(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “घड़ी भर की जिंदगी …”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 137 ☆
☆ लघुकथा 🕛घड़ी भर की जिंदगी 🕛
यूं तो मुहावरे बनते और बोले जाते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशेष भाषा शैली होती है और वक्त के अनुसार अलग-अलग अर्थ भी होते हैं।
किन्तु, यदि किसी की जिंदगी ही घड़ी बनकर रह जाए और अंत समय में कहा जाए… ‘घड़ी भर की जिंदगी’ तो अनायास ही आँखें भर उठती है।
अशोक बाबू का जीवन भी बिल्कुल घड़ी की तरह ही बीता। बचपन से भागते-चलते अभाव और तनाव भरी जिंदगी में एक-एक पल घड़ी के सेकंड के कांटे की तरह बीता।
सदैव चलते जाना उनके जीवन का अंग बन चुका था। अध्यापक की नौकरी मिली, गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर उन्हें जरा सा सुकून मिला। घर में किलकारियाँ गूंजी, फिर जरूरतों का सिलसिला बढ़ चला। सब की जरूरतें पूरी करते-करते आगे बढ़ते गए।
बेटा बड़ा हुआ, विदेश पढ़ाई के लिए जाना पड़ा और उसकी जरूरतों को पूरा करते गये। वह विदेश गया तो फिर लौट कर नहीं आया।
बस फिर क्या था, वही दीवाल में लगी घड़ी की टिक-टिक की आवाज उनकी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। धर्मपत्नी ने भी असमय साथ छोड़ दिया।
स्कूल में भी घड़ी देख-देख कर काम करने की आदत हो चुकी थी। पास पड़ोसी आकर बैठते पर अशोक बाबू की आंखें दिन-रात घड़ी, समय पर आती जाती रहती, शायद वह वक्त बता दे कि बेटा वापस घर आ रहा हैं।
रिटायरमेंट के बाद घर में अकेलापन और घड़ी की टिक-टिक। एक नौकर जो सेवा करता रहता था, वह भी अपने काम से काम रखता था।
आज पलंग पर लेटे-लेटे घड़ी देख रहे थे। नौकर ने कहा… बाबूजी खाना लगा दिया हूँ। कोई जवाब नहीं आया। पड़ोसियों को बुलाया गया। आंखें घड़ी पर टिकी हुई थी और घड़ी की कांच दो टुकड़ों में चटक कर गिर चुकी थी। प्राण पखेरू उड़ चले थे। आए हुए बुजुर्गों में से किसी ने कहा…. “घड़ी भर की जिंदगी, घड़ी में समाप्त हो गई”। घड़ी भी अशोक बाबू के साँसों सी चलने लगी थीं, घड़ी चल रही थी, साँसें रुक गई थी।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा – “एकलव्य और अंगूठा”।)
☆ लघुकथा # 154 ☆ “एकलव्य और अंगूठा” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
घर के आंगन में लगे अमरूद के पेड़ के नीचे बैठे बड़े पंडित जी चाय पी रहे हैं ,ऊपर कोयल बोल रही है , शिक्षक दिवस के कारण शिष्यों का आना जाना सुबह से लगा है। गुरु जी आज स्कूल नहीं गये, सुबह से शिष्य गुरु वंदना करने आते हैं और कुछ कुछ गुरु जी को चढ़ा जाते हैं, कुछ ने मोबाइल दिया, कुछ ने लिफाफा। एक जमींदार शिष्य खाली हाथ आया था तो गुरु जी उसका अंगूठा देखने लगे, शिष्य ने मजाक में कहा कि जल्दबाजी में गुरु जी कुछ ला नहीं पाया, एक काम कीजिए ज्यादा है तो ये मेरा अंगूठा ले लीजिए। शिष्य जमींदार की बात सुनकर गुरु जी अपने पीए से बोले कि इनका अंगूठा स्टांपित दानपत्र पर लगवा लीजिए, पांच एकड़ जमीन बहुत है। शिष्य ने लघुशंका का बहाना बनाकर दौड़ लगा दी और एकलव्य बनने से बच गया।
☆ कथा कहानी ☆ लघुकथा – विवशता ☆ डॉ ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी ‘शैलेश’☆
हरिद्वार से आ रहा था। लक्सर से ज्यूं ही गाड़ी आगे बढ़ी चार या पांच की संख्या में कुछ लोग तालियां पीटते कंपार्टमेंट में घुसे नए-नए उम्र के लड़कों के साथ हंसी मजाक करते हुए ,शउनसे पैसे मांगने लगे। कुछ नहीं ₹10 ₹20 दिए कुछ भद्दा मजाक करने लगे। यह वही लोग हैं, जिन्हें प्रकृति ने हंसी का पात्र बना दिया। उनके जननांग गायब कर दिए। इसी के कारण समाज उन्हें जनखा, हिजड़ा, उभय लिंगी यहां और जो भी नाम से संबोधित करता है, जगह जगह अब गाड़ियों में घूम घूम कर स्टेशन पर बैठे हुए यात्रियों से,या राह चलते हुए लोगों से या मेले में आए हुए संभ्रांत लोगों से पैसे मांगते हैं। देर तक मैं बच्चों, मनचले युवकों और उनके बीच का उल्टा-सीधा हास्य व्यंग सुनता रहा।
कुछ मनचले उन्हें हाथ पकड़ कर अपने बगल बैठने का आग्रह कर रहे थे, तो कुछ उन्हें 10या ₹5 देकर चले जाने के लिए अवसर दे रहे थे।
अच्छा नहीं लगा मैंने एक से कहा- मैं तुमसे कुछ पूछना चाहता हूं।एक साथी और आ गया साथ में, उम्र अट्ठारह उन्नीस की रही होगी और दूसरे की उम्र 24- 25 वर्ष । थोड़ी देर बाद वे संपूर्ण डिब्बे का भ्रमण कर जो कुछ भी मांग सके थे ,लेकर आए और मेरे सामने वाली सीट पर जो खाली थी बैठ गए।
मैंने कहा – आप लोग तो कलाकार हैं, आपके पास नृत्य और गायन है, उससे आप लोग क्यों नहीं पैसा प्राप्त कर लेते हैं ।एक का नाम विद्या था।उसने उत्तर दिया -“बाबूजी दुनिया बदल गई है। पहले लोग प्रेम से बच्चे-बच्चियों के जन्म पर हम को बुलाते थे। हम नाचने -गाने के साथ ही बच्चों को गोद में लेकर खिलाते थे ।बहुत-बहुत उनके सुखी जीवन का आशीर्वाद देते थे ।आज कोई हमें नहीं बुलाता है। लोग अब पैसे को अधिक महत्व देते हैं ।सामाजिक मान्यताओं को कम। हम लाचार हैं, कभी गाड़ी पर एक एक यात्री से उनके व्यंग बाण सहते हुए भी भिक्षा मांगने के लिए। क्योंकि पेट तो सभी के साथ है न। हमें ना खाली अपना पेट भरना होता है, बल्कि हमारी ही बिरादरी में कई एक अशक्त, बूढ़े, रोगी और असमर्थ लोग रहते हैं। हम केवल अपना पेट नहीं भरते, हम सभी का ध्यान रखते हैं। बगल में एक आदमी भूखा तड़प रहा हो ,तो दूसरे कैसे चैन की नींद सो सकता है, ऐसा नहीं कहती मानवता।
अब तो जो हमारे साथ हैं, वही हमारे साथी हैं। मां-बाप हैं, गुरु हैं ,सहायक हैं, मित्र हैं, उनका ध्यान हमें रखना पड़ता है। आज के बच्चे भले ही अपने मां-बाप को छोड़ दें ।जाकर कहीं दूर ऊंची कमाई करते हो। लेकिन हम अपने उन लोगों को कष्ट में नहीं देख सकते जिन्होंने हमें आश्रय देकर शिक्षा के माध्यम से ऐसा बनाया है कि हम कुछ अपनी कला का प्रदर्शन करके कुछ प्राप्त कर लें। पेट प्रत्येक जीव के साथ होता है, हम भी उसी से विवश हैं, अन्यथा एक गाड़ी से दूसरी गाड़ी एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे ताली बजाते ही वे लोगों के आगे हाथ फैलाते हुए क्यों घूमते। आप समझते हैं, पढ़े लिखे हैं, हमने भी कहीं कहीं जा करके थोड़ा बहुत पढ़ने का प्रयास किया है इसी कारण मानवीय संबंध का क्या महत्व है। हमारी समझ में आता है । किंतु, हमें कोई काम नहीं देता। यदि अवसर मिले तो हम भी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करें। पढ़ लिख कर के अच्छे पदों पर जाएं । देश की सेवा करें किंतु हमें तो उपेक्षित दृष्टि से देखा जाता है। नपुंसक माना जाता है। सत्य है हम प्रकृति की भूल के शिकार हो गए किंतु अन्य किसी क्षमता में हम किसी से कम नहीं है।”मैंने ₹50 उन्हें देकर विदा किया। आशीर्वाद देते हुए दोनों चले गए। सचमुच किसी को भिक्षा मांगना अच्छा नहीं लगता। किंतु, समाज इन प्रकृति के कोप के मारे हुए लोगों को उपेक्षा के भाव से देखता है। यह भी अच्छा नहीं लगता, वास्तव में वे भी समाज के प्राणी है। उनका भी सम्मान है उनका भी जीवन है। उनकी भी आवश्यकताएं हैं। उनकी भी अपनी मानसिक पीड़ा- शारीरिक पीड़ा होती है।
आज समाज को उनकी क्षमता का प्रयोग करके अपने विकास में उन्हें सहभागी बनाना चाहिए।
टेबलावर बदलीसाठी ठेवलेला मनोजचा अर्ज बघून मी. रतन गुप्ता आश्चर्यचकित झाले. कारण अलिकडेच त्याने नवीन बंगला बांधला होता आणि तो अतिशय खूश होता. आपली बदली होऊ नये, असं त्याला अगदी आतून आतून वाटायचं. जर कधी झालीच, तर तो एकटाच जाईल. त्याचं कुटुंब मुलांच्या शाळेच्या दृष्टीने कायम स्वरूपी इथेच राहील.
पण आज अचानक त्याचा बदलीसाठी अर्ज? गुप्तांनी त्याला आपल्या चेंबरमध्ये बोलावले.तो आत आल्या आल्या त्यांनी विचारलं, `कालपर्यंत तर तू बदली होऊ नये म्हणून विनवण्या करत होतास. बदली न झाली तर बरं, असं म्हणत होतास. नशिबाने जर झाली, तर कुटुंब इथेच ठेवीन, असंही म्हणाला होतास. मग आज असं काय संकट आलं की तुला बदली हवीशी झाली. खरं खरं सांग!’
प्रथम मनोजला संकोच वाटला, मग धैर्यपूर्वक त्याने आपली व्यथा सांगितली, `गावाकडे राहणार्या आई-वडलांना जेव्हा कळलं की आता मी माझं घर बांधलय आणि मी आता कायमस्वरूपी इथेच राहणार आहे, तेव्हा तेही आपली गाठोडी-पासोडी, बॅगा – वळकटी घेऊन कायमचं राहण्यासाठी इथे येत आहेत.
मूळ हिन्दी कथा – स्थायी – मूळ लेखिका – सुश्री मीरा जैन
अनुवाद – सौ. उज्ज्वला केळकर
संपर्क – 176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.- 9403310170
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है।
अस्सी-नब्बे के दशक तक जन्मी पीढ़ी दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां सुन कर बड़ी हुई हैं। इसके बाद की पीढ़ी में भी कुछ सौभाग्यशाली हैं जिन्हें उन कहानियों को बचपन से सुनने का अवसर मिला है। वास्तव में वे कहानियां हमें और हमारी पीढ़ियों को विरासत में मिली हैं। आशीष का कथा संसार ऐसी ही कहानियों का संग्रह है। उनके ही शब्दों में – “कुछ कहानियां मेरी अपनी रचनाएं है एवम कुछ वो है जिन्हें मैं अपने बड़ों से बचपन से सुनता आया हूं और उन्हें अपने शब्दो मे लिखा (अर्थात उनका मूल रचियता मैं नहीं हूँ।”)
☆ कथा कहानी ☆ आशीष का कथा संसार #106 लक्ष्मी नारायण और स्वर्ग ☆ श्री आशीष कुमार☆
लक्ष्मी नारायण बहुत भोला लड़का था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताल, गन्धर्व लोक, चन्द्रलोक, सूर्यलोक आदि की कहानियाँ सुनाया करती थी।
एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुन्दर था कि उसे सुनकर लक्ष्मी नारायण स्वर्ग देखने के लिये हठ करने लगा। दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किन्तु लक्ष्मीनारायण रोने लगा। रोते- रोते ही वह सो गया।
उसे स्वप्न में दिखायी पड़ा कि एक चम-चम चमकते देवता उसके पास खड़े होकर कह रहे हैं- बच्चे ! स्वर्ग देखने के लिये मूल्य देना पड़ता है। तुम सरकस देखने जाते हो तो टिकट देते हो न? स्वर्ग देखने के लिये भी तुम्हें उसी प्रकार रुपये देने पड़ेंगे।
स्वप्न में लक्ष्मीनारायण सोचने लगा कि मैं दादी से रुपये माँगूँगा। लेकिन देवता ने कहा- स्वर्ग में तुम्हारे रुपये नहीं चलते। यहाँ तो भलाई और पुण्य कर्मों का रुपया चलता है।
अच्छा, काम करोगे तो एक रुपया इसमें आ जायगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जायगा। जब यह डिबिया भर जायगी, तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।
जब लक्ष्मीनारायण की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन उसकी दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला।
एक रोगी भिखारी उससे पैसा माँगने लगा। लक्ष्मीनारायण भिखारी को बिना पैसा दिये भाग जाना चाहता था, इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक उदार लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर लक्ष्मीनारायण ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोंकी और प्रशंसा की।
घर लौटकर लक्ष्मीनारायण ने वह डिबिया खोली, किन्तु वह खाली पड़ी थी। इस बात से लक्ष्मी नारायण को बहुत दुःख हुआ। वह रोते- रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखायी पड़े और बोले- तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिये पैसा दिया था, सो प्रशंसा मिल गयी।
अब रोते क्यों हो ? किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है, वह तो व्यापार है, वह पुण्य थोड़े ही है। दूसरे दिन लक्ष्मीनारायण को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिये। पैसे लेकर उसने बाजार जाकर दो संतरे खरीदे।
उसका साथी मोतीलाल बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोतीलाल को देखने उसके घर वैद्य आये थे। वैद्य जी ने दवा देकर मोती लाल की माता से कहा- इसे आज संतरे का रस देना।
मोतीलाल की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली- ‘मैं मजदूरी करके पेट भरती हूँ। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिये एक भी पैसा नहीं है।’
लक्ष्मीनारायण ने अपने दोनों संतरे मोतीलाल की माँ को दिये। वह लक्ष्मीनारायण को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब लक्ष्मीनारायण ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।
एक दिन लक्ष्मीनारायण खेल में लगा था। उसकी छोटी बहिन वहाँ आयी और उसके खिलौनों को उठाने लगी। लक्ष्मीनारायण ने उसे रोका। जब वह न मानी तो उसने उसे पीट दिया।
बेचारी लड़की रोने लगी। इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपये उड़ गये हैं। अब उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। उसने आगे कोई बुरा काम न करने का पक्का निश्चय कर लिया।
मनुष्य जैसे काम करता है, वैसा उसका स्वभाव हो जाता है। जो बुरे काम करता है, उसका स्वभाव बुरा हो जाता है। उसे फिर बुरा काम करने में ही आनन्द आता है। जो अच्छा काम करता है, उसका स्वभाव अच्छा हो जाता है। उसे बुरा काम करने की बात भी बुरी लगती है।
लक्ष्मीनारायण पहले रुपये के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे- धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया। अच्छा काम करते- करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गयी। स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता, उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुँचा।
लक्ष्मीनारायण ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ एक बूढ़ा साधु रो रहा है। वह दौड़ता हुआ साधु के पास गया और बोला- बाबा ! आप क्यों रो रहे है? साधु बोला- बेटा जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है, वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था।
बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूँगा, किन्तु आज गंगा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गयी। लक्ष्मी नारायण ने कहा- बाबा ! आप रोओ मत। मेरी डिबिया भी भरी हुई है। आप इसे ले लो।
साधु बोला- तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है, इसे देने से तुम्हें दुःख होगा। लक्ष्मी नारायण ने कहा- मुझे दुःख नहीं होगा बाबा ! मैं तो लड़का हूँ। मुझे तो अभी बहुत दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिबिया रुपये इकट्ठे कर सकता हुँ। आप बूढ़े हो गये हैं। आप मेरी डिबिया ले लीजिये।
साधु ने डिबिया लेकर लक्ष्मीनारायण के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। लक्ष्मीनारायण के नेत्र बंद हो गये। उसे स्वर्ग दिखायी पड़ने लगा। ऐसा सुन्दर स्वर्ग कि दादी ने जो स्वर्ग का वर्णन किया था, वह वर्णन तो स्वर्ग के एक कोने का भी ठीक वर्णन नहीं था।
जब लक्ष्मीनारायण ने नेत्र खोले तो साधु के बदले स्वप्न में दिखायी पड़ने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- बेटा ! जो लोग अच्छे काम करते हैं, उनका घर स्वर्ग बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अन्त में स्वर्ग में पहुँच जाओगे।’ देवता इतना कहकर वहीं अदृश्य हो गये।
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अदालत में हिंदी’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 100 ☆
☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।
मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।
अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?
नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत विदेशियों से जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?
ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?
जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं, तब इसे सुनकर नौजवान देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे। मैं सबकी प्रिय थी, कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ? हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए, हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।
अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने लगे। उन्होंने आदेश दिया – गवाह पेश किया जाए।
हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।
नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।
हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में नजर दौड़ाई, बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक ज्ञानवर्धक एवं विचारणीय लघुकथा –“सेवा”।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 118 ☆
☆ लघुकथा – सेवा ☆
दो घंटे आराम करने के बाद डॉक्टर साहिबा को याद आया, ” चलो ! उस प्रसूता को देख लेते हैं जिसे आपरेशन द्वारा बच्चा पैदा होगा, हमने उसे कहा था,” कहते हुए नर्स के साथ प्रसव वार्ड की ओर चल दी. वहां जा कर देखा तो प्रसूता के पास में बच्चा किलकारी मार कर रो रहा था तथा दुखी परिवार हर्ष से उल्लासित दिखाई दे रहा था.
” अरे ! यह क्या हुआ ? इस का बच्चा तो पेट में उलझा हुआ था ?”
इस पर प्रसूता की सास ने हाथ जोड़ कर कहा, ” भला हो उस मैडमजी का जो दर्द से तड़फती बहु से बोली— यदि तू हिम्मत कर के मेरा साथ दे तो मैं यह प्रसव करा सकती हूँ.”
”फिर ?”
”मेरी बहु बहुत हिम्मत वाली थी. इस ने हामी भर दी. और घंटे भर की मेहनत के बाद में प्रसव हो गया. भगवान ! उस का भला करें.”
” क्या ?” डॉक्टर साहिबा का यकीन नहीं हुआ, ” उस ने इतनी उलझी हुई प्रसव करा दी. मगर, वह नर्स कौन थी ?”
सास को उस का नाम पता मालुम नहीं था. बहु से पूछा,” बहुरिया ! वह कौन थी ? जिसे तू 1000 रूपए दे रही थी. मगर, उस ने लेने से इनकार कर दिया था.”
” हां मांजी ! कह रही थी सरकार तनख्वाह देती है इस सरला को मुफ्त का पैसा नहीं चाहिए.”
यह सुनते ही डॉक्टर साहिबा का दिमाग चकरा गया था. सरला की ड्यूटी दो घंटे पहले ही समाप्त हो गई थी. फिर वह यहाँ मुफ्त में यह प्रसव करने के लिए अतिरिक्त दो घंटे रुकी थी.
”इस की समाज सेवा ने मेरी रात की डयूटी का मजा ही किरकिरा कर दिया. बेवकूफ कहीं की,” धीरे से साथ आई नर्स को कहते हुए डॉक्टर साहिबा झुंझलाते हुए अगले वार्ड में चल दी.
(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब) शिक्षा- एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)
☆ कथा कहानी ☆ नानी की कहानी ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆
नानी पूरी हो गयी पर उसकी कहानी अभी अधूरी है । नानी अब इस दुनिया में नहीं रही पर उसकी कहानी अभी बाकी है । वैसे भी नानी और कहानी का नाता सदियों पुराना है । नानी की सबसे बड़ी खासियत यही मानी जाती है कि वह कहानी सुनाती है । नानी के बिना कहानी का मज़ा क्या ? नानी है तो कहानी है । कहानी है तो ,,, पर अब नानी नहीं रही , इसलिए उसकी कहानी मुझे ही कहानी होगी । बेशक नानी के कहने का अंदाज मेरे बस का रोग नहीं है । फिर भी कहानी तो कहूंगा ही । कोशिश कर लेने में हर्ज ही क्या है ? कोशिश नहीं करूंगा तो कहूंगा कैसे ?
जन्म के बाद अपनी पहली किलकारी मैंने अपनी नानी की गोद में ही भरी थी । बदले में नानी ने मुझे अपने चुम्बनों से नहला दिया था । उसे नानी बनने का गौरव या कहें तमगा मैंने ही तो प्रदान किया था भाई । मेरे जन्म के साथ ही नानी की चिंता भी दूर हो गयी थी । अब उसकी बड़ी बेटी के पांव ससुराल में अच्छे से जम सकेंगे । खैर भाई मुझे तो नानी की कहानी कहनी है ।
नानी ने अपने सुनहरे दिनों की गाथा अपने दिल में ही छिपा रखी थी जबकि उसकी व्यथा कथा ही मेरी पकड़ में आई । फिर भी घर के बाहर , घर के मुख्य द्वार पर नाना के नाना के ओहदे की नेमप्लेट जाहिर करती है कि कभी नानी भी महारानी थी । कभी मेरी नानी के सिक्के भी चलते थे । नाना ऊंचे ओहदे पर थे और ओहदे की ऊंचाई पर नानी बड़ी शान ओ शौकत के साथ विराजमान थी । नाना काम करते थे , नानी शान मारती थी । नाना की आवाज पास बैठे आदमी को भी मुश्किल से सुनाई देती थी जबकि नानी की आवाज सारे घर में गूंजती थी । नानी के आदेश नाना ‘जो हुकुम सरकार ‘ कह कर खुशी खुशी मान लिया करते थे । नाना होंगे बड़े अफसर अपने दफ्तर में पर घर में नानी उनकी भी बड़ी अफसर थी । वैसे भी हर अच्छी पत्नी का अपने पति की अफसर होना बहुत आम बात है और होनी चाहिए भी । नहीं तो पति पत्नी के बीच किसी ‘वो’ के आने का डर सताता रहता है । नानी ने सबकी बो काटा कर रखी थी । मजाल है कि कोई वो बीच में आ सकती । नानी किसी सर्कस की अनुभवी रिंग मिसस्ट्रेस से कम न थी । नानी सबको अपनी उंगलियों पर नचाने में कुशल थी । नाना एकदम खामोश रहने वाले तो नानी बहुत वातूनी । वैसे भी बातें उसे सूझती हैं जिसकी चलते हो और सुनी जाती हो । नाना पढ़ाकू किस्म के आदमी थे तो नानी झांसी की रानी जितनी लड़ाकू थी । आप ही कहिए कि जिस औरत को चूल्हे सै लेकर पति को संभालना पड़े तो उसे कैसी न किसी के साथ तो उलझना ही पड़ता है । मेरे नाना सीधे सादे तो नानी एक ही पल में सब कुछ उलट पुलट कर देने वाली । सारा घर मेरी नानी की रियासत था जिस पर नानी का हुक्म चलता था ।
नाना रिटायर हुए और मेरे मामा लोग बड़े हुए । मामा नौकरियों पर लगे तो नाना स्वर्गवास हुए । जैसे किसी नाटक का दृश्य बदल गया हो । दृश्य यहां तक बदला कि मामा ब्याहे गये और नये जमाने की बहुओं ने नानी को रिटायर होने की घोषणा कर देने पर मजबूर कर दिया । मामियों को राजपाट मिला तो नानी को संन्यास । भाई सचमुच का संन्यास नहीं लेकिन आप ही कहिए कि घर के किसी कोने में चारपाई डाल कर बिठा देना संन्यास देने के बराबर है या नहीं ? संन्यास ही तो माना जायेगा न ? नानी पुरानी यादों और नाना के चित्रों को समेटती समेटेती सिमटती गयी । धूल में सने चित्र धीरे धीरे संदूक में जमा होते गये । बेटे बहुओं के नये नये चित्र दीवारों पर सजते गये । नहीं उतरी या बदली तो नाना के नाम की ऊंचे ओहदे वाली नेमप्लेट । शायद इसलिए कि आने जाने वाले लोगों पर रौब पड़ता रहे । शायद इसलिए भी कि कोई भी ‘सुपुत्र’ उस ऊंचाई को छू नहीं पाया जिस ऊंचाई पर नाना पहुंचे थे । मामूली काम धंधों पर लगे बेटों के मान सम्मान की प्रतीक थी नाना के नाम की नेमप्लेट ! वही नानी जिसकी कभी पर चांदी की चाबियों का गुच्छा लटकता रहता था , वही नानी अब बैठक में अपनी दुनिया समेटे , चांदी हुए बिखरे बालों से यादों में खोई रहती थी ! नानी की चारपाई , चौका-बर्तन , यहां तक कि नहाना धोना सबके लिए कुल जमा एक बैठक बची थी और गुजारे के लिए सरकार की ओर से मिलने वाली बुढ़ापा पेंशन ! बेचारे बेटों के लिए अपनी घर गृहस्थियां चलाना ही पहाड़ पार करने जैसा काम था । ऊपर से एक बुढ़िया का बोझ इस कमरतोड़ महंगाई में उठाना बहुत ही मुश्किल चढ़ाई चढ़ने जैसा था ! वैसे जब कभी किसी बच्चे का जन्म निकट होता तब नानी का महत्त्व बढ़ जाता । भारतीय संस्कृति की गौरव गाथा गाते हुए नानी का आदर सत्कार बढ़ जाता । उस सुनहरी दौर के बीत जाने के बाद नानी को धीरे धीरे उसी बैठक में धकेल दिया जाता । नानी उस दौर को किसी बुद्धू की तरह आंखें झपकाती याद करती और बहुओं की खिलखिलाहट सब कुछ समझा देती ।
नाना के बाद जहां इतना कुछ बदला था , वहीं घर का नक्शा भी बदल गया था । कारीगरों की ठक् ठक् जैसे वक्त की मार की तरह ऐन दिल दिमाग पर पड़ती थी । एक की जगह देखते देखते तीन तीन रसोइयां हो गयी थीं । बच्चों की किलकारियों से गूंजने वाला और मुस्कानों से महकने वाला आंगन बंटवारे की राह देख रहा था । बंटवारे की लकीरें खींच दी गयी थीं लेकिन अपनी बची खुशी ताकत से नानी इनकी बुनियाद पर बैठ गयी थी कि मेरे मरने के बाद ही घर का बंटवारा होगा । यानी नानी की मौत ही बंटवारे को हरी झंडी दे सकती थी और जैसे सब इस इंतजार में थे । नानी ने जिन आखों से घर को सजाने संवारने के सपने देखे थे , उन्हीं आंखों से घर को टूटते बिखरते तो नहीं देख सकती थी न ! तब जब कभी ननिहाल जाना होता तो मानो दम घुटने घुटने को हो जाता ! नानी के हाथों की छुअन और मीठे बोल ही जैसे सुखद हवा के झोके जैसे लगते ।
पर अब नानी नहीं रही । नानी के बीमार होने की खबर पाकर जब तक मैं ननिहाल पहुंचा तब तक उसे बिस्तर से जमीन पर उतारा जा चुका था और उसके बचे खुचे सम्मान की गठरी बांध कर एक कोने में रख दिया गया था । मुझे रेलवे स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार करते मुसाफिरों का मंजर याद हो आया । जो विदाई को उतावले होते हैं । क्या नानी भी विदाई के लिए इतनी ही उतावली थी ? शायद हां !
अचानक नाना की नेमप्लेट पर मेरी नजर चली गयी । यह नेमप्लेट समर की धूल मिट्टी के साथ काफी धूमिल हो चुकी थी । रौब दाव डालने वाले अक्षर अब बहुत मद्धिम पड़ चुके थे । बहुत बदरंग हो चुकी थी नेमप्लेट ! बदले हुए जमाने और नये दौर के बीच , यह नेमप्लेट आधुनिकता के बीच सांस लेने वाले लोगों के माथे पर मात्र तिलक लगाने के समान रह गयी थी ।
आग की लपटों ने जब नानी को अपनी आगोश में ले लिया मुझे लगा कि नानी अपनी असली जगह पहुंच गयी है ।
खैर ! यह तो थी मेरी नानी की कहानी ! आपको क्या ? अरे ! समझा ! आपकी , सबकी नानी है और सबकी नानी की कहानियां हैं भाई । वे कहानियां आप कहियेगा पर थोड़े हेरफेर के साथ ऐसी ही कहानियां नहीं हैं सबकी नानी की !
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ आपदां अपहर्तारं ☆
आज की साधना
श्रीगणेश साधना, गणेश चतुर्थी तदनुसार बुधवार 31अगस्त से आरम्भ होकर अनंत चतुर्दशी तदनुसार शुक्रवार 9 सितम्बर तक चलेगी।
इस साधना का मंत्र होगा- ॐ गं गणपतये नमः
साधक इस मंत्र के मालाजप के साथ ही कम से कम एक पाठ अथर्वशीर्ष का भी करने का प्रयास करें। जिन साधकों को अथर्वशीर्ष का पाठ कठिन लगे, वे कम से कम श्रवण अवश्य करें। उसी अनुसार अथर्वशीर्ष पाठ/ श्रवण का अपडेट करें।
अथर्वशीर्ष का पाठ टेक्स्ट एवं ऑडियो दोनों स्वरूपों में इंटरनेट पर उपलब्ध है।
आपसे विनम्र अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
संजय दृष्टि – भेष की मर्यादा
ठाकुर जी का मंदिर कस्बे के लोगों के लिए आस्था का विशेष केंद्र था। प्राचीन मंदिर, पंच धातु का विग्रह और बूढ़े पुरोहित जी का प्रवचन..। मंदिर की वास्तु से लेकर विग्रह तक, पुरोहित जी की सेवा से लेकर उनके प्रवचन तक, सबमें गहन आकर्षण था। जिस किसी की भी दृष्टि मंदिर पर जाती, वह टकटकी बांधे देखता ही रह जाता।
मंदिर पर दृष्टि तो उसकी भी थी। सच तो यह है कि मंदिर के बजाय उसकी दृष्टि ठाकुर जी की मूर्ति पर थी। अब तक के अनुभव से उसे पता था कि पंच धातु की मूर्ति कई लाख तो दिला ही देती है। तिस पर सैकड़ों साल पुरानी मूर्ति याने एंटीक पीस। प्रॉपर्टी का डेप्रिसिएशन होता है, पर मूर्ति ज्यों-ज्यों पुरानी होती है, उसका एप्रिसिएशन होता है। मामला करोड़ों की जद तक पहुँच रहा था।
उसने नियमित रूप से मंदिर जाना शुरू कर दिया। बूढ़े पुरोहित जी बड़े जतन से भगवान का शृंगार करते। आरती करते हुए उनकी आँखें मुँद जाती और कई बार तो आँखों से आँसू छलक पड़ते, मानो ठाकुर जी को साक्षात सामने देख लिया हो। मूर्ति की तरह ही पुरोहित जी भी एंटीक वैल्यू रखते थे।
आरती के बाद पुरोहित जी प्रवचन किया करते। प्रवचन के लिए बड़ी संख्या में लोग जुटते। उनका बोलना तो इतना प्रभावी ना था पर जो कुछ कंठ में आता, वह ह्रदय तल से फूटता। सुनने वाला मंत्रमुग्ध रह जाता। अनेक बार स्वयं पुरोहित जी को भी आश्चर्य होता कि वे क्या बोल गए। दिनभर पूजा अर्चना, ठाकुर जी की सेवा और रात में वही एक कमरे में पड़े रहते पुरोहित जी।
इन दिनों भेष की मर्यादा पर उनका प्रवचन चल रहा था।… हर आदमी सच्चा होता है। दुनियावी लोभ, लालच कुछ समय के लिए उसे उसी तरह ढके होते हैं जैसे जेर से भ्रूण। देर सबेर जेर को हटना पड़ता है, भ्रूण का जन्म होता है।..आदमी की सच्चाई पर उसके भेष का बहुत असर पड़ता है। वह जिस भेष में होता है, उसके भीतर वैसा ही दायित्व बोध जगने लगता है। सेल्समैन हो तो सामान बेचने के गुर उमगने लगते हैं। शिक्षक हो तो विद्यार्थी को विषय समझाने की बेचैनी घेर लेती है। चौकीदार का भेष हो तो प्राण देकर भी संपत्ति, वस्तु या व्यक्ति की रक्षा करने के लिए मन फ़ौलाद हो जाता है।…वह सुनता, मुस्करा देता।
आरती और प्रवचन के लिए रोज़ाना आते-आते पुरोहित जी से उसका संबंध अब घनिष्ठ हो चुका था। मंदिर के ताला-चाबी की जगह भी उसे ज्ञात हो चुकी थी। एक तरह से मंदिर का मैनेजमेंट ही देखने लगा था वह।
प्रवचन की यह शृंखला तीन दिन बाद संपन्न होने वाली थी। हर शृंखला के बाद चार-पाँच दिन विराम काल होता। तत्पश्चात पुरोहित जी फिर किसी नये विषय पर प्रवचन आरंभ करते। आज रात उसने अपने सभी साथियों को बता दिया था कि विराम काल में ठाकुर जी का विग्रह कैसे अपने कब्ज़े में लेना है। कौन सा दरवाजा कैसे खुलेगा, किस-किस दरवाज़े का ताला टूट सकता है, किसकी डुप्लीकेट चाबी वह बना चुका है। आज से तीसरी रात योजना को सिद्ध करने के लिए तय हुई।
तीसरे दिन प्रवचन संपन्न हुआ। इस बार पुरोहित जी का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता गया था। आज तो उन्हें बहुत अधिक थकान थी, ज्वर भी तीव्र था। उनका एक डॉक्टर शिष्य आज गाड़ी लेकर आया था। उसने ज़ोर दिया कि इस बार दवा से काम नहीं चलेगा। कुछ दिन दवाखाने में एडमिट रहना ही होगा।
पुरोहित जी, अपने ठाकुर जी को छोड़कर नहीं जाना चाहते थे। डॉक्टर शिष्य स्थिति की नज़ाकत समझ रहा था, सो पुरोहित जी को साथ लिए बिना जाना नहीं चाहता था। अंतत: जीत डॉक्टर की हुई।
गाड़ी में बैठने से पहले पुरोहित जी ने उसे बुलाया। धोती से बंधी चाबियाँ काँपते हाथों से खोलीं और उसके हाथ में देते हुए बोले,…ठाकुर जी की चौकीदारी की ज़िम्मेदारी अब तुम्हारी। भगवान ने खुद तुम्हें अपना रक्षक नियुक्त किया है। आगे मंदिर की रक्षा तुम्हारा धर्म है।…
जड़वत खड़ा रह गया वह। भीतर नाना प्रकार के विचारों का झंझावात उठने लगा। ठाकुर जी के जिस विग्रह पर उसकी दृष्टि थी, उसी को टकटकी लगाए देख रहा था। उसे लगा केवल वही नहीं बल्कि ठाकुर जी भी उसे देख रहे हैं। मानो पूछ रहे हों,….मेरी रक्षा का भार उठा पाओगे न?…
विचारों की असीम शृंखला चल निकली। अब तक के व्यक्तित्व पर निरंतर प्रहार होने लगे। भ्रूण जन्म लेने को मचलने लगा। जेर में दरार पड़ने लगी।
तभी दरवाज़ा टूटने की आवाज़ ने उसकी तंद्रा को भंग कर दिया। चेहरा ढके, लाठियाँ लिए उसकी टोली अंदर आ चुकी थी।
ठाकुर जी के चौकीदार में बिजली प्रवाहित होने लगी। चौकीदार ने टोली को ललकारा। आश्चर्यचकित टोली पहले तो इसे मज़ाक समझी। सच्चाई जानकर टोली, चौकीदार पर टूट पड़ी।
चौकीदार में आज जाने किस शक्ति का संचार हो गया था। वह गोरा-बादल-सा लड़ा। उसकी एक लाठी, टोली की सारी लाठियों पर भारी पड़ रही थी। लाठियों की तड़तड़ाहट में खुद को कितनी लाठियाँ लगीं, कितनी हड्डियाँ चटकीं, पता नहीं पर लहुलुहान टोली के पास भागने के सिवा और कोई विकल्प नहीं बचा।
शत्रु के भाग खड़े होने के बाद उसने खुद को भी ऊपर से नीचे तक रक्त में सना पाया। किसी तरह शरीर को ठेलता हुआ गर्भगृह के द्वार तक ले आया। संतोष के भाव से ठाकुर जी को निहारा। ठाकुर जी की मुद्रा भी जैसे स्वीकृति प्रदान कर रही थी। उसके नेत्रों से खारे पानी की धारा बह निकली। हाथ जोड़कर रुंधे गले से बोला,…ठाकुर जी आप साक्षी हैं। मैंने भेष की मर्यादा रख ली।…
कुछ दिनों बाद मंदिर के परिसर में पुरोहित जी की समाधि के समीप उसकी भी समाधि बनाई गई।
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा “रात का चौकीदार” महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी लघुकथा “बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी…”।)
☆ तन्मय साहित्य # 149 ☆
☆ लघुकथा – बुजुर्गों की गप्प गोष्ठी…☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆
सायंकालीन दिनचर्या में टहलते हुए किसी पार्क के कोने या किसी पुलिया पर समय काटते बुजुर्गों के समूह में अजीब चर्चाओं का दौर चलता रहता है।
आज चर्चा शुरू करते हुए रूपचंद ने पूछा – “रामदीन! यह बताओ इन भगवानों के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?”
“विचार क्या! ये सब इंसानी दिमागों की उपज है। ढूँढो तो इन भगवानों में भी कई खोट मिल जाएंगे। अब राम जी को ही ले लो, कहने को मर्यादा पुरुषोत्तम और एक धोबी के कहने से अग्नि में पवित्र हुई गर्भवती सीता जी को अकेली जंगल में छुड़वा दिया।”
“सच कहते हो रामदीन! बृजमोहन जी बीच में ही बोल पड़े, सोलह कलाओं के स्वामी पूर्णावतार कृष्ण जी ने क्या कम गुल खिलाये थे! सुना है सोलह हजार रानियों के बीच में केवल सत्यभामा और रुक्मणी जी की पूछ-परख बाकी सब बाँदियों की तरह थी। वैसे तत्वदर्शी मनीषी इन बातों की अलग तरह से भी आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं।”
“अरे ब्रजमोहन! दूर क्यों जाते हो ईश्वर के बारहवें अवतार भगवान बुद्ध तो अपनी सोई हुई पत्नी और वृद्ध माता-पिता को बीच मँझधार में छोड़ कर अपने मोक्ष के लिए रातों रात घर से पलायन कर गए थे, रघुनंदन ने कहा, जबकि विदेही राजा जनक की भांति अपने राजधर्म का पालन करते हुए भी वे बुद्धत्व को प्राप्त कर सकते थे।”
“हाँ भाई रघुनंदन, वैसे बुद्ध को भी छोड़ दें तो अभी-अभी के हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में कहते हैं कि, वृद्धावस्था में भी अपनी कामवासना पर काबू कर पाए हैं कि नहीं यह जाँचने के लिए विचित्र-विचित्र प्रयोग करने लगे थे। बाकी उनके यौवनकाल की घटना तो जानते ही हैं हम सब रूपचंद ने कहा।”
“गांधी जी ने तो फिर भी देश के लिए बहुत कुछ किया था रूपचंद भाई!”
बीच में ही भवानी प्रसाद बोल उठे – “किंतु आज तो सभी नेता अपनी तिजोरी भरने और देश का पैसा विदेशी बैंकों में जमा करने में लगे हैं। देश प्रेम के मुखौटे लगाए ये लोग अंदर कुछ और बाहर कुछ हैं। अब अपने क्षेत्र से ही जीते हुए नेता जी को ले लो साल में दो बार शिर्डी, वैष्णो देवी और आसपास के मंदिरों की शाही यात्राएं कर सदा मजमें लगा कर अपने को चर्चाओं में बनाये रखते हैं। उनका असली रूप क्या है सब लोग उनके आशिक मिज़ाजी कुकर्मों से परिचित ही हैं।”
“भवानी प्रसाद! कुकर्मों की बात तुम नहीं ही करो तो अच्छा है। करम तो तुम्हारे भी ठीक नहीं थे, देवीसिंह ने हँसते हुए कहा – रंगीन मिजाजी के तुम्हारे किस्से हम आज तक भी भूले नहीं हैं, याद है न तुम्हें?”
“और तुम कौन से दूध के धुले हो यार! मुँह न खुलवाओ मेरा नहीं तो तुम्हारी भी पूरी पोथी बाँच सकता हूँ यहाँ।”
“पोथियाँ तो यहाँ सबकी सब की बनी है, बस बाँचने भर की देर है, रूपचन्द ने कहा।”
बात भगवान से शुरू होकर अपने तक आ गई, लगने लगा कि इसके बाद अब सब लपेटे में आने वाले हैं।
रामदीन ने आज की गोष्ठी का समापन करते हुए कहा “साथियों! रात के आठ बजने वाले हैं, यदि अब भी हम लोग घर नहीं पहुँचे और घर का चूल्हा चौका एक बार बंद हो गया तो फिर कुछ अलग सी पोथी श्रवण के साथ कल दोपहर तक ही खाना नसीब हो पाएगा हमें, इसलिए आज की यह चर्चा गोष्ठी कल तक के लिए स्थगित की जाती है। सब कुछ ठीक रहा तो कल फिर मिलेंगे।”
आखिर खाली मन रोज-रोज बातें करें भी तो क्या कभी राजनीति, कभी मँहगाई, कभी पेंशन, तो कभी अड़ोस-पड़ोस की, बस इसी प्रकार कुछ नए नए विषय लेकर उनके तार मिलाते दिल बहलाते हल्की-फुल्की छींटाकशी करते फिर पूरे समय के लिए चुप्पियों की शरण में चले जाते हैं- अपनत्व से वंचित ये बुजुर्ग लोग।