हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 59 ☆ व्यंग्य – कन्या-दर्शन का कार्यक्रम ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘कन्या-दर्शन का कार्यक्रम ’।  हम कितने भी पढ़ लिख लें , कन्याओं को कितना भी पढ़ा लिखा दें किन्तु, कन्या-दर्शन के कार्यक्रम के लिए लड़की के परिवार को मानसिक रूप से तैयार होना ही पड़ता है । डॉ परिहार जी ने इस व्यंग्य के माध्यम से सारे समाज को आइना दिखा दिया है।  युवा पीढ़ी द्वारा अंतरजातीय विवाह एवं प्रेम विवाह संभवतः ऐसी परम्पराओं को नकारने  का एक कारण हो सकता है जिसे अंततः दोनों परिवार स्वीकार कर लेते हैं। इस  सार्थक व्यंग्य  के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 59 ☆

☆ व्यंग्य – कन्या-दर्शन का कार्यक्रम 

हमारे देश में नारी-स्वातंत्र्य और दहेज-विरोध को लेकर बड़ा शोरगुल होता है।  लेख लिखे जाते हैं,  फोटोदार परिचर्चा होती है।  थालियाँ और डिब्बे बजा बजाकर जुलूस निकाले जाते हैं,  गला फाड़कर नारे लगाये जाते हैं।  लेकिन जब झाग बैठता है तो पता चलता है कि हम जहाँ खड़े थे वहीं रुके हैं।  बल्कि दो चार कदम और पीछे हट गये।

मेरे कुछ परिचित परिवारों में विवाह-योग्य कन्याएं हैं।  खासी पढ़ी-लिखी,  योग्य।  देखने के लिए  लड़के वाले आते हैं।  पहले माँ बाप लड़के के साथ आते हैं।  तीन चार दिन बाद लड़के का बड़ा भाई अपनी बीवी के साथ आता है।  फिर दो चार दिन बाद लड़के की बहन आती है।  फिर खबर आती है कि अगले इतवार को लड़के के बहनोई साहब इटारसी से आ रहे हैं।  वे भी कन्या-दर्शन का लाभ प्राप्त करेंगे।  बहनोई साहब के आगमन के चार दिन बाद पता चलता है कि लड़के के ताऊजी बुरहानपुर से चल चुके हैं।  वे भी कन्या को देखने का इरादा रखते हैं।  अन्तिम निर्णय उन्हीं का होगा।  वैसे लड़के के अस्सी वर्षीय,  मोतियाबिन्द-पीड़ित दादाजी भी आ रहे हैं।

इस बीच लड़की वालों को लड़के वालों के निर्णय का कुछ पता नहीं चलता।  वे अनिश्चय और आशंका की स्थिति में झूलते रहते हैं।  लड़की को दिखाने से मना नहीं कर सकते,  चाहे लड़के वाले अपना पूरा मुहल्ला लेकर आ जाएं।  आधी रात को जगाकर कन्या दिखाने का हुक्म दें तो तामील करना पड़ेगा।  वैसे अगर ‘दीगर’ बातें पहले से तय हो जाएं तो यह देखने-वेखने और टेवा (जन्मपत्री) मिलाने का कार्यक्रम संक्षिप्त भी हो सकता है।

लड़के पर यह बात लागू नहीं होती।  लड़की वाले जाएं तो कुँवर साहब के दर्शन बड़े सौभाग्य से और बड़े नखरों के बाद होते हैं।  कभी खबर आ जाती है कि कुँवर साहब आराम कर रहे हैं,  दर्शन कल होंगे।  वैसे हमारे देश में लड़के वालों के दरवाज़े पर लड़की वालों की स्थिति याचक की सी होती है।  इसलिए कुँवर साहब और उनके जनक-जननी जैसा नाच नचायें, लड़की वालों को नाचना पड़ता है।

सवाल यह है कि लड़की के दर्शन लड़के के बहनोई से लेकर ताऊ और बाबा तक क्यों करते हैं? ताऊजी लड़की को अपने पचास साल वाले चश्मे से देखेंगे या लड़के के चश्मे से? माँ-बाप का देखना तो समझ में आता है, लेकिन परिवार के सभी आदरणीय को इस रस्म में शामिल करना क्यों ज़रूरी है? मान लो लड़की को सब ने पसन्द कर लिया लेकिन सयाने ताऊजी ने सब के मत को ‘वीटो’ कर दिया तो क्या होगा? शादी लड़के की होनी है,  लेकिन पसन्द ताऊजी की चलेगी।

इस तरह की रस्में हमारे समाज में स्त्री की स्थिति का कच्चा-चिट्ठा खोलती हैं।  स्त्री घर से बाहर आयी,  पर्दे से मुक्त हुई,  शिक्षित भी हुई,  लेकिन समाज पर पंजा पुरुष का ही है।  लड़कियों को पढ़ाने में लापरवाही इसलिए की जाती है क्योंकि उन्हें पराये घर जाना है।  लेकिन यह लापरवाही लड़की के बाप को लड़के वालों के सामने और ज़्यादा दुम हिलाने के लिए मजबूर कर देती है।

स्थिति बदतर हो रही है।  दहेज के खिलाफ बड़े सख्त कानून बने,  लेकिन किसी कमज़ोर धनुर्धारी के तीर की तरह लक्ष्य तक पहुँचे बिना ही कहीं खो गये।  वैसे भी हमारे आदर्शों और व्यवहार में हमेशा विरोध रहा है, इसलिए कोई ग़म की बात नहीं है।  कम से कम हम महान कानून तो बना रहे हैं ताकि आगे आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें पढ़कर समझें कि हमारा समाज दहेज और स्त्री-शोषण के कितने ज़बरदस्त खिलाफ था।  ये कानून की किताबें काल-पात्र में रखी जानी चाहिए।

मंहगाई बढ़ने के साथ लड़कों के रेट बढ़ रहे हैं।  व्यापारिक भाषा में कहें तो ‘सुधर’ रहे हैं।  इसलिए लड़की के बाप पर दुहरी मार पड़ रही है।  सब कुछ सुधर रहा है,  इसलिए कन्या के पिता की हालत बिगड़ रही है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #56 ☆ शून्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच – शून्य ☆

शून्य उत्सव है। वस्तुतः महोत्सव है। शून्य में आशंका देखते हो, सो आतंकित होते हो। शून्य में संभावना देखोगे तो  प्रफुल्लित होगे। शून्य एक पड़ाव है आत्मनिरीक्षण के लिए। शून्य अंतिम नहीं है। वैसे प्रकृति में कुछ भी अंतिम नहीं होता। जीवन, पृथ्वी सब चक्राकार हैं। प्रकृति भी वृत्ताकार है। हर बिंदु परिधि की इकाई है और हर बिंदु में नई परिधि के प्रसव की क्षमता है। प्रसव की यह क्षमता हर बिंदु के केंद्र बन सकने की संभावना है।

यों गणित में भी शून्य अंतिम नहीं होता। वह संख्याशास्त्र का संतुलन है। शून्य से पहले माइनस है। माइनस में भी उतना ही अनंत विद्यमान है, जितना प्लस में। शून्य पर जल हिम हो जाता है। हिम होने का अर्थ है, अपनी सारी ऊर्जा को संचित कर काल,पात्र,परिस्थिति अनुरूप दिशा की आवश्यकतानुसार प्रवहमान होना। शून्य से दाईं ओर चलने पर हिम का विगलन होकर जल हो जाता है। पारा बढ़ता जाता है। सौ डिग्री पारा होते- होते पानी खौलने लगता है। बाईं ओर की यात्रा में पारा जमने लगता है। एक हद तक के बाद हिमखंड या ग्लेशियर बनने लगते हैं। हमें दोनों चाहिएँ-खौलता पानी और ग्लेशियर भी। इसके लिए शून्य होना अनिवार्य है।

शून्य में गहन तृष्णा है, साथ ही गहरी तृप्ति है। शून्य में विलाप सुननेवाले नादान हैं। शून्य परमानंद का आलाप है। इसे सुनने के लिए कानों को ट्यून करना होगा। अपने विराट शून्य को निहारने और उसकी विराटता में अंकुरित होती सृष्टि देख सकने की दृष्टि विकसित करनी होगी।  शून्य के परमानंद को अनुभव करने के लिए शून्य में जाएँ।

…मैं अपने अपने शून्य का रसपान कर रहा हूँ। शून्य में शून्य उँड़ेल रहा हूँ , शून्य से शून्य उलीच रहा हूँ। शून्य आदि है, शून्य अंत है।

 

© संजय भारद्वाज

परमसत्य की यात्रा मंगलमय हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 16 ☆ समय न उगता खेत में  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी रचना समय न उगता खेत में  )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 16 ☆ 

☆ समय न उगता खेत में  ☆ 

 

समय न उगता खेत में

समय न बिके बजार

कद्र न जिनको समय की

वही हुए लाचार

 

नाथ समय के नमन लें

दें मुझको वरदान

असमय करूँ न काम मैं

बनूँ नहीं अनजान

खाली हाथ न फिरे जो

याचक आए द्वार

 

सीमित घड़ियाँ करी हैं

हर प्राणी के नाम

उसने जो सकता बना

सबके बिगड़े काम

सौ सुनार पर रहा है

भारी एक लुहार

 

श्वास खेत में बोइए

कर्म फसल बिन देर

ईश्वर के दरबार में

हो न कभी अंधेर

सौदा करिए नगद पर

रखिए नहीं उधार

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

११-३-२०२०

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media# 15 ☆ गुमनाम साहित्यकारों की कालजयी रचनाओं का भावानुवाद ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।

स्मरणीय हो कि विगत 9-11 जनवरी  2020 को  आयोजित अंतरराष्ट्रीय  हिंदी सम्मलेन,नई दिल्ली  में  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी  को  “भाषा और अनुवाद पर केंद्रित सत्र “की अध्यक्षता  का अवसर भी प्राप्त हुआ। यह सम्मलेन इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय, दक्षिण एशियाई भाषा कार्यक्रम तथा कोलंबिया विश्वविद्यालय, हिंदी उर्दू भाषा के कार्यक्रम के सहयोग से आयोजित  किया गया था। इस  सम्बन्ध में आप विस्तार से निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं :

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

☆ Anonymous Litterateur of Social Media # 15/सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 15 ☆ 

आज सोशल मीडिया गुमनाम साहित्यकारों के अतिसुन्दर साहित्य से भरा हुआ है। प्रतिदिन हमें अपने व्हाट्सप्प / फेसबुक / ट्विटर / यूअर कोट्स / इंस्टाग्राम आदि पर हमारे मित्र न जाने कितने गुमनाम साहित्यकारों के साहित्य की विभिन्न विधाओं की ख़ूबसूरत रचनाएँ साझा करते हैं। कई  रचनाओं के साथ मूल साहित्यकार का नाम होता है और अक्सर अधिकतर रचनाओं के साथ में उनके मूल साहित्यकार का नाम ही नहीं होता। कुछ साहित्यकार ऐसी रचनाओं को अपने नाम से प्रकाशित करते हैं जो कि उन साहित्यकारों के श्रम एवं कार्य के साथ अन्याय है। हम ऐसे साहित्यकारों  के श्रम एवं कार्य का सम्मान करते हैं और उनके कार्य को उनका नाम देना चाहते हैं।

सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ सलाहकार तथा हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओँ में प्रवीण  कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने  ऐसे अनाम साहित्यकारों की  असंख्य रचनाओं  का कठिन परिश्रम कर अंग्रेजी भावानुवाद  किया है। यह एक विशद शोध कार्य है  जिसमें उन्होंने अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी है। 

इन्हें हम अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास कर रहे हैं । उन्होंने पाठकों एवं उन अनाम साहित्यकारों से अनुरोध किया है कि कृपया सामने आएं और ऐसे अनाम रचनाकारों की रचनाओं को उनका अपना नाम दें। 

कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी ने भगीरथ परिश्रम किया है और इसके लिए उन्हें साधुवाद। वे इस अनुष्ठान का श्रेय  वे अपने फौजी मित्रों को दे रहे हैं।  जहाँ नौसेना मैडल से सम्मानित कैप्टन प्रवीण रघुवंशी सूत्रधार हैं, वहीं कर्नल हर्ष वर्धन शर्मा, कर्नल अखिल साह, कर्नल दिलीप शर्मा और कर्नल जयंत खड़लीकर के योगदान से यह अनुष्ठान अंकुरित व पल्लवित हो रहा है। ये सभी हमारे देश के तीनों सेनाध्यक्षों के कोर्स मेट हैं। जो ना सिर्फ देश के प्रति समर्पित हैं अपितु स्वयं में उच्च कोटि के लेखक व कवि भी हैं। वे स्वान्तः सुखाय लेखन तो करते ही हैं और साथ में रचनायें भी साझा करते हैं।

☆ गुमनाम साहित्यकार की कालजयी  रचनाओं का अंग्रेजी भावानुवाद ☆

(अनाम साहित्यकारों  के शेर / शायरियां / मुक्तकों का अंग्रेजी भावानुवाद)

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

कर्ज़ होता तो

उतार  भी देते

कमबख्त इश्क़ था

बस चढ़ा ही रहा…!

 

 If it was a loan

Would’ve paid it off

But this wretched love

Just kept piling up…!

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

 चुपचाप चल रहे थे

ज़िन्दगी के सफ़र में

तुम पर नज़र क्या पड़ी

बस गुमराह हो गये…

 

Was walking quietly

In the journey of life

Just a glance at you 

Misguided me forever…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

हुस्न के कसीदे तो 

पढ़ती रहेंगी महफिलें

अगर झुर्रियाँ भी लगें 

हसीं तो समझो इश्क़ है…

 

Citations for the beauty 

Congregations will keep writing…

If wrinkles still find you smitten

Then it’s undying love for sure…

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

कोई रूठे अगर तुमसे तो

उसे फौरन मना लो क्योंकि

जिद्द की जंग में अक्सर

जुदाई  जीत जाती  है…

 

If someone is upset with you

Conciliate with him immediately

Coz in the war of stubborness

Often separation only wins…! 

❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ ❃ 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ इक कदम और बढ़ाएँ ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है।  आज प्रस्तुत है उनकी एक सार्थक एवं प्रेरक कविता  – इक कदम और बढ़ाएँ )

? इक कदम और बढ़ाएँ ?

चल उठ इक कदम और बढ़ाएँ,

नए सवेरे फिर से ढूंढ़ लाएँ,

बीत गयी जो वो बात पुरानी,

अब नये आयाम संजोएँ,

रह गयी जो योजनाएँ अधूरी,

उनको फिर नये सिरे से पिरोएँ,

अफ़सोस है जो वक़्त हो गया ज़ाँया,

मिली सीख से क्यों ना दर्द की सी लाएँ,

वक़्त जो अपनों के साथ है गुज़ारा,

क्यूँ ना उसको अनमोल धरोहर बनाएँ,

साथ रहकर भी बाहर जाने की इच्छा,

इस तृष्णा की वास्तविकता ज़रा टटोली जाए,

जो महत्वत्ता पता चली है जीवन की,

उसको जीवन भर का आधार क्यूँ ना बनाएँ,

जीवन में किस की है असल जरुरत,

उसका आंकलन फिर से किया जाएँ,

वक़्त होकर भी वक़्त को कोसना,

असली उद्देश्य को फिर से जाँचा  जाएँ,

मन तो है चंचल तितली की तरह,

स्थिर मन से नए दृष्टिकोण समझे जाएँ,

वक़्त है नए सिरे से प्रारम्भ करने का,

अबकी बार त्रुटिरहित संसार संजोया जाएँ,

कर लो खुद से इक वादा आज,

कि नयी भोर को उमंगो से भरा जाएँ,

चल उठ इक कदम और बढ़ाएँ,

नए सवेरे फिर से ढूंढ़ लाएँ.

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – वंदन है, अभिनंदन है ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावप्रवण कविता  वंदन है, अभिनंदन है

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वंदन है, अभिनंदन है

 

हे भारत मां के लाल तुम्हारा,

वंदन है अभिनंदन है।

तुम महावीर भारत के हो ,

माथे पे रोली चंदन है।

है नाम आपका ‌पदुमदेव,

उज्जवल  चरित तुम्हारा है।

अपनी शौर्य वीरता से,

तुमने दुश्मन को मारा है।

उन्नीस सौ पैंसठ के रण में,

जब नांच रहा था महाकाल ।

तब महाकाल  बनकर रण में,

शत्रुदल को संहारा है।

अपनी तोपों के गोलों से,

दुश्मन का हौसला तोड़ा था।

दुश्मन पीछे को भाग चला,

तुमने उसका रूख मोड़ा था।

अपने ही रणकौशल से,

रण में तांडव दिखलाया था।

समरजीत बन बीच समर

भारत का तिरंगा लहराया था।

पर दुर्भाग्य साथ में था,

बारूद तुम्हारा खत्म हुआ।

जो साथी रण में घायल थे,

आगे बढ़ उनकी मदद किया ।

प्राणों का संकट था उनके,

उनको संकट से उबारा था।

लाद पीठ पर अस्पताल के,

प्रांगण में तुमने उतारा था ।

इस उत्तम सेवा के बदले,

स्वर्ण पदक ईनाम मिला।

जो उद्देश्य तुम्हारा था,

उसको इक नया मुकाम मिला।

तुम मंगल पाण्डेय के वंशज थे,

वीरता तुम्हारी रग में थी।,

आत्माहुति का इतिहास रहा,

यश कीर्ति सारे जग में थी।

सन उन्नीस सौ इकहत्तर में ,

बैरी फिर सरहद चढ़ आया।

पदुम देव फिर जाग उठा,

दुश्मन को औकात बताया।

एक बार फिर विजय श्री ने,

उनके शौर्य का वरण किया।

दुश्मन का शीष झुका कर के,

उसके अभिमान का हरण किया।

छब्बीस अगस्त सन् सत्तरह में,

सो गया वीर बलिदानी।

कीर्ति अमर हुई उनकी,

लिखी इक नई कहानी।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

विशेष – प्रस्तुत आलेख  के तथ्यात्मक आधार ज्योतिष शास्त्र की पुस्तकों पंचागों के तथ्य आधारित है भाषा शैली शब्द प्रवाह तथा विचार लेखक के अपने है, तथ्यो तथा शब्दों की त्रुटि संभव है, लेखक किसी भी प्रकार का दावा प्रतिदावा स्वीकार नहीं करता। पाठक स्वविवेक से इस विषय के समर्थन अथवा विरोध के लिए स्वतंत्र हैं, जो उनकी अपनी मान्यताओं तथा समझ पर निर्भर है।

 

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मराठी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या # 20 ☆ मामाचा गाव ☆ श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे

ई-अभिव्यक्ति में श्री प्रभाकर महादेवराव धोपटे जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – स्वप्नपाकळ्या को प्रस्तुत करते हुए हमें अपार हर्ष है। आप मराठी साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। वेस्टर्न  कोलफ़ील्ड्स लिमिटेड, चंद्रपुर क्षेत्र से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। अब तक आपकी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं जिनमें दो काव्य संग्रह एवं एक आलेख संग्रह (अनुभव कथन) प्रकाशित हो चुके हैं। एक विनोदपूर्ण एकांकी प्रकाशनाधीन हैं । कई पुरस्कारों /सम्मानों से पुरस्कृत / सम्मानित हो चुके हैं। आपके समय-समय पर आकाशवाणी से काव्य पाठ तथा वार्ताएं प्रसारित होती रहती हैं। प्रदेश में विभिन्न कवि सम्मेलनों में आपको निमंत्रित कवि के रूप में सम्मान प्राप्त है।  इसके अतिरिक्त आप विदर्भ क्षेत्र की प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के विभिन्न पदों पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं। अभी हाल ही में आपका एक काव्य संग्रह – स्वप्नपाकळ्या, संवेदना प्रकाशन, पुणे से प्रकाशित हुआ है, जिसे अपेक्षा से अधिक प्रतिसाद मिल रहा है। इस साप्ताहिक स्तम्भ का शीर्षक इस काव्य संग्रह  “स्वप्नपाकळ्या” से प्रेरित है ।आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण कविता   “मामाचा गाव“.) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – स्वप्नपाकळ्या # 20 ☆

☆ मामाचा गाव

माह्या मामाचा थ्यो गांव

हाये लई लई दूर

मायले याद आली

चाल बापू लवकर।।

 

बापू पायटं निंगाला

माय व्हती संग संग

सुर्वे माथ्यावर आला

गांव किती दूर सांग।।

 

जरा धिरानं घे बाप्पा

पल्ला न्हायी हाये लांब

दम लागला मले गा

उली झाडाखाली थांब।।

 

माह्या भावाच्या गावाले

लई थंडगार वारा

तसा भावाचा माह्यावर

बापू लई रे जिव्हारा।।

 

आला गांव एकडाव

बरं वाटलं जिवाले

आंगणात  जवा गेलो

न्हायी कोणीच पुसाले।।

 

©  प्रभाकर महादेवराव धोपटे

मंगलप्रभू,समाधी वार्ड, चंद्रपूर,  पिन कोड 442402 ( महाराष्ट्र ) मो +919822721981

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 3 ☆ तुम ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

( हम गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  के  हृदय से आभारी हैं जिन्होंने  ई- अभिव्यक्ति के लिए साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य धारा के लिए हमारे आग्रह को स्वीकारा।  अब हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं  आपकी हृदयस्पर्शी रचना  तुम ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 3 ☆

☆ तुम ☆

 

तुम्हारे संग जिये जो दिन भुलाये जा नहीं सकते

मगर मुश्किल तो ये है फिर से पाये जा नहीं सकते

 

कदम हर एक चलके साथ तुमने जो निभाया था

दुखी मन से किसी को वे बताये जा नहीं सकते

 

चले हम राह में जब धूप थी तपती दोपहरी थी

सहे लू के थपेडे जो गिनाये जा नही सकते

 

लगाये ध्यान पढते पुस्तके राते बिताई कई

दुखद किस्से परिश्रम के सुनाये जा नहीं सकते

 

तुम्हारे नेह के व्यवहार फिर फिर याद आते हैं

दुखाकुल मन से जो सबको बताये जा नही सकते

 

बसी हैं कई प्रंसगो की सजल यादें नयन मन में

चटक है चित्र ऐसे जो मिटाये जा नही सकते

 

मसोसे मन को सब यादें मै चुपचाप झेल लेता हूं

बिताई जिदंगी के दिन भुलाये जा नहीं सकते

 

अचानक छोड हम सबको तुम्हें जाने की क्या सूझी

जहॉ से जाने वाले फिर बुलाये जा नही सकते

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

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हिंदी साहित्य – फिल्म/रंगमंच ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग के कलाकार # 13 – सोहराब मोदी ☆ श्री सुरेश पटवा

सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।  अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास)  प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है।  आजकल वे  हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग  की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार  के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा  करना स्वीकार किया है  जिनमें कई कलाकारों से हमारी एवं नई पीढ़ी  अनभिज्ञ हैं ।  उनमें कई कलाकार तो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है  हिंदी फ़िल्मों के स्वर्णयुग के कलाकार  : सोहराब मोदी पर आलेख ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 14 ☆ 

☆ सोहराब मोदी  ☆

सोहराब मोदी अपने जमाने के जाने-पहचाने इंडो-फ़ारसी नाट्यकर्मी, फ़िल्मी कलाकार, निर्देशक और निर्माता थे। उनका जन्म फ़ारसी परिवार में 02 नवम्बर 1897 को बनारस के नज़दीक रामपुर में हुआ था, उनके पिता मेरवान जी मोदी इंडीयन सिविल सर्विस में थे। उनकी परवरिश यूनाइटेड प्रोविंस (उत्तर प्रदेश) के ग्रामीण इलाक़ों में होने से उनका हिंदी और उर्दू ज़बान पर बराबर का नियंत्रण था और घर के प्रशासनिक माहौल  व घर पर अंग्रेज़ी तालीम से अंग्रेज़ी भाषा और साहित्य पर भी अच्छा ख़ासा अधिकार था। सोहराब मोदी बुलंद आवाज़ के ऊँचे-पूरे क़द और मज़बूत काठी के मुकम्मिल इंसान थे।

उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट पर आधारित “खून ही खून”, सिकंदर, पुकार, पृथ्वी वल्लभ, झाँसी की रानी, मिर्ज़ा-ग़ालिब, जेलर और नौशेरवान-ए-आदिल नामक बेहतरीन फ़िल्में बनाईं थीं। उनकी फ़िल्मों में हमेशा एक उद्देश्यपरक संदेश होता था। फ़िल्मों में उनके योगदान के लिए उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया था।

वे स्कूली पढ़ाई पूरी करके अपने भाई केकी मोदी के साथ मिलकर 26 साल की उम्र में एक नाटक कम्पनी “आर्य सुबोध थिएटर कम्पनी” स्थापित करके पूरे देश में नाटक करते रहे। जिसकी कमाई से एक प्रोजेक्टर ख़रीदा और ग्वालियर के टाउन हाल में एक फ़िल्म दिखाई।

भारत में से बाबा साहब फाल्के 1913 से मूक फ़िल्म बनाना शुरू कर चुके थे, उनकी पहली फ़िल्म “हरिशचंद्र तारामती” थी लेकिन 1931 तक सवाक् फ़िल्मों का दौर शुरू होने से नाटक कम्पनी के नाटकों का क्रेज़ जाता रहा इसलिए सोहराब मोदी फ़िल्मों की तरफ़ मुड़ गए। उन्होंने शेक्सपियर के नाटक हेलमेट और किंग जॉन पर आधारित खून का खून और सैद-ए-हवस फ़िल्मे बनाईं लेकिन दोनों बॉक्स आफ़िस पर पिट गईं।

उन्होंने 1936 में मिनर्वा मूवी टोन नामक संस्था स्थापित की और 1938 में मीठा ज़हर और तलाक़ बनाईं जो ख़र्चा निकालने में सफल रहीं। 1939 में पुकार, 1941 में सिकंदर, 1943 में पृथ्वी-वल्लभ बनाईं। पुकार फ़िल्म बादशाह जहांगीर की न्याय व्यवस्था पर केंद्रित थी जिसमें चंद्र मोहन, नसीम बानो और कमाल अमरोही के डायलाग ने धूम मचा दी। सिकंदर भी एक बड़ी सफलता सिद्ध हुई जिसमें पृथ्वी राज कपूर बने थे सिकंदर और सोहराब मोदी ख़ुद राजा पोरस और के.एन. सिंग राजा आम्भी बने थे, फ़िल्म के डायलाग आज भी बेमिशाल माने जाते हैं। तीनों की आवाज़ बुलंद और हिंदुस्तानी का उच्चारण साफ़ था। फ़िल्म के संवाद पर दर्शक पर्दे पर सिक्कों की बारिश करते थे। बाद में एक और सिकंदर-ए-आज़म बनी थी जिसमें सिकंदर दारा सिंह और पृथ्वी राज कपूर राजा पोरस बने थे।

पृथ्वी वल्लभ फ़िल्म कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के उपन्यास पर आधारित थी जिसमें सोहराब मोदी और दुर्गा खोटे के लम्बे डायलाग चलते हैं। नायिका रानी मृणालवती फ़िल्म के नायक का अनादर करते हुए उससे बहस करते-करते उससे प्रेम करने लगती है। सोहराब मोदी के फ़िल्मी सेट में पारसी थिएटर की झलक मिलती है। जेलर और भरोसा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।

सोहराब मोदी के उनकी फ़िल्मों की नायिका नसीम से रोमांटिक सम्बंध रहे लेकिन 1950 में शीशमहल फ़िल्म बनते समय तक उनके सम्बंधों में ठंडापन आ गया था। उसके बाद उनसे 20 साल छोटी महताब नाम की एक कलाकार उनसे नौशेरवान-ए-आदिल फ़िल्म से जुड़ी, जिससे उन्होंने 48 साल की उम्र में शादी कर ली, उनका उससे एक पुत्र महल्ली सोहराब हुआ।

सोहराब मोदी की फ़िल्म शीशमहल बम्बई की मिनर्वा थिएटर में लगी तो वे ख़ुद दर्शकों की प्रतिक्रिया पता करने वहाँ मौजूद थे, उन्होंने देखा कि सामने की कुर्सी पर बैठा एक दर्शक आँख बंद करके बैठा है। उन्होंने थिएटर के मैनेजर को बुलाकर उस दर्शक की टिकट के पैसे लौटाने को कहा। मैनेजर ने थोड़ी देर बाद आकर उन्हें बताया कि वह दर्शक अंधा है, इसलिए वह सिर्फ़ सोहराब मोदी के डायलाग सुनने आया है। सोहराब मोदी ने फ़िल्म समाप्त होने पर उस दर्शक को मैनेजर के रूम में बुलाकर उसे उस फ़िल्म के डायलाग सुनाए। फ़िल्मकार का दर्शक से ऐसा रिश्ता हुआ करता था।

मैंने भारत भवन में सोहराब मोदी की “झाँसी की रानी” फ़िल्म देखी जिसे उन्होंने अपनी बीबी महताब को लेकर बनाई थी, जिसमें वे ख़ुद झाँसी की रानी के राजगुरु की भूमिका में थे। झाँसी और लड़ाइयों की शूटिंग के साथ कसा कथानक और धाराप्रवाह डायलाग बांधे रखे रहे। सोहराब मोदी की ‘झांसी की रानी'(1953) भारतीय सिनेमा की पहली रंगीन फिल्म थी।

उन्होंने 1954 में मिर्ज़ा-ग़ालिब बनाई जिसमें सुरैया को मिर्ज़ा-ग़ालिब की महबूबा की भूमिका में उतारकर  मिर्ज़ा-ग़ालिब की ग़ज़लें उनसे गवाईं थीं। ज़फ़र, ज़ौक़, मोमिन, तिशना और सेफता को बिठाकर इस दौर की महफ़िल का समां बांधा था, वह देखते ही बनता है। फ़िल्म को राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक मिला था, तब फ़िल्म की स्क्रीनिंग के बाद नेहरु जी ने कहा था कि आपने ग़ालिब को ज़िंदा कर दिया। उन्हें 1980 में दादा साहब फाल्के अवार्ड मिला था। उनकी पत्नी ने कहा था कि फ़िल्म उनकी पहली और आख़िरी प्रेमिका थी। 28 जनवरी 1984 को 86 साल की पकी उम्र में उनका देहांत हो गया था। भारत सरकार ने 2013 में उनकी याद को अक्षुण बनाए रखने हेतु डाक टिकट जारी किया था।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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मराठी साहित्य – कविता ☆ केल्याने होतं आहे रे # 40 – रेल्वेत भेटलेली मस्त मैत्रीण ! ☆ श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है।  आज प्रस्तुत है श्रीमती उर्मिला जी  का एक विस्मरणीय संस्मरण   “रेल्वेत भेटलेली मस्त मैत्रीण  !”।  उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / धार्मिक /पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ केल्याने होतं आहे रे # 40 ☆

☆ रेल्वेत भेटलेली मस्त मैत्रीण  ! ☆ 

साधारण पंचवीस वर्षांपूर्वीची घटना…..

सातारा रेल्वे स्टेशनवर बंगलोरला निघालो होतो.कोरेगाव गेलं रहिमतपूर स्टेशन आलं तशी एक साधारण पस्तीशीची एक खेडवळ बाई डोक्यावर पिशवी  हातात ट्रंक घेऊन चढायचा प्रयत्न करत होती दोन्ही हात सामानाला गुंतलेले ..

मग काय..ती म्हणाली ” काय बया पायऱ्या तरी केल्यात्या ..रेल्वेवाल्यांनला इवढं सारीक कळत न्हाय..आवं बाया मानसास्नी चढाय तरी याया पायजेल का नगं .! ”

बहुधा ती पहिल्यांदाच रेल्वेने प्रवास करत असावी.

मी दाराशी जाऊन तिच्या डोक्यावरची पिशवी उचलून घेतली त्यामुळं तिचा उजवा हात मोकळा झाला मग त्या हाताच्या आधारानं ती डब्यात आली.अन् दाणकन् तो  दणकट देह समोरच्याच रिकाम्या बर्थवर दिला झोकून .म्हणाली ” ” ”  कित्ती येळ वाट पहातिया पन् गाडी म्हनून येळवर यील ती रेल्वी कसली वं…  नंनंदेच  घर टेसनापस्न जवळच हाय तवा ऐकू यत समदं..आज आमकी  गाडी दोन तास उशीराने धावत आहे.

….अवं . कसलं काय आन् फाटक्यात पाय.

..”!

” कुठं चाललाय..?

” आवं सांगलीच्या तितं आमचं गाव हाय……..”

पण तुम्ही तर आता इथं रहिमतपुरला गाडीत चढलात..?

आवं हितं माजी ननंद ऱ्हातीया म्हनलं आलोया हिकडं तवा जावांवं भिटून तिला…”

” आवं मंबईला गेलती भनीकडं .लयी दीस बलवत हुती भन म्हनलं जावावं .. मंबई बगाव..”

गेली बया पन् कसलं काय आन् शेनात पाय….!”

गेली तितं तर बया भराभरा डोक्यावर फिरतंय …..म्हनंलं ” हे गं काय? त म्हन्ती ” अगं हितं लयी गरम हुत असतं तवा पंखा लावायलाच लागतोया.

म्हनलं “. बरं हाय बया आमच्या गावाकडं कसं समदं मोकळं  ढाकळं .घरात बसा भायेर बसा कसलं भन्नाट येतया वारं……! … “कसली बया तुझी मंबई साधं वारं सुदिक पंक्यानं आन् ती बी  इकात  घियाचं…”!

तिला म्हटलं .. तुमच्या घरी पंखा नाही.. कां…?”

तशी ती ..”छ्या बया आमच्या खेड्यागावात  कशाला पायज्येल ह्यो पंका न् बिंका…! मस्त वारं सुटतया बघा….आन् त्ये बी फुकाट……”!

” आवं त्या आमच्या मंबईच्या भनीकडं सक्काळी उटले आपली बगते तर कुट्ट्ं म्हनून मोकळी जागा न्हाई ..आवं सक्काळी सक्काळी मानसाला जायाला व्हंवं कां नगं..सांगा बरं…?

नुसतीच म्हनत्यात मंबई लयी.ऽऽ…म्होट्टी….”.!”

तशी भनीन मला न्हेलं दरवाजा उगाडला न् म्हनली  “जा हितं….!..आन् बघते तं काय  तितं पादुका !…अग बया…?

पयला नमस्कार क्येला बघा ! म्हनलं देवा परवास समदा ब्येस झाला बग…तुज्या कुरपेनं…”!

तशी भन आली म्हनली ,

“अगं ताई हे काय देवळ न्हाई ह्याला संडास म्हणत्यात.सकाळी हितंच जायाचं असतया जा….. !”

म्या श्याप सांगितलं.. म्हनलं ,” म्या न्हाई बया पादुकावर पाय ठिऊन पाप डोक्यावं घ्यियाची…….!”मंग काय..?

आवं तिनं घेतलं की भायेरनं दार लावून ……न् मी  आत..हुबी….”!

कसंबसं दोन दीस काडलं बया मंबईत  न् आले बया परत.प्वाॅट लयी गच्चं झाल्यालं मंग  यस्टीनं हितंआली…”..!

आमच्या गावाला जायाला लयी येळ लागल म्हून हितं नंनंद ऱ्हाती तिच्याकडं ग्येले तितं काय म्हनत्यात ते नाटकात ते ” होल वावर इज आवर …” .! तितं ग्येले बया खळाखळा एकदा प्वाॅट रितं झालं तवा बरं वाटलं बगा….”!

विक्रेत्याच्या सामोस्यांच्या  खमंगवासाने आमची भूकही चाळवली.आम्ही सामोसे घेतले तिला म्हटलं घ्या   गरम गरम .”.. !

” नग बया , माज्या नंदनं दिलीयाकी मला डाळकांदा भाकर बांदून…मी खाईन नंतरनं…..तुम्ही खावा…!”

पण नंतर बहुधा सामोशाच्या वासानं तिलाही खावंसं वाटलं असावं मग म्हणाली…

” ये…..पोऱ्या बगु वाईच एकांदा…लयी नगं… वास ब्येष्ट येतुया…म्हनून……”!

आणि तिनंही एक घेतला चव मस्त लागतीय  म्हणल्यावर आणखी दोन खाल्ले. म्हणाली ” आता बास झालं बया.दुपारच्या जेवणाची बेगमीच झाली बगा….”!

तिचं तोंड खाण्यात गुंतल्यामुळं तेवढाच  आमच्या श्रवणेंद्रियांना विश्राम मिळाला.आम्हालाही जरा डुलकी यायला लागली…थोडा वेळ शांततेत गेला.जरा बरं वाटलं.

तिनं विचारलं..” ताई कुटं जाऊ लयी लागलीया..”

मी खुणेनेच दाखवलं तशी…

ती गेली दार उघडलन् …. ओरडली अगं बया ..ऽऽ…ऽ. हितंबी पादुका…ऽऽ…. !”

तेवढ्यात गाडी एका छोट्याशा स्टेशनवर थांबली तशी ती डब्याच्या दाराकडं धावली अन् म्हणाली ……

“आवं जरा.. ….कंडाक्टरला म्हनावं आलेचं. बरं कां………”!. असं म्हणत आम्ही काही सांगण्याच्या आधीच ती उतरुन धूम चकाट……….!

 

©️®️उर्मिला इंगळे

सातारा

दिनांक:-१२-७-२०

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!

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