवं उड़ान भर चुकी एयरलाइंस से मालूमात किए जाने पर ज्ञात हुआ कि मीनू दीदी का बेटा माँ को छोड़कर निकल चुका था।

समीर और गौतम  मीनू दीदी को गौतम के घर ले आए। बैंकों में जाकर पता किया तो पाया कि लाखों रुपये जो हवेली बेच कर मिले थे उसमें से पच्चीस हजार छोड़कर बाकी रकम मीनू दीदी के बेटे ने अपने अलग बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कर लिया था। वेलप्लैन्ड प्लॉट !!!! उफ़ भयंकर योजना!!!!

मीनू दीदी को उनके गाँव वापस तो नहीं भेज सकते थे, निंदा होती सो अलग गाँववाले जीना कठिन कर देते तिस पर अब रहने का कोई ठौर था नहीं।

कुछ दिन बाद समीर मीनू दीदी को लेकर अपनघरशहर, अपने घर लौट आए। दोनों दुखी थे एक को धोखा दिए जाने का दर्द था और दूसरे के जीवन संगिनी के विरह का दुख। पर दोनों ने एक दूसरे को संभाल लिया। सहारा दिया विश्वास और भरोसा दिया।

अब मीनू दीदी ने घर संभाल लिया। समीर की बेटियाँ आती जाती रहतीं, उनके बच्चे आते और मीनू पीशी ( बुआ ) के स्नेह का आनंद उठाते।

इस घटना ने समीर मुखर्जी को एक नई दिशा दी। मीनू दीदी के बेटे जैसे हज़ारों होंगे जो माँ – बाप को ठगते हैं, घर से निकाल देते हैं, बेसहारा कर देते हैं। उनकी निरक्षरता का संतान लाभ भी उठाती हैं। इसलिए समीर ने अपने ही बंगले के एक हिस्से में ‘ क्रेश फॉर दी ओल्ड ‘ की व्यवस्था की। जिन लोगों को कभी बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती पर बूढ़े माता-पिता को साथ लेजाना संभव न होता वे देख – रेख के लिए तथा कुछ समय के लिए अपने माता-पिता को समीर के क्रेश फॉर दी ओल्ड में छोड़ जाते। यह व्यवस्था पूरे वकालती कागज़ातों पर हस्ताक्षर लेकर पूरे  किए जाते ताकि छोड़कर भागने का मार्ग न मिले !

मीनू दीदी को घर परिवार मिला, इज्ज़त मिली, अपने मिले। वे  अपने कर्त्तव्यों को खूब अच्छे से निभाने लगीं और समीर मुखर्जी आज एक अच्छे समाज सेवक बन गए। उनका घर भर गया, अकेलापन दूर हुआ।

आज उनके इस क्रेश फॉर दी ओल्ड में दो बूढ़े पिता, एक दंपति और दो बूढ़ी माताएँ रहती हैं। मनुष्य कुछ करना चाहता है पर ईश्वर उससे कुछ और ही करवाते हैं।

आज हमारे समाज के द गुड समरीतान हैं समीर मुखर्जी!!!

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 307 ⇒ असली चाय वाला… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “असली चाय वाला।)

?अभी अभी # 307 ⇒ असली चाय वाला? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कॉपीराइट और पेटेंट के इस युग में भी किसी के नाम से उसके पेशे का पता लग पाना इतना आसान नहीं। पान वाला और चाय वाला तो इतना आम है कि उसका कॉपीराइट भी संभव नहीं। हां चाय के पेटेंट ब्रुक बॉन्ड, लिप्टन और वाघ बकरी तो हो सकते हैं, लेकिन डॉ पोहा वाला, पोहा नहीं बेच सकते और डॉ जंगलवाला, शहर में भी रह सकते हैं। हमारे साथ एक मिस बुहारी वाला थी, जिन्हें हम कभी मिस बुहारी वाली कहने की धृष्टता नहीं कर सकते थे।

किसी का नाम बड़ा छोटा हो सकता है, लेकिन कोई पेशा छोटा नहीं होता। बचपन से हम चाय पीते आ रहे हैं और कई चाय वालों से हम सबका वास्ता भी पड़ा है। जिस देश में भिखारी भी पैसे वाले होते हैं, वहां कोई भी पेशा छोटा हो ही नहीं सकता।।

उधर पूरी दुनिया अनंत अंबानी और राधिका मर्चेंट की प्री वेडिंग सेरेमनी में उलझी हुई थी और उधर माइक्रोसॉफ्ट के मालिक बिल गेट्स नागपुर के डॉली के टपरे पर खड़े खड़े चाय की चुस्कियां ले रहे थे। यह ना तो कोई विज्ञापन ही था और ना ही कोई फोटो शूट। सुनील पाटिल उर्फ डॉली चाय (जन्म 1998), वाला क्या इतना प्रसिद्ध हो गया कि बिल गेट्स उसके यहां अचानक चाय पीने चले आए और हमारे डॉली चाय वाले अपने उसी साधारण अंदाज में उसे कांच के ग्लास में चाय पेश करते नजर आएं।

भले ही यह बात इतनी आसानी से हजम नहीं हो, और सीआईडी के दया को इसमें कुछ गड़बड़ भी नजर आए, लेकिन बिल गेट्स के चेहरे पर वही सहज मुस्कान नजर आ रही है, जो हम आम चाय की चुस्कियां लेने वालों के चेहरे पर होती है। और हमारे डॉली महाराज का भी वही अंदाज जो एक आम आदमी के लिए होता है।।

यह तो तय है कि इस हैरतअंगेज तस्वीर से बिल गेट्स का कारोबार कोई छोटा तो नहीं हो जाएगा, लेकिन हां, डॉली चाय वाला, जो पहले से ही लोकप्रिय था, उसकी तो चांदी ही चांदी। एक बेचारे डॉली जैसे चाय वाले की क्या औकात कि वह बिल गेट्स जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती को अपने यहां, डॉली के टपरे पर चाय पर बुलाए।

चुनाव के दिनों में राजनीतिक नेता ऐसे स्टंट करते रहते हैं। लेकिन बिल गेट्स तो मोदी जी के मित्र ट्रम्प भी नहीं, जो यहां आकर इस तरह एक चाय वाले का प्रचार करेंगे। हमें तो बिल गेट्स की चाय में कोई काला नजर नहीं आता। लेकिन हां, वह चाय की पत्ती जरूर हो सकती है।।

सियासत की राजनीतिक पैनी नजर भले ही अभी तक इस डॉली चाय वाले पर नहीं गई हो, लेकिन हमारा चाय वाला दिमाग ऐसा है जो ऐसे मौकों को कभी हाथ से नहीं जाने दे सकता ;

शायद आगामी लोकसभा चुनाव का खयाल

दिल में आया है।

इसीलिए बिल गेट्स को प्रचार के लिए

डॉली के टपरे पे

बुलाया है ..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 265 ☆ संस्मरण – लंदन से 1 ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय संस्मरण लंदन से 1

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 265 ☆

? संस्मरण लंदन से 1 ?

ब्रिटेन की पार्लियामेंट के सामने ही महात्मा गांधी मिले।

मंद ठंडी बयार में लहराते कामनवेल्थ देशों के झंडे, अन्य अनेक महापुरुषों के बुतों के साथ अपने अंदाज में सत्य की लाठी के साथ डटे हुए।

लंदन में अपनी मांग, आवाज, आंदोलन, इसी पार्क में उठाई  जाती हैं। (भारत के जंतर मंतर की तरह)

यद्यपि इंग्लैंड में बब्बर शेर या टाइगर  नहीं होते, पर फिर भी इसे इंग्लैंड के राष्ट्रीय पशु के रूप में मान्यता दी गई है।

यहां की महत्वपूर्ण इमारतों के स्वागत द्वार पर शेरों की मूर्तियां लगी हुई हैं।

शेरों को लंबे समय से ताकत के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह जंगल का सर्वथा शक्तिशाली प्राणी होता है।

इंग्लैंड के इतिहास में 12 वीं सदी से यहां के शासको प्लांटैजेनेट परिवार के समय से सिंह की छबि और मूर्तियों को सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रतिपादित किया गया, और यह परंपरा आज तक कायम है।

दरअसल इंग्लैंड की संस्कृति में धरोहर, परंपरा और इतिहास को बहुत महत्व दिया जाता है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

लंदन से 

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 – लघुकथा – कोरी साड़ी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा कोरी साड़ी ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 ☆

☆ लघुकथा 🌹 कोरी साड़ी 🌹

शहर, गाँव, महानगर सभी जगह चर्चा थी, तो बस सिर्फ महिला दिवस की। छोटी बड़ी कई संस्था, कई ग्रुप और हर विभाग में कार्यशील महिलाओं के लिए जैसे सभी ने बना रखा था महिला दिवस।

हो भी क्यों न महिला नारी – –

म – से ममता

ह – से हृदय

ल – से लगती

ना – से नारी

री- से रिश्ते

ममता हृदय से लगती सभी नाते रिश्ते वह कहलाती नारी या महिला मातृशक्ति।

ठीक ही है बिना नारी के सृष्टि की कल्पना करना भी एक बेकार की चीज होगी। शहर में घर-घर बाईयों का काम करके अपना जीवन, घर परिवार चलाना आम बात है।  जीवन का सब भार संभाले रहती है, चाहे उसका पति कितना भी नशे का आदी क्यों न हो, निकम्मा क्यों न हो या कुछ भी पैसा कमा कर नहीं दे रहा हो।

परंतु महिलाएं इसी में खुश रहकर बच्चों का पालन पोषण करती है और शायद संसार में सबसे सुखी दिखाई देती है।

बंगले में काम करते – करते अचानक माया को आवाज सुनाई दिया – माया मुझे एक जरूरी फंक्शन में जाना है जल्दी-जल्दी काम निपटा लो।

वहाँ क्या होगा मेम साहब? माया ने पूछा। मेमसाहब पलट कर बोली पूरे साल में एक दिन हम महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। गिफ्ट और शील्ड, सम्मान पत्र मिलते हैं।

अच्छा जी… कह कर माया अपने काम में लग गई। परंतु तुरंत ही पलट कर माया को देखते हुए मेमसाहब.. हंसने लगी वाह क्या बात है? आज तो तुम बिल्कुल नई कोरी साड़ी पहन कर आई हो।

माया ने हाथ की झाड़ू एक ओर सरकाकर कोरी साड़ी पर हाथ फेरते बोली.. मुझे भी मेरे मरद ने आज यह कोरी साड़ी दिया। सच कहूँ मेमसाहब मुझे तो पता ही नहीं।

यहाँ आने पर पता चला कि मेरा मरद मुझे कितना प्यार करता है। एकदम दुकान से चकाचक कोरी साड़ी लाकर दिया है। सच मेरी तो बहुत इज्जत करता है।

माया के चेहरे के रंग को देखकर उसके मेमसाहब के चेहरे का रंग उड़ गया। वह जाकर आईने के पास खड़ी हो गई। उसके बदन पर जो साड़ी थी। आज उसे वह कई जगह से दागदार दिखाई दे रही थी।

क्योंकि आज सुबह ही उसके पति ने चाय की भरी प्याली उसके शरीर पर फेंकते हुए कहा था… ले आना जाकर अपना महिला सशक्तिकरण का सम्मान। चाहे घर कैसा भी हो।

पीछे से माया की आवाज आ रही थी…सुना मेमसाहब वह मेरा मरद मेरे लिए सम्मान पत्र नहीं लाया, परंतु आज सिनेमा की दो टिकट लाया है।

हम आज सिनेमा देखने जाएंगे। अच्छा मैं जल्दी-जल्दी काम निपटा लेती हूँ। बाकी का काम  कल कर लेगी। मेरी कोरी साड़ी मेरे मोहल्ले वाले भी देखेंगे। मैं तो चुपचाप पहन कर आ गई थी। अब जाकर बताऊंगी कि आज महिला दिवस है।

मेमसाहब सोच में पड़ गई.. कैसा और कौन सा सम्मान मिलना चाहिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 74 – देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 74 ☆ देश-परदेश – राजस्थान की परंपराएं ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विविधता वाले हमारे देश में जब हर आठ कोस पर बोली बदल जाती है, तो हर क्षेत्र और प्रदेश की परंपरा भी भिन्न भिन्न होना स्वाभाविक है।

राजस्थान में मरुस्थल बहुत बड़े भाग में फैला हुआ है। इसलिए खान पान भी वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार ही होता है।

जयपुर में हनुमान जी का एक प्रसिद्ध स्थान ” खोले के बाला जी” है। यहां वर्षों से लोग अपनी मुरीद पूरी हो जाने पर भगवान को भोग लगा कर प्रसादी वितरण कर पुण्य अर्जित करते आ रहें हैं।

शहर के करीब हो जानें से भीड़ अधिक होना स्वाभाविक है। कुछ माह पूर्व राज्य सरकार ने मंदिर परिसर में “रोप वे” की व्यवस्था करवा दी है। आज हम जब वहां गए तो उसके किराए में सत्तर वर्ष की आयु पर छूट की जानकारी थी। हमने भी मानस बना लिया दो वर्ष बाद आकर इस सुविधा का लाभ अवश्य लेंगे।

यहां पर 24 रसोइयां हैं, और एक समय में पांच हज़ार भक्त प्रसाद ग्रहण कर सकते हैं।

आज रविवार का दिन होने पर भी भीड़ कम दिखी, तब दिमाग के घोड़े दौड़ाए तो ज्ञात हुआ कि पेट्रोल पंप वाले हड़ताल पर हैं। हम मित्र तो कार में बैठने की शत प्रतिशत सुविधा का उपयोग कर शहर की आबो हवा को दुरस्त रखने में तो विश्वास करते ही है,साथ ही साथ अपने लाभ के हित भी साध लेते हैं।

आज के कार्यक्रम में अकेले ही जाना पड़ा क्योंकि श्रीमती जी अस्वस्थ है, हमने भी मौके का लाभ लिया और पेट भर कर दाल बाटी और तीन प्रकार के चूरमा का दबा कर सेवन किया, श्रीमती जी साथ रहती है, तो शुगर रोग के नाम से मीठे और मोटापे में वृद्धि को नियंत्रण में रखने के बहाने प्रतिबंध लगा देती हैं।

परिवर्तन पारंपरिक भोजन में भी हुआ हैं। धार्मिक आयोजनों में चावल भी परोसे जाना लगा है। कुछ दिन पूर्व एक गुरुद्वारे में लंगर प्रसाद ग्रहण किया वहां भी चावल परोसे जा रहे थे। पूर्व में सिर्फ गेंहू की रोटी ही होती थी। वहां एक बजुर्ग सिक्ख से इस बाबत बातचीत हुई तो उन्होंने बताया की पांच दशक से पंजाब में भी चावल की खेती बहुत बड़े स्तर पर होने से चावल अब दैनिक भोजन का हिस्सा बन गया हैं।

आप जब भी कभी “खोले के हनुमान” में प्रसादी करवाएं,तो हमें अवश्य याद रखियेगा।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ निःस्वार्थी मरण… ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

श्रीशैल चौगुले

? कवितेचा उत्सव ?

निःस्वार्थी मरण ☆ श्रीशैल चौगुले ☆

मी संपताना नव्हते जवळ कुणी

जे होते कुणी पाहिले प्राण जाणूनी.

*

हेवा कधीच नव्हता केला कुणाचा

सेवा केली जितुकी आपुले मानूनी.

*

कौतुके फुलांची श्रध्दांजली तयांची

स्वीकार आत्मऋणे आशेत सगुणी.

*

मी संपताना जिव्हाळे बाकी जपले

आक्रोश खरा कि खोटा दुःख आणूनी.

*

डोळ्यात पाणी कुणाच्या, कुणा कोरडे

जन्मास या अर्पीले कर्म मृत्यू मानूनी.

© श्रीशैल चौगुले

मो. ९६७३०१२०९०.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #228 ☆ भूमिका* अनलज्वाला… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 228 ?

भूमिका* अनलज्वाला ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

सर्व निजानिज झाल्यानंतर निजते बाई

सूर्य उगवण्या आधी रोजच उठते बाई

*

चारित्र्याला स्वच्छ ठेवण्या झटते कायम

कपड्यांसोबत आयुष्याला पिळते बाई

*

चूल तव्यासह भातुकलीचा खेळ मांडते

भाकर नंतर त्याच्या आधी जळते बाई

*

ज्या कामाला किंमत नाही का ते करते ?

जो तो म्हणतो रिकामीच तर असते बाई

*

सासू झाली टोक सुईचे नवरा सरपण

रक्त, जाळ अन् छळवादाने पिचते बाई

*

तिलाच कळते कसे करावे गोड कारले

कारल्यातला कडूपणाही गिळते बाई

*

पत्नी, मुलगी, बहीण, माता, सून, भावजय

एकावेळी किती भूमिका करते बाई

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ छोड आये हम वो गलियाँ… ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

?  विविधा ?

☆ छोड आये हम वो गलियाँ ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

गुलजार! शब्दांचा बादशहा, कल्पनातीत कल्पनांचा जादूगार, हरएक रंगांचे गुलाब फुलवून त्यांची बागच शारदेच्या पायी वाहण्याची मनिषा बाळगणारा – गुलजार! त्यांनी किती समर्पक नांव निवडलंय स्वतःसाठी! त्यांचं खरं नांव संपूर्णसिंह कालरा. पंजाब मधील दीना या गावी १८ऑगस्ट १९३६ मध्ये त्यांचा जन्म झाला. हा भाग आता पाकिस्तान मध्ये आहे. फाळणीनंतर त्यांचे कुटुंब अमृतसरला स्थायिक झाले. काम शोधण्यासाठी प्रथम त्यांचा मोठा भाऊ मुंबईला आला. नंतर त्याने गुलजार यांना बोलावून घेतले. ते लहान मोठी कामे करू लागले. कविता लिहिण्याची, वाचनाची आवड होतीच. एका गॅरेज मध्ये मेकॅनिक म्हणून काम करीत असताना सचिन देव बर्मन आपली गाडी घेऊन आले होते. त्यावेळी त्यांना हा मेकॅनिक शायर भेटला. त्याने आपल्या कविता बिमल रॉय, हृषिकेश मुखर्जी यांना वाचून दाखवल्या. आणि बिमल रॉय यांनी ‘ बंदिनी ‘ या चित्रपटासाठी गाणे लिहायला सांगितले. ‘ मोरा गोरा अंग लै ले, मोहे शाम रंग दै दे ‘ हे त्यांचं पहिलं गाणं सगळ्यांना खूप आवडलं आणि ते बिमल रॉय यांचे सहाय्यक म्हणून काम करू लागले, मग त्यांनी मागे वळून पाहिलंच नाही. हा कल्पनांचा झरा गेली ६-७ दशके अव्याहत वाहतो आहे.

अध्यात्मापासून प्रणय गीतांपर्यंत सर्व विषयांना हात घालणारे रवींद्रनाथ टागोर, शायरी हा आत्मा असणारा गालिब, मीरेची पदे, गीतकार शैलेंद्र आणि पंचमदांचे हास्याचे फुलोरे या सर्वांनी गुलजार यांना भुरळ घातली आणि सारे त्यांचे गुरू बनले. हिंदी व उर्दू वर प्रभुत्व असणाऱ्या या कवीचे प्रेम मात्र बंगालीवर होते, त्याशिवाय खडी बोली, ब्रज भाषा, मारवाडी, हरियाणवी या भाषांतही त्यांनी लिखाण केले आहे. त्यांचे कित्येक कविता संग्रह, कथा संग्रह प्रकाशित झाले आहेत. ‘रावीपार ‘  हा त्यांचा कथासंग्रह खूप गाजला. कुसुमाग्रज यांच्या मराठी कवितांचे व टागोरांच्या बंगाली कवितांचे हिंदीत भाषांतर त्यांनी केले. त्यांची मुलगी मेघना १३ वर्षांची होईपर्यंत दर वाढदिवसाला तिच्यासाठी गोष्टी, कविता लिहून त्याचे पुस्तक भेट देत होते.त्यांचे ‘चड्डी पेहेनके फूल खिला हैं ‘ गाणं माहीतच आहे. याशिवाय त्यांनी कित्येक चित्रपटांच्या पटकथा, संवाद लिहिले आहेत, जसे आनंद, गुड्डी, बावर्ची, कोशिश, आँधी, मासूम, रुदाली एकापेक्षा एक सरस!गाणी पण  काय, तुझसे नाराज नाही, चिठ्ठी आयी है, इस मोडसे जाते हैं, मेरा कुछ सामान अशी कित्येक गाणी आहेत की त्यातल्या कल्पना भन्नाट आहेत. हळुवार व संवेदनशील कथा, अर्थपूर्ण व आशयघन गाणी हे त्यांचं वैशिष्ट्य ! ‘ मेरे अपने ‘ या चित्रपटापासून ‘ हू तू तू ‘ पर्यंत बऱ्याच चित्रपटांचं दिग्दर्शन, किताबें झांकती हैं बंद अलमारीके  शीशोंसे, दिलमें ऐसें ठहर गये हैं गम, आदमी बुलबुला हैं पानीका अशी भावनाप्रधान शायरी! किती आणि काय काय!

कवितांतून ते कधी ईश्र्वराशी गुजगोष्टी करतात, कधी  त्याला निरक्षर म्हणतात, कधी त्याचे अस्तित्व नाकारतात. विषय दाहक असो वा कोमल, अतिशय संयमित शब्दात आशय पोहचविण्याचे काम त्यांची कविता करते. आज नव्वदीत सुध्दा त्यांच्या कविता, शायरी तरुणांनाही भावते. कुणीतरी असं म्हटलंय की गुलजार शब्दांच्या चिमटीत काळाला धरून ठेवतात, त्यामुळे त्यांची कोणतीही कविता आजची, कालची व उद्याचीही असते. ते कवितेत प्राण फुंकतात.

नुकताच गुलजार यांना ज्ञानपीठ पुरस्कार जाहीर झाला, आणि प्रत्येक भारतीयाला मनापासून आनंद झाला. त्यांच्याबद्दल काय आणि किती लिहायचं असं झालंय. थोडं लिहून कौतुक संपेल असं हे कामच नाही. पण प्रत्येकाला काही लिहावं असं वाटतंय.त्यांना मिळणारा हा सर्वोच्च पुरस्कार असला तरी त्यांना मिळालेल्या पुरस्कारांची यादीही मोठी आहे.२००२ मध्ये साहित्य अकादमी पुरस्कार,२००४ मधे पद्मभूषण, २०१३ मधे दादासाहेब फाळके पुरस्कार, साधारण २० वेळा फिल्म फेअर, २००९ मधे स्लमडॉग मिलेनियम या चित्रपटातील ‘ जय हो ‘ या गीत लेखनासाठी सर्वश्रेष्ठ ऑस्कर पुरस्कार मिळाला आहे. इतके पुरस्कार मिळून सुध्दा पाय जमिनीवर असणारा हा अवलिया प्रसिध्दी व ग्लॅमर या पासून कायमच दूर राहिला. स्वतःच्या तत्वांवर जगला. कुणीतरी ऑस्कर घेण्यासाठी कां गेला नाहीत असे विचारल्यावर

मिस्किलपणे म्हणतात, त्यांचा ड्रेस कोड असणारा काळा कोट माझ्याकडे नाही आणि मला काळा कोट देईल असा कोणी माझा वकील मित्रही नाही. जन्माने शीख असणारे गुलजार, लग्न हिंदू स्त्री बरोबर करतात, मीनाकुमारी आजारी पडल्यावर तिचे रोजे करतात. सहज न समजणारा माणूस! कदाचित त्यांच्या तरुणपणी त्यांनी देशाची फाळणी अनुभवली, त्यानंतरचा नरसंहार, कुटुंबाची फरफट डोळ्यांनी पाहिली. नंतर त्यांनी पाकिस्तानला जाऊन त्यांचं जुनं घर, ती गल्ली पाहिली म्हणे. त्यांच्या कवितांमधूनही तो ‘ दर्द ‘ डोकावतो. कदाचित त्यामुळेच त्यांच्या मनातले हे दुःख  शब्दात आले असावे –

‘छोड आये हम वो गलियाँ’

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री, मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ तीन लघुकथा – (१) कर्तव्यदक्ष पोलिसांना सलाम… (२) लेकीची माया (३) प्रेम द्यावं आणि प्रेम घ्यावं… ☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित ☆

सौ राधिका माजगावकर पंडित

? जीवनरंग ?

तीन लघुकथा (१) कर्तव्यदक्ष पोलिसांना सलाम… (२) लेकीची माया (३) प्रेम द्यावं आणि प्रेम घ्यावं… ☆ सौ राधिका माजगावकर पंडित

(१) कर्तव्यदक्ष पोलिसांना सलाम..

फिरायला जातांना तिची पावलं नकळत सुनसान रस्त्या कडे वळली. बापरे ! इथे तर वर्दळच नाहीय्ये. घाबरून ती मागे वळली तर , दोन माणसं तिच्या मागून येत होती. तिला घाम फुटला. घाबरून ती किंचाळणार  होती,  इतक्यातं ती व्यक्ती म्हणाली, ” घाबरू नका,आम्ही  गुप्त पोलीस आहोत. केव्हापासून तुमच्या मागून चाललो आहोत .

“अहो पण का? मी–मी –काहीच गुन्हा केला नाही.”

” ताई तुम्ही नाही काही गुन्हा केलात , पण एक गुन्हेगार तुमच्या मागावर असून तुमच्या गळयातल्या   मंगळसूत्राकडे त्याचं लक्ष आहे .तुमच्या संरक्षणासाठी आम्ही तुमच्या मागे केव्हापासूनच चालत आहोत .तिचा हात गळ्याकडे गेला.खोटं मंगळसूत्र तिने चाचपलं. खुलासा करण्यासाठी ती काही बोलणार होती,पण ती थबकली.पोलिसांच्या दक्षतेच, स्रिदाक्षिण्याचं  तिला फार कौतुक वाटलं. ती म्हणाली, “तुमच्या कर्तव्य तत्परतेच आणि स्रि दाक्षिण्याचं  कौतुक करावं  तेवढं  थोडचं आहे. खूप आभारी आहे मी तुमची. असं म्हणून पुढचं काही न बोलता खोटं मंगळसूत्र तिने पदराड लपवलं . “धन्यवाद “असं म्हणून ती पुढे झाली.

(२) लेकीची माया 

दमून भागून कामावरून घरी आली होती ती.अजून मजूरी मिळाली नव्हती. घरात शिरतांना फाटक्या फ्रॉकच्या घेरात कसला तरी पुडा लपवतांना चिंगी दिसली तिला. इथं पैन पै वाचवतेय मी. आणि ही बया चोरून खाऊचे पुडे आणून खातीय.डोकं फिरलं तिचं.तिने दणकन लेकीच्या पाठीत धपाटा मारला .घाबरून पोरगी स्वयंपाक घरात पळाली. तिरिमिरीत माय  भिंतीला टेकून बसली. स्वतःची, साऱ्या जगाची, आपल्या परिस्थितीची चीड आली  होती तिला. डोळे भरून आले.तिच्या समोर चिंगी उभी होती.”,म्हणत होती, “रडू नकोस ना गं माय.भूक लागलीआहे ना तुला? सकाळपासून उपाशी आहेस. घरात काहीच नव्हतं. म्हणून टपरी वरून चहा आणि बिस्किट पुडा आणलाय तुझ्या साठी.माझ् ऐकून तर घे मगासारखं मारू नकोस ना मला! आई पैसे चोरले नाहीत मी.बाबांनी खाउला दिलेल्या पैशातून तुझ्यासाठी पुडा आणायला गेले होते. एका हातात मघाशी लपवलेला बिस्किटाचा पुडा,आणि दुसऱ्या हातांत कपबशी घेऊन लेक विनवत होती. घे ना !खरच हे चोरीचे पैसे नाहीत  माय. आवेगाने तिने चिंगीला मिठीत घेतलं  आईच्या माराने कळवळून आलेले डोळ्यातले अश्रू चिंगीच्या चिमुकल्या गालावर सुकले होते. तिला भडभडून आलं.उगीच मी लेकरावर परिस्थितीचा राग काढला. एका हाताने चिंगी आईला बिस्कीट भरवत होती.आणि फ्रॉकनें आईचे डोळे पुसत होती. आता लेक झाली होती माय. आणि माय झाली होती लेक. खरंच लेक असावी तर अशी. मित्र-मैत्रिणींनो  आपल्या लेकीवर भरभरून माया करा.खूप खूप भरभरून प्रेम द्या मुलांना ..  धन्यवाद 

(३) प्रेम द्यावं आणि प्रेम घ्यावं…

मुलाचे लग्न कालच झालं.आणि आज ऋतुशांती पण झाली.  सगळीकडे निजानीज झाली होती. इतक्यात खोकल्याचा आवाज  आला.

‘अगोबाई हे काय? हा तर रूम मधून येणारा नव्या सुनबाईंच्या खोकल्याचा आवाज!. येणारी खोकल्याची ढासं थांबतचं नाही  .

घड्याळाचे कांटे पुढे सरकत होते कोरडा खोकला   कसा तो थांबतच नाहीय्ये  बाई!    काय करावं?”!.नवी नवरी बिचारी, कालच आलीय आपल्या घरात. कुणाला आणि कसं सांगणार बापडी, सगळंच नवखं.    स्वतःशी  पुटपुटत, असा विचार करत असतानाच सावित्रीबाईना एकदम आयडिया   सुचली.लगबगीने त्या स्वयंपाकघरात शिरल्या.लवंग काढून त्यांनी, ती भाजून कुटून बारीक केली. मधात कालवली. दरवाज्यावर टकटक करून,अर्धवट उघडलेल्या दरवाज्यातून त्यांनी ती वाटी  अलगद आत सरकवली.आणि म्हणाल्या” सूनबाई हे चाटण चाटून घे हो ! खोकल्याची ढासं थांबेल. वाटी घेतांना नवपरिणीत नवरीच्या डोळ्यातून कृतज्ञता ओसंडून वाहत होती .जरा वेळाने ढासं कमी होऊन खोकल्याचा आवाज बंद  झाला .आणि खोलीतून शांत झोपेच्या,घोरण्याचा आवाजही आला. सावित्रीबाई गालांतल्या गालात हसून मनांत म्हणाल्या’ प्रेम आधी द्याव लागतं.मग ते दुपटीने आपल्याला परत मिळतं .  माझ्या आईचा  सासूबाईंचा  वसा आपण  पुढे  चालवायलाच  हवा नाही कां? सकाळी  लवकर उठून, न्हाहून, फ्रेश होऊन, उठल्यावर सूनबाई सासूबाईंच्या पाया पडताना हसून म्हणाली, “आजपासून मी तुमची सून नाही.तर मुलगी झालें, लेकीच्या मायेने विचारते, मी …. ए आई म्हणू का तुम्हाला?” असं म्हणून ती लाघवी पोर अलगदपणे   सासूबाईंच्या कुशीत शिरली .

लेक नव्हती नां सावित्रीबाईंना ! जन्म दिला नसला म्हणून काय झालं?  सूनही  लेक होऊ शकते नाही कां?

दोन्ही बाजूनी  सकारात्मक विचारांनी , समजूतदारपणे,  प्रेमाची देवाण-घेवाण झाल्यावर सासु सुनेच विळा आणि  भोपळा अशा नावाने बदनाम झालेलं नातं  दुध साखरेसारखे एकरूप  पण होऊ शकत   हो नां?     आणि मग साध्या गोष्टीतून उगवलेलं त्यांचे हे प्रेम चिरंतन कालपर्यंत टिकलं  त्यामुळेच त्या घराचं नंदनवन झालं आणि  मग घरचे पुरुषही निर्धास्त झाले.  कौटुंबिक कथा असली तरी प्रत्येक घराघरांतली ही कहाणी सुफळ संपूर्ण होवो.  ही सदिच्छा .  

© सौ राधिका माजगावकर पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ “कविता आणि मी…” ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ “कविता आणि मी…” ☆ सौ राधिका भांडारकर 

कळत नकळत आपल्या जीवनाची जडणघडण होत असताना कुणाकुणाच्या आपल्या आयुष्यातील जागा  ठळकपणे ठरत जातात. आपले कुटुंबीय, आपले गुरुजन, आपले सखे सोबती,अफाट निसर्ग, इतकेच नव्हे तर आपले प्रतिस्पर्धी, विरोधक यांना सुद्धा आपल्या जीवनात कोणते ना कोणते स्थान असतेच.

माझेही जीवन  यापेक्षा वेगळे नाही. पण जेव्हा जेव्हा मी सखोलपणे माझ्या वर्तमान आणि गतायुष्याचा विचार करते तेव्हा मला जाणवतं की  मला आयुष्यात खूप काही मिळालं ते भाषिक साहित्यातून. कथा, कादंबऱ्या, कविता,चरित्रं, ललित साहित्याचा हात धरूनच मी वाढले आणि गद्य आयुष्य जगत असताना पद्यांनी माझ्या भोवती सदैव एक हिरवळ जपून ठेवली.

या माझ्या जीवनात कवितांचे स्थान काय याचा विचार करत असताना मनात आलं ही कविता तर माझ्यासोबत जन्मानंतरच नव्हे तर जन्मापूर्वीही होतीच की! मातेच्या उदरात वाढत असताना

। ये ग ये ग विठाबाई।

। दहीभाताची उंडी घालीन तुझ्या तोंडी।

 ।कौसल्येचा राम बाई कौसल्येचा राम।

हले हा नंदाघरी पाळणा।। 

किंवा 

कन्हैया बजाव बजाव मुरली।  

…. अशी अनेक गाणी माझ्या आईने तिच्या उदरात वाढणाऱ्या गर्भाला गोंजारून म्हटलीच असणार आणि ते नाद ते शब्द माझ्यात, गर्भात असतानाच झिरपले नाही का?

त्याच माझ्या मातेने मांडीवर थोपटत “निज निज रे लडिवाळा” किंवा “ये ग गाई गोठ्यामध्ये बाळाला दूध दे वाटीमध्ये”  “आडगूळ मडगुळ सोन्याचं कडगुळं” अशी कितीतरी बडबड गीतं गाऊन मला जोजवलं, वाढवलं.

“ उठा उठा चिऊताई सारीकडे उजाडले डोळे तरी मिटलेले अजूनही”

असेच म्हणत मला झोपेतून जागं केलं. त्यावेळच्या या बाल कवितेने जीवनातला केवढा तरी मोठा आशय नंतर दाखवलाही.

जेवू घालताना तिने

“ चांदोमामा चांदोमामा भागलास का?” म्हणत माझ्या मुखी अमृततुल्य वरण भाताचे घास भरवले.

कधी रडले, कधी रुसले तर,

“ रुसु बाई रुसु कोपऱ्यात बसू तिकडून आला बाई कोणीतरी खुदकन हसू” शिवाय “लहान माझी बाहुली मोठी तिची सावली”

“ पाऊस आला मोठ्ठा पैसा झाला खोटा”

“ ये ग ये ग सरी माझे मडके भरी” अशा अनेक गीतांनी माझं बालपण बहरलं. मला सदैव हसवलं, आनंदी ठेवलं आणि संस्कारितही केलं.

केव्हातरी रात्र उलटून गेली…  बालपण सरलं  पण कवितांनी कधीच सोबत सोडली नाही. त्यावेळी अंकुरलेल्या   कोवळ्या प्रीतीच्या भावना जाणवणारे उद्गार मीही कागदावर  उतरवले असतील.त्या कविता मात्र फक्त माझ्या आणि माझ्या अंतर्मनात घुमणारी स्पंदने होती.

त्यावेळी 

“जेथे सागरा धरणी मिळते तेथे तुझी मी वाट पाहते” या काव्य शब्दांनी माझ्याही मनातली अव्यक्त, अनामिक हुरहुर जाणवून दिली होती.

आयुष्याचे कितीतरी टप्पे ओलांडले. तळपत्या उन्हात रस्त्यावरचे वृक्ष जसे सावली देतात ना तशी शितल छाया मला केशवसुत, पाडगावकर, विंदा, बोरकर, ग्रेस, वसंत बापट, शांताबाई, बहिणाबाई, इंदिरा संत आणि कितीतरी…. यांच्या कवितांनी दिली.

 विमनस्कपणे स्वपदे उचलीत

 रस्त्यातुन मी होतो हिंडत 

एका खिडकीतून सूर तदा पडले 

दिड दा दिड दा दिड दा…

केशवसुतांच्या या सतारीच्या बोलांनी तर कित्येक वेळा माझ्या आयुष्यात दाटलेला काळोख दूर केलेला आहे.

“मोडून पडला संसार तरी मोडला नाही कणा

पाठीवर हात ठेवून नुसते लढ म्हणा..”

या काव्यांने तर जादूच केली म्हणा ना! सकारात्मक जीवन जगण्यासाठी जणूं काही मजबूत दरवाजे उघडून दिले..

 झाकळूनी जळ गोड काळीमा पसरे

 लाटांवर

 पाय टाकुनी जळात बसला असला औदुंबर 

किंवा 

हिरवे हिरवे गार गालिचे 

हरित तृणांच्या मखमलीचे 

त्या सुंदर मखमाली वरती 

फुलराणी खेळत होती…

बालकवींच्या या कवितांनी तर निसर्गाशी मैत्रीच घडवली. वृक्षवेलींशी संवाद साधला.

 “लेकीच्या माहेरासाठी माय सासरी नांदते”

या बहिणाबाईंच्या रसाळ काव्यपंक्तींतून तर जीवनातल्या तत्त्वज्ञानाचे कोडे अगदी सहजपणे सोडवले. काळ्या मातीशी नातं जोडलं.

कवी ग्रेस संपूर्णपणे नाही उमगले. पण

 “ती गेली तेव्हा रिमझिम पाऊस निनादत होता

 मेघात अडकली किरणे हा सूर्य सोडवत होता…”

 या ओळींनी मन अक्षरशः घनव्याकुळ झाले.

 हा रस्ता अटळ आहे 

अन्नाशिवाय कपड्याशिवाय 

ज्ञानाशिवाय मानाशिवाय

 कुडकुडणारे हे जीव 

पाहू नको, डोळे शिव!

 नको पाहू जिणे भकास

 ऐन रात्री होतील भास 

छातीमध्ये अडेल श्वास

 विसर यांना, दाब कढ

 माझ्या मना बन दगड…

 विंदांनी तर खिळे ठोकावे तसे शब्द आणि विचार मनावर अक्षरशः ठोकले. आणि दमदारपणे जगण्याची कणखर प्रेरणा दिली.

 “माझी मैना गावाकडे राहिली

 माझ्या जीवाची होतीया काहिली” शाहीर अण्णाभाऊंच्या या कवितांनी तर अनेक वेदनांना उघडं केलं.

 “होऊ दे जरा उशीर सोडतोस काय धीर रात संपता पहाट होई रे पुन्हा

 देवाक काळजी रे माझ्या देवाक काळजी रे …

गुरु ठाकूर यांचे हे गीत खरोखरच मनातले अंधारलेले कप्पे क्षणात उजळून टाकतात. आधार देतात.

अशा कितीतरी कविता …

आयुष्यात उचललेल्या प्रत्येक पावला सोबत येत गेल्या. कविता माझ्या जीवनात सदैव सावली सारख्या सोबत असतात. 

“तेरी आवाज मे कोई ना आये

 तो फिर चल अकेला रे, 

यदि सभी मुख मोड रहे सब डरा करे 

 तब डरे बिना ओ तू मुक्तकंठ

 अपनी बात बोल अकेला रे

 तेरे आवाज पे कोई ना आये तो फिर चल अकेला रे 

रवींद्रनाथ टागोरांच्या या कवितेने जीवन वाटेवरचे काटे अगदी सहजपणे वेचायला शिकवले, नव्हे त्या काट्यांनाच बोथट केले.

कवितांचे आपल्या जीवनात  स्थान काय याविषयी काही भाष्य करताना मी वर्ड्सवर्थच्याच  शब्दात म्हणेन

FOR OFT WHEN ON MY COUCH I LIE

IN VACCANT OR IN PENSIVE MOOD 

THEY FLASH UPON THAT INWARD EYE

WHICH IS THE BLISS OF MY SOLITUDE

AND THEN MY HEART WITH PLEASURE FILLS

AND DANCES WITH THE DAFFODILS….

जेव्हां मी एकटी असते, उदास लेटलेली असते तेव्हां खरोखरच —रेताड, रुक्ष  वाळवंटात ठिकठिकाणी उगवलेली सोनेरी डॅफोडील ची फुले जशी मनाला प्रसन्न करतात तसं कवितांनी माझं मन टवटवीत ठेवलं.

 अंगणात प्राजक्ताचा सडा बरसावा  तसे कवितांनी माझ्या आयुष्यात आनंदाचे शिंपण केले.

 कवितांच्या अथांग सागराने माझी जीवन नौका  डुबु  दिली नाही. तिला पैल तीरावर सांभाळून नेले.

 जोडीदाराच्या हातात हात घालून पैल तीर गाठतानाही सुहास पंडितांच्या या काव्यपंक्तीच मनावर रेंगाळतात.

धकाधकीच्या जीवनातले 

क्षण शांतीचे वेचून घेऊ 

तुडुंब भरले कुंभ सुखाचे

 हासत पुढच्या हाती देऊ

 खूप जाहले खपणे आता

 जपणे आता परस्परांना

खूप जाहला प्रवास आता

 गाठू विश्रांतीचा पार जुना….

मातीतून मातीकडे जाताना, मातीत पेरलेल्या या  महान कवींच्या कवितांनी आयुष्यभर दीपस्तंभ सारखी सोबत केली. बेडा पार किया..

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈