रंगमंच/Theatre – “मूवी मेकर” – अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में चयनित – श्री दीपक तिवारी ‘दिव्य’

“मूवी मेकर” – अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में चयनित
संस्कारधानी जबलपुर ने अब तक कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कलाकार देश को दिए हैं। किंतु अब शहर में बनी फिल्मों ने भी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाना शुरू कर दिया है। फाइव गाड फिल्म्स के बैनर तले बनी फिल्म मूवी मेकर फिल्म को दो अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में अधिकारिक रूप से चयनित किया गया है।
मुंबई के सबसे सम्माननीय दादा साहब फाल्के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव  2019 एवं अमेरिका के प्रतिष्ठित द लिफ्ट अप  सेशन 2019 के लिए चुना गया है। जहां इस फिल्म में शहर के कलाकार संदीप सोनकर ने लेखक, निर्माता,निर्देशक, एडिटर,डीओपी एवं अभिनेता के रूप में काम किया है। वहीं शहर के कलाकार दीपक तिवारी ने मूवी मेकर फिल्म प्रोड्यूसर का अहम किरदार निभाया है।
फिल्म मूवी मेकर एक अति उत्साही युवा की कहानी है। जिसके माध्यम से हास्य एवं व्यंग की विधा का उपयोग कर फिल्मी दुनिया की जटिलताओं से युवाओं को अवगत कराने का प्रयास किया गया है।
इस फिल्म के अन्य कलाकारों में आशुतोष अनिकेत एवं शिवेंद्र भी हैं जिन्होंने अच्छा काम किया है। इस फिल्म की शूटिंग अप्रैल-मई 2017 में हुई थी तथा सारी लोकेशंस जबलपुर की ही है। इसमें जबलपुर की मदन महल स्थित पहाड़ियों के बीच दीपक तिवारी और संदीप सोनकर के बीच फिल्म का वह सीन शूट हुआ है जिसमें संवाद के माध्यम से फिल्मी दुनिया की वास्तविकता को सामने रखने का प्रयास कलाकारों ने किया है। इसमें यह बताया गया है कि किस प्रकार एक उत्साही युवा जो कि डायरेक्टर बनने का सपना देख रहा है। अपनी कहानी लेकर मुंबई में फिल्म कंपनी के दफ्तरों और प्रोड्युसरों के चक्कर लगाता है।  उसके बाद भी उनसे मिलने तक का मौका हासिल नहीं कर पाता। तब वह एक प्रोडूसर को एक नामचीन परिसर में अपनी चालाकी के बूते मिलने के लिए बुला लेता है। वह उसे इस बात का झांसा देता है किउसके पास फाइनेंसर हैं और करोड़ों रुपए वह आने वाली फिल्म में लगा देंगे। जब फिल्म प्रोड्यूसर उससे मिलने पहुंचता है तो उसे इस बात का एहसास होता है इस लड़के ने उसे चीट किया है, बेवकूफ बनाया है। तब वह फिल्मी दुनिया की ऐसी हकीकत को सामने रखता है जो स्याह होने के साथ-साथ वर्तमान परिस्थितियों में भी जायज प्रतीत होती है। कोई भी व्यक्ति नए आदमी पर दांव खेलने के लिए अपना करोड़ों रुपया क्यों लगाएगा। दोनों के बीच संवाद होता है इसके अलावा फिल्म मूवी मेकर में युवाओं को फिल्मी दुनिया की हकीकत से वाकिफ कराया गया है ताकि यदि कोई इस क्षेत्र में आना चाहे तो पहले अपने आप को और अपने टैलेंट को अच्छी तरह से पहचान ले और अपने लक्ष्य के लिए कड़ी मेहनत करने का जज्बा लेकर ही घर से बाहर कदम निकाले।
2018 में दादा साहब फाल्के अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव और लिफ्ट आफ सेशन 2019 के लिए अधिकारिक रूप से चयनित
शार्ट फिल्म – मूवी मेकर
फिल्म मेकिंग – अप्रेल 2017
प्रोडक्शन – फाइव गाड फिल्म्स
लेखक, डायरेक्टर, प्रोड्युसर, डीओपी, एडिटर, अभिनेता –संदीप सोनकर
कलाकार – दीपक तिवारी (फिल्म प्रोड्यूसर)
अन्य कलाकारों में शिवेंद्र, अनिकेत, आशुतोष ने बेहतरीन भूमिकाएँ अदा की हैं।
यूट्यूब पर 2017 में अपलोड की गई है ।
यूट्यूब लिंक – मूवी मेकर 
© दीपक तिवारी  ‘दिव्य’ 

Please share your Post !

Shares

रंगमंच स्मृतियाँ – “कफन” – श्री समर सेनगुप्ता

रंगमंच स्मृतियाँ – “कफन” – श्री समर सेनगुप्ता

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।

इस प्रयास में  सहयोग के लिए e-abhivyakti श्री समर सेनगुप्ता जी का आभार व्यक्त करता है। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा करता है  – हेमन्त बावनकर)   

कफन 

यह नाटक मुंशी प्रेमचंद की कालजयी कहानी “कफन” पर आधारित है।

भारतीय समाज का गठन बहुत ही  निर्मम ढंग से हुआ है. मेहनत-मशक्कत से आजीविका चलानेवालों को निम्न वर्ग में रखा गया है और दूसरों की मेहनत पर पलनेवालों को उच्च वर्ग में रखा गया है।  इस परजीवी वर्ग के ही लोग कालान्तर में समाज नियन्त्रणकर्ता से शोषक में तब्दील हो गये.

प्रस्तुत नाटक में “घीसू”  बेगारी खटने से इंकार कर देता है, फलस्वरूप उसे कामचोर कहा जाता है. घीसू का बेटा “माधो” भी अपने बाप की तरह निकम्मा घोषित हो चुका है.

बाप-बेटे दोनों उठाईगिरी, चोरी, कर्जा और भीख मांग कर अपना पेट पालते हैं. माधो की घरवाली उम्मीद से है दर्द से छटपटाते हुये मर जाती है. इधर बेगैरत बाप-बेटा दाह संस्कार के लिये भीख मांगते हैं और भीख के पैसों से गुलछर्रे उड़ातें हैं.

नाटक में थोड़ा बदलाव किया गया है. बेरोज़गारी और बदहाली से तंगहाल “घीसू” समाज के खिलाफ बगावत करता है।  वह भले ही शराब के नशे में कहता है “दया-भीक्षा में दुई दिन चलत है, ज़रूरत सबसे बड़ी चीज़, भूख राक्षस है माधो! गलती से कौन की भीख की ठठरी के पीछे दौड़ रहा है. लतियाय दे माधो! लतियाय दे”.             

घीसू के चरित्र में श्री अशोक सिॆह ठाकुर का अभिनय अत्यंत सराहनीय रहा है. दर्शकों ने सभी रंगकर्मियों के अभिनय को सराहा. माधो के चरित्र में श्री शुभम पांडे, सरजू के चरित्र में  श्री राज, घन्सू के चरित्र में श्री सौरभ, अलगू के चरित्र में श्री ऋत्तिक गौतम, बड़े बाबू के चरित्र में श्री उत्कर्ष यादव एवं गंगाराम के चरित्र में श्री सोम श्रीवास्तव का अभिनय सराहा गया।

प्रकाश एवं नृत्य निर्देशन श्री आशुतोष पांडे, संगीत श्री विक्की तिवारी, मंच सज्जा श्री अनमोल विश्वकर्मा, मंच संचालन श्री शरफ़ वाहाव एवं नाट्य निर्देशन श्री समर सेनगुप्ता द्वारा किया गया.

नाट्य मंचन – मानस भवन, जबलपुर ,म.प्र.

दिनांक – १३/०१/२०१९ समय-सांय ७.३५

© श्री समर सेनगुप्ता

आप इस लिंक पर “विमर्श सांस्कृतिक सामाजिक सेवा समिति” की प्रस्तुति “कफन” के मुख्य अंश देख सकते हैं >>>>>>  “कफन” 

Please share your Post !

Shares
रंगमंच/Theatre
Warning: Trying to access array offset on value of type bool in /var/www/wp-content/themes/square/inc/template-tags.php on line 138

रंगमंच नाटिका – “राह” – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

नाटिका राह

(स्मरण महीयसी महादेवी वर्मा जी: १) 

संवाद शैली में संस्मरणात्मक लघु नाटिका  

१. राह

एक कमरे का दृश्य: एक तख़्त, दो कुर्सियाँ एक मेज। मेज पर कागज, कलम, कुछ पुस्तकें, कोने में कृष्ण जी की मूर्ति या चित्र, सफ़ेद वस्त्रों में आँखों पर चश्मा लगाए एक युवती और कमीज, पैंट, टाई, मोज़े पहने एक युवक बातचीत कर रहे हैं। युवक कुर्सी पर बैठा है, युवती तख़्त पर बैठी है।

नांदीपाठ: उद्घोषक: दर्शकों! प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक लघु नाटिका ‘विश्वास’। यह नाटिका जुड़ी है एक ऐसी गरिमामयी महिला से जिसने पराधीनता के काल में, परिवार में स्त्री-शिक्षा का प्रचलन न होने के बाद भी न केवल उच्च शिक्षा ग्रहण की, अपितु देश के स्वतंत्रता सत्याग्रह में योगदान किया, स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में असाधारण कार्य किया, हिंदी साहित्य की अभूतपूर्व श्रीवृद्धि की, अपने समय के सर्व श्रेष्ठ पुरस्कारों के लिए चुनी गयी, भारत सरकार ने उस पर डाक टिकिट निकाले, उस पर अनेक शोध कार्य हुए, हो रहे हैं और होते रहेंगे। नाटिका का नायक एक अल्प  ज्ञात युवक है जिसने विदेश में चिकित्सा शिक्षा पाने के बाद भी भारतीयता के संस्कारों को नहीं छोड़ा और अपने मूक समर्पण से प्रेम और त्याग का एक नया उदाहरण स्थापित किया।

युवक: ‘चलो।’

युवती: “कहाँ।”

युवक: ‘गृहस्थी बसाने।’

युवती: “गृहस्थी आप बसाइए, मैं नहीं चल सकती?”

युवक: ‘तुम्हारे बिना गृहस्थी कैसे बस सकती है? तुम्हारे साथ ही तो बसाना है। मैं विदेश में कई वर्षों तक रहकर पढ़ता रहा हूँ लेकिन मैंने कभी किसी की ओर  आँख उठाकर भी नहीं देखा।’

युवती: “यह क्या कह रहे हैं? ऐसा कुछ तो मैंने  आपके बारे में सोचा भी नहीं।”

युवक: ‘फिर क्या कठिनाई है? मैं जानता हूँ तुम साहित्य सेवा, महिला शिक्षा, बापू के सत्याग्रह और न जाने किन-किन आंदोलनों से जुड़ चुकी हो। विश्वास करो तुम्हारे किसी काम में कोई बाधा न आएगी। मैं खुद तुम्हारे कामों से जुड़कर सहयोग करूँगा।’

युवती: “मुझे आप पर पूरा भरोसा है, कह सकती हूँ खुद से भी अधिक, लेकिन मैं गृहस्थी बसाने के लिए चल नहीं सकती।”

युवक: ‘समझा, तुम निश्चिन्त रहो। घर के बड़े-बूढ़े कोई भी तुम्हें घर के रीति-रिवाज़ मानने के लिए बाध्य नहीं करेंगे, तुम्हें पर्दा-घूँघट नहीं करना होगा। मैं सबसे बात कर, सहमति लेकर ही आया हूँ।’

युवती: “अरे बाप रे! आपने क्या-क्या कर लिया? अच्छा होता सबसे पहले मुझसे ही पूछ लेते, तो इतना सब नहीं करना पड़ता।, यह सब व्यर्थ हो गया क्योंकि मैं तो गृहस्थी बसा नहीं सकती।”

युवक: ‘ओफ्फोह! मैं भी पढ़ा-लिखा बेवकूफ हूँ, डॉक्टर होकर भी नहीं समझा, कोई शारीरिक बाधा है तो भी चिंता न करो। तुम जैसा चाहोगी इलाज करा लेंगे, जब तक तुम स्वस्थ न हो जाओ और तुम्हारा मन न हो मैं तुम्हें कोई संबंध बनाने के लिए नहीं कहूँगा।’

युवती: “इसका भी मुझे भरोसा है। इस कलियुग में ऐसा भी आदमी होता है, कौन मानेगा?”

युवक: ‘कोई न जाने और न माने, मुझे किसी को मनवाना भी नहीं है, तुम्हारे अलावा।’

युवती: “लेकिन मैं तो यह सब मानकर भी गृहस्थी के लिए नहीं मान सकती।”

युवक: ‘अब तुम्हीं बताओ, ऐसा क्या करूँ जो तुम मान जाओ और गृहस्थी बसा सको। तुम जो भी कहोगी मैं करने के लिए तैयार हूँ।’

युवती: “ऐसा कुछ भी नहीं है जो मैं करने के लिए कहूँ।”

युवक: ‘हो सकता है तुम्हें विवाह का स्मरण न हो, तब हम नन्हें बच्चे ही तो थे। ऐसा करो हम दुबारा विवाह कर लेते हैं, जिस पद्धति से तुम कहो उससे, तब तो तुम्हें कोई आपत्ति न होगी?’

युवती: “यह भी नहीं हो सकता, जब आप विदेश में रहकर पढ़ाई कर रहे थे तभी मैंने सन्यास ले लिया था। सन्यासिनी गृहस्थ कैसे हो सकती है?”

युवक: ‘लेकिन यह तो गलत हुआ, तुम मेरी विवाहिता पत्नी हो, किसी भी धर्म में पति-पत्नी दोनों की सहमति के बिना उनमें से कोई एक या दोनों को  संन्यास नहीं दिया जा सकता। चलो, अपने गुरु जी से भी पूछ लो।’

युवती: “चलने की कोई आवश्यकता नहीं है। आप ठीक कह रहे हैं लेकिन मैं जानती हूँ कि आप मेरी हर इच्छा का मान रखेंगे इसी भरोसे तो गुरु जी को कह पाई कि मेरी इच्छा में आपकी सहमति है। अब आप मेरा भरोसा तो नहीं तोड़ेंगे यह भी जानती हूँ।”

युवक: ‘अब क्या कहूँ? क्या करूँ? तुम तो मेरे लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ रहीं।’

युवती: “रास्ता ही तो छोड़ रही हूँ। मैं सन्यासिनी हूँ, मेरे लिए गृहस्थी की बात सोचना भी कर्तव्य से च्युत होने की तरह है। किसी पुरुष से एकांत में बात करना भी वर्जित है लेकिन तुम्हें कैसे मना कर सकती हूँ? मैं नियम भंग का प्रायश्चित्य कर लूँगी।”

युवक: ‘ऐसा करो हम पति-पत्नी की तरह न सही, सहयोगियों की तरह तो रह ही सकते हैं, जैसे श्री श्री रामकृष्ण देव और माँ सारदा रहे थे।’

युवती: “आपके तर्क भी अनंत हैं। वे महापुरुष थे, हम सामान्य जन हैं, कितने लोकापवाद होंगे? सोचा भी है?”

युवक: ‘नहीं सोचा और सच कहूँ तो मुझे सिवा तुम्हारे किसी के विषय में सोचना भी नहीं है।’

युवती: “लेकिन मुझे तो सोचना है, सबके बारे में। मैं तुम्हारे भरोसे सन्यासिनी तो हो गयी लेकिन अपनी सासू माँ को उनकी वंश बेल बढ़ते देखने से भी अकारण वंचित कर दूँ तो क्या विधाता मुझे क्षमा करेगा? विधाता की छोड़ भी दूँ तो मेरा अपना मन मुझे कटघरे में खड़ा कर जीने न देगा। जो हो चुका उसे अनहुआ तो नहीं किया जा सकता। विधि के विधान पर न मेरा वश है न आपका। चलिए, हम दोनों इस सत्य को स्वीकार करें। आपको विवाह बंधन से मैंने उसी क्षण मुक्त कर दिया था, जब सन्यास लेने की बात सोची थी। आप अपने बड़ों को पूरी बात बता दें, जहाँ चाहें वहाँ विवाह करें। मैं बड़भागी हूँ जो आपके जैसे व्यक्ति से सम्बन्ध जुड़ा। अपने मन पर किसी तरह का बोझ न रखें।”

युवक: ‘तुम तो चट्टान की तरह हो, हिमालय सी, मैं खुद को तुम्हरी छाया से भी कम आँक रहा हूँ। ठीक है, तुम्हारी ही बात रहे। तुम प्रायश्चित्य करो, मैंने तुमसे तुम्हारा नियम भंग कर बात की, दोषी हूँ, इसलिए मैं भी प्रायश्चित्य करूँगा। सन्यासिनी को शेष सांसारिक चिंताएँ नहीं करना चाहिए। तुम जब जहाँ जो भी करो उसमें मेरी पूरी सहमति मानना। जिस तरह तुमने सन्यास का निर्णय मेरे भरोसे लिया उसी तरह मैं भी तुम्हारे भरोसे इस अनबँधे बंधन को निभाता रहूँगा। कभी तुम्हारा या मेरा मन हो या आकस्मिक रूप से हम कहीं एक साथ पहुँचे तो तुमसे बात करने में या कभी आवश्यकता पर सहायता लेने से तुम खुद को नहीं रोकोगी, मुझे खबर करोगी तुमसे बिना पूछे यह विश्वास लेकर जा रहा हूँ। तुम यह विश्वास न तो तोड़ सकोगी, न मना कर सकोगी। तुम अशिक्षा से लड़ रही हो, मैं अपने ज्ञान से बीमारियों से लड़ूँगा। इस जन्म में न सही अगले जन्म में तो एक ही होगी हमारी राह।’

कुछ समय तक युवक युवती की और देखता रहा, किन्तु युवती का झुका सर ऊपर न उठता देख और अपनी बात का उत्तर न मिलता देख नमस्ते कर चल पड़ा बाहर की ओर।

[मंच पर नांदी का प्रवेश: दर्शकों क्या आपने इन्हें पहचाना? इस नाटिका के पात्र हैं हिंदी साहित्य की अमर विभूति महीयसी महादेवी वर्मा जी और उनके बचपन में हुए बाल विवाह के पति जो चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने विदेश चले गये थे।] 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ०७६९९९५५९६१८ ईमेल: [email protected]

Please share your Post !

Shares
रंगमंच/Theatre
Warning: Trying to access array offset on value of type bool in /var/www/wp-content/themes/square/inc/template-tags.php on line 138

रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे

रंगमंच स्मृतियाँ – “काल चक्र” – श्री असीम कुमार दुबे

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)   

काल चक्र – मानवीय संवेदनाओं का बयां करता नाटक  

संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार के सहयोग से कोशिश नाट्य संस्था की ओर से भारत भवन के अंतरंग सभागार में रंगकर्मी श्री असीम कुमार दुबे के निर्देशन में नाटक ‘काल चक्र’ का मंचन किया गया। इस नाटक का मंचन 13 वर्ष बाद कुछ बदलाव के बाद दुबारा किया गया। इससे पहले यह रवीन्द्र भवन में प्रस्तुत किया गया था।

नाटक का कथानक मराठी लेखक स्वर्गीय जयवंत दळवी के कालजयी नाटक पर आधारित है। इसके स्क्रिप्ट में कुछ बदलाव करने के पश्चात संगीत एवं प्रकाश के अभूतपूर्व संयोजन के साथ जीवन्त प्रस्तुति दी गई।

इस नाटक का गीत-संगीत अहम पहलू रहा।

शीर्षक गीत इस नाटक में बूढ़े- माँ बाप की मानसिक एवं शारीरिक स्थिति को बहुत गहराई से बयां करता है।

जन्म निश्चित

मृत्यु निश्चित

ये जीवन है कालचक्र ….. ।

इसी तरह हमनें जिन पर प्यार लुटाया

उन्होने हमें क्या लौटाया …… ।

उनके जीवन के आखिरी पड़ाव में आने वाली उलझनों और अपनों के तिरस्कार की पीड़ा दिखाई गई है।

यह एक सामान्य मध्यमवर्गीय ईमानदार परिवार के स्वाभिमानी पिता विटठल और माँ रुक्मणी की कहानी है। कहानी उन बुजुर्ग दम्पतियों की शारीरिक और मानसिक पीड़ा बयां करती है, जिनके दो बेटे होने के बावजूद उन्हें वृद्धाश्रम की राह दिखाई जाती है।  उनके दो पुत्र हैं विश्वनाथ एवं शरद। वे अपने बड़े बेटे विश्वनाथ और बहू लीला के पास रहते हैं। बेटे बहू बात-बात पर विट्ठल और रुक्मणी को ताने देते रहते हैं। उनका छोटा बेटा शरद एक दवा कंपनी में अधिकारी है और उसकी पत्नी मीना सोशल वर्कर है। वे दोनों स्वयं को बहुत ही व्यस्त दिखाते हैं। इसलिए माता पिता से मिलने कभी-कभार आ पाते हैं। नाटक का सबसे महत्वपूर्ण पल वह होता है, जब पिता सोचता है कि जिस तरह से लोग बच्चे गोद लेने के लिए विज्ञापन निकालते हैं, उसी तरह क्यों न माता-पिता को गोद लेने के लिए विज्ञापन निकाला जाए। जिस पर दोनों बेटे अपने पिता का मज़ाक बनाते हैं और कहते हैं किस इस उम्र में कौन तुम्हें गोद लेगा?

इतना सब कुछ होने के बाद भी प्रोफेसर दंपति राघव और इरावती उनको गोद लेने के लिए तैयार हो जाते हैं। प्रोफेसर दंपति उन्हें खुश रखने में कोई कसर नहीं छोड़ते। माता-पिता को गोद लेने के बाद जब माँ का जन्मदिन आता है जिसे काफी धूमधाम से जन्मदिन मनाया जाता है। इतनी अपार खुशी के माँ सहन नहीं कर पाती और उनको हार्ट अटैक आ जाता है। कुछ दिनों के पश्चात इरावती से कविता सुनते सुनते पिता भी आँखें मूँद लेते हैं। इसी समय दोनों बेटों को अपनी गलती पर पश्चाताप होता है। वे अपने माता पिता को वापस लेने जाते हैं। किन्तु,  जब तक वे पहुँचते हैं, तब तक सब कुछ समाप्त हो चुका होता है।

यदि मराठी में सारांश बयां करना चाहें तो –

“काल तुम्ही आमच्यावर अवलंबून होता. आज आम्ही तुमच्यावर अवलंबून आहोत ! हे एक कालचक्र आहे !

आज तुम्ही जे म्हणताय, तेच आम्ही आमच्या तरुणपणी म्हणत होतो. आज आम्ही जे म्हणतोय तेच तुम्ही उद्या तुमच्या म्हातारपणी म्हणणार!”

अर्थात

“कल तुम हम पर अवलंबित थे, आज हम तुम पर अवलंबित हैं। यह एक कालचक्र है!

आज जो तुम कह रहे हो, वही हम अपनी युवावस्था में कहते थे। आज जो हम कहते हैं, वही तुम कल अपनी वृद्धावस्था में कहोगे।”

मंच पर सुषमा ठाकुर, आलोक गच्छ, विवेक सावरीकर मृदुल, महुआ चटर्जी, भुवांशु शर्मा, राजीव श्रीवास्तव, रश्मि गोल्या, जगदीश बागोरा, अपूर्वा मुक्तिबोध, कान्हा जैन, अवनि वर्मा आदि ने प्रत्येक पात्र की सजीव भूमिकाएँ निभाईं।

नेपथ्य में कमल जैन (प्रकाश परिकल्पना), लीला और किशोर (मंच निर्माण), शरद नायक, प्रशांत धवले, स्मिता खरे (गायन) लक्ष्मी नारायण ओसले (वाद्य) एवं पुनीत वर्मा द्वारा वायलिन पर विशेष प्रस्तुति दी गई।

 

 

Please share your Post !

Shares
रंगमंच/Theatre
Warning: Trying to access array offset on value of type bool in /var/www/wp-content/themes/square/inc/template-tags.php on line 138

रंगमंच स्मृतियाँ – “तीसवीं शताब्दी” – श्री असीम कुमार दुबे

रंगमंच स्मृतियाँ – “तीसवीं शताब्दी” – श्री असीम कुमार दुबे

(यह विडम्बना है कि  – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं। – हेमन्त बावनकर)   

उपरोक्त चित्र भोपाल के भारत भवन में स्वर्गीय के जी त्रिवेदी नाट्य समारोह में बादल सरकार के नाटक “तीसवीं शताब्दी” के मंचन के समय का है। इस नाटक का ताना बाना हिरोशिमा की बरसी पर हिरोशिमा की विभीषिका के इर्द गिर्द बुना गया है।

इस नाटक में पात्र कल्पना करता है कि वह तीसवीं शताब्दी के लोगों से बात कर रहा है। उसे यह आभास होता है कि तीसवीं शताब्दी के लोग बीसवीं शताब्दी के लोगों पर यह आरोप लगाएंगे कि- हमने आखिर हिरोशिमा-नागासाकी जैसे कांड को होने ही क्यों दिया? वह पाता है कि इस शताब्दी का प्रत्येक व्यक्ति अपराधी है, उसका अपराध यह है कि उसने मानवता के प्रति ऐसी साज़िशों के प्रति आवाज क्यों नहीं उठाई?

इस समारोह में अनूप शर्मा को कला निर्देशन, जुल्फकार को संगीत के लिए सम्मानित किया गया। संगीता अत्रे को “शो मस्ट गो ऑन” के खिताब से नवाजा गया। यह संगीता अत्रे का रंगकर्म के प्रति समर्पण भाव को प्रदर्शित करता है जो अपनी माँ की दो दिन पूर्व मृत्यु के पश्चात भी नाटक में भावपूर्ण प्रस्तुति देने आईं। नाटक में असीम दुबे, नीति श्रीवास्तव, प्रवीण महुवाले, साजल श्रोत्रिय, संगीता अत्रे, दीपक तिवारी, ऐश्वर्या तिवारी, इन्दिरा आदि ने भूमिकाएँ निभाईं।

© असीम कुमार दुबे

Please share your Post !

Shares
रंगमंच/Theatre
Warning: Trying to access array offset on value of type bool in /var/www/wp-content/themes/square/inc/template-tags.php on line 138

रंगमंच – मध्य प्रदेश के रंगक्षेत्र में स्टेट बैंक के रंगकर्मियों का योगदान – श्री असीम कुमार दुबे

असीम कुमार दुबे 

मध्य प्रदेश के रंगक्षेत्र में स्टेट बैंक के रंगकर्मियों का योगदान

न तज्ज्ञानं न तच्छिल्पं न सा विद्या न सा कला  |

ना सौ न तत्कर्म नाट्यास्मिन  यन्नदृश्यते ||

(कोई ज्ञान, कोई शिल्प, कोई विद्या , कोई कला, कोई योग तथा कोई कर्म ऐसा नहीं है जो नाट्य में दिखाई न देता हो |)

नाटक से न केवल भाषा का विकास होता है, वरन मनुष्य का भी विकास होता है . भौतिकवाद के विश्व-व्यापी विकास के बाद आज सारी दुनिया में पुनः सांस्कृतिक मूल्यों कि आवश्यकता महसूस कि जा रही है . भले ही साहित्य में नाटक को कविता या कहानी के समतुल्य स्थान न मिला हो परन्तु नाटक में साहित्य कि सारी विधाओं का अद्भुत मेल है. नाटक भाषा को भाषा से जोड़ता है, नाटक मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है और नाटक जीवन को जीवन से जोड़ता है. दरअसल नाटक का एक मजबूत संपर्क सूत्र है .

भारतीय  स्टेट बैंक और रंगकर्म

यदि इस विषय पर चर्चा की जाये तो लोग सोच में पड़ जायेंगे कि एक बैंक का रंगकर्म  से क्या नाता ? भारतीय स्टेट  बैंक के भोपाल मंडल (मध्य प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ ) के कलाकारों ने विगत 40 वर्षों में  प्रदेश के और विशेषकर भोपाल के रंगक्षेत्र में अत्यंत उल्लेखनीय योगदान दिया है।   राजभाषा मास के दौरान ३० वर्षों तक सतत स्टेट बैंक नाट्य समारोह का आयोजन किया जाता रहा ( दुर्भाग्य से विगत कुछ वर्षों से यह समारोह बंद कर दिया गया है )।   इस नाट्य समारोह ने रंगमंच को एक नई ऊंचाई, एक नई शक्ति और एक नई ऊर्जा दी है।  स्टेट बैंक नाट्य समारोहों में मंचित नाटकों ने रचनात्मकता, सृजन क्षमता और रंगकर्म के प्रति कलाकारों की निष्ठा का एक ऐसा उदहारण प्रस्तुत किया है, जो शौकिया (अव्यवसायिक) रंगमंच में मिलना संभव नहीं है।

स्टेट बैंक के इस प्रतिष्ठित आयोजन में  देश के ख्यातनाम रंग निर्देशकों श्री हबीब तनवीर, श्री बंसी कौल,  श्री प्रभात गांगुली, श्री राजेंद्र गुप्त, श्री अलखनंदन, श्री जयंत देश्मुख, श्री प्रशांत खिरवडकर आदि का निर्णायकों एवं मुख्य अतिथियों के रूप में इस समारोह में शामिल होना इसके प्रतिष्ठित होने का प्रमाण है।   स्टेट बैंक के इस नाट्य समारोह को मध्य प्रदेश के पूर्व राज्यपालों महामहिम श्री भाई महावीर एवं श्री बलराम जाखड़ जी से भी सराहना मिली है।

स्टेट बैंक नाट्य समारोह ने कई श्रेष्ठ निर्देशक एवं  अभिनेता/अभिनेत्री भोपाल के रंमंच को दिए है। इनमे से कई अभिनेताओं ने भारत महोत्सव (रूस -1988) सहित देश के अनेक प्रतिष्ठित नाट्य समरोहों  में शिरकत की है।  बैंक के अनेक रंगकर्मी दूरदर्शन की टेलिफिल्मो, धारावाहिकों एवं फीचर फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं।

स्टेट बैंक के मध्य प्रदेश , छत्तीसगढ़ के  रंगकर्मियों में से कुछ प्रमुख नाम हैं  स्व. श्री विजय डिंन्डोरकर, स्व. श्री प्रदीप पोद्दार, श्री अशोक बुलानी, श्री उदय शहाणे, श्री बसंत काशिकार, श्री असीम कुमार दुबे, श्री राकेश सेठी, श्री प्रवीण महुवाले, श्री आलोक गच्छ, श्री अविनाश नेमाडे, श्री जगदीश बागोरा, श्री संजय जैन, श्री सुधीर खानवलकर , श्री अरविन्द बिलगैया , श्री दीपक सभरवाल, श्री दीपक तिवारी, श्रीमती संध्या पोद्दार, श्रीमती सुशीला प्रसाद, श्रीमती रश्मि मुजुमदार, श्रीमती गीता अइयर आदि।

३० वर्षों में स्टेट बैंक नाट्य समारोहों में सैंया भये कोतवाल, दुलारी बाई, एक था गधा, आषाढ़ का एक दिन, सदगति, राम लीला, बगिया बांछा राम की , माँ रिटायर होती है , महाभोज, मोटेराम का सत्याग्रह , संध्या छाया, कोर्ट मार्शल, जिस लाहोर नई देख्या , अच्छे आदमी, अंजी, बजे ढिंडोरा, अरे शरीफ लोग, शुतुरमुर्ग, कालचक्र  सहित 100 से अधिक नाटकों के श्रेष्ठ प्रदर्शन किये गए  हैं।

© असीम कुमार दुबे

 

Please share your Post !

Shares
रंगमंच/Theatre
Warning: Trying to access array offset on value of type bool in /var/www/wp-content/themes/square/inc/template-tags.php on line 138
image_print