हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #4 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

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☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 4 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 4 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

तुंगभद्रा नदी कर्नाटक के दो जिलों बेल्लारी और कोप्पल के बीच बहती है। इन्हीं दोनो जिलों की भौगोलिक सीमा में त्रेता युग की राम कथा में वर्णित किष्किन्धा स्थित है। आज जब सुबह निकले तो सबसे पहले हम पांच सौ पचास सीढ़ियां चढकर आंजनाद्री पर्वत पहुंचे।  पर्वत शिखर पर हनुमान, उनकी माता अंजना व राम लक्ष्मण जानकी की प्रतिमा एक मंदिर में स्थापित हैं। यह रामायण के योद्धा हनुमान की जन्मस्थली है। हनुमान मंदिर में 2011से सतत अखंड रामचरितमानस का पाठ हो रहा है। इस पर्वत शिखर से तुंगभद्रा नदी की घाटी का विहंगम दृष्य दिखता है जो अत्यन्त मनोहारी है। हम्पी के अनेक मंदिर स्पष्ट दिखते हैं। यद्यपि धुंध बहुत थी तथापि हमें विरुपाक्ष मंदिर का गोपुरम व कृष्ण मंदिर दिखाई दिये।मंद मंद बहती पवन और प्रकृति के रमणीय दृश्य  ने सारी थकान दूर कर दी। आंजनाद्री पर्वत के पास ही ऋष्यमुक पर्वत है और इसी स्थल पर हनुमानजी ने सर्वप्रथम ब्राह्मण रुप धरकर राम व लक्ष्मण से भेंट की थी। यह पर्वत अंदर की ओर है वह चढ़ाई अत्यन्त कठिन है। कुछ ही दूरी पर एक और रमणीक स्थल है सनापुरा झील। पहाड़ों से घिरी इस झील से निकली नहर  आंध्र प्रदेश के खेतों की सिंचाई करती है। आगे ग्रामीण क्षेत्रों के बीच से गुजरते हुए, पर्वतों के पत्थरों और धान के खेत व केला, नारियल के वृक्षों को निहारते  हम पंपा सरोवर पहुंचे। यहीं शबरी का आश्रम है। शबरी आश्रम के आगे बाली की गुफा है और वहां से आगे बढने पर चिंतामणि गुफा है, जहां बैठकर राम, लक्ष्मण ने हनुमान व सुग्रीव से बाली वध की योजना बनाई थी। इसी स्थल के सामने काफी दूरी पर तारा पर्वत है और वहीं बाली व सुग्रीव के मध्यम मल्ल युद्ध हुआ था और राम ने इसी स्थान से तीर छोड़कर बाली वध किया था। वापस हम्पी आते समय हमने मधुवन भी देखा जहां अंगद वे हनुमान की वानर सेना ने सीता का पता लगाने के बाद किष्किन्धा प्रवेश पश्चात उत्पात मचाकर सुग्रीव के प्रिय वन को तहस नहस कर दिया था। किष्किन्धा क्षेत्र में जहां जहां श्रीराम व लक्ष्मण गये वहां देवनागरी लिपि हिन्दी के दिशापटल लगे हुए हैं। यहां उत्तर भारत से रामानंदी संप्रदाय के साधु संत भ्रमण करते काफी संख्या में दिखते हैं। इन्ही संतों ने सम्भवतया इस सूदूर दक्षिण वन प्रांत में तुलसी कृत रामचरितमानस के अंखड पाठ की परम्परा शुरू की है। अनेक स्थलों पर भोजन भंडारा का नियमित आयोजन होता है। स्थानीय निवासियों को हमने लाल रंग के वस्त्र पहनकर हनुमानजी की आराधना करते देखा। वे मान्यताएं मानकर आराधना अवधि में नियमित हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं।

हम्पी के पास  ही माल्यवन्त पर्वत है। यहां भगवान राम ने वन गमन के समय चतुर्मास व्यतीत किया और फिर लंका की ओर सैन्य अभियान के लिए प्रस्थान किया था। कुछ स्थल व स्मृतियां  तत्संबंध में जनश्रुतियों में वर्णित हैं पर हम उन्हें न देख सके। यहां सत्रहवीं सदी में निर्मित रघुनाथ मंदिर के दर्शन किए। कुछ देर मानस का पाठ सुना और तभी दो विदेशी सैलानियों को मानस का पाठ करने वाले पंडित जी ने इशारे से बुलाया और उन्हें मंजीरा बजाने को दिए। दोनों भाव विभोर हो मंजीरा बजाने में मग्न हो उठे। सांयकाल कोई सवाल पांच बजे रघुनाथ मंदिर के पार्श्व में स्थित पहाड़ पर बैठकर हमने सूर्यास्त की मधुर झलकियां देखी। श्वेत सूर्य पहले पीला और फिर लाल रंग के गोले में देखते-देखते परिवर्तित हो गया। बादल भी दिवाकर के साथ अठखेलियां करने लगे और फिर भास्कर कहां चुप रहते वे भी मेघों को प्रसन्न करने बीच बीच में  छुप हमें आभास कराते कि वे अब पश्चिम दिशा की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। अचानक वे फिर दिखते तो मेघ उन्हें दो हिस्सों में बांट देते। देखते देखते कोई 5.45बजे सूर्यास्त हो गया और हम अपने होटल विजयश्री रिसार्ट वापस आ गये।

हम्पी कैसे पहुंचे :- निकटतम  हवाई अड्डा बंगलोर से हम्पी  335 किलोमीटर दूर है व निकटतम रेलवे स्टेशन होसपेट है। बंगलौर से सड़क मार्ग से बस द्वारा भी 6-7 घंटे में हम्पी पहुंचा जा सकता है। गोवा से यह लगभग 500 किलोमीटर दूर है।

हम्पी यात्रा के लिए अक्टूबर से मार्च का समय सबसे बेहतर है। ग्रीष्म काल में तापमान 45डिग्री सेल्सिअस तक पहुँच जाता है।

हम्पी में ठहरने के लिए अच्छे होटल हैं। मंदिरों व तीर्थ स्थल होने के कारण माँसाहार प्राय अनुपलब्ध है। स्थानीय शाकाहारी भोजन में दक्षिण भारत के  विभिन्न व्यंजन का स्वाद अवश्य लेना चाहिए। यहाँ केले की सब्जी, विभिन्न प्रजातियों के केले व नारियल पानी का स्वाद अलग ही है

मंदिर व विजयनगर साम्राज्य के भग्नावशेष, रामायण कालीन किष्किन्धा नगरी और चालुक्य साम्राज्य की बादामी के अलावा यहाँ देखने के लिए अनेक स्थल जैसे अनेगुंडी का किला, काला भालू अभ्यारण्य दरोजी, तुंगभद्रा बाँध, कूडल संगम ( कृष्ण, घटप्रभा व मलप्रभा नदी का संगम स्थल ) आदि दर्शनीय स्थल हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #3 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 3 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

हम्पी, होसपेट रेल्वे स्टेशन से कोई छह किलोमीटर दूर स्थित विश्व धरोहर है। यहां जगह जगह विजयनगर साम्राज्य के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। इसे पूरी तरह से देखने के लिए तो कम से कम चार पांच दिन चाहिए। हमने एक दिन में जो देखा उसमें विरूपाक्ष मंदिर, तुंगभद्रा नदी का तट, सरसों गणेश, चना गणेश, अनेक पुषकरणी, मंदिरों के सामने अवस्थित बाजारों के भग्नावशेष, विट्ठल मंदिर, पत्थर से निर्मित रथ, संगीत सुनाते खम्भें, नरसिंह मूर्त्ति व निर्धन स्त्री द्वारा निर्मित शिव मंदिर देखे। हमें लोटस महल, जनाना महल, हाथियों का अस्तबल,राजा का महल, महानवमी का विशाल स्टेज, रानियों का स्नानागार आदि देखने का अवसर  मिला।

विजयनगर साम्राज्य  दो सौ तीस के बाद 1565 में दक्षिण भारत के मुस्लिम शासकों की संयुक्त सेना से पराजित हो पराभव को प्राप्त हुआ। यह साम्राज्य धन धान्य व विद्या से परिपूर्ण था। बहमनी विजेताओं ने  मूर्तियों व महलों को आग लगाकर नष्ट कर दिया किन्तु सभामंडप व खम्भों पर उकेरी गई कलाकृति शिल्प तथा मुस्लिम शिल्प से प्रभावित  कुछ इमारतें नष्ट नहीं हुई। इनके अवलोकन से तत्तकालीन साम्राज्य के वैभव, सामाजिक स्थिति, व्यापार व विदेशों से विजयनगर साम्राज्य के संबंधों  उनके प्रभाव का पता चलता है। सर्वाधिक नुकसान नरसिंह मूर्त्ति व चना गणेश को हुआ है। शेष मंदिरों में मूर्तियां नहीं हैं शायद उन्हें अन्यत्र ले जाया गया होगा। हमने जो स्थल देखें उनमें तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित विरुपाक्ष मंदिर बहुत सुंदर है।इस विशाल मंदिर में अनेक राजाओं ने निर्माण कराया। सबसे पहले हरिहर ने शिव मंदिर बनाया तो कृष्णदेव राय ने अपने राज्याभिषेक की स्मृति में गोपुरम बनवाया। इस गोपुरम का उल्टा चित्र मंदिर के अंदर एक कमरे में दिखता है।यह पिन होल कैमरे के सिद्धांत का कमाल है। मुख्य मंदिर की छत पर ब्रह्मा, विष्णु व  शिव से संबंधित सुंदर पेंटिंग्स है तो स्तम्भों पर शिव  के विभिन्न स्वरूपों की और महिषासुरमर्दिनी की सुंदर शिल्पकारी है। मंदिर प्रांगण में पम्पा देवी (पार्वती) व भुवनेश्वरी देवी का मंदिर है। यह दोनों देवस्थल कल्याण चालुक्य राजाओं दर्शाया बारहवीं सदी में बनवाये गये थे। मंदिर प्रांगण के सामने की सड़क के दोनों ओर बाजार स्थित था जिसके खम्भें आज भी दृष्टिगोचर हैं। ऐसे बाजार हम्पी के सभी विशाल मंदिरों के सामने बनाये गये थे।

विरुपाक्ष मंदिर के पहले चना गणेश का मंदिर है। गणेश की विशालकाय मूर्ति की सूंड दाहिने हाथ में रखे लड्डू पर टिकी हुई है। इस मंदिर के स्तम्भों पर शंख बजाता हिंदू हैं तो ढपली बजाता मुस्लिम भी है। पगड़ी धारी हिंदू जहां पालथी मारकर बैठा है वहीं सिर पर तिकोनी टोपी और नुकीली दाड़ी धरे ढपली बजाते समय वज्रासन की मुद्रा में है। एक अन्य स्तम्भ पर बंदर को हाथ से सांप पकड़े हुए दिखाया गया है। एक अन्य स्तम्भ पर विदेशी महिला को उकेरा गया है जिसे उसकी केश सज्जा से अलग ही पहचाना जा सकता है। चना गणेश के पास ही सरसों गणेश विराजे हैं। गणेश की मूर्ति के पीछे पार्वती का शिल्प है और कलाकार ने ऐसी कल्पना की है कि पुत्र गणेश अपनी मां पार्वती की गोद में बैठे हुए हैं।

दक्षिण सुलतानों के संयुक्त आक्रमण में सर्वाधिक नुकसान नरसिंह मूर्त्ति को हुआ था। तथापि ध्वस्त मूर्त्ति को देखकर इसके अनूठे शिल्प का अंदाज आसानी से लगाया जा सकता है। नरसिंह मकरतोरण के साथ शेषनाग की कुंडली पद्मासन पर बैठे हैं।उपर सात फनो का नाग है । नरसिंह की  बायें ओर गोद में लक्ष्मी विराजित थी जो अब नष्ट होने के कारण दृष्टव्य नहीं है। हम्पी के विशाल मंदिरों में विट्ठल स्वामी का मंदिर प्रसिद्ध है।इस मंदिर परिसर में संगीत की ध्वनि सुनाने वाले पत्थर के खम्भे व अनेक मंडप हैं। सर्वाधिक महत्वपूर्ण कल्याण मंडप है जहां स्तम्भों पर रामायण-महाभारत की कहानियां सुनाते अनेक शिल्प उकेरे गये हैं। इसके अलावा महिलाओं, नर्तकियों, पक्षियों वे कमल दल को भी विभिन्न मंडपों के स्तम्भों में उकेरा गया है। मुख्य मंदिर में एक ओर घोड़े बेचते हुये अरबी, चीनी, मंगोल व पुर्तगाली व्यापारी अपनी भेष-भूषा से अलग ही पहचाने जा सकते हैं।इसी प्रागंण में काष्ट रथ की अनुकृति प्रस्तर रथ के रुप बनाई गई है। चार पहियों वाले इस रथ को दो हाथी खींच रहे हैं और रथ के अंदर विष्णु के वाहन गरुड़ विराजे हैं। रथ में सुंदर व सूक्ष्म शिल्पकारी है। इसके उपर का हिस्सा जो ईंट से बना था अब गिर गया है। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार के ऊपर ईंट का निर्माण है जिसमें  कृष्णदेव राय के ओडिशा विजय को दर्शाया गया है। राजाओं के निवास स्थल में सर्वाधिक ऊंचाई पर नवमी टिब्बा है। इस मंच पर विभिन्न उत्सवों पर राजा अपने स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान होते थे। इस मंच में हाथी, घोड़े, उंट, शिकार, युद्ध आदि दृश्यों का सुंदर शिल्प है। एक प्रस्तर खंड में रानी नाराज होकर उंगली दिखा रही है तो उसके बगल में राजा रानी से प्रेमालाप कर रहा है।जनाना महल में भवनों के अवशेष बचे हैं मूल महल नष्ट हो चुके हैं। यह परिसर चारों ओर से ऊंची पिरामिड नूमा दीवाल से घिरा हुआ है जिस पर तीन वाच टावर बने हुये हैं। यहीं लोटस महल है जो इन्डो इस्लामिक शैली में बना हुआ है। जनाना महल में ही एक भवन ठीक ठाक अवस्था में है इसे कोषागार कहा जाता है। हाथियों का अस्तबल गुंबदनुमा इमारत है और उसके बगल में महावतों का निवास स्थान बना हुआ है। इसके अलावा हम्पी में अनेक छोटे बड़े मंदिर व भवन हैं तथा मंतग पर्वत व हेमकूट पर्वत भी है।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #2 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 2 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

दक्षिण भारत में चौदहवीं शताब्दी में हरिहर और बुक्का दो भाईयों ने मिलकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसे विजयनगर के नाम से जाना गया। इस साम्राज्य की स्थापना को लेकर अनेक कहानियां हैं पर विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुरुबा जाति के दो भाई,  जो वारंगल के राजा के यहां महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत थे, वारंगल पर 1323 में मुस्लिम आक्रमण फलस्वरुप पराभव के कारण वहां से निकलकर अनेगुन्डी के हिन्दू राजा के दरबार में नियुक्त हो गये।1334 में अनेगुन्डी के राजा ने दिल्ली के सुलतान मुहम्मद तुगलक के भतीजे बहाउद्दीन को अपने यहां शरण दे दी जिसके कारण वहां सुल्तान ने आक्रमण किया। अनेगुन्डी की पराजय हुई और दिल्ली के सुलतान ने मलिक काफूर को यहां का गवर्नर नियुक्त किया ( मालिक काफूर गुजरात का था और धर्म परिवर्तित कराकर उसे मुसलमान बनाया गया था) । चूंकि मलिक यहां के शक्तिशाली निवासियों पर नियंत्रण न कर सका अतः दिल्ली के सुलतान ने यह क्षेत्र पुनः हिन्दू राजा को सौंप दिया। जनश्रुति के अनुसार  दोनों भाई हम्पी के जंगलों में शिकार कर रहे थे तब उन्हें  संत माधवी  विद्यारण्य ने राजा बनने का आशीर्वाद दिया और इस प्रकार हरिहर व बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना सन 1335 में की। उधर सन 1347 में दक्षिण भारत में एक और मुस्लिम राज्य बहमनी सल्तनत (1347-1518) में,तुर्क-अफगान  सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह द्वारा  स्थापित हुई।  1518 में इसके विघटन के फलस्वरूप गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बीरार और अहमदनगर के राज्यों का उदय हुआ। इन पाँचों को सम्मिलित रूप से दक्कन सल्तनत कहा जाता था। बहमनी सुल्तान व बुक्का के बीच अनेक युद्ध हुए।कभी बुक्का जीतता तो कभी बाजी सुलतान के हाथ लगती रही अन्ततः 1375 में विजयनगर साम्राज्य विजेता बन गया और दक्षिण भारत में उसका प्रभुत्व स्थापित हो गया।

अरब,इटली,फारस और रुस के विभिन्न इतिहासकारों व यात्रियों ने समय समय पर विजयनगर की यात्रा की और इसकी रक्षा प्रणाली, सात दीवारों से घिरे दुर्गों, विशाल दरवाजों,  संपदा व समृद्धि,राज्य द्वारा आयोजित  चार प्रमुख उत्सवों (नव वर्ष, दीपावली, नवमी व होली) , व्यापार व  व्यवसाय,लंबे चौड़े बाजार, उसमें विदेशों से आयातित  सामान जैसे घोड़े व मोती तथा भारत से निर्यात की जाने वाली सामग्री मसाले, सोने चांदी के जेवर, हीरा माणिक आदि रत्नों का विस्तार से उल्लेख किया है।
विजयनगर साम्राज्य में सर्वाधिक नामी शासक कृष्णदेव राय थे जिन्होंने 1509 से 1529 तक शासन किया। उन्होंने अनेक सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया जिसमें ओडिसा के राजा गजपति राजू व बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह पर रायचुर विजय प्रमुख है। रायचुर में मिली पराजय से आदिलशाह इतना घबरा गया कि उसकी दोबारा विजयनगर साम्राज्य की ओर देखने की हिम्मत भी न हुई। दूसरी ओर इन विजयों के बाद कृष्ण देवराय दक्षिण का शक्तिशाली सम्राट बन बैठा और आदिलशाह पर  उसका क्षेत्र लौटाने के लिए बहुत ही कठोर व  अपमान भरी शर्ते, जैसे पराजित सुलतान उसके चरण चूमकर माफी मांगे आदि रखी। अपमान से भरी हुई इन शर्तों ने भविष्य में मुस्लिम सुलतानों के संगठित होकर विजयनगर पर आक्रमण का रास्ता खोला। कृष्ण देवराय के समय विजयनगर में अनेक मंदिरों वे भवनों का निर्माण हुआ। उसने विरुपाक्ष मंदिर का विशाल गोपुरम, कृष्ण मंदिर, हजारा राम मंदिर, विट्ठल स्वामी मंदिर आदि बनवाये। विट्ठल स्वामी मंदिर में स्थित पत्थर का रथ भी उन्ही के राज में ओडिशा विजय के पश्चात कोर्णाक के सूर्य मंदिर की तर्ज पर बनाया गया है।

(प्रस्तर रथ विजयनगर विट्ठल मंदिर)

कृष्ण देवराय के शासनकाल में अनेक व्यापारियों व आमजनों द्वारा भी विशालकाय निर्माण कराये गये इसमें नरसिंह मूर्त्ति, बडवी शिव लिंग, सरसों बीज गणेश, चना गणेश आदि प्रसिद्ध हैं। कृष्ण देवराय ने सिंचाई प्रणाली का भी काफी विस्तार किया व अनेक तालाबों व नहरों का निर्माण कराया। उनके समय में बनाई गई कुछ नहरों से अभी भी सिंचाई होती है।

1565 में तालीकोटा  की लड़ाई के समय, सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य का शासक था। लेकिन वह एक कठपुतली शासक था। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ थी। सदाशिव राय नें दक्कन की इन सल्तनतों के बीच मतभेद पैदा करके उन्हें आपस में लड़वाने और इस लड़ाई में बीजापुर की मदद से उन्हे  कुचलने की कोशिश की। बाद में इन सल्तनतों को विजयनगर की इस कूटनीतिक चाल का पता चल गया  और उन्होंने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। दक्कन की सल्तनतों ने विजयनगर की राजधानी में प्रवेश करके उनको बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया। मंदिरों भवनों में आग लगा दी।विजयनगर की हार के कुछ  कारणों में दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कमी,  विजयनगर के राजा का दंभी थ होना, अन्य हिन्दू राजाओं से उनके अच्छे संबंध न होना आदि हैं।दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना के हथियार पुराने थे व अधिक परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने युद्ध में बेहतर थे। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् दक्षिण भारतीय राजनीति में विजयनगर  राज्य की प्रमुखता समाप्त हो गयी। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों नें विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। यद्यपि दक्कन की इन सल्तनतों नें विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास #1 ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए उपलब्ध किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम ऐसे स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

बंगलौर प्रवास पर हूं। मेरे भतीजे अनिमेष के पास पुस्तकों का अच्छा संग्रह है। मुझे प्रसन्नता है कि पुस्तकें पढ़ने की जो परिपाटी मेरे माता-पिता ने साठ के दशक में शुरु की थी, वह परम्परा तीसरी पीढ़ी में भी जारी है। मेरे पुत्र अग्रेश, पुत्री निधि और भतीजे अनिमेष के संग्रह में मुझे हमेशा कुछ नया पढ़ने को मिलता है, पर यह सब क़िताबें अंग्रेजी में हैं और उन्हें मैं धीमें धीमें पढ़ता हूं। अब अच्छा है कि मोबाइल में शब्दकोश है सो कठिन व अनजान अंग्रेजी शब्दों के अर्थ खोजने में ज्यादा श्रम नहीं करना पड़ता। अनिमेष ने इतिहास में मेरी रुचि को ध्यान में रखते हुए अमेरिकी शोधकर्ता जान एम फ्रिट्ज व जार्ज मिशेल दर्शाया लिखित ‘Hampi Vijayanagara’ पुस्तक पढ़ने को दी। किसी विदेशी लेखक भारतीय पुरातत्व व इतिहास पर पुस्तक पढने का यह मेरा प्रथम प्रयास है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरी प्रबल इच्छा आंध्र प्रदेश की सीमा पर तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित हम्पी जाने की हो रही है।

अपने आप में राम व बानरराज सुग्रीव की मित्रता संबंधित अनेक कहानियां समेटे यह पर्यटक स्थल कभी विजयनगर राज्य की राजधानी था। वहीं विजयनगर जिसे हम राजा कृष्णदेव राय के दरबारी तेनालीराम की चतुराई के कारण जानते हैं। पहले अंग्रेजों ने और फिर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा 1970 के दशक में इस स्थल का  पुरातत्ववेत्ताओं की उपस्थिति में उत्खनन किया गया।  यह बैंगलोर से  केवल 376 किलोमीटर  दूर स्थित है और होसपेट निकटतम रेलवे स्टेशन  है। मैंने होटल आदि की बुकिंग के लिए  क्लब महिंद्रा के सदस्य होने के लाभ लिया और विजयश्री रिसोर्ट एवं हेरिटेज विलेज, मलपनगुडी , हम्पी रोड होसपेट में एक हेरिटेज कुटिया चार दिन के लिए आरक्षित करवा ली। घूमने के लिए टैक्सी और गाइड तो जरुरी थे ही और इनकी व्यवस्था हम्पी पहुचने के बाद हो गई।  रात भर बंगलौर से हम्पी की बस यात्रा के बाद जब हम रिसोर्ट पहुंचे तो पहला दिन तो आराम की बलि चढ गया। हाँ, शाम जरुर आनंददायक रही क्योंकि रिसार्ट के संचालक राजस्थान के हैं और उन्होंने अपने आगंतुकों के मनोरंजनार्थ राजस्थान के सांस्कृतिक कार्यक्रमों की व्यवस्था की हुई है।हमने  दुलदुल घोड़ी के स्वागत नृत्य से लेकर मेहंदी लगाना, ग्रामीण ज्योतिष, स्वल्पाहार, जादूगर के कारनामे, राजस्थानी नृत्य व गीत-संगीत, ऊँट, घोड़े व बैलगाड़ी की सवारी के साथ साथ लगभग चौबीस  राजस्थानी व्यंजन से भरी थाली के भोज का भरपूर  आनंद सर पर राजस्थानी पगड़ी पहन कर  लिया।

अपने मार्गदर्शक की सलाह पर हमने तय किया कि पहले दिन बादामी फिर दुसरे दिन हम्पी और तीसरे दिन कोप्पल जिले में रामायण कालीन स्थलों को देखा जाय। दूसरे दिन हम बादामी के गुफा मंदिर देखने गए। बादामी चालुक्य वंश की राजधानी रही है। ब्रम्हा की चुल्लू से उत्पन्न होने  की  जनश्रुति वाले चालुक्य साम्राज्य का दक्षिण भारत के राज वंशों में प्रमुख स्थान है। पुलकेशिन प्रथम (ईस्वी सन 543- 566) से प्रारंभ इस राजवंश के शासकों ने लगभग 210 वर्षों तक कर्नाटक के इस क्षेत्र में राज्य किया और एहोली, पट्टदकल तथा बादामी में अनेक गुफा  मंदिरों व प्रस्तर इमारतों का निर्माण कराया।  कर्नाटक के बगलकोट जिले की ऊंची पहाडियों में स्थित बादामी गुफा का आकर्षण अद्भुत है। बादामी गुफा में निर्मित हिंदू और जैन धर्म के चार मंदिर अपनी खूबसूरत नक्‍काशी, मानव निर्मित अगस्त्य  झील और शिल्‍पकला के लिए प्रसिद्ध हैं। चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफा का दृश्‍य इसके शिल्‍पकारों की कुशलता का बखान करता है। बादामी गुफा में दो मंदिर भगवान विष्‍णु, एक भगवान शिव को समर्पित है और चौथा जैन मंदिर है। गुफा तक जाती सीढियां इसकी भव्‍यता में चार चांद लगाती हैं।6 वीं शताब्दी में चालुक्य राजवंश की राजधानी, बादामी, ऐतिहासिक ग्रंथों में वतापी, वातपीपुरा, वातपीनगरी और अग्याति तीर्थ के रूप में भी प्रसिद्द है। दो खड़ी पहाड़ी चट्टानों के बीच मलप्रभा  नदी के उद्गम स्थल के नजदीक है । बादामी गुफा मंदिर पहाड़ी चट्टान पर नरम बादामी बलुआ पत्थर से तैयार किए गए हैं।बादाम का रंग लिए हुए बादामी के पहाड़ पर चार गुफा मंदिर हैं।

बादामी हम्पी से लगभग 160 किलोमीटर की दूरी पर है लेकिन एकल सड़क मार्ग होने के कारण यहाँ पहुचने में तीन घंटे से भी अधिक का समय लगता है। मार्ग में बनशंकरी देवालय है जोकि एक विशाल और आकर्षक मानव निर्मित सरोवर के किनारे अवस्थित है। कतिपय स्थल अब भग्नावस्था में है पर द्रविड शैली में निर्मित देवालय के अन्दर अष्टभुजी बनशंकरी देवी, जिसे शाकाम्बरी देवी भी कहा जाता है, की मूर्ति स्थापित है। बनशंकरी वस्तुतः वन देवी या वनस्पति की देवी है और विभिन्न धार्मिक यात्राओं के आयोजन पर देवी का श्रंगार शाक सब्जियों से किया जाता है।   बनशंकरी देवी को दुर्गा भी माना गया है और इसलिए   देवी के दाहिने हाथ में तलवार, बिगुल,त्रिशूल और  फंदा है तो बायाँ हाथों में कपाल, मानव का कटा हुआ शीष,ढाल व डमरू सुसज्जित है। मंदिर में उपलब्ध शिलालेख के आधार पर मार्गदर्शक ने हमें बताया कि यह मंदिर बादामी के राज्य के पहले से है और राष्ट्रकूट राजाओं ने भी इसका जीर्णोद्वार समय समय पर करवाया।

बादामी का प्रथम गुफा मंदिर  शिव के लिंग रूप  को समर्पित है। प्रवेश मंडप, सभा मंडप व गर्भगृह से युक्त इस गुफा मंदिर का निर्माण काल ईस्वी सं 543 माना गया है।गुफा के प्रवेश द्वार पर शैव द्वारपाल की प्रतिमा है जिसके नीचे गज बृषभ का शिल्प है जो  शिल्प कला के चरमोत्कर्ष का अनूठा उदाहरण है। इस कलाकृति में शिल्पकार ने दोनों प्राणियों का  मुख व देह  इस प्रकार उकेरे हैं की केवल ध्यान से देखने पर ही गजमुख व बृषभ मुख अलग अलग दिखते हैं।।  इस गुहालय में अठारह हाथ के नटराज की आकर्षक मूर्ति है, जो नृत्य  कला की चौरासी संयोजनों को दर्शाता है। सर्पों के अलावा शिव के हाथों में विभिन्न वाद्य यंत्र हैं जो तांडव नृत्य की विभिन्न मुद्राओं को दर्शाते हैं। इसके अतिरिक्त भैंसासुर का वध करती हुई महिषासुर मर्दिनि का शिल्प अति सुन्दर है। इसी गुफा में शिव-पार्वती के अर्धनारीश्वर स्वरुप व शिव और विष्णु के हरिहर स्वरुप का आकर्षक शिल्प देखने योग्य है। इस शिल्प में शिव अर्ध चन्द्र, कपाल, बाघचर्म और अपनी सवारी नंदी से पहचाने जा सकते हैं तो विष्णु को शंख ,चक्र मुकुट धारण किये हुए दिखाया गया है। दोनों देवताओं के पार्श्व में उनकी अर्धांगनी पार्वती व लक्ष्मी भी शिल्पकार ने बड़ी खूबी के साथ उकेरी है।नंदी की सवारी करते शिव पार्वती व उनकी तपस्या में लीन कृशकाय  भागीरथ की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है ।

(बादामी में त्रिविक्रम शुक्राचार्य बुद्ध के रूप में )

बादामी की दूसरे नम्बर की गुफा विष्णु को समर्पित है और इसका निर्माण छठवी शती ईस्वी में किया गया था। यहाँ द्वारपाल के रूप में जय विजय प्रवेश द्वार में खड़े हुए उत्कीर्ण हैं। इस गुफा का आकर्षण बामन अवतार की कथा दर्शाती त्रिविक्रम की मूर्ति है। इस शिल्प में विष्णु की  अपनेबामन फिर  विराट स्वरुप में तीन पाद से भूमंडल नापते हुए, राजा बलि उनकी पत्नी विन्ध्यवली, पुत्र नमुची व गुरु शुक्राचार्य की कलाकृति उत्कीर्ण की गई है। विष्णु के तीसरे अवतार नर वराह व कमल पुष्प पर खडी हुई भूदेवी का शिल्प भी दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त इस गुफा मंदिर में समुद्र मंथन की कथा के माध्यम से विष्णु के  कच्छप अवतार, कृष्ण लीला कथा  के द्वारा कृष्ण अवतार व मत्स्य अवतार को भी बख़ूबी दर्शाया गया है। हमारे मार्गदर्शक से पता चला कि कहीं कहीं शिल्पियों ने अपने नाम भी मूर्तियों के मुखमंडल के पास उकेरे हैं। स्तंभों व गुफा की छत पर भी अनेक पुष्पों, जीव जंतुओं, देवी देवताओं के शिल्प दर्शनीय हैं।

बादामी गुफा के चारों मंदिरों में से तीसरे मंदिर का स्‍वरूप अत्‍यंत ही मनोहारी एवं विशाल है। इस गुफा मंदिर का निर्माण ईस्वी सं 578 में चालुक्य नरेश मंगलेश ने अपने बड़े भाई व पूर्व नरेश कीर्तिवर्मा की स्मृति में करवाया था।  इस मंदिर में शिव और विष्‍णु दोनों के विभिन्‍न रूपों को नक्‍काशी में उकेरा गया है। इसमें त्रिविक्रम, शंकरनारायण (हरिहर),  वराह अवतार को ओजपूर्ण शैली में उत्‍कीर्ण किया गया है। शेषनाग पर राजसी मुद्रा में बैठी हुई विष्णु की प्रतिमा बहुत ही आकर्षक है।इसके अतिरिक्त हिरण्यकश्यप का संहार करते नरसिह व बामन अवतार में विष्णु की प्रतिमा दर्शनीय है। बामन अवतार की मूर्ति सज्जा में बलि के गुरु शुक्राचार्य को बुद्ध के रूप में दर्शाया गया है। इसके अतिरिक्त महाभारत व अन्य पौराणिक कथाओं, विभिन्न वैदिक देवी देवताओं , नृत्य करती स्त्रियाँ को भी सुन्दर शिल्प कला के द्वारा दर्शया गया है। गुफा 3 छत पर भित्तिचित्र भी है जो अब समय की मार झेलते झेलते धूमिल व फीके पड़ गए हैं। यहाँ के  भित्ति चित्र भारतीय  चित्रकला के सबसे पुराने ज्ञात प्रमाणों में से हैं। ब्रह्मा को भित्ति चित्र में हंस  वाहन पर दर्शाया गया है। शिव और पार्वती के विवाह में सम्मिलित विभिन्न हिंदू देवताओं के चित्र भी यहाँ दिखाई देते हैं।।

गुफा 3 के आगे और पूर्व में स्थित, गुफा क्रमांक  4  सबसे छोटी है। यह जैन धर्म के तीर्थंकरों को समर्पित है। इस गुफा मंदिर का निर्माण काल  7 वीं शताब्दी के बाद हो सकता है। अन्य गुफाओं की तरह, गुफा 4 में विस्तृत नक्काशी और रूपों की एक विविध श्रेणी शामिल है। गुफा में पांच चौकियों वाले प्रवेश द्वार हैं, जिनमें चार वर्ग स्तंभ हैं। गुफा के अंदर बाहुबली, पार्श्वनाथ  और महावीर के साथ  अन्य तीर्थंकरों के शिल्प  हैं। बाहुबली  अपने पैर के आसपास लिपटे दाखलताओं के साथ ध्यान मुद्रा में खड़े हुए हैं। पार्श्वनाथ को पंचमुखी नाग के साथ दिखाया गया है। महावीर एक आसन पर रखे हुए है। चौबीस जैन तीर्थंकर की प्रतिमाएं भीतर के खंभे और दीवारों पर उत्कीर्ण होती हैं। इसके अलावा यक्ष, यक्ष और पद्मावती की मूर्तियां भी हैं।

बादामी से लगभग 22 किलोमीटर दूर पट्टदकल स्मारक समूह हैं, यूनेस्को द्वारा  वर्ष 1987 में पट्टदकल को ‘विश्व धरोहर’ की सूची में शामिल किया गया। चालुक्य साम्राज्य के दौरान पट्टदकल महत्वपूर्ण शहर हुआ करता था। उस दौरान ‘वातापी’ या  बादामी राजनीतिक केंद्र और राजधानी थी, जबकि पट्टदकल सांस्कृतिक राजधानी थी। यहाँ पर राजसी उत्सव और राजतिलक जैसे कार्यक्रम हुआ करते थे। द्रविड़, उत्तर भारत की नागर शैली तथा द्रविड़ व नागर के मिश्रित शैली  से बने दस   मंदिरों का यह समूह मलप्रभा नदी के किनारे स्थित है व चालुक्य नरेशों के द्वारा ईस्वी सं 733-45 के मध्य  निर्मित है।

यहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण मन्दिर विरुपाक्ष मंदिर है, जिसे पहले ‘लोकेश्वर मन्दिर’ भी कहा जाता था। द्रविड़ शैली के इस शिव मन्दिर को विक्रमादित्य द्वितीय (734-745 ई.) की पत्नी लोक महादेवी ने बनवाया था। विरुपाक्ष मंदिर के गर्भगृह और मण्डप के बीच में भी अंतराल है। विरुपाक्ष मंदिर के चारों ओर प्राचीर और एक सुन्दर द्वार है। द्वार मण्डपों पर द्वारपाल की प्रतिमाएँ हैं। एक द्वारपाल की गदा पर एक सर्प लिपटा हुआ है, जिसके कारण उसके मुख पर विस्मय एवं घबराहट के भावों की अभिव्यंजना बड़े कौशल के साथ अंकित की गई है। मुख्य मण्डप में स्तम्भों पर श्रृंगारिक दृश्यों का प्रदर्शन किया गया है। अन्य पर महाकाव्यों के चित्र उत्कीर्ण हैं। जिनमें हनुमान का रावण की सभा में आगमन, खर दूषण- युद्ध तथा सीता हरण के दृश्य उल्लेखनीय हैं ।

विरूपाक्ष मंदिर के बगल में ही शिव को समर्पित एक और  द्रविड़ शैली की भव्य संरंचना  मल्लिकार्जुन मंदिर है, जिसकी निर्माण कला विरूपाक्ष मंदिर के ही समान है पर आकूति छोटी है। इस मंदिर का निर्माण 745 ईस्वी में चालुक्य शासक विक्रमादित्य की दूसरी पत्नी ने करवाया था।मंदिर के मुख्य मंडप में स्तंभों पर रामायण, महाभारत वैदिक देवताओं की अद्भुत नक्काशी है। एक स्तम्भ में महारानी  के दरबार के दृष्यों को भी बड़ी सुन्दरता से दिखाया गया है।

पट्टदकल के मंदिर समूह में नागर शैली के चार मंदिरों मे से हमने आठवी सदी में निर्मित काशी विश्वनाथ मंदिर को देखा। यह मदिर काफी ध्वस्त हो चुका है गर्भ गृह में काले पत्थर का आकर्षक शिव लिंग स्थापित है। मुख्य द्वार पर गरुड़ व सर्फ़ को दर्शाया गया है। अनेक स्तंभों पर विभिन्न मुद्राओं में स्त्रियों को उकेरा गया है। स्तंभों पर शिव पार्वती विवाह, कृष्ण लीला,रावण द्वारा कैलाश पर्वत को उठाने आदि का सुन्दर वर्णन प्रस्तर नक्काशी के द्वारा किया गया है।

मलप्रभा नदी के तट पर स्थित, ऐहोल या  आइहोल मध्यकालीन भारतीय कला और वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण केंद्र है। इस गाँव को यह नाम यहाँ विद्वानों के रहने के कारण दिया गया।बादामी चालुक्य के शासनकाल में यह वास्तु  विद्या व मूर्तिकला सिखाने का प्रमुख केंद्र था।   यह कर्नाटक पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के समृद्ध अतीत को दर्शाता है, जिनमें चालुक्य भी शामिल थे। ऐहोल कुछ वर्षों तक चालुक्यों की राजधानी भी थी। यहां सैकड़ों छोटे-बड़े मंदिर हैं। ऐहोल में सबसे ज्यादा देखा जाने वाला स्थान दुर्ग मंदिर है जो द्रविड़ वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। कहा जाता है कि यह मंदिर एक बौद्ध रॉक-कट चैत्य हॉल के तर्ज पर बनाया गया है। मंदिर में गर्भ गृह के चारो ओर प्रदिक्षणा पथ है तथा बाहरी दीवाल मजबूत चौकोर स्तंभों से वैसी ही बनी है जैसे हमारे संसद भवन में गोल स्तम्भ हैं।बाहरी दीवारों पर नरसिंह, महिषासुरमर्दिनी, वाराह, विष्णु, शिव व अर्धनारीश्वर की सुन्दर व चित्ताकर्षक शिल्पाकृति हैं। आठवी सदी में निर्मित एक देवालय की छत छप्पर जैसी है और इसलिए इसे कुटीर देवालय कहते हैं। लाड खान मंदिर भी  है, भगवान शिव को समर्पित, इस मंदिर का नाम कुछ समय तक यहां निवास करने वाले एक मुस्लिम राजकुमार के नाम पर रखा गया है। यह  पंचायत हॉल शैली की वास्तुकला में चालुक्यों द्वाराईस्वी सं 450 के आसपास बनाया गया था। सूर्य नारायण मंदिर में सूर्य की आकर्षक मूर्ति गर्भगृह में स्थापित है। ऐहोल के सबसे दर्शनीय स्थानों में से एक रावण फाड़ी का गुफा मंदिर है जो एक चट्टानी पहाड़ी के समीप  है जहां से इसे तराशकर बनाया गया है।इस गुफा मंदिर में नटराज शिव, पार्वती, गणेश, अर्धनारीश्वर आदि की सुन्दर मुर्तिया उकेरी गई हैं।  अन्य प्रसिद्ध मंदिरों में मेगुती जैन मंदिर और गलगनाथ मंदिर के समूह हैं। आइहोल से हमें हम्पी व्वा वापस पहुंचने में लगभग ढाई घंटे का समय लगा।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 27 – भारत का आखिरी गांव माणा गांव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनका अविस्मरणीय  संस्मरण  “भारत का आखिरी गांव माणा गांव”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) \

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 27 ☆

☆ भारत का आखिरी गांव माणा गांव 

सरस्वती नदी का उदगम स्थल भीमपुल माणा गांव भारत का अंतिम गांव कहलाता है बहुत दिनों से भारत चीन सीमा में बसे इस गाँव को देखने की इच्छा थी जो जून 2019 में पूरी हुई। यमुनेत्री, गंगोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ के दर्शन के बाद माणा गांव जाना हुआ। 20 जून 2019 को उत्तराखंड की राज्यपाल माणा गांव आयीं थीं ऐसा वहां के लोगों ने बताया। हम लोग उनके प्रवास के तीन चार दिन बाद वहां पहुंचे। हिमालय की पहाड़ियों के बीच बसे इस गांव के चारों तरफ प्राकृतिक सौंदर्य देखकर अदभुत आनंद मिलता है पर गांव के हालात और गांव के लोगों के हालात देखकर दुख होता है अनुसूचित जाति के बोंटिया परिवार के लोग गरीबी में गुजर बसर करते हैं पर सब स्वस्थ दिखे और ओठों पर मुस्कान मिली।

बद्रीनाथ से 4-5 किमी दूर बसे इस गांव से सरस्वती नदी निकलती है और पूरे भारत में केवल माणा गांव में ही यह नदी प्रगट रूप में है इसी नदी को पार करने के लिए  भीम ने एक भारी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीमपुल कहते हैं। किवदंती है कि भीम इस चट्टान से स्वर्ग गए और द्रोपदी यहीं डूब गयीं थी।

कलकल बहती अलकनंदा नदी के इस पार माणा गांव है और उस पार आईटीबीपीटी एवं मिलिट्री का कैम्प हैं जिसकी हरे रंग की छतें माणा गांव से दिखतीं है।

माणा गांव के आगे वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा है माना जाता है कि यहीं वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था। माणा गांव के आगे सात किमी वासुधारा जलप्रपात है जिसकी एक बूंद भी जिसके ऊपर पड़ती है उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। कहते हैं यहां अष्ट वसुओं ने तपस्या की थी। थोड़ा आगे सतोपंथ और स्वर्ग की सीढ़ी पड़ती हैं जहां से राजा युधिष्ठिर सदेह स्वर्ग गये थे।

हालांकि इस समय भारत का ये आखिरी गांव बर्फ से पूरा ढक गया होगा और बोंटिया परिवार के 300 परिवार अपने घरों में ताले लगाकर चले गए होंगे पर उनकी याद आज भी आ रही है जिन्होंने अच्छे दिन नहीं देखे पर गरीबी में भी वे मुस्कराते दिखे।।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # ग्यारह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध किया था और यह अंतिम कड़ी है।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # ग्यारह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

 

हम जब नर्मदा की द्वितीय यात्रा पर चले तो मन में श्रद्धा और भक्ति के साथ साथ कुछ सामाजिक सरोकारों को पूरा करने की इच्छा भी थी। हमने तय किया था कि रास्ते में पड़ने वाले विद्यालयों में छात्र छात्राओं से गांधी चर्चा और चरित्र निर्माण की चर्चा करेंगे। हम अपने अनुभवों से उन्हें शैक्षणिक उन्नति हेतु मार्गदर्शन देने का प्रयास करेंगे।स्कूलों में गांधी साहित्य की पुस्तकें यथा रचनात्मक कार्यक्रम, मंगल प्रभात, रामनाम और आरोग्य1 की कुंजी बाटेंगे। किसी एक आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों की कविता संग्रह ‘अनय हमारा’ भेंट करेंगे।बरमान घाट पर हम सभी सहयात्री अपने अपने पुरखों की स्मृति में दो दो पौधे रोपेंगे।आम जन को कूरीतियों के बारे में चेतायेंगे।

वेगड़ जी की किताब से हमने घाट की सफाई का प्रण लिया तो श्री उदय सिंह टुन्डेले के आग्रह पर गांवों में छुआ-छूत की बुराई को समझने का प्रयास भी किया।

हमारे समूह के लोग अलग-अलग विचारों के हैं, आप कह सकते हैं कि यह heterogeneous समूह है।

प्रयास जोशी, भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स से सेवानिवृत्त 67 वर्षीय कवि है और भावुकता से भरे हुए हैं। शायद ट्रेड यूनियन गतिविधियों से जुड़े रहे होंगे। उनकी रुचि महाभारत और मानस की कथा सुनने सुनाने में नहीं है। पटवाजी को पुराणादि की कहानियां सुनाने में आन्नद का अनुभव होता है। जोशी जी मानते हैं कि रामायण-महाभारत की कहानियां रोजगारपरक नहीं हैं। वे गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम के हिमायती हैं। जब कभी मैं स्कूली बच्चों के साथ गांधी चर्चा करता हूं जोशीजी मेरे बगल में बैठ कुछ न कुछ जोड़ते हैं। तेहत्तर वर्षीय  जगमोहन अग्रवालजी के पिता स्वतंत्रता-संग्राम सेनानी थे, अपने गांव कौन्डिया के सरपंच रहे और गांधीजी के सिद्धांतों के अनुसार गांव के विकास में संलिप्त रहे। पर जगमोहन अग्रवाल को संघ की विचारधारा अधिक आकर्षक लगती हैं। अनेक बार वे गांधीजी की आलोचना करने लगते हैं पर तर्कों का अभाव उन्हें चुप रहने विवश कर देता है। श्री अग्रवाल बवासीर से पीड़ित हैं फिर भी यात्रा कर रहे हैं। यह कमाल शायद अमृतमयी नर्मदा पर गहरी आस्था का परिणाम है‌। मां नर्मदा की कृपा से उनकी इस व्याधि के कारण हमारी यात्रा में विचरने न पड़ा। सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया से सेवानिवृत्त अविनाश दवे मेरे हम उम्र हैं। उनके पिता, स्व नारायण शंकर दवे, त्रिपुरी अधिवेशन में सुभाषचंद्र बोस की सेवा में थे तो दमोह निवासी ससुराल पक्ष के लोग गांधीजी की विचारधारा विशेषकर खादी ग्रामोद्योग को बढ़ावा देने वाले।गांधी साहित्य से मेरा पहला परिचय अविनाश के स्वसुर स्व ज्ञान शंकर धगट के निवास पर ही हुआ था। मुंशीलाल पाटकर पेशे से एडव्होकेट सबकी सहमति से चलते हैं और मदद के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। कभी कभी लगता है कि सुरेश पटवा और मुंशीलाल पाटकार  के बीच गुरु शिष्य सा संबंध है। पटवा जी तो बैंक में आने से पहले पहलवान थे अतः शिष्य बनाने में उन्हें महारत हासिल है। ग्रामीणों के बीच उन्हीं के तौर-तरीकों से बातचीत करने में वे निपुण हैं। कभी कभी वे लट्ठ घुमाकर सबका मनोरंजन भी करते रहते हैं।

हम सबने मतवैभिन्य के साथ  निष्काम भाव से यह यात्रा आंनद के साथ संपन्न की। यात्रा के दौरान लोगों से हमें भरपूर स्नेह मिला। कहीं हमें बाबाजी तो कहीं मूर्त्ति का संबोधन मिला। हम अनायास ही लोगों के बीच श्रद्धा का पात्र बन गये। जबकि हमारी यात्रा तो मौज-मस्ती से भरी हुई उम्र के इस पड़ाव का एडवेंचर ही है।

हमें नर्मदा तट पर केवल करहिया स्कूल में जाने का अवसर मिला क्योंकि शेष गांव तट से दूर थे या सुबह सबेरे निकलने की वजह से स्कूल बंद। फिर भी जहां कहीं अवसर मिला गांधी चर्चा हुई। गांव के लोग आज भी गांधीजी को जानते हैं, मानते हैं वे श्रद्धा रखते हैं। बापू का नाम सुन उनकी आंखों में चमक आ जाती है। अविनाश ने प्रायमरी स्कूल के बच्चों से राजीव गांधी की फोटो दिखाकर पूंछा क्या यह गांधीजी हैं, बच्चों ने ज़बाब दिया नहीं गांधी जी आपके पर्स में हैं। छुआ-छूत तो अभी भी है। बस यह है कि अब दलित असहजता महसूस नहीं करते। प्रदूषण कम है, नर्मदा जल साफ है पर खतरा तो है। शिवराज सिंह ने  नमामि देवी नर्मदे यात्रा की थी,  उम्मीद जागी कि नर्मदा प्रदूषण से बचेगी, नर्मदा पथ का निर्माण होगा, पेड़ पौधे लगेंगे, गांव बाह्य शौच से मुक्त होंगे, स्वच्छता कार्यक्रम, जैविक खेती बढ़ेगी तो गांवों में खुशहाली जल्द ही देखने को मिलेगी। यात्रा पूरी हुये अरसा बीत गया। कहीं पेड़ पौधे लगे नहीं दिख रहे हैं। नर्मदा में रेत उत्खनन तो अब पहले से ज्यादा हो रहा है, इसलिए शायद गांव के  लोगों को नमामि देवी नर्मदे यात्रा की बातें बेमानी लगने लगी हैं। तट की सफाई को लेकर जागरूकता कुछ ही लोगों में दिखी। हमें सफाई करता देख कोई आगे न आया बस हमारी प्रसंशा कर वे आगे बढ़ गये। रासायनिक खाद का प्रयोग करते किसान न दिखे पर कीटनाशकों का छिड़काव होता कहीं कहीं दिखाई दिया तो कहीं उसकी गंध ने हमें परेशान भी किया। यद्यपि घरों में शौचालय बने हैं तथापि तट पर खुले में शौंच आज भी जारी है। वृक्षारोपण तो अब शायद सरकार की जिम्मेदारी रह गई है। आश्रम में पेड़ लगे हैं लेकिन गांव के टीले, डांगर वृक्ष विहीन हैं। शासन और आश्रम  अगर परिक्रमा मार्ग में नर्सरी संचालित करें तो शायद वृक्षारोपण को बढ़ावा मिलेगा। कुल मिलाकर नौ दिवसीय यह एक सौ पांच किलोमीटर की यात्रा कहीं-कहीं आशा का संचार भी करती है तो दिल्ली और भोपाल से आती खबरें मन को उत्साहित नही करती। हमारी यात्रा के दौरान ही अयोध्या पर फैसला आया लेकिन कहीं भी हमें अतिरेक न दिखा। शांति सब चाहते हैं। यह सूकून देने वाली बात है।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # दस ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # दस  ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

 

14.11.2019की सुबह मैं,  अविनाश, अग्रवालजी और मुंशीलाल पाटकर छोटा धुआंधार देखने चल दिए। नर्मदा यहां चट्टानों के बीच शोर मचाती बहती है। कोई जल प्रपात तो नहीं बनाती पर जल प्रवाह इतना तेज है कि अक्सर कुछ उंचाई तक धुंध छा जाती है। इसलिए नाम पड़ा छोटा धुआंधार। रमणीकता लिए यह बड़ा मोहक स्थल है। आसपास बड़ी बड़ी चट्टानें हैं जिन पर जल कटाव ने तरह तरह की आकृतियां बनाई हैं। आवागमन की सुविधा नहीं है अतः तट पर भरपूर रेत है जो रेगिस्तान का एहसास देती है। यहां कोई आधा घंटा रुककर हम आश्रम वापस आ गये और सामान लाद कर गांव से होते हुए आगे बढ़ते रहे।

हमने मोर पंखों से सुसज्जित, काफी ऊंची ढाल या मड़ई देखी। यह उन घरों में दीपावली पर रखी जाती है जहां इसी वर्ष विवाह होने वाला है। आगे हमें पानी की कसैडीं लिए दो स्त्रियां दिखी और थोड़ी ही दूर एक घर के दरवाजे से टिकी नवयौवना। हमने दोनों से फोटो खींचने की अनुमति मांगी। वे सहर्ष तैयार हो गई। यह नया परिवर्तन गांवों में आया है। दस बरस पहले तक ग्रामीण महिलाओं से ऐसी अपेक्षा करना खतरे से खाली न था।

पिपरहा गांव में नदी अर्ध वृत बनाकर पश्चिम की ओर मुड़ती हुई बहुत सुन्दर दिखती है। कोई दस बजे के आसपास हम शेर नदी संगम स्थल पर पहुंचे। दक्षिण तट पर गुवारी गांव है तो उत्तर दिशा में सगुन घाट है। शेर  नर्मदा की शाम तटीय प्रमुख सहायक नदियों में शामिल हैं और सिवनी जिले के सतपुड़ा पर्वत माला में  स्थित पाटन इसका उद्गम स्थल है, वहां से उत्तर पश्चिम दिशा में बहते हुए 129 किमी की दूरी तय कर  यह नर्मदा को अपना अस्तित्व समर्पित करती है । घने जंगलों के बीच से बहती कभी यह बारहमासी नदी थी अब गर्मी आते आते यह सूखने लगती है।

नदी के किनारे शक्कर मिल है अपना औद्योगिक कचरा शेर नदी में फेंकती है। संगम को हमने नाव से पार किया और आगे चले मार्ग में ही चौगान किले वाले बाबाजी का आश्रम था। यहां दोपहर विश्राम किया और  रोटी-सब्जी, दाल चावल का भोजन किया। आश्रम में गौशाला है, विश्वंभर दास त्यागी इसके संचालन में लगे हैं तथा जैविक खेती-बाड़ी को बढ़ावा देते हैं। वे गौमूत्र के अर्क से आयुर्वेदिक पद्धति से लोगों का उपचार भी करते हैं।

वसंत पंचमी पर प्रतिवर्ष 108 कुंडीय महारूद्र यज्ञ आयोजन भी इस आश्रम में होता है। दो बजे के आसपास हम पांच फिर आगे चले। सतधारा का पुल अब नजदीक ही दिखाई दे रहा था। कोई डेढ़ घंटे चलकर हम यहां पहुंचे स्नान किया और मां नर्मदा को प्रणाम कर अपनी नौ दिन की यात्रा समाप्त की।

इन नौ दिनों में हम सब 105 किलोमीटर पैदल चले। ग्रामीणों के सद्व्यहार के अच्छे अनुभव हुए तो कुछ आश्रमों से बैंरग वापिस भी हुये। कहीं हमारी भेष-भूषा देख लोग आश्चर्य से हमें ताकतें और पिकनिक मनाने आया हुआ समझते। चार बजे हमने बस पकड़ी और करेली स्टेशन से इंटरसिटी ट्रेन में सफर कर भोपाल आ गये।

कल के अंक में इस पूरी यात्रा के मुख्य अनुभव पढ़ना न भूलें।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # नौ ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # नौ ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

13.11.2019 को सुबह-सुबह समनापुर से चलकर कोई पच्चीस मिनट में एक रमणीक स्थान पर पहुंच गए। यह हथिया घाट है।  बीचों-बीच टापू है तो नदी दो धाराओं में  बट गई है फिर चौड़े पाट में अथाह जलराशि समाहित कर नदी पत्थरों के बीच तीव्र  कोलाहल करते कुछ क्षण बहती है। अचानक आगे पहाड़ी चट्टानों को बड़े मनोयोग से एकाग्रता के साथ काटती है। पहाड़ काटना मेहनत भरा है और नदी ने पहले अपनी सारी शक्ति एकत्रित की फिर शान्त चित्त होकर यह दूरूह कार्य संपादित किया।आगे चले चिनकी घाट पर त्यागी जी के आश्रम में रुके, कल मेले में लोगों ने बड़ी गंदगी फैलाई,  मैंने, पाटकर और अविनाश ने सफाई करी। दो पति पत्नी पुरुषोत्तम और ज्योती गड़रिया परकम्मावासी केरपानी गांव के मिले सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर पूजन कर रहे थे।वे सस्वर भजन गा रहे थे।

“मैया अमरकंटक वाली तुम हो भोली भाली। तेरे गुन गाते हैं साधु बजा बजा के ताली।”

बाबा ने हमें पास बुलाया और  बताया कि कल्पावलि में सारा वर्णन है। यह च्वयन ऋषि तप स्थली है और उस पार रमपुरा गांव में मंदिर अब खंडहर हो गया ।  चिनकी घाट में नर्मदा संगमरमर की चट्टानों के बीच बहती है और इसे लघु भेड़ा घाट भी कहते हैं। चाय आदि पीकर हम आगे बढ़ चले। आगे सड़क मार्ग से चले रास्ते में पटैल का घर पड़ा। उसने पानी पिलाया पर गुड़ मांगने पर मना कर दिया। इतने में पटवाजी ने उसका नया ट्रेक्टर देखा तो मिठाई मांग बैठे। फिर क्या था जहां कुछ नहीं था वहां थाल भर कर मिठाई आ गई और हम सबने जीभर कर उसका स्वाद लिया।

आगे झामर होते हुए कोई साढ़े चार किलोमीटर चलकर घूरपूर पहुंचे। दोपहर के समय भास्कर की श्वेत धवल किरणें नर्मदा के नीले जल से मिलकर उसे रजत वर्णी बना रही थी। यहां फट्टी वाले बाबाजी के आश्रम में डेरा जमाया, घाट पर जाकर स्नान किया और फिर भोजन।

यहां महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले से एक साधु चौमासा कर रहे थे। उनके भक्तों ने भंडारा आयोजित किया था सो पूरन पोली, हलुआ, लड्डू, पूरी, सब्जी, दाल, चावल सब कुछ भरपेट खाया। भोजन के पूर्व हम सभी को फट्टी वाले बाबाजी ने प्रेम से अपने पास बैठाया। मैंने सौन्दर्य वर्णन करते हुए नर्मदा को नदी कहा तो वे तुरंत बोले नदी नहीं मैया कहो। बाबाजी विनम्र हैं, उनका घंमड नर्मदा के जल में बह गया है।

अविनाश ने उन्हें सर्दी खांसी-जुकाम की कुछ गोलियां दी। फिर क्या था अविनाश को ग्रामीणों ने डाक्टर साहब समझ अपनी-अपनी बिमारियों के बारे में बताना शुरू कर दिया। घूरपूर का घाट साफ सुथरा है। आश्रम के सेवक गिरी गोस्वामी व उदय पटैल प्रतिदिन घाट की सफाई करते हैं।

भोजनावकाश के बाद हम फिर चल पड़े और नदी के तीरे तीरे एक दूरूह मार्ग पर पहुंच गए। यहां से हम बड़ी कठिनाईयों से निकलने में सफल हुये। पतली पगडंडी, बगल में मिट्टी का ऊंचा लंबा टीला और नीचे नर्मदा का दलदल। पैरों का जरा सा असंतुलन सीधे नीचे नदी में बहा ले जाता। खैर जिसे चंद मिनटों में पार करना था उसे पार करने कोई आधा घंटा लग गया। हम सबने अपना अपना सामान पहले नीचे फेंका फिर पगडंडी पार की और सामने की चढ़ाई पर सामान चढ़ाकर थोड़ी देर सुस्ताने बैठे। आगे मैं, अविनाश और अग्रवाल जी गांव के अपेक्षाकृत सरल मार्ग से पिपरहा गांव पहुंचे और पटवाजी व पाटकर जी कठिन मार्ग से छोटा धुआंधार देखते हुए गांव आ गये। यहां रात संचारेश्वर महादेव मंदिर की कुटी में बिताई।बरगद वृक्ष की छांव तले हनुमान जी व शिव मंदिर है और कुटी में कोई बाबा ने था।  करण सिंह ढीमर ने दरी व भोजन  की व्यवस्था कर दी और हम सबने आलू भटा की सब्जी,  रोटी का भोग लगाया।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 ☆ घर/नवगीत ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “घर/नवगीत”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 2 – घर/नवगीत ☆

 

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–मेरा घर तो, नदी किनारे

घने नीम की, छाया में था

जिस में बैठ, परिंदे दिन भर

गाना गाते थे..

–इस घर में वह, छांव कहां है?

लिपा-पुता, आँगन था मेरा

धूप, हवा, पानी की जिसमें

कमी नहीं थी..

मेरा घर तो, फूलों वाला

खुशबू वाला, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है..

–हंस-हंस कर हम, सुबह-शाम

मिलते थे खुल कर

बिना बात की, बात नहीं थी

मेरे घर में…

मेरा घर तो, कच्चा घर था

यह पक्का घर, मेरा नहीं है

 

(नर्मदा की वैचारिक यात्रा में गरारूघाट पर लिखा गीत)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश

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हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # आठ ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # आठ  ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

12.11.2019 आज कार्तिक पूर्णिमा है और हम गरारू घाट पर हैं, कहते हैं कि इसी घाट पर गरुड़ ने तपस्या की थी।

सुबह-सुबह उठकर गांव की ओर निकल गये दो पुराने मंदिरों का अवलोकन किया। शिव मंदिर इन्डो परसियन शैली में मकबरानूमा इमारत है। इसे सम्भवतः चौदहवीं पन्द्रहवीं सदी में गौड़ राजाओं ने बनवाया था और बाद में सत्रहवीं शताब्दी में गौड़ नरेश बलवंतसिंह ने इनका जीर्णोद्धार किया। चौकोर गर्भगृह में शिव  पिंडी विराजित है। दूसरा गरुड़ मन्दिर मूर्त्ति विहीन है। यह इन्डो इस्लामिक शैली में बना है। इसका भी जीर्णोद्धार राजा बलवंतसिंह ने कराया था।  हमने, पाटकर जी व अविनाश ने मंदिर में फैले कचरे को साफ करने की एक कोशिश की।

लौटकर आए तो पंडाल में कथा व्यास सुन्हैटी के पं ओम प्रकाश शास्त्री मिल गये। उनसे हमें ज्ञात हुआ कि नर्मदा पुराण कथा सबसे पहले मार्कंडेय ऋषि ने पांडवों को सुनाई थी। गरारु घाट पर कार्तिक पूर्णिमा पर मड़ई मेला भरता है। दुकानदारों के बीच आपस में दुकान की जगह को लेकर वाद विवाद होता है पर शीघ्र  मेल-मिलाप भी हो जाता है। वे सब वर्षों से उसी जगह पर दुकान लगाते हैं। सरस्वती बाई कोरी, जमुना चौधरी  की जनरल स्टोर्स की, तो दशरथ अग्रवाल की मिठाई दुकान है वे कागज में मिठाई देते हैं। अंकित पटवा और अन्य की मनिहारी की दुकान।

आगे बढ़े नर्मदा के तीरे तीरे चलते बम्हौरी गांव पहुंचे। वहां से गांव के अंदर होते हुए दोपहर को केरपानी पुल के पास पहुंचे। केरपानी गांव नर्मदा के उत्तरी तट पर है। दूर से ही एक किले के भग्नावशेष दीखते हैं। यह किला पिठौरा गांव के शासक मंगल सिंह गौड़ ने केरपानी पर आक्रमण उपरांत बनाया था। यहां केरपानी गांव के दो लोग भूपत सेन और कनछेदी लाल नौरिया परिक्रमा उठा रहे हैं। कनछेदी लाल तो चौथी बार परिक्रमा कर रहे हैं और पांचवीं परिक्रमा की आशा करते हैं।

हमने पूरे कर्मकांड को ध्यान से देखा। मुंडन उपरांत गणेश पूजन, नवग्रह पूजन, नर्मदा जल , शंकरजी आदि का पूजन हुआ, नर्मदा को झंडा चढ़ाया गया। मां नर्मदा की आरती गाई “ॐ जय जगदानंदी, मैया जय आनंदकंदी, ब्रह्मा-हरि-हर-शंकर, रेवा हरि हर शंकर, रुद्री पालन्ती।।”  फिर कन्या भोजन हुआ तत्पश्चात  ग्रामीणों के साथ हम सबने दाल, बाटी, भरता, सूजी हलुआ का भोग लगाया। सभी ने दोनों परकम्मावासियों को रुपये नारियल से विदाई दी। दोनों के परिवारों के लोगों ने अश्रुपूरित नेत्रों से विदाई दी। ग्रामीणों ने दोने पत्तल एकत्रित कर उसमें आग लगा दी। नदी को प्रदूषणमुक्त रखने की कोशिश सराहनीय है। यहां प्रभुनारायण गुमास्ता मिले। बताते हैं कि गुमास्ता, लिखा-पढ़ी के काम की एवज,   अंग्रेजी शासन से मिली पदवी है।

यहां से हमारे साथी प्रयास जोशी भोपाल चले गए और हम पांच नदी के तीरे तीरे चलकर समनापुर पहुंचे। कार्तिक पूर्णिमा के स्नान हेतु नरसिंहपुर जिले के विभिन्न स्थानों से लोग आये थे घाट पर भीड़ थी और नदी का प्रवाह धीमा और शांत था। पास ही श्री श्री बाबाश्री जी का आश्रम था। यहां रात्रि विश्राम तय किया। बाबाश्री के सेवक को परिचय देते हुए पटवाजी के मुंह स्टेट बैंक का पदनाम निकल गया। बाबाश्री के सेवक ने फौरन टोका आप मां नर्मदा के परिक्रमावासी हैं और यही आपकी पहचान है।

शाम को निर्विकारेश्वर महादेव की आरती में सम्मिलित होने मंदिर गये तो नर्मदा की कल-कल ध्वनि सुनाई दी। लगा कि मां अपने पुत्रों को सुलाने मधुर कंठ में धीमे-धीमे लोरी सुना रही है। रात कोई नौ बजे सेवक आरती से फुर्सत हुए और फिर हम सबने खिचड़ी का सेवन कर रात्रि विश्राम इसी आश्रम में किया।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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