हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 37 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

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रामेश्वरम धाम-

तमिलनाडु के रामनाथपुरम जनपद में रामेश्वर धाम स्थित है। यह बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक  है। भगवान श्रीराम ने रावण से युद्ध के लिए लंका जाते समय  शिवलिंग की स्थापना की थी। रामेश्वरम धाम  बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर से घिरा हुआ एक टापू है।

यह वही स्थान है जहाँ रामसेतु बना था। धनुष्कोडि से जाफना तक 48 किलोमीटर लम्बा यह सेतु था। नासा के सैटेलाइटों द्वारा खींची गई तस्वीरों में यह समुद्र के भीतर एक पतली रेखा के रूप में दिखाई देता है। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में भी रामसेतु का उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि  5 दिन में रामसेतु  तैयार हो गया था। वाल्मीकि रामायण में रामसेतु का वर्णन मिलता है जिसकी लम्बाई सौ योजन थी और चौड़ाई दस योजन।

दशयोजनविस्तीर्णं शतयोजनमायतम्।ददृशुर्देवगन्धर्वा नलसेतुं सुदुष्करम्।।

वाल्मीकि रामायण (6/22/76)

नल और नील नामक दो वानर सेनानी रामसेतु के मुख्य शिल्पी और वास्तुविद थे। किंवदंती है कि उन्होंने इसके निर्माण के लिये प्रयुक्त पत्थरों पर ‘श्रीराम’ लिखवाया था। जिस समुद्र को लांघना साक्षात श्रीराम के लिए कठिन था, वह रामनाम के पत्थरों से बने सेतु से साध्य हो गया। इसीलिए लोकोक्ति प्रचलित हुई कि ‘राम से बड़ा राम का नाम।’ व्यक्ति नहीं गुणों की महत्ता का प्रतिपादन वही संस्कृति कर सकती है जो पार्थिव नहीं सूक्ष्म देखती हो।  

आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित श्रृंगेरीपीठ रामेश्वरम में है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच# 131 ☆ ‘जगत रंगमंच है… ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 131 ☆ ‘जगत रंगमंच है… ?

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख  सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं किया अपितु रंगमंच को जिया, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

रंगमंच के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही।  सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने  दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

मुखौटे से जुड़ा एक प्रसंग स्मरण हो आया है। तेज़ धूप का समय था। सेठ जी अपनी दुकान में कूलर की हवा में बैठे ऊँघ रहे थे। सामने से एक मज़दूर निकला; पसीने से सराबोर और प्यास से सूखते कंठ का मारा। दुकान से बाहर  तक आती कूलर की हवा ने पैर रोकने के लिए मज़दूर को मजबूर कर दिया। थमे पैरों ने प्यास की तीव्रता बढ़ा दी। मज़दूर ने हिम्मत कर  अनुनय की, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ सेठ जी ने उड़ती नज़र डाली और बोले, ‘दुकान का आदमी खाना खाने गया है। आने पर दे देगा।’ मज़दूर पानी की आस में ठहर गया। आस ने प्यास फिर बढ़ा दी। थोड़े समय बाद फिर हिम्मत जुटाकर वही प्रश्न दोहराया, ‘सेठ जी, पीने के लिए पानी मिलेगा?’ पहली बार वाला उत्तर भी दोहराया गया। प्रतीक्षा का दौर चलता रहा। प्यास अब असह्य हो चली। मज़दूर ने फिर पूछना चाहा, ‘सेठ जी…’ बात पूरी कह पाता, उससे पहले किंचित क्रोधित स्वर में रेडिमेड उत्तर गूँजा, “अरे कहा न, दुकान का आदमी खाना खाने गया है।” सूखे गले से मज़दूर बोला, “मालिक, थोड़ी देर के लिए सेठ जी का मुखौटा उतार कर आप ही आदमी क्यों नहीं बन जाते?”

जीवन निर्मल भाव से जीने के लिए है। मुखौटे लगाकर नहीं अपितु आदमी बन कर रहने के लिए है।

सूत्रधार कह रहा है कि प्रदर्शन के पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया पर्दे के आगे मुखौटा लगाकर खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक प्रवृत्ति की ओर, लौटें बिना मुखौटों के मंच पर। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है। ….विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई।

 

© संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – आत्मानंद साहित्य #115 ☆ अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 115 ☆

☆ ‌अवसाद एक मनोरोग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

यह  शरीर प्रकृति प्रदत्त एक उपहार हैं जिसकी संरचना विधाताद्वारा की गई है। इसकी आकृति प्रकृति वंशानुगत गुणों द्वारा निर्मित तथा निर्धारित होती है। सृष्टि में पैदा होने वाला शरीर योनि गत गुणों से आच्छादित होता है। यद्यपि भोजन, शयन, संसर्ग प्रत्येक योनि का प्राणी करता है। बुद्धि और ज्ञान प्रत्येक योनि के जीवों में मिलता है, लेकिन मानव शरीर इस मायने में विशिष्ट है कि ईश्वर ने मानव को ज्ञान बुद्धि के साथ विवेक भी दिया है। इसके चलते विवेक शील प्राणी उचित-अनुचित का विचार कर सकता है जब कि अन्य योनि के जीवों में संभवतः यह सुविधा उपलब्ध नहीं है।

शारिरिक संरचना का अध्ययन करने से पता चलता है कि स्थूल शरीर संरचना के मुख्य रूप से दो भाग हैं पहला बाह्यसंरचना तथा दूसरा आंतरिक संरचना। बाह्य शरीर को हम देख सकते हैं जब की आंतरिक संरचना बिना शरीर के विच्छेदन किए देख पाना संभव नहीं है। आज़ विज्ञान बहुत प्रगति कर चुका है लेकिन फिर भी वह इस शरीर की जटिलता को समझ नहीं पाया है अभी भी शोध कार्य जारी है। शरीर की आंतरिक संरचना में जब रासायनिक परिवर्तन अथवा अन्य विकृतियों के चलते तमाम प्रकार के रोग पनपते हैं और मानव जीवन को त्रासद बना देते हैं, इन्ही में कुछ बीमारियां है जो मन से पैदा होती है इनमें अवसाद एक मनोरोग है। इसके रोगी को नींद नहीं आती, वह एकांत वास चाहता है, एकाकी पन के चलते घुटता रहता है।

उसे खुद का जीवन नीरस लगने लगता है। वह खुद को उपेक्षित तथा असमर्थ समझने लगता है उसकी भूख और नींद उड़ जाती है। ऐसे व्यक्ति प्राय: नशे का शिकार हो जाते हैं। कुछ न कुछ बड़बड़ाते रहते हैं और अनाप-शनाप हरकतें करने लगते हैं। अकेले रहना चाहते हैं।

वे अपनी दुख और पीड़ा किसी से कह नहीं सकते हैं उनके भीतर बार बार नकारात्मक विचार आते हैं। और ऐसे रोगी प्राय: आत्महीनता की स्थिति में आत्महत्या कर लेते हैं। मनोरोगी को प्राय: मनोचिकित्सा की आवश्यकता होती है। एक कुशल मनोचिकित्सक ही उनका इलाज कर सकता है। ऐसे रोगी घृणा नहीं सहानुभूति के पात्र होते हैं।  इन्हें ओझा और तांत्रिक से दूर रखना चाहिए इसके पीछे बहुत से कारण होते हैं एक कुशल मनोवैज्ञानिक उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि  तथा परिस्थितियों का गहराई से अध्ययन कर उन्हें सामाजिक मुख्य धारा में शामिल कर उन्हें अवसाद से बाहर ला सकता है।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 36 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

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जगन्नाथ पुरी-

भारत के पूर्व में ओडिशा राज्य के पूर्वी समुद्री तट पर स्थित है जगन्नाथ पुरी। अनुसंधान इसे दसवीं सदी का मंदिर मानते हैं तथापि धार्मिक मान्यता इसके आदिकाल से यहाँ स्थित होने की  है। भगवान जगन्नाथ, अपने बड़े भाई बलभद्र एवं बहन सुभद्रा के साथ यहाँ विराजमान हैं। भाई-बहन की मूर्तियों वाला यह एकमात्र मंदिर है। ये मूर्तियाँ लकड़ी से बनी होती हैं। बारह वर्ष पश्चात इन्हें बदला जाता है। इन मूर्तियों के चरण नहीं हैं। भगवान जगन्नाथ और बलभद्र के हाथ तो हैं किंतु कलाई और उंगलियाँ नहीं हैं। इसके पीछे अन्याय किंवदंतियाँ हैं।

इस मंदिर को लेकर अनेक आँखों दिखती आध्यात्मिक विशेषताएँ हैं। मंदिर की ध्वजा का हवा की विपरीत दिशा में उड़ना, सिंहद्वार से अंदर पग रखते ही समुद्र का कोलाहल न सुनाई देना, मंदिर के कंगूरों पर पक्षियों का न बैठना, अक्षय रसोई की पद्धति आदि का इनमें समावेश है।

आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को आरंभ होने वाला जगन्नाथ पुरी का रथयात्रा उत्सव अब अंतरराष्ट्रीय आकर्षण है। ‘नंदीघोष’ नामक रथ में भगवान जगन्नाथ, ‘तालध्वज’ में बलभद्र और ‘दर्पदलन’ में देवी सुभद्रा की मूर्तियाँ आरूढ़ होती हैं। मुख्य मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक रथों को खींचकर ले जाया जाता है। सात दिनों तक भगवान द्वारा विश्राम लेने के बाद रथों को रस्सियों से खींच कर पुनः मुख्य मंदिर तक लाया जाता है। इन रथों को भक्त खींचते हैं।

ध्यान देनेवाली बात है कि भक्त, भगवान के दर्शन के लिए मंदिर जाता है। रथयात्रा में  भगवान, मंदिर से निकलकर भक्तों के बीच आते हैं। समता और लोकतंत्र की यही मूलभूत अवधारणा भी है।

जगन्नाथपुरी में आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित गोवर्धन पीठ है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 125 ☆ कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 125 ☆

☆ कोरोना और जीवन के शाश्वत् सत्य

कोरोना काल का नाम ज़हन में आते ही मानव दहशत में आ जाता है; उसकी धड़कने तेज़ी से बढ़ने लगती हैं और वह उस वायरस से इस क़दर भयभीत हो जाता है कि उसके रोंगटे तक खड़े हो जाते हैं। इस छोटे से वायरस ने संपूर्ण विश्व में तहलक़ा मचा कर मानव को उसकी औक़ात से अवगत करा दिया था। इतना ही नहीं, उसे घर की चारदीवारी तक सीमित कर दिया था। ‘दो गज़ की दूरी; मास्क है ज़रूरी’ का नारा विश्व में गूंजने लगा था। सैनेटाइज़र व साबुन से हाथ धोने की प्राचीन परंपरा का अनुसरण भी इस काल में हुआ और बाहर से लौटने पर स्नान करने की प्रथा का भी पुन: प्रचलन हो गया। मानव अपने घर से बाहर कदम रखने से भी सकुचाने लगा और सब रिश्ते-नाते सहमे हुए से नज़र आने लगे। संबंध-सरोकार मानो समाप्त हो गए। यदि ग़लती से किसी ने घर में दस्तक दे दी, तो पूरे घर के लोग सकते में आ जाते थे और मन ही मन उसे कोसने लगते थे। ‘अजीब आदमी है, न तो इसे अपनी चिंता है, न ही दूसरों की परवाह… पता नहीं क्यों चला आया है हमसे दुश्मनी निभाने।’ इन असामान्य परिस्थितियों में उसके निकट संबंधी भी उससे दुआ सलाम करने से कन्नी काटने लगते थे। वास्तव में इसमें दोष उस व्यक्ति-विशेष का नहीं; कोरोना वायरस का था। वह अदृश्य शत्रु की भांति पूरे लश्कर के साथ उस परिवार पर ही टूट पड़ता था, जिससे उसका उस काल विशेष में संबंध हुआ था। इस प्रकार यह सिलसिला अनवरत चल निकलता था और पता लगने तक असंख्य लोग इसकी गिरफ़्त में आ चुके होते थे।

कोरोना के रोगी को तुरंत अस्पताल में दाखिल करा दिया जाता था, जहां उसके सगे-संबंधी व प्रियजनों को मिलने की स्वतंत्रता नहीं होती थी और उन विषम परिस्थितियों में वह एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हो जाता था। उसके भीतर ऑक्सीजन की कमी हो जाती थी और वह एक-एक सांस का मोहताज हो जाता था। डॉक्टर व सहायक कर्मचारी आदि भी आवश्यक दूरी बनाकर उसे देखकर चले जाते थे तथा डर के मारे रोगी के निकट नहीं आते थे। अक्सर लोगों को तो अपने घर के अंतिम दर्शन करने का अवसर भी प्राप्त नहीं होता था; न ही उसके परिवारजन भयभीत होकर उसके शव को देखने आते थे। दूसरे शब्दों में वह सरकारी संपत्ति बन जाता था और परिवार के पांच सदस्य दूर से उसके दर्शन कर सकते थे। सो! आत्मजों के मन में यह मलाल रह जाता था कि अंतिम समय में कोई भी रोगी के निकट नहीं था; जो उसके गले में गंगा जल डाल सकता। इतना ही नहीं, असंख्य लावारिस लाशों को श्मशान तक पहुंचाने व उनका अंतिम संस्कार करने का कार्य भी विभिन्न सामाजिक संस्थानों द्वारा किया जाता था।

इन असामान्य परिस्थितियों में कुछ लोगों ने खूब धन कमाया तथा अपनी तिजोरियों को भरा। आक्सीजन का सिलेंडर लाखों रुपये में उपलब्ध नहीं था। रेमेसिवर के इंजेक्शन व दवाएं भी बाज़ार से इस क़दर नदारद हो गये थे– जैसे चील के घोंसले से मांस। टैक्सी व ऑटो वालों का धंधा भी अपने चरम पर था। चंद किलोमीटर की दूरी के लिए वे लाखों की मांग कर रहे थे। लोगों को आवश्यकता की सामग्री ऊंचे दामों पर भी उपलब्ध नहीं थी। अस्पताल में रोगियों को बेड नहीं मिल रहे थे। चारों ओर आक्सीजन के अभाव के कारण त्राहि-त्राहि मची हुई थी। परंतु इन विषम परिस्थितियों में हमारे सिक्ख भाइयों ने जहां गुरुद्वारों में अस्पताल की व्यवस्था की; वहीं आक्सीजन के लंगर चलाए गये। लोग लम्बी क़तारों में प्रतीक्षारत रहते थे, ताकि उन्हें ऑक्सीजन के अभाव में अपने प्राणों से हाथ न धोने पड़ें। बहुत से लोग अपने प्रियजनों के शवों को छोड़ मुंह छिपा कर निकल जाते थे कि कहीं वे भी कोरोना का शिकार न हो जाएं।

चलिए छोड़िए! ‘यह दुनिया एक मेला है/ हर शख़्स यहां अकेला है/ तन्हाई संग जीना सीख ले/ तू दिव्य खुशी पा जायेगा।’ यह है जीवन का शाश्वत् सत्य– इंसान दुनिया में अकेला आया है और अकेले ही उसे जाना है। कोरोना काल में गीता के ज्ञान की सार्थकता सिद्ध हो गयी और मानव की आस्था प्रभु में बढ़ गयी। उसे आभास हो गया कि ‘यह किराये का मकां है/ कौन कब तक ठहर पायेगा।’ मानव जन्म से पूर्व निश्चित् सांसें लिखवा कर लाता है और सारी सम्पत्ति लुटा कर भी वह एक भी अतिरिक्त सांस तक नहीं खरीद पाता है।

सो! कोरोना काल की दूसरी व तीसरी लहर ने विश्व में खूब सितम ढाया तथा करोड़ों लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा। लॉकडाउन भी लगभग दो वर्ष तक चला और ज़िंदगी का सिलसिला थम-सा गया। सब अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गये। वर्क फ्रॉम होम का सिलसिला चल निकला, जो लोगों पर नागवार गुज़रा। जो लोग पहले छुट्टी के लिए तरसते थे; ट्रैफिक व रोज़ की आवाजाही से तंग थे और यही कामना करते थे… काश! उन्हें भी घर व परिवारजनों के साथ समय गुज़ारने का अवसर प्राप्त होता। अंततः भगवान ने उनकी पुकार सुन ली और लॉकडाउन के रूप में नवीन सौग़ात प्रदान की, जिसे प्राप्त करने के पश्चात् वे सब सकते में आ गए। घर-परिवार में समय गुज़ारना उन्हें रास नहीं आया। पत्नी भी दिनभर पति व बच्चों की फरमाइशें पूरी करते-करते तंग आ जाती थी और वह पति से घर के कामों में सहयोग की अपेक्षा करने लगी। सबकी स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई और उस पर प्रश्नचिन्ह लग गए थे। सभी लोग तनाव की स्थिति में रहने और दुआ करने लगे…हे प्रभु! इस लॉकडाउन से मुक्ति प्रदान करो। अब उन्हें घर रूपी मंदिर की व्यवस्था पर संदेह होने लगा और उनके अंतर्मन में भयंकर तूफ़ान उठने लगे। फलत: वे मुक्ति पाने के लिए कुलबुलाने लगे।

1जनवरी 2020 से नवंबर 2021 तक कोरोना ने लोगों पर खूब क़हर बरपाया। इसके पश्चात् लोगों को थोड़ी राहत महसूस हुई। तभी ओमीक्रॉन के रूप में तीसरी लहर ने दस्तक दी। लोग मन मसोस कर रह गए। परंतु गत वर्ष अक्सर लोगों को वैक्सीनेशंस की दोनों डोज़ लग चुकी थी। सो! इसकी मारक शक्ति क्षीण हो गई। शायद! उसका प्रभाव भी लम्बे समय तक नहीं रह पायेगा। आशा है, वह शीघ्र ही अपनी राह पर लौट जाएगा और सामान्य दिनचर्या प्रारंभ हो जायेगी।

आइए! कोरोना के उद्गम के मूल कारणों पर चिन्तन करें…आखिर इसके कारण विश्व में असामान्य व विषम परिस्थितियों ने दस्तक क्यों दी? वास्तव में मानव स्वयं इसके लिए उत्तरदायी है। उसने हरे-भरे जंगल काट कर कंकरीट के महल बना लिए हैं। वृक्षों का अनावश्यक कटाव, तालाब व बावड़ियों की ज़मीन पर कब्ज़ा कर बड़ी-बड़ी कालोनियां के निर्माण के कारण भयंकर बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इस प्रकार मानव ने अनावश्यक-अप्राकृतिक दोहन कर प्रकृति से खिलवाड़ किया और वह भी अपना प्रतिशोध लेने पर आमादा हो गई…कहीं सुनामी दस्तक देने लगा, तो कहीं ज्वालामुखी फूटने लगे; कहीं पर्वत दरक़ने लगे, तो कहीं बादल फटने से भीषण बाढ़ के कारण लोगों का जीना मुहाल हो गया। इतना ही नहीं, आजकल कहीं सूखा पड़ रहा है, तो कहीं ग्लेशियर पिघलने से तापमान में परिवर्तन ही नहीं; कहीं भूकम्प आ रहे हैं, तो कहीं सैलाब की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बेमौसमी बरसात से किसानों पर भी क़हर बरप रहा है और लोगों की ज़िंदगी अज़ाब बनकर रह गयी है; जहां मानव दो पल भी सुक़ून से नहीं जी पाता।

धरती हमारी मां है; जो हमें आश्रय व सुरक्षा प्रदान करती है। पावन नदियां जीवनदायिनी ही नहीं; हमारे पापों का प्रक्षालन भी करती हैं। पर्वतों को काटा जा रहा है, जिसके कारण वे दरक़ने लगे हैं और मानव को अप्रत्याशित आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है। पराली जलाने व वाहनों के इज़ाफा होने का कारण पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, जिसके कारण मानव को सांस लेने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। प्लास्टिक के प्रयोग का भी असाध्य रोगों की वद्धि में भरपूर व असाधारण योगदान है। इतना ही नहीं–बच्चों का बचपन कोरोना ने लील लिया है। युवा व वृद्ध मानसिक प्रदूषण से जूझ रहे हैं। वे तनाव व अवसाद के शिकंजे में हैं और लॉकडाउन ने इसमें भरपूर इज़ाफा किया है।

काश! हमने अपनी संस्कृति को संजोकर रखा होता… प्रकृति को मां स्वीकार उसकी पूजा, उपासना, आराधना व वंदना की होती; संयुक्त परिवार व्यवस्था को अपनाते हुए घर में बुज़ुर्गों को मान-सम्मान दिया होता; बेटे-बेटी को समान समझा होता; बेटों को बचपन से मर्यादा का पाठ पढ़ाया होता, तो वे भी सहनशील होते। उन्हें घर में घुटन महसूस नहीं होती। वे घर को मंदिर समझ कर गुनगुगाते…’ईस्ट और वेस्ट, होम इज़ दी बेस्ट’ अर्थात् मानव विश्व में कहीं भी घूम ले; उसे अपने घर लौट कर ही सुक़ून प्राप्त होता है। वैसे तो लड़कियों को बचपन से कायदे-कानून सिखाए जाते हैं; मर्यादा का पाठ पढ़ाया जाता है; घर की चारदीवारी न लांघने का संदेश दिया जाता है और पति के घर को अपना घर स्वीकारने की सीख दी जाती है। परंतु लड़कों के लिए कोई बंधन नहीं होता। वे बचपन से स्वतंत्र होते हैं और उनकी हर इच्छा का सम्मान किया जाता है। यहीं से चल निकलता है मनोमालिन्य व असमानता बोध का सिलसिला…जिसका विकराल रूप हमें कोरोना काल में देखने को मिला और गरीबों, श्रमिकों व सामान्यजनों पर इसकी सबसे अधिक गाज़ गिरी। उन्हें दो जून की रोटी भी नसीब नहीं हुई। यातायात के पहिए थम गए और वे अपने परिवारजनों के साथ अपने घर की ओर निकल पड़े उन रास्तों पर, ताकि वे अपने घर पहुंच सकें। मीलों तक बच्चों को कंधे पर बैठा कर सामान का बोझा लादे, माता-पिता का हाथ थामे उन्होंने पैदल यात्रा की। तपती दोपहरी में तारकोल की सड़कों पर नंगे पांव यात्रा करने का विचार भी मानव को सकते में डाल देता है, परंतु उनके दृढ़ निश्चय के सामने कुछ भी टिक नहीं पाया। पुलिस वालों ने उन्हें समझाने का भरसक प्रयास किया, तो कहीं बल प्रयोग कर लाठियां मांजी, क्योंकि वहां जाकर उन्हें क्वारंटाइन करना पड़ेगा। जी हां! कोरोना व क्वारंटाइन दोनों की राशि समान है। सो! चंद दिनों की यात्रा उन लोगों के लिए पहाड़ जैसी बन गई। कई दिन की लम्बी यात्रा के पश्चात् वे अपने गांव पहुंचे, परंतु वहां भी उन्हें सुक़ून प्राप्त नहीं हुआ। चंद दिनों के पश्चात् उन्हें लौटना पड़ा, क्योंकि उनके लिए वहां भी कोई रोज़गार नहीं उपलब्ध नहीं था। कोराना ने जहां मानव को निपट स्वार्थी बना दिया, वहीं उसने मानव में स्नेह, सौहार्द व अपनत्व भाव को भी विकसित किया। असंख्य लोगों ने नि:स्वार्थ भाव से पीड़ित परिवारों की तन-मन-धन से सहायता की ।

आइए! करोना के दूसरे पक्ष पर भी दृष्टिपात करें। करोना ने मानव को एकांत में आत्मावलोकन व चिंतन-मनन करने का शुभ अवसर प्रदान किया। वैसे भी इंसान विपत्ति में ही प्रभु को स्मरण करता है। कबीरदास जी की पंक्तियां ‘सुख में सुमिरन सब करें, दु:ख में करे न कोय/ जो सुख में सिमरन करे, तो दु:ख काहे को होय’ के माध्यम से मानव को ब्रह्म की सत्ता को स्वीकारने व हर परिस्थिति में उसका स्मरण करने का संदेश प्रेषित किया गया है, क्योंकि वह मानव का सबसे बड़ा हितैषी है और सदैव उसका साथ निभाता है। सुख-दु:ख एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक के जाने के पश्चात् दूसरा दस्तक देता है। सो! ‘जो आया है; अवश्य जाएगा। ऐ मन! भरोसा रख अपनी ख़ुदी पर/ यह समां भी बदल जाएगा।’ आकाश में छाए घने बादलों का बरसना व शीतलता प्रदान करना अवश्यंभावी है। कोरोना ने ‘अतिथि देवो भव’ तथा ‘सर्वेभवंतु सुखीन:’ की भावना को सुदृढ़ किया है। परिणामत: मानव मन में सत्कर्म करने की भावना प्रबल हो उठी, क्योंकि मानव को विश्वास हो गया कि उसे कृत-कर्मों के अनुरूप ही फल प्राप्त होता है। कोरोना काल में जहां मानव अपने घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गया, वहीं उसने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति के नवीन साधन भी खोज निकाले। इंटरनेट पर वेबीनारज़ व काव्य-गोष्ठियों का सिलसिला अनवरत चल निकला। विश्व ग्लोबल विलेज बन कर रह गया। लोगों को प्रतिभा-प्रदर्शन के विभिन्न अवसर प्राप्त हुए, जो इससे पूर्व उनके लिए दूर के ढोल सुहावने जैसे थे।

सो! मानव प्रकृति की दिव्य व विनाशकारी शक्तियों को स्वीकार उसकी ओर लौटने लगा और नियति के सम्मुख नत-मस्तक हो गया, क्योंकि एक छोटे से वायरस ने सम्पूर्ण विश्व को हिलाकर रख दिया था। अहं सभी दोषों का जनक है; मानव का सबसे बड़ा शत्रु है और अहं को प्रभु चरणों में समर्पित कर देना– शांति पाने का सर्वोत्तम उपाय स्वीकारा गया है। ‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ ही जीवन का सत्य है और माया के प्रभाव के कारण ही वह नश्वर संसार सत्य भासता है। इसलिए मानव को सांसारिक बंधनों में लिप्त नहीं रहना चाहिए।

कोरोना काल में हर इंसान को शारीरिक व मानसिक आपदाओं से जूझना पड़ा–यह अकाट्य सत्य है। मुझे भी बीस माह तक अनेक शारीरिक आपदाओं का सामना करना पड़ा। सर्वप्रथम कंधे, तत्पश्चात् टांग की हड्डी टूटने पर उनकी सर्जरी ने हिला कर रख दिया और एक वर्ष तक मुझे इस यातना को झेलना पड़ा। इसी बीच कोरोना की दूसरी लहर ने अपना प्रकोप दिखाया और लंबे समय तक ज़िंदगी व मौत से कई दिन तक जूझना पड़ा। उस स्थिति में प्रभु सत्ता का पूर्ण आभास हुआ और उसकी असीम कृपा से वह दौर भी गुज़र गया। परंतु अभी और भी परीक्षाएं शेष थीं। कैंसर जैसी बीमारी ने सहसा जीवन में दस्तक दी। उससे रूबरू होने के पश्चात् पुन: नवजीवन प्राप्त हुआ, जिसके लिए मैं प्रभु के प्रति हृदय से शुक्रगुज़ार हूं। मात्र दो माह पश्चात् साइनस की सर्जरी हुई। यह सिलसिला यहां थमा नहीं। उसके पश्चात् दांत की सर्जरी ने मेरे मनोबल को तोड़ने का भरसक प्रयास किया। परंतु इस अंतराल में प्रभु में आस्था व निष्ठा बढ़ती गयी। ‘उसकी रहमतों का कहां तक ज़िक्र करूं/ उसने बख़्शी है मुझे ज़िंदगी की दौलत/ ताकि मैं संपन्न कर सकूं अधूरे कार्य/ और कर सकूं जीवन को नई दिशा प्रदान।’ जी हां! कोराना काल में जो भी लिखा, उसके माध्यम से प्रभु महिमा का गुणगान व अनेक भक्ति गीतों का सृजन हुआ, जिसके फलस्वरूप आत्मावलोकन, आत्मचिंतन व आत्म-मंथन का भरपूर अवसर प्राप्त हुआ। मानव प्रभु के हाथों की कठपुतली है। वह उसे जैसा चाहता है; नाच नचाता है। सो! मानव को हर पल उस सृष्टि-नियंता का ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वही भवसागर में डूबती-उतराती नैया को पार लगाता है; मन में विरह के भाव जगाता है और एक अंतराल के पश्चात् मिलन की उत्कंठा इतनी प्रबल हो जाती है कि प्रभु के दरस के लिए मन चातक आतुर हो उठता है। मुझे स्मरण हो रही हैं अपने ही गीत की पंक्तियां ‘मन चातक तोहे पुकार रहा/ अंतर प्यास गुहार रहा’ और ‘कब रे मिलोगे राम/ बावरा मन पुकारे सुबहोशाम’ आदि भाव मानव को प्रभु की महिमा को अंत:करण से स्वीकारने का अवसर प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं, प्रभु ही मानव की इच्छाओं पर अंकुश लगा कर संसार के प्रति वैराग्य भाव जाग्रत करते हैं। ‘चल मन गंगा के तीर/ क्यों वृथा बहाए नीर’ आदि भक्ति गीतों में व्यक्त भावनाएं कोरोना काल में आत्म-मंथन का साक्षात् प्रमाण हैं। इस अंतराल में सकारात्मक सोच पर लिखित मेरी चार पुस्तकें भी प्रकाशित हुईं तथा आध्यात्म पर अब भी लेखन जारी है।

‘कोरोना काल में आत्म-मंथन’ पुस्तक के प्रथम भाग में कोरोना से संबंधित पांच आलेख व कविताएं संग्रहित हैं तथा द्वितीय भाग में कोरोना के दुष्प्रभाव के फलस्वरूप श्रमिक व गरीब लोगों के पलायन से संबंधित कविताएं द्रष्टव्य हैं। तृतीय भाग में अध्यात्म व दर्शन से संबंधित भक्ति गीत व चिन्तन प्रधान कविताएं हैं, जो संसार की नश्वरता व प्रभु महिमा को दर्शाती हैं। उस स्थिति में मानव मन अतीत की स्मृतियों में विचरण कर निराश नहीं होता, बल्कि उसमें आत्मविश्वास का भाव जाग्रत होता है। ‘समय बलवान् है/ सभी रत्नों की खान है/ आत्मविश्वास संजीवनी है/ साहस व धैर्य का दामन थामे रखें/ मंज़िल तुम्हारे लिए प्रतीक्षारत है।’ मैं तो उसकी रज़ा के सम्मुख नत-मस्तक हूं तथा उसकी रज़ा को अपनी रज़ा समझती हूं। वह करुणानिधि, सृष्टि-नियंता प्रभु हमारे हित के बारे में हमसे बेहतर जानता है। इसलिए उस पर भरोसा कर, हमें अपनी जीवन नौका को नि:शंक भाव से उसके हाथों में सौंप देना चाहिए। जब मैं इन दो वर्ष के अतीत में झांकती हूं, तो सबके प्रति कृतज्ञता भाव ज्ञापित करती हूं, जिन्होंने केवल मेरी सेवा ही नहीं की; मेरा मनोबल भी बढ़ाया। अक्सर मैं सोचती हूं कि ‘यदि प्रभु मुझे इतने कष्ट न देता, तो शायद यह सृजन भी संभव नहीं होता–न ही मन में प्रभु भक्ति में लीन होता और न ही उसअलौकिक सत्ता के प्रति सर्वस्व समर्पण का भाव जाग्रत होता। सो! जीवन में इस धारणा को मन में संजो लीजिए कि उसके हर काम में भलाई अवश्य होती है। इसलिए संदेह, संशय व शंका को जीवन में कभी दस्तक न देने दीजिए, क्योंकि ‘डुबाता भी वही है/ पार भी वही लगाता है/ इसलिए ऐ बंदे! तू क्यों व्यर्थ इतराता/ और चिन्ता करता है।’ भविष्य अनिश्चित है; नियति अर्थात् होनी बहुत प्रबल है तथा उसे कोई नहीं टाल सकता। मैं तो वर्तमान में जीती हूं और कल के बारे में सोचती ही नहीं, क्योंकि होगा वही, जो मंज़ूरे-ख़ुदा होगा। वही सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम होगा और हमारे हित में होगा। सो! अपनी सोच सकारात्मक रखें व निराशा को अपने आसपास भी फटकने न दें। समय परिवर्तनशील है, निरंतर द्रुत गति से चलता रहेगा। सुख-दु:ख भी क्रमानुसार आते-जाते रहेंगे। इसलिए निरंतर कर्मशील रहें। राह के कांटे बीच राह अवरोध उत्पन्न कर तुम्हें पथ-विचलित नहीं कर पाएंगे। इन शब्दों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देती हूं। आशा है, यह पुस्तक आपको आत्मावलोकन ही नहीं, आत्म-चिन्तन करने पर भी विवश कर देगी और आप मानव जीवन की क्षण-भंगुरता को स्वीकार स्व-पर व राग-द्वेष की मानसिक संकीर्णता से ऊपर उठ सुक़ून भरी ज़िंदगी जी पाएंगे।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 35 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 35 ??

द्वारका धाम-

भारत के पश्चिम में गुजरात के द्वारका जनपद में स्थित है द्वारका धाम। यह अरब सागर और गोमती नदी के किनारे बसा हुआ है। द्वारका को भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। जरासंध ने अनेक बार मथुरा पर आक्रमण किया था। हर बार वह श्रीकृष्ण के हाथों परास्त हुआ। योगेश्वर ने भविष्य का विचार किया। इस विचार का साकार रूप था, सागर के बीच अजेय-अभेद्य द्वारका नगरी का निर्माण। माना जाता है कि कालांतर में श्रीकृष्ण की द्वारका ने जलसमाधि ले ली। वर्तमान द्वारका उसी क्षेत्र में बाद में विकसित हुई। श्रीकृष्ण की द्वारका को ढूँढ़ने का अभियान चला। विभिन्न अनुसंधानों में अरब सागर के गर्भ में प्राचीन नगरी के कुछ प्रमाण अबतक मिले हैं।  

द्वारका का रणछोड़ जी का मंदिर सुप्रसिद्ध है। भगवान का रणछोड़ होना भी वैदिक दर्शन का अनुपम उदाहरण है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण के वध के लिए जरासंध ने  कालयवन को भेजा। विशिष्ट वरदान के चलते कालयवन को परास्त करना सहज संभव न था। शूरवीर मधुसूदन युद्ध के क्षेत्र से कुछ यों निकले कि कालयवन को लगा, वे पलायन कर रहे हैं। उसने भगवान का पीछा करना शुरू कर दिया।

कालयवन को दौड़ाते-छकाते श्रीकृष्ण उसे उस गुफा तक ले गए जिसमें ऋषि मुचुकुंद तपस्या कर रहे थे। अपनी पीताम्बरी ऋषि पर डाल दी। उन्माद में कालयवन ने ऋषिवर को ही लात मार दी। विवश होकर ऋषि को चक्षु खोलने पड़े और कालयवन भस्म हो गया। साक्षात योगेश्वर की साक्षी में ज्ञान के सम्मुख  अहंकार को भस्म तो होना ही था।

वस्तुत: श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते थे कि आज तो वह असुरी शक्ति से लोहा ले लेंगे पर कालांतर में जब वे पार्थिव रूप में धरा पर नहीं होंगे और इसी तरह के आक्रमण होंगे तब प्रजा का क्या होगा? ऋषि मुचुकुंद को जगाकर गिरधर आमजन में अंतर्निहित सद्प्रवृत्तियों को जगा रहे थे, किसी कृष्ण की प्रतीक्षा की अपेक्षा सद्प्रवृत्तियों की असीम शक्ति का दर्शन करवा रहे थे।

श्रीकृष्ण स्वार्थ के लिए नहीं सर्वार्थ के लिए लड़ रहे थे। यह ‘सर्व’ समष्टि से तात्पर्य रखता है। सर्वार्थ का विचार वही कर सकता है जिसने एकात्म दर्शन का वरण किया हो। जिसे सबका दुख,.अपना दुख लगता हो। यही कारण था कि रणकर्कश ने रणछोड़ होना स्वीकार किया।

द्वारका धाम में आदिशंकराचार्य द्वारा स्थापित  शारदापीठ है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 34 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 34 ??

प्रतिनिधि तीर्थस्थान-

वैदिक संस्कृति ने सनातन धर्म के लिए चार धामों की व्यवस्था की है। ये  धाम देश की चार भिन्न दिशाओं में है। चार धाम की यात्रा को सनातन धर्म में जीवन की उपलब्धि माना गया है। चार भिन्न दिशाओं में चार धामों का होना और उनकी यात्रा करना ही एकात्मता का सबसे बड़ा सूत्र है। चारों दिशाएँ मिलकर परिक्रमा पूरी होती है। परिक्रमा से समग्र भला और क्या होगा?  जीवन अनेकांत से एकात्म होने का परिभ्रमण भी है, परिक्रमण भी है।

बद्रीनाथ धाम-

बद्रीनाथ धाम, उत्तराखंड के चमोली जनपद में स्थित है। इसका निर्माण सातवीं सदी के लगभग हुआ था। एक समय क्षेत्र में बद्री अर्थात बेर के वृक्षों की सघनता के चलते इसका नाम बद्रीनाथ पड़ा। यहाँ विष्णु जी के विग्रह की पूजा होती है। यह विग्रह नारद कुंड में था। आठवीं सदी में आदिशंकराचार्य ने कुंड में प्रवेश कर विग्रह का उद्धार किया और बद्री विशाल के रूप में इस की प्राण प्रतिष्ठा की। बद्रीनाथ धाम के मुख की ओर नर पर्वत जबकि पीठ की ओर नारायण पर्वत है। यह धाम अलकनंदा और उसकी सहायक ऋषिगंगा नदी के संगम पर स्थित है।

बद्री विशाल के साथ-साथ इस पर्वतीय क्षेत्र में आदिबद्री, योगबद्री, वृद्धबद्री और भविष्यबद्री के मंदिर भी हैं। इन्हें मिलाकर समवेत रूप में ‘पंचबद्री’ के नाम से जाना जाता है। जीवन की अवस्थाओं को दृष्टिगत रखते हुए विग्रह का मानवीकरण कर भविष्य की व्यवस्था करना अद्भुत एकात्म दर्शन है।

वैदिक संस्कृति में एकात्मता के सूत्र पग-पग   पर हैं। इसका चैतन्य प्रमाण है कि बद्रीनाथ धाम में मुख्य पुजारी के रूप में केरल के नंबूद्रि ब्राह्मणों की नियुक्ति की जाती है। इन्हें यहाँ रावल कहा जाता है। कहाँ  हिमालय की चोटियों में बसा गढ़वाल और कहाँ समुद्र तट पर स्थित केरल! भाषा, रहन-सहन, भोजन, परंपरा सब में अंतर। तथापि अंतर से ऊपर है अवांतर। अवांतर अर्थात अंतर्भूत। एकात्मता सनातन धर्म की अंतर्भूत दृष्टि है। पहाड़ और समुद्र के संगम का श्रेय आदिशंकराचार्य जी को है। वैदिक पुनर्जागरण के इस पुरोधा ने चारों धामों में चार पीठों की स्थापना की जिन्हें शंकराचार्य पीठ के रूप में जाना जाता है। इसी अनुक्रम में बद्री विशाल के क्षेत्र में ज्योतिर्मठ स्थित है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ शहीदी दिवस विशेष – शहीद ए आज़म – स्व भगत सिंह ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय

 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

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 (वीरगति: 23 मार्च 1931) 

☆ शहीदी दिवस विशेष  ☆ शहीद ए आज़म – स्व भगत सिंह   ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

किसी मित्र ने एक काम मेरे जिम्मेदार लगाया कि शहीद भगत सिंह की जीवनी लिख दूँ। बड़ी कोशिश रही कि जल्द से जल्द दे सकूं पर इधर उधर के कामों के बावजूद शहीद भगत सिंह के प्रति मेरी श्रद्धा और उनके पैतृक गांव खटकड़ कलां में बिताये ग्यारह वर्ष मुझे इसकी गंभीरता के बारे में लगातार सचेत करते रहे। बहुत सी कहानियां हैं उनके बारे में। किस्से ऊपर किस्से हैं। इन किस्सों से ही भगत सिंह शहीद ए आज़म हैं।

मेरी सोच है या मानना है कि शायद शुद्ध जीवनी लिखना कोई मकसद पूरा न कर पाये। यह विचार भी मन में उथल पुथल मचाता रहा लगातार। न जाने कितने लोगों ने कितनी बार शहीद भगत सिंह की जीवनी लिखी होगी और सबने पढ़ी भी होगी।  मैं नया क्या दे पाऊंगा? यह एक चुनौती रही।

सबसे पहले जन्म की बात आती है जीवनी में। क्यों लिखता हूं मैं कि शहीद भगत सिंह का पैतृक गांव है खटकड़ कलां, सीधी सी बात कि यह उनका जन्मस्थान नहीं है। जन्म हुआ उस क्षेत्र में जो आज पाकिस्तान का हिस्सा है जिसमें 27 सितम्बर, 1907 में जन्म हुआ। और यह बात भी परिवारजनों से मालूम हुई कि वे कभी अपने जीवन में खटकड़ कलां आए ही नहीं। फिर इस गांव की इतनी मान्यता क्यों? क्योंकि स्वतंत्र भारत में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धा अर्पित करने के  दो ही केद्र हैं -खटकड़ कलां और हुसैनीवाला। इनके पैतृक गांव में इनका घर और कृषि भूमि थी। इनके घर को परिवारजन राष्ट्र को अर्पित कर चुके हैं और गांव में मुख्य सड़क पर ही एक स्मारक बनाया गया है। बहुत बड़ी प्रतिमा भी स्मारक के सामने है। पहले हैट वाली प्रतिमा थी, बाद में पगड़ी वाली प्रतिमा लगाई गयी।  इसलिए इस गांव का विशेष महत्त्व है। हुसैनीवाला वह जगह है जहां इनके पार्थिव शवों को लाहौर जेल से रात के समय लोगों के रोष को देखते हुए चोरी चुपके लाया गया फांसी के बाद और मिट्टी का तेल छिड़क आग लगा दी जैसे कोई अनजान लोग हों -भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव। दूसरे दिन भगत सिंह की माता विद्यावती अपनी बेटी अमर कौर के साथ रोती हुई पहुंची और उस दिन के द ट्रिब्यून अखबार के पन्नों में राख समेट कर वे ले आई तीनों की जो आज भी शहीद स्मारक में ज्यों की त्यों रखी है। यही नहीं स्मारक भगत सिंह जो डायरी लिखते थे और कलम दवात भी रखी हैं।  मानो अभी कहीं से भगत सिंह आयेंगे और अपनी ज़िंदगी की कहानी फिर से और वहीं से लिखनी शुरू कर देंगे, जहां वे छोड़ कर गये थे। इनकी सबसे बड़ी बात कि इन्होंने अपने से पहले शहीद हुए सभी शहीदों की वो गलतियां डायरी में लिखीं जिनके चलते वे पकड़े गये थे। जाहिर है कि वे इतने चौकन्ने थे कि उन गलतियों को दोहराना नहीं चाहते थे।  वैसे यह कितनी बड़ी सीख है हमारे लिए कि हम भी अपनी ज़िंदगी में बार बार वही गलतियां न दोहरायें।

अब बात आती है कि आखिर कैसे और क्यों भगत सिंह क्रांतिकारी बने या क्रांति के पथ पर चले? शहीद भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने किसान आंदोलन पगड़ी संभाल ओए जट्टा में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया जिसके चलते उन पर अंग्रेज सरकार की टेढ़ी नज़र थी। उन्हें जेल में ठूंसा गया दबाने के लिए। इनके पिता किशन सिंह भी जेल मे थे। जब इनका जन्म हुआ तब पिता और चाचा जेल से छूटे तो दादी ने इन्हें भागां वाला कहा यानी बहुत किस्मत वाला बच्चा। जिसके आने से ही पिता और चाचा जेल से बाहर आ गये। इस तरह इसी भागां वाले बच्चे का नाम आगे चल कर भगत सिंह हुआ।

फिर इनके बचपन का यह किस्सा भी बहुत मशहूर है कि पिता किशन सिंह खेत में हल चलाते हुए बिजाई कर रहे थे और पीछे पीछे चल रहे थे भगत सिंह। उन्होंने अपने पिता से पूछा कि बीज डालने से क्या होगा?

– फसल।  यानी ज्यादा दाने।

– फिर तो यहां बंदूकें बीज देते हैं जिससे ज्यादा बंदूकें हो जायें और हम अंग्रेजों को भगा सकें।

यह सोच कैसे बनी और क्यों बनी? इसके पीछे बाल मनोविज्ञान है।

इनके चाचा अजीत सिंह ज्यादा समय जेल में रहते और चाची हरनाम कौर रोती बिसूरती रहती या उदास रहतीं। बालमन पर इसका असर पड़ा और चाची से गले लग कर वादा करता रहा कि एक दिन इन अंग्रेजों को सबक जरूर सिखाऊंगा। इनके चाचा अजीत सिंह उस दिन डल्हौजी में थे जब हमारा देश स्वतंत्र हुआ और उसी दिन वहीं उनका खुशी में हृदय रोग से निधन हो गया। डल्हौजी में उनका स्मारक भी बनाया गया है जिसे देखने का सौभाग्य वहां जाने पर मिला था।

परिवार आर्य समाजी था और इनके दादा अर्जुन सिंह भी पत्र तक हिंदी में लिखते थे जो अनेक पुस्तकों में संकलित हैं। भगत सिंह के परिवार के बच्चों के यज्ञोपवीत भी हुए। इस तरह पहले से ही यह परिवार नयी रोशनी और नये विचारों से जीने में विश्वास करता था जिसका असर भगत सिंह पर भी पड़ना स्वाभाविक था और ऐसा ही हुआ भी।

इस तरह क्रांति के विचार बालमन में ही आने लगे। फिर जब जलियांवाला कांड हुआ तो दूसरे दिन बालक भगत अपनी बहन बीबी अमरकौर को बता कर अकेले रेलगाड़ी में बैठकर  अमृतसर निकल गया और शाम को वापस आया तो वहां की मिट्टी लेकर और फिर वह विचार प्रभावी हुआ कि इन अंग्रेजों को यहां से भगाना है। उस समय भगत सिंह मात्र तेरह साल के थे। बीबी अमर कौर उनकी सबसे अच्छी दोस्त जैसी थी। वह मिट्टी एक मर्तबान में रख कर अपनी मेज पर सजा ली ताकि रोज़ याद करें इस कांड को। इस तरह कड़ी से कड़ी जुड़ती चली गयीं। भगत सिंह करतार सिंह सराभा को अपना गुरु मानते थे और उनकी फोटो हर समय जेब मे रखते थे। उन्हें ये पंक्तियां बहुत पसंद थीं

हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर

हमको भी मां बाप ने पाला था दुख सह सह कर,,,

दूसरी पंक्तियां जो भगत सिंह को प्रिय थीं और गुनगुनाया करते थे :

सेवा देश दी करनी जिंदड़िये बड़ी औखी

गल्लां करनियां ढेर सुखलियां ने

जिहना देश सेवा विच पैर पाया

उहनां लख मुसीबतां झल्लियां ने,,, स्कूल की पढ़ाई के बाद जिस काॅलेज में दाखिला लिया वह था नेशनल काॅलेज, लाहौर जहां देशभक्ति घुट्टी में पिलाई जा रही थी। यह काॅलेज क्रांतिकारी विचारकों ने ही खोला था जिनमें संभवतः लाला लाजपतराय भी एक थे। उस घुट्टी ने बहुत जल्द असर किया। वैसे भगत सिंह थियेटर में भी दिलचस्पी रखते थे और लेखन में भी। इसी काॅलेज में वे अन्य क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए और जब लाला लाजपतराय को साइमन कमीशन के विरोध करने व  प्रदर्शन के दौरान लाठीचार्ज में बुरी तरह घायल किया गया तब ये युवा पूरे रोष में आ गये। स्मरण रहे इन जख्मों को पंजाब केसरी लाला लाजपत राय सह नहीं पाये और वे इस दुनिया से विदा हो गये। लाला लाजपतराय की ऐसी अनहोनी और क्रूर मौत का बदला लेने की इन युवाओं ने ठानी। सांडर्स पर गोलियां बरसा कर जब भगत सिंह लाहौर से निकले तो थियेटर का अनुभव बड़ा काम आया और वे दुर्गा भाभी के साथ हैट लगाकर साहब जैसे लुक में बच निकले। दुर्गा भाभी की गोद में उनका छोटा सा बच्चा भी था। इस तरह किसी को कोई शक न हुआ। भगत सिंह का यही हैट वाला फोटो सबसे ज्यादा प्रकाशित होता है।

इसके बाद यह भी चर्चा है कि घरवालों ने इनकी शादी करने की सोची ताकि आम राय की तरह शायद गृहस्थी इन्हें सीधे या आम ज़िंदगी के रास्ते पर ला सके लेकिन ये ऐसी भनक लगते ही भाग निकले। क्या यह कथा सच है? ऐसा सवाल मैंने आपकी माता विद्यावती से पूछा था तब उन्होंने बताया थे कि सिर्फ बात चली थी। कोई सगाई या कुड़माई नहीं हुई न कोई रस्म क्योंकि जैसे ही भगत सिंह को भनक लगी उसने भाग जाना ही उचित समझा।  तो  क्या फ़िल्मों में जो गीत आते हैं वे झूठे हैं?

जैसे : हाय रे जोगी हम तो लुट गये तेरे प्यार में,,,इस पर माता ने कहा कि फिल्म चलाने के लिए कुछ भी बना लेते हैं। वैसे सारी फिल्मों में से मनोज कुमार वाली फिल्म ही सही थी और मनोज कुमार मेरे से आशीर्वाद लेने भी आया था।

खैर भगत सिंह घर से भाग निकले और कानपुर जाकर गणेश शंकर विद्यार्थी के पास बलवंत नाम से पत्रकार बन गये। उस समय पर इनका लिखा लेख -होली के दिन रक्त के छींटे बहुचर्चित है। और भी लेख लिखे। मै हमेशा कहता हूं कि यदि भगत सिंह देश पर क़ुर्बान न होते तो वे एक बड़े लेखक या पत्रकार होते। इतनी तेज़ कलम थी इनकी।

इसके बाद इनका नाम आया बम कांड में। क्यों चुना गया भगत सिंह को इसके लिए? क्योंकि ये बहुत अच्छे वक्ता थे और इसीलिए योजना बनाई गयी कि बम फेंककर भागना नहीं बल्कि गिरफ्तारी देनी है। भगत सिंह ने अदालत में लगातार जो विचार रखे वे अनेक पुस्तकों में सहेजे गये है और यह भी स्पष्ट किया कि हम चाहते तो भाग सकते थे लेकिन हम तो अंग्रेजी सरकार को जगाने आये थे। दूसरे यह गोली या बम से परिवर्तन नहीं आता लेकिन बहरी सरकार को जगाने के लिए इसे उपयोग किया गया।  इस तरह यह सिद्ध करने की कोशिश की गयी कि हम आतंकवादी नहीं बल्कि क्रांतिकारी हैं। भगत सिंह की एक पुस्तिका है-मैं नास्तिक क्यों हूं? यह खूब खूब बिकती है और पढ़ी जाती है। भगत सिंह हरफनमौला और खुशमिजाज युवक थे। इनके साथी राजगुरु और सुखदेव भी फांसी के हुक्म से जरा विचलित नहीं हुए और किसी प्रलोभन में नहीं आए। अनेक प्रलोभन दिए गये। आखिरी दिन तक प्रलोभन दिये जाते रहे लेकिन भारत माता के ये सपूत अपनी राह से बिल्कुल भी पीछे न हटे। डटे रहे।

 भगत सिंह पुस्तकें पढ़ने के बहुत शौकीन थे और अंत तक जेल में अपने वकील या मिलने आने वालों से पुस्तकें मंगवाते रहे। आखिर जब फांसी लगने का समय आया तब भी लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे और जब बुलावा आया कि चलो। तब बोले कि ठहरो, अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है। अपने छोटे भाई कुलतार को भी एक खत में लिखा था कि पढ़ो, पढ़ो, पढ़ो क्योकि विचारों की सान इसी से तेज़ होती है।

बहुत छोटी उम्र मे  23 मार्च, 1931 में फांसी का फंदा हंसते हंसते चूम लिया। क्या उम्र होती है मात्र तेईस साल के आसपास। वे दिन जवानी की मदहोशी के दिन होते हैं लेकिन भगत सिंह को जवानी चढ़ी तो चढ़ी आज़ादी पाने की।

फिर भी रहेंगी कहानियां,,

तुम न रहोगे, हम न रहेंगे

फिर भी रहेंगी कहानियां,,

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 33 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

प्रत्येक बुधवार और रविवार के सिवा प्रतिदिन श्री संजय भारद्वाज जी के विचारणीय आलेख एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ – उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा   श्रृंखलाबद्ध देने का मानस है। कृपया आत्मसात कीजिये। 

? संजय दृष्टि – एकात्मता के वैदिक अनुबंध : संदर्भ- उत्सव, मेला और तीर्थयात्रा भाग – 33 ??

4) संग से संघ बनता है। तीर्थाटन में मनुष्य साथ आता है। इनमें वृद्धों की बड़ी संख्या होती है। सत्य यह है कि अधिकांश बुजुर्ग, घर-परिवार-समाज से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करते हैं। परस्पर साथ आने से मानसिक विरेचन होता है, संवाद होता है। मनुष्य दुख-सुख बतियाना है,  मनुष्य एकात्म होता है। पुनः अपनी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण आती हैं,

विवादों की चर्चा में

युग जमते देखे,

आओ संवाद करें,

युगों को

पल में पिघलते देखें..!

मेरे तुम्हारे चुप रहने से

बुढ़ाते रिश्ते देखे,

आओ संवाद करें,

रिश्तो में दौड़ते बच्चे देखें..!

बूढ़ी नसों में बचपन का चैतन्य फूँक देती है तीर्थयात्रा।

5) तीर्थाटन मनुष्य को बाहरी यात्रा के माध्यम से भीतरी यात्रा कराता है। मनुष्य इन स्थानों पर शांत चित्त से पवित्रता का अनुभव करता है। उसके भीतर एक चिंतन जन्म लेता है जो मनुष्य को चेतना के स्तर पर जागृत करता है। यह जागृति उसे संतृप्त की ओर मोड़ती है। अनेक तीर्थ कर चुके अधिकांश लोग शांत, निराभिमानी एवं परोपकारी होते हैं।

6) तीर्थाटन में साधु-संत, महात्मा, विद्वजन का सान्निध्य प्राप्त होता है। यह सान्निध्य मनुष्य की ज्ञानप्राप्ति की जिज्ञासा और पिपासा को न्यूनाधिक शांत करता है। व्यक्ति, सांसारिक और भौतिक विषयों से परे भी विचार करने लगता है।

7) किसी भी अन्य सामुदायिक उत्सव की भाँति तीर्थाटन में भी बड़े पैमाने पर वित्तीय विनिमय होता है, व्यापार बढ़ता है, आर्थिक समृद्धि बढ़ती है। वित्त के साथ-साथ वैचारिक विनिमय, भजन, कीर्तन, प्रवचन, सभा, प्रदर्शनी आदि के माध्यम से मनुष्य समृद्ध एवं प्रगल्भ होता है।

क्रमश: ….

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विश्व कविता दिवस विशेष – ‘शिलालेख’ ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – विश्व कविता दिवस विशेष – शिलालेख  ??

आज विश्व कविता दिवस है। यह बात अलग है कि स्वतः संभूत का कोई समय ही निश्चित नहीं होता तो दिन कैसे होगा? तथापि तथ्य है कि आज यूनेस्को द्वारा मान्य विश्व कविता दिवस है।

बीते कल गौरैया दिवस था, आते कल जल दिवस होगा। लुप्त होते आकाशी और घटते जीवनदानी के बीच टिकी कविता की सनातन बानी! जीवन का सत्य है कि पंछी कितना ही ऊँचा उड़ ले, पानी पीने के लिए उसे धरती पर उतरना ही पड़ता है। आदमी तकनीक, विज्ञान, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में कितना ही आगे चला जाए, मनुष्यता बचाये रखने के लिए उसे लौटना पड़ता है बार-बार कविता की शरण में।

इसी संदर्भ में कविता की शाश्वत यात्रा का एक चित्र अपनी कविता ‘शिलालेख’ के माध्यम से प्रस्तुत है।

कविता नहीं मांगती समय,

न शिल्प विशेष,

न ही कोई साँचा,

जिसमें ढालकर

36-24-36

या ज़ीरो फिगर गढ़ी जा सके,

कविता मांग नहीं रखती

लम्बे चौड़े वक्तव्य

या भारी-भरकम थीसिस की,

कविता तो दौड़ी चली आती है,

नन्ही परी-सी रुनझुन करती,

आँखों में आविष्कारी कुतूहल,

चेहरे पर अबोध सर्वज्ञता के भाव,

एक हाथ में ज़रा-सी मिट्टी

और दूसरे में कल्पवृक्ष के बीज लिये,

कविता के ये क्षण

धुंधला जाएँ तो

विस्मृति हो जाते हैं,

मानसपटल पर उकेर लिये जाएँ तो

शिलालेख कहलाते हैं..!

 

 (कविता संग्रह ‘योंही’ से।)

कविता बनी रहेगी, मनुष्यता बची रहेगी।

 

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆  ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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