हिन्दी साहित्य – रंगमंच/सिनेमा ☆ मुंबई में “का बा” के गीतकार – डॉ. सागर ☆ सुश्री मनिषा खटाटे

सुश्री मनिषा खटाटे

 ☆ रंगमंच/सिनेमा ☆ मुंबई में “का बा” के गीतकार – डॉ. सागर ☆  सुश्री मनिषा खटाटे☆ 

पिछले वर्ष मुंबई में “का बा” यह गीत मशहूर हुआ. यह गीत प्रसिद्ध अभिनेता मनोज बाजपेयी ने गाया और उन्हीं के उपर फिल्माया गया. यह गीत भोजपुरी भाषा में हैं. परंतु यथार्थवाद और सामाजिक संघर्ष की कहानी व्यक्त करने में स्वयं ही सक्षम हैं. सिनेमा भी साहित्य की तरह एक संरचना हैं. डाँ.सागर सिनेमा, गीत और साहित्य के इंद्रधनुष  हैं. बॉलीवुड में बलिया, उत्तरप्रदेश से आकर डा. सागर अपने गीतों मे तितलियों के रंग भरते हैं और उन्हे बेचने के लिये वे जे.एन.यु. से बॉलीवुड आ जाते है. डॉ. सागर के दादी का यह सपना उनके दिल की धड़कन बन जाता है और बॉलीवुड  पर छा जाता है, यह गीतों का सपना श्रेया घौषाल से लेकर तमाम महान गायको की आवाज से गूँजता हैं. शोरगुल की इस मायानगरी मे डॉ. सागर एक अजूबा गीतकार है. डॉ सागर का यह सफर किसी फिल्मी कहानी सें कम नही है.

साहित्य का सौंदर्य और तहजीब अगर गीतो से बरसने लगे तो सावन में भी आग लग जाती है. बंम्बई के उम्मीदों की उँची इमारतें और नंगे पांव चलने वाले रास्ते अपनी मंजिल तक पहुँच ही जाते है. मगर उनके इस पसीने में भी मजनू के मैले कुर्ते से साहिरवाली खुशबू आती है. यथार्थवाद और छायावाद के फूल कोरे कागज पर उमड़ते हैं. लोक जीवन प्रतीक और बिंबो मे जाम की तरह छलकता है. डॉ. सागर के गीत समाज के संघर्ष को किनारा देते है. सामान्य मनुष्य की आवाज को बुलंदी तक पहुँचाता है. यह हकीकत वे इस तरह अपने गीतो मे बयां करते हैं — “ख्वाबों को सच करने के लिये तितली ने सारे रंग बेच दिये”, “ख्वाबों की दुनिया मुकम्मल कहाँ है, जीने की ख्वाइशों में मरना यहाँ है”. “बॉलीवुड डायरीज” इस फिल्म ने उन्हे बतौर गीतकार एक पहचान करा दी हैं, नहीं तो बॉलीवुड में अक्सर यह कहते सुना हैं की ज्यादा गुलज़ार बनने की कोशिश मत कर. लेकिन इसका एक अर्थ यह है की बॉलीवुड सें उर्दू का प्रभाव कम करने में पंजाबी, भोजपुरी और मराठी संस्कृति तथा टॉलीवूड भी सफल रहा है. भारतीय फिल्मों पर अपनी अमिट छाप डाल रहे है. इस माहौल मे डॉ.सागरजी के गीत भोजपुरी तडका लगा रहे है. ये नया दौर है, ये नये जमाने की नयी आवाज है, ये बॉलीवुड को नयी डायरी लिखने के लिये मजबूर करेगी.

दूसरी सबसे महत्वपूर्ण बात यह हैं की बंम्बई मे का बा ! इस गीत ने एक बडा इतिहास रच दिया हैं. इस गीत को मशहुर अभिनेता मनोज वाजपेयी ने गाया है और उनके उपर चित्रित किया गया है. इस गीत ने मुंबई के जीवन को सही मायनों मे शब्दांकित किया हैं. रोटी, कपडा और मकान के चक्कर मे हम मुंबई आकर हमारा असली जीवन भी भूल जाते हैं. पैसे कमाने की इच्छा ने मुंबई हमसे क्या क्या नही छीनती? लोकल पकडने की भीड और होड में हम हमारे चेहरे भी भूलते है. यहाँ वडा पाव खाते समय गांव की रोटी आंसुओ के साथ याद आती हैं. यह करते वक्त कभी आतंकी हमले को भी सीने पर झेलना पडता है. जान जाती हैं फिर भी दूसरे दिन जिंदगी को पटरी पर लाना आवश्यक होता है. यही मुंबई है. यही अहसास डाँ.सागर फिल्मों की चकाचौंध मे भूले नही है. मुंबई का यह तथ्य इस गीत में उजागर होता हैं. मुंबई एक राक्षस की तरह हैं जो लोगों का पेट तो भरती है मगर उनके सपने निगल जाती हैं. यहाँ लोग पसीने से अपनी प्यास बुझाते हैं. मुंबई पर आज तक बहुत सारे गीत बने होंगे परंतु मुंबई का ऐसा तीखा, दिल को चुभनेवाला दर्द शायद ही कोई बयां कर पाया हैं. यह अदभुतवाद और यथार्थ का अनोखा संयोग है. यू.पी और बिहार से जो प्रवासी मजदूर है ज्यादातर उनकी यह कहानी हैं. यह कहानी आपको फुटपाथ पर और मुंबई के हर गलीं में या हर सडक पर दिखाई देगी. भूंख, प्यास बुझाने के चक्कर मे जिस्म की खरीद फरोख्त कब शुरु हो जाती है, इसका अहसास भी नहीं हो जाता. मुंबई की अपनी एक दुनियां हैं. इस दुनिया के रंग निराले हैं, किसी किसी के ही पकड में आते हैं. इसकी दिवाली अलग है तो इसकी होली भी. हाल ही में डाँ. सागर का और एक गीत मशहूर हो रहा है “बबुनी तेरे रंग में”. होली के रंग मे रंगने का यह एक नया अंदाज है. लोक जीवन के व्यवहार को पर्दे पर अंकित करने का काम बखूबी फिल्मे निभाती हैं. काव्य तथा गीत लोकजीवन का आधार होता हैं और गीत भारतीय फिल्मों का अहम् हिस्सा है. गीतो के बिना फिल्मे अधूरी होती है. वह फिल्म की आत्मा होती है. यह सुर डा. सागर के गीतो की लय है. गीत ही फिल्म की असली पहचान करा देते है. वे फिल्मों को सामर्थ्य प्रदान कराते है.

डा. सागरजी के जीवन के तीन प्रमुख पडाव है, बलिया, जे.एन.यू. और बॉलीवुड. अक्सर तीनों का प्रभाव आपके गीतों पर पडता दिखाई देता है. सितारों की तरह आकाश में झिलमिलाता है. ये गीत बॉलीवुड को प्रकाशित करते है.

डा. सागर जी का यह गीतों का सफर चलता रहे. न रुकने वाला एक कारवाँ बने यह कामना व्यक्त करती हूँ. डा. सागरजी में वह काव्य प्रतिभा है की उनके गीत इस मायानगरी को पुलकित करते रहेंगे.

© सुश्री मनिषा खटाटे

नासिक, महाराष्ट्र (भारत)

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -6 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टिश्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 6 ☆  संजय भारद्वाज ?

रमेश-  वाह मान गए मधु वर्मा। वेरी गुड शॉट विद क्लासिक टच ऑफ सेंटीमेंट्स एंड रियलिटी।

मधु-थैंक्यू।

रमेश- बाय द वे आय एम रमेश अय्यर। हिंदी ‘नवप्रभात’ का संपादक हूँ। (मधु हाथ मिलाती है।) मेरी साथी पत्रकार अनुराधा चित्रे।

मधु- हैलो।

अनुराधा- हैलो।

मधु- प्लीज हैव ए सीट।

रमेश-मधु लगता है इस बार तुम आलोचकों का मुँह बंद कर दोगी। मधु  को अभिनय नहीं आता, मधु इंग्लिश टोन में संवाद बोलती है… इंग्लिश टोन की हिंदी तो छोड़ो, ठेठ भोजपुरी में संवाद!

मधु- क्रिटिक्स? क्रिटिक्स की तो…( हँसती है।) छोड़ो यार तुम भी तो क्रिटिक हो। मुझे क्रिटिक्स पर बहुत गुस्सा आता है पर कुछ बोल दूँगी तो कल फिर हेडलाइंस होंगी कि मधु घमंडी है। अभी फ्लॉप है तो यह हाल है, कल अगर हिट हो जाएगी तो क्या होगा, वगैरह-वगैरह..( हँसती है।)  कहो कैसे याद किया? मेरे बारे में कोई नया गॉसिप छपा है क्या?

अनुराधा- मधु जी,  हम एक इंटरव्यू सीरीज़ तैयार कर रहे हैं।

मधु- कैसी इंटरव्यू सीरीज़? वैसे माफ कीजिएगा मैंने आपको पूछा नहीं कि क्या लेंगे? यहाँ कोल्ड ड्रिंक्स से लेकर… रादर सॉफ्ट ड्रिंक्स  से लेकर हार्ड ड्रिंक्स तक सब मिल जाएगा।

रमेश- नो थैंक्स। फिलहाल तो इंटरव्यू के सिवा दूसरा कुछ नहीं लेंगे।

मधु- (हँसती है।)

अनुराधा-  मधु जी, आपने उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन को तो देखा होगा।

मधु- भिखारिन? आप फिल्मस्टार मधु वर्मा के पास किसी भिखारिन की बात लेकर आए हैं। आर यू ऑलराइट?

रमेश- वी आर वेरी मच ऑलराइट मिस मधु वर्मा। लेट मी एक्सप्लेन इट। ऐसा है मधु कि पिछले कुछ दिनों से मेनपोस्ट वाली वह भिखारिन इन काफी चर्चा में थी।

मधु- रमेश आप उस न्यूड भिखारिन की बात कर रहे हैं?

रमेश- हाँ वही। वह भिखारिन आज अपनी मौत के बाद भी एक इशू है इस शहर के लिए। हमने सोचा कि समाज के अलग-अलग लोगों से उनकी रिएक्शन्स जानी जाएँ इस मामले पर।… हमने एसीपी भोसले का इंटरव्यू किया। प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का इंटरव्यू किया। फिल्म इंडस्ट्री से आपको चुना।

मधु- ओह थैंक्यू! पूछिए, क्या पूछ रही थीं आप?

अनुराधा- मधु जी आपने उस भिखारिन को देखा था?

मधु- हाँ देखा था। मैं कामत के स्टूडियोज में जा रही थी। कार सिग्नल की वज़ह से मेनपोस्ट पर काफी देर रुकी थी इसलिए उस भिखारिन को देखने का मौका मिल गया।

अनुराधा- जब आपने उसे देखा तो वह क्या कर रही थी?

मधु- क्या कर रही थी? (जोर से हँसती है।)..वॉट डू यू मीन? भिखारी क्या कर सकता है?

अनुराधा-आय मीन लोगों से भीख मांग रही थी। लोग उसे भीख दे रहे थे। या ऐसा ही कुछ..?

मधु- नहीं, ऐसा कुछ नहीं। यू नो मैंने जब उसे देखा तो उसने बदन के ऊपर के हिस्से पर कुछ भी नहीं पहना था। न खुद को हाथों से ही ढकने की कोशिश की थी। वह तो मेेनपोस्ट की दीवार का सहारा लिए चुपचाप आसमान को देख रही थी।

अनुराधा- लोग उसे भीख दे रहे थे?

मधु- शिट..। उसे देखने के बाद ऐसी घटिया बातें सोच में आ ही नहीं सकती थीं। शी वॉज़ मारवेलेस, ब्यूटीफुल, मोनालिसा ब्यूटी, वीनस टच..। यू नो, ज़िंदगी में पहली बार किसी औरत की ख़ूबसूरती से जलन हुई। अ पीस ऑफ इटरनल ब्यूटी, अ सिम्बल ऑफ सेक्स। अगर किसी प्रोड्यूसर की नज़र पड़ जाती उस पर तो वह औरत करोड़ों में खेलती।

अनुराधा- आपने उसे कुछ भीख देनी चाही?

मधु-वॉट डू यू एक्सपेक्ट फ्रॉम मी? फिल्म स्टार मधु वर्मा अपनी गाड़ी से उतरकर एक भिखारिन को  भीख देने जाए? पॉसिबल ही नहीं था…और होता भी तो मैं नहीं देती।

अनुराधा- क्यों?

मधु- शी वॉज़ सो ब्यूटीफुल। मैं तो उसे अपनी नज़रों में भर रही थी। उसकी वह फिगर, वे  फीचर्स सब मेरे ख़याल में हैं। मूवी में चांस मिला और रोल की डिमांड हुई तो मैं अपने ऑडियंस के लिए ऐसा सीन करना पसंद करूँगी पर…. साला यह सेंसर बोर्ड बीच में आ जाता है। (हँसती है।)

अनुराधा- कोई और कमेंट उस भिखारिन के बारे में?

मधु- नहीं बस वही ब्यूटी… क्या कहते हैं आप लोग हिंदी में…सुंदर-सुंदरया.. ऐसा कुछ वर्ड है न!

रमेश- सौंदर्य।

मधु- हाँ, हाँ, वही। यू नो हिंदी इज़ वेरी टफ़ यार। सौंदर्या का अद्भुत नमूना, मेनपोस्ट की अधनंगी भिखारिन। (हँसती है।)…….अच्छा हुआ, मर गई नहीं तो कई हीरोइनस् को खतरा पैदा हो जाता।…(जोर से हँसती है।)

(पार्श्व में वही अँग्रेज़ी धुन। मधु दोनों पत्रकारों को विदा करती है। फिर अपने रिहर्सल में जुट जाती है।)

।।इति प्रथम अंक।।

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -5 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 5 ☆  संजय भारद्वाज ?

रमेश- भोसले संभालो खुद को, संभालो। (भोसले को लाकर उसकी कुर्सी पर बैठाता है। भोसले को यों ही छोड़कर अनुराधा को लेकर रमेश तेजी से निकल जाता है।)

प्रवेश पाँच

(अनुराधा और रमेश दिखाई देते हैं। नवप्रभात का कार्यालय दिखाया जा सकता है अथवा खुले रंगमंच का भी उपयोग हो सकता है।)

अनुराधा -अजीब हालत है, अजीब हालत है। अजीब हालत है दुनिया की। सारे के सारे पुरुष एक खास रोग से जकड़े हुए। सब यौनकुंठा के मारे हुए। सेक्स मैनिएक्स! एक खूंखार, हिंसक जानवर छिपा है सबके भीतर।

रमेश- जानवर छिपा है, एग्रीड। लेकिन अनुराधा पशु हम में से हर एक के भीतर है। इसके लिए केवल पुरुषों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। जितना हिंसक पशु पुरुष के भीतर है,  उतना ही स्त्री के भीतर भी है।

अनुराधा- मैं नहीं मानती।

रमेश- सच्चाई को नहीं मानने से नहीं चल सकता। वैसे अनुराधा, पशु किसे कहती हो तुम?

अनुराधा- एक मनोदशा, एक विकृति, दूसरे के दुख से आनंद उठाने की प्रवृति।  वह आनंद शरीर का भी हो सकता है और मानसिक भी हो सकता है।

रमेश- करेक्ट। अनुराधा चित्रे, यही मैं भी समझाने की कोशिश कर रहा हूँ। बहू को तकलीफ देने वाली, चाहे वह शारीरिक तकलीफ हो या मानसिक,… तकलीफ देने वाली सास भी एक स्त्री ही होती है। बहू को अपने अधीन रखकर किए जाने वाले शासन से मिलने वाला सुख क्या औरत के भीतर का हिंसक पशु नहीं है?

अनुराधा- है पर इस पशु का….

रमेश- मुझे अपनी बात पूरी करने दो अनुराधा। ज्यादातर चकलों को, वेश्यालयों को चलाने वाली औरतें ही होती हैं। ये औरतें अपने से कमज़ोर औरतों को मजबूर कर उनसे धंधा करवाती हैं।

अनुराधा-पर यह तो पेट की ज़रूरत है। पेट भरने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही पड़ेगा न।

रमेश- कम ऑन अनुराधा। अपने भीतर के पशु को हम मज़बूरियों का नाम नहीं दे सकते। यों देखा जाय तो जो लोग सुपारी लेकर खून करते हैं, वे सुपारी अपना पेट भरने के लिए ही तो लेते हैं।…पर सवाल यह है कि क्या केवल वे ही भूखे हैं? दूसरे क्यों नहीं करते खून? किसी की जान लेने में आनंद अनुभव करने वाला सुपारी लेने के बजाय सुपारी बेच कर भी जो अपना पेट भर सकता है,… पर नहीं, वह ऐसा नहीं करता। वज़ह भीतर का पशु।

अनुराधा- आई एक्सेप्ट इट। मैं इस सच को स्वीकार करती हूँ पर रमेश इस भिखारिन का किसी स्त्री से संबंध तो आता नहीं। वैसे भी कोई औरत इस भिखारिन को शारीरिक या मानसिक रूप से क्यों प्रताड़ित करेगी?

रमेश- मैं पक्का तो नहीं कह सकता पर लाखों की भीड़ वाले शहर में ऐसी औरतें होंगी ज़रूर जो अपने भीतर के पशु का इस भिखारिन से सीधा संबंध जोड़ पाएँ।

अनुराधा- कहीं संपादक महोदय शहर की कुछ औरतों को अपने इंटरव्यू सीरीज़ का अगला पात्र बनाने की तो नहीं सोच रहे हैं?

रमेश- बिल्कुल सही अनुराधा। एक औरत को यों खुले बदन देखकर केवल मर्द रिएक्ट करेगा, यह ज़रूरी तो नहीं। अपनी सीरीज़ को ज्यादा रोचक बनाने के लिए हम इसमें एक-दो जानी-मानी महिला हस्तियों का नाम भी डाल देते हैं।

अनुराधा- एज़ यू विश सर। मैं अपनी लिस्ट में कुछ महिलाओं के नाम भी डाल देती हूँ।

प्रवेश छह

(अभिनेत्री मधु वर्मा का घर। मधु ट्रैक सूट में है। वह व्यायाम कर रही है। टेप पर कोई अँग्रेजी धुन बज रही है।  मधु बीच-बीच में शीशे में खुद को निहारती है, फिर संगीत पर थिरकती है। फिर व्यायाम करने लगती है।)

मधु- (शीशे में खुद को देखते हुए) वाह मधु वर्मा, वाह! क्या बैनर मारा है! खुराना फिल्म्स इंटरनेशनल..।… खुराना फिल्म्स इंटरनेशनल की धमाकेदार पेशकश, ‘एक हसीना’,… एक हसीना है..इन एंड एज़ मधु वर्मा..।.. एक हसीना, मधु वर्मा। … वही मधु वर्मा, जिसके लिए क्रिटिक लिखते हैं कि उसके चेहरे पर भाव नहीं आते। डायलॉग्स ठीक से नहीं बोल पाती।..यू नो शी हैज लॉट ऑफ इंग्लिश टोनिंग…इडियट्स…बिना इंग्लिश टोनिंग हिंदी फिल्म चलती है क्या…?..मधु वर्मा, एक फ्लॉप हीरोइन!.  क्या-क्या नहीं किया! हर तरह से कोशिश की। हर किस्म का समझौता किया पर हर मूवी फ्लॉप..!. ज्यादा से ज्यादा बोल्ड रोल किए, ज्यादा से ज्यादा अंग प्रदर्शन किया। पर रिजल्ट… ऊपर से वह ‘मूवी वर्ल्ड’ वाली रचना पूछती है, ‘मधु जी, आपकी इमेज को बिकनी इमेज कहा जाता है। आपको नहीं लगता कि आपकी इस इमेज की वज़ह से आपकी हर फिल्म का प्रोड्यूसर कम से कम एक सीन में आपको बिकनी पहनाना चाहता है। ..यू हैव बिकम अ सेक्स सिम्बल। इस वज़ह से अच्छे रोल आपके हाथ में नहीं आते।’ …हूँ.., सेक्स सिम्बल, माय फुट..। मुझे बिकनी गर्ल कहा जाए या पेंटी गर्ल, तुमसे मतलब?.. गो टू हेल।.. मुझे अपनी ज़िंदगी के फैसले लेने का हक है। ( शीशे के आगे खड़ी होकर खुद को अलग-अलग मुद्राओं में देखती है। फोन की घंटी बजती है।)

मधु- हैलो हाँ खुराना जी, मैं ही बोल रही हूँ।…बस जरा फिगर मेनटेन कर रही थी। (हँसती है।)  जी, आप फिक्र ना करें।…..जी, मुझे अच्छी तरह से आपकी बात याद है।.. यह रेप सीन मुझे इंडस्ट्री में नई ऊँचाइयों पर ले जाएगा।… यस…या….या…या आई अंडरस्टैंड खुराना जी,  मैं जानती हूँ कि मुझे एक बिग हिट की ज़रूरत है।…जी, जैसे आपने बताया था उससे ज्यादा रियलिटी आएगी सीन में।.. आई विल फुल्ली को-ऑपरेट सर.., आई हैव टू को-ऑपरेट सर.., ठीक है, फोटो सेशन नेक्स्ट वीक रख लेते हैं।…ओके…ओके..थैंक्यू सर। (फोन रखती है।)….बास्टर्ड… एक फिल्म हिट हो जाए तो मेरे चारों तरफ अपने आप चक्कर लगाएगा। ( स्क्रिप्ट उठाकर रिहर्सल शुरू करती है।)

मधु- नहीं…देखो…देखो हमका छोड़ दो।… हम एक सरीफ खानदान की औरत हैं। हमने तो कभी आपके कुछ बिगाड़े नहीं।.. कौनो गलती हो गई हो तो माफ कर दें बाबू।.. हम गरीब ज़रूर हैं पर इज़्जतदार हैं।…नहीं… हाथ नहीं लगाना…. हाथ नहीं लगाना।… हमका छोड़ दो… हमका छोड़ दो… हमका छोड़ दो।…. छोड़ दो हमका। ( यहाँ वहाँ भागना, रोना)

(रमेश और अनुराधा का तालियाँ बजाते हुए प्रवेश) 

रमेश-  वाह मान गए मधु वर्मा। वेरी गुड शॉट विद क्लासिक टच ऑफ सेंटीमेंट्स एंड रियलिटी।

मधु-थैंक्यू।

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ “एक भिखारिन की मौत” – एक दर्शक की दृष्टि से ☆ श्रीमती वीनु जमुआर

श्रीमती वीनु जमुआर

“एक भिखारिन की मौत” निश्चित ही एक सार्थक मनोवैज्ञानिक कल्पना है जिसकी चर्चा आदरणीया श्रीमती वीनु जमुआर जी ने इस समीक्षा में किया है। इस नाटक के सन्दर्भ में  ई-अभिव्यक्ति में पूर्व प्रकाशित संस्मरण का लिंक दे रहे हैं जो श्री संजय भारद्वाज जी के रंगमंचीय अनुभव से आपको परिचित कराएगा।

☆ संजय दृष्टि  – समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है!

श्री संजय भारद्वाज जी की पुस्तकें “एक भिखारिन की मौत” एवं अन्य पुस्तकें अमेज़न पर निम्न लिंक पर उपलब्ध हैं: 

1- एक भिखारिन की मौत, गंगा स्तुति और अन्य एकांकियाँ, रंग बिरंगा मेरा छाता, बूँद-बूँद मोती 

2- एक  भिखारिन  की  मौत, योंही, चहरे, मैं नहीं लिखता कविता 

 – संपादक ई अभिव्यक्ति 

? रंगमंच ☆ “एक भिखारिन की मौत” – एक दर्शक की दृष्टि से ☆ श्रीमती वीनु जमुआर ?

विश्व रंगमंच दिवस की संध्या!

आयोजन – बहुचर्चित नाटक  ‘एक भिखारिन की मौत ‘ के अंग्रेज़ी संस्करण का विमोचन !

जिसकी यादें मन के किसी कोने में अभी भी ठक-ठक करती हुई जीवित हैं। यह शाम ही क्यों, छः या सात वर्ष पूर्व  जब ‘एक भिखारिन की मौत’ का मंचन होने जा रहा था , उस दिन भी यह प्रश्न सम्मुख खड़ा था –

मृत्यु तो जीवन का सबसे बड़ा शाश्वत सत्य है फिर एक  मौत पर इतनी चर्चा ?   मुझ जैसे साधारण व्यक्ति के मन का यही प्रश्न , मेरे नाटक प्रेमी हृदय की उत्सुकता बनी और मुझे खींच ले गयी थी नाट्य भवन की ओर ! और जो देखा था वह आज भी जहन में वैसे ही धरा है, संजोया हुआ !

मानव मनोविज्ञान जिसे हम अंग्रेजी में  Human Psychology कहते हैं न – उसका अद्भुत प्रयोग !!

प्रयोग मैं इसलिए कह रही हूँ कि  हर चीज़ के दो पहलू होते हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष। इस नाटक में पुरुष द्वारा सहज छुपायी जाने वाली परोक्ष वृत्ति को दृश्यमान प्रत्यक्ष में परिवर्तित करने के लिए किए गए जद्दोजहद को नाटककार नें सशक्त  संवादों के माध्यम से जिस प्रकार दर्शाया है उसे अपने आपमें एक प्रयोग ही कहा जा सकता है।  नाटक के दो प्रमुख पात्र, संपादक रमेश अय्यर एवं उपसंपादिका अनुराधा चित्रे के मध्य  ‘हिप्नोटिज्म’ के विषय में होते संवाद कहीं दूर…हमें अपने समय के प्रसिद्ध जादूगर पी सी सरकार, के लाल आदि के सम्मोहन की दुनिया में खींच ले जाते हैं। हिप्नोटिज्म द्वारा परोक्ष को दर्शकों के समक्ष  दिखाने  की यह प्रक्रिया निश्चित ही नाटक को एक नया आयाम देती है।

जग जाहिर है, मनुष्य अपनी कमज़ोरियाँ प्रगट नही करना चाहता और फिर पुरुष की बात हो, वह भी  समाज में  सभ्य कहे जाने वाले पुरुष सत्ता की बात हो तो यह और कठिन हो जाता है।

मैं यहाँ नाटककार को बधाई देना चाहूँगी कि स्वयं एक पुरुष होते हुए  प्रकृति के इस  प्राकृतिक नकारात्मक वृत्ति को नाटक के माध्यम से समाज के समक्ष दर्शाने  की कोशिश की है।

स्त्री के प्रति यह नाटककार के आदर, सम्मान एवं संवेदनशीलता को दर्शाता है।

वहीं दूसरी ओर इस दर्दभरी  घटना से व्यावसायिक लाभ प्राप्त करने हेतु अति महत्वाकांक्षी लोगों द्वारा  किए जाने वाले घृणित  प्रयासों को भी रचनाकार ने बखूबी दर्शाया है।

समाज के विभिन्न वर्गों के पात्रों का चयन यथा- नज़रसाहब, एसीपी भोसले, प्रोफेसर पंत सर, रमणिकलाल एवं युवा पच्चीस वर्षीय  मधु वर्मा आदि के सशक्त संवाद को माध्यम बना  कर रचनाकार ने अपनी बात दर्शकों के सम्मुख बड़ी ही सशक्त तरीक़े से रखी है। और  यही सशक्त संवाद इस नाटक के प्राण हैं। नाटक के सभी पात्रों ने अपनी भूमिकाएँ बड़ी ही बेबाक़ी से निभायी हैं।

मूल नाटक के लेखक,निर्देशक  तथा संपादक के पात्र का अभिनय करने वाले कलाकार श्री संजय भारद्वाज स्वयं  एक बहुआयामी रचनाकार हैं। विविध विधाओं में सृजन के संग आप एक मँजे हुए रंगकर्मी हैं जिन्हें अनेक पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है।

अंग्रेज़ी अनुवाद लखनऊ विश्वविद्यालय के  इंग्लिश एंड माॅडर्न युरोपियन लेंग्वेज़ेज विभाग की एसोसियेट प्रोफेसर डाॅ मीनाक्षी पाहवा, जो स्वयं एक अनुभवी रंगकर्मी हैं, द्वारा किया गया है। बचपन से रंगमंच से जुड़ी डाॅ मीनाक्षी  न सिर्फ़ कुशल रंगकर्मी हैं, वे एक सफल लेखिका, वक्ता एवं सटीक भावानुवादों के लिए भी जानी जाती हैं। A Fulbright  Scholar to New York University, she was a Mellon Fellow at Harvard University and  Charles Wallace India Trust Fellow at Cambridge.

‘एक भिखारिन की मौत ‘   का मंचन उनके  अनुवादित शब्दों के दर्पण में हम पुनः मंचित होते देख पायेंगे – यह मेरा विश्वास है।

 

© श्रीमती वीनु जमुआर

पुणे

संपर्क-  8390540808

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -4 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 4 ☆  संजय भारद्वाज ?

नज़रसाहब- अच्छा, बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत थी वह। ग़ज़ब की ख़ूबसूरत। तीन दिन लगातार उसका एक-एक अंग देखा है। कमबख्त ने पागल कर दिया था। ऐसा मन होता था…

रमेश-  कैसा मन होता था?

नज़रसाहब- जाकर सीने से लगा लूँ उसको। समा लूँ उसको अपने भीतर।…उसे… उसे.. बहुत खूबसूरत थी,.. बहुत..!

(रमेश और अनुराधा का लौटना। नज़र, वासना पीड़ित यहाँ-वहाँ घूमते हुए रंगमंच पर है। धीरे-धीरे अंधकार होना।)

प्रवेश तीन

(‘नवप्रभात’ का कार्यालय।)

रमेश- सो आई वॉज़ राइट अनुराधा।  नजर जैसे संभ्रांत, कुलीन और जाने-माने चित्रकार के भीतर का जानवर भी उस भिखारिन को देखकर बेकाबू हुआ था। वैसे सारा क्रेडिट तुम्हें है। तुम्हारा यह हिप्नोटिज़्म वाला प्रयोग ज़बरदस्त कामयाब रहा है। ताज्ज़ुब भी होता है न कि नज़र की उम्र का आदमी..

अनुराधा- क्यों नज़र मर्द नहीं है क्या? तुम सारे मर्द एक जैसे होते हो। औरत को एक चीज़, एक कमोडिटी बनाकर देखते हो, बस।

रमेश- बिल्कुल सही फरमाया मैडम आपने। दुनिया भर में ज़्यादातर विज्ञापनों में मॉडलिंग औरतें करती हैं। बताती हैं कि खरीदो हमें। अब जिसे खरीदना हो वह कमोडिटी ही तो हुई न। ख़ैर छोड़ो, यह बताओ कि हमारी इस इंटरव्यू वाली हिटलिस्ट में अगला नाम किसका है?

अनुराधा- हमारे हिटलिस्ट में अब वह सरकारी विभाग है जो जनता को हमेशा अपने हिटलिस्ट में रखता है याने पुलिस डिपार्टमेंट….और पुलिस डिपार्टमेंट का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं एसीपी जी.आर. भोसले।

दोनों- ( एकसाथ) सो टारगेट भोसले। (बंदूक से निशाना लगाने जैसा संकेत करते हैं।)

प्रवेश चार

(एसीपी भोसले का कार्यालय। फोन पर बातचीत में मशगूल है। उसकी बातचीत में  स्थानीय भाषा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।)

भोसले- नाही, नाही, चालणार नाही। मराठी समझता है।…नहीं…च्या आईला! याला मराठी कळत नाही, मला हिंदी नीट बोलता येत नाही। उरली इंग्रजी ती दोघानां कळत  नाही अन बोलता ही येत नाही…। ( इसे मराठी नहीं आती। मैं हिंदी ठीक बोल नहीं पाता। बची अँग्रेज़ी जो न इसे आती है, न मुझे।)…हाँ देखो, हम बोला…नहीं.. मैं बोला.. क्या नाम इंस्पेक्टर मित्रा… मित्राच न।… बेंगाल का है क्या…  (हँसता है।) कैसा पहचाना!.. बेंगाल पोलिस का अपना जो टीम आया है, उनको बोलो सारा बंदोबस्त कर दिया है। आज रात तीन बजे होटल में धाड़ घालने का। धाड़ घालने का म्हणजे रेड मारने का रेड।… हाँ तुम्हारा रेकॉर्डेड क्रिमिनल चैटर्जी उधर सतरा नम्बर रूम में है। हाँ देखो एक्शन कम्बाइंड होगा। पेपर में हमारा पोलिस को भी क्रेडिट जाना मांगता, क्या..! (हँसता है।) ओके गुडनाइट। (फोन पर उसकी चर्चा के दौरान रमेश और अनुराधा आ चुके हैं। उन्हें बैठने का इशारा करता है।)

भोसले- आइए, आइए मि. रमेश अय्यर, हाउ डू यू डू?  कैसे हैं आप?.. हिंदी सुधर रही है ना मेरी?

रमेश- जी निश्चित। मेरी साथी पत्रकार अनुराधा चित्रे।

भोसले- चित्रे? तुम्हीं मराठी आहेत न बाई। (हँसना) कसं ओळखलं? (बहन जी, आप महाराष्ट्रीयन हैं न? कैसे पहचाना?)

रमेश- मराठी मला पण कळतय.(मराठी भाषा मैं भी समझ लेता हूँ)।

भोसले- मातृभाषा तेलुगू, अखबार निकाला हिंदी। अंग्रेजी तो सॉलिड रहेगा ही। ऊपर से मराठी भी आता है। सच्ची, यू साउथ इंडियन्स आर…. प्रामाणिकसाठी मराठीत कोणता शब्द आहे बाई? (प्रामाणिक के लिए अंग्रेजी में कौनसा शब्द है?)

अनुराधा-सिन्सिअर।

भोसले- हाँ, यू पीपल आर वेरी मच सिन्सिअर।

रमेश- सर, वैसे मेरी पढ़ाई कानपुर में हुई है, इसलिए हिंदी पर अधिकार स्वाभाविक है। फिर मुम्बई आ गया, आमची मुम्बई, मराठी कळलंच पाहिजे ( मुम्बई आ गया। मराठी भाषा आनी ही चाहिए।) वैसे भी मैं खुद को भारतीय मानता हूँ, केवल भारतीय। उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय नहीं।

भोसले- दैट्स नाइस, नाइस। बोलो भाई आज इतने प्रेम से पुलिस को पत्रकारों ने कैसे याद किया? … सब ठीक तो है ना?  नहीं तो साला कोई गड़बड़ हो तो तुम पत्रकारों को पहले मालूम पड़ता है और पुलिस को बाद में!

अनुराधा- नहीं, नहीं,  ऐसी कोई बात नहीं। दरअसल हम एक इंटरव्यू सीरीज तैयार कर रहे हैं, मेनपोस्ट की उस भिखारिन के बारे में।

भोसले-  (जोर से हँसता है) भिखारियों पर इंटरव्यू?…तो बाकी भिखारियों से पूछिए ना! आप लोग मेरे पास… (हँसता है।)

रमेश- ऐसा है भोसले साहब कि यह अपने तरह की अलग इंटरव्यू सीरीज है। मेनपोस्ट की उस चर्चित भिखारिन को इस दौरान शहर की कई जानी-मानी हस्तियों ने देखा होगा। हम जानना चाहते थे कि इन हस्तियों की क्या प्रतिक्रिया रही इस अज़ीब-सी घटना पर।

अनुराधा- और जाहिर है कि इन जानी-मानी हस्तियों में एसीपी जी.आर. भोसले का नाम तो होगा ही ना!

भोसले- वह तो होगा ही।  (हँसता है।) पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं?

अनुराधा- सर आपने उस अर्द्धनग्न भिखारिन को तो देखा ही होगा, कैसा लगा आपको?

भोसले- आप जानना क्या चाहती हैं?

अनुराधा- घबराइए मत एसीपी साहब। कैसा लगा मतलब इन जनरल। एक नागरिक के तौर पर आपकी प्रतिक्रिया क्या रही?

भोसले-  मैडम हम सरकारी विभाग के हैं। हम किसी भी मामले पर नागरिकों को प्रतिक्रिया नहीं करने देते और खुद भी नागरिक की हैसियत से प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। (हँसता है)  वैसे खूबसूरत औरतें मुझे अच्छी लगती हैं।

रमेश-मतलब यह भिखारिन खूबसूरत थी?

भोसले-  ऑफकोर्स।

रमेश- लेकिन भोसले साहब, आप किस आधार पर कह सकते हैं कि यह भिखारिन खूबसूरत थी?

भोसले- आधार….? यार रमेश, तुम तो मर्द हो। तुमने उसके…..देखे थे?… सॉरी मैडम।.. रमेश मैडम साथ में हैं, नहीं तो…(हँसता है) लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप लोग पूछना क्या चाहते हैं?

अनुराधा- ठीक है सर, अब सीधा, सपाट सवाल। उस भिखारिन को इस हालत में देखकर एक पुलिस ऑफिसर के रूप में आपकी प्रतिक्रिया क्या थी?

भोसले-  प्रतिक्रिया क्या थी? बहुत गुस्सा आया। मेरे इलाके में इस तरह नाटक करने की क्या ज़रूरत थी? मैं तो पहले ही अपनी सख़्ती के लिए काफी बदनाम हूँ। हम तो प्रॉस्टिट्यूट्स को भी बाहर सड़क पर खड़ा नहीं होने देते।.. साली मेरा रिकॉर्ड खराब करना चाहती थी।

अनुराधा- अपना रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए आपने क्या कदम उठाए?

भोसले-  मैं तो इस मामले पर तुरंत एक्शन लेना चाहता था। यह तो आप पत्रकारों ने उसके बारे में लिख-लिख कर उसे फोकस में ला दिया था इसलिए कुछ नहीं कर पाया।…नहीं तो मेरा बस चलता तो उसके बदन का एक-एक कपड़ा निकलवा कर बुरी तरह पिटाई करता, ताबड़तोड़ ठीक हो जाती।

रमेश-एक पुलिस ऑफिसर होने से पहले आप एक नागरिक भी हैं।  इंसान होने के नाते क्या आपको नहीं लगा कि ऐसी निरीह, असहाय, गरीब और भूखी की मदद की जानी चाहिए।

भोसले- यार अय्यर,  मेरे को एक बात बताओ। पुलिस स्टेशन के ऊपर बड़े-बड़े शब्दों में क्या लिखा है? ‘मे आय हेल्प यू?’ क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूँ? हम तो यहाँ बैठे ही मदद के लिए हैं। हाँ पर पुलिस से मदद चाहिए तो पुलिस के पास आना भी चाहिए न!  अगर उसे किसी तरह की मदद चाहिए थी तो आ जाती पुलिस के पास। फिर हम देखते कि किसी तरह की डायरेक्ट या इनडायरेक्ट मदद की जा सकती है क्या?

रमेश- कैसे आ जाती यह देखते हुए कि आज तक जब भी कोई शोषित, असहाय औरत मदद लेने पुलिस के पास आई है तो पुलिस ने भी उसका शोषण किया है।

भोसले- एक्सेपशन्स…,अपवाद…बरोबर ना अपवाद।… अपवाद हो सकते हैं लेकिन उसको मदद चाहिए थी तो वह मेरे पास आती।… आई मीन पुलिस के पास आती।

अनुराधा- एसीपी साहब यह तो हो गई एसीपी जी.आर. भोसले की नपी-तुली, सधी हुई सरकारी प्रतिक्रिया।  अब एक पर्सनल सवाल, हम जानना चाहते हैं कि इस मामले पर मर्द जी.आर. भोसले की क्या प्रतिक्रिया थी?

भोसले-  क..क…क्या मतलब है आपका?

रमेश- मतलब यह कि मेनपोस्ट की उस अधनंगी भिखारिन को देखकर जी.आर. भोसले के भीतर का मर्द कैसे और कितना उबला?  उस खूबसूरत औरत का वह खुला यौवन..

भोसले-  मिस्टर अय्यर,  आप अपनी सीमा तोड़ रहे हैं।  (इस दौरान अनुराधा भोसले को सम्मोहित करती है,  वह जाकर भिखारिन की मुद्रा में दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ी हो जाती है।)

अनुराधा- भोसले, यहाँ देखो, यहाँ देखो भोसले…

रमेश- भोसले कैसी लग रही है यह?

भोसले- एकदम एकदम उस भिखारिन जैसी। वैसी ही खूबसूरत, वैसी ही जवान। ..ए,.इसको, इसको पकड़कर पुलिस स्टेशन ले आओ। .. कितनी खूबसूरत!  यह मेरी है,  यह मेरी है।

रमेश- पर भोसले, ये भूखी है। पहले इसे कुछ खिला-पिला तो दो।

भोसले- भूखा प्यासा तो मैं भी हूँ।..बहुत भूखा हूँ मैं….बहुत प्यासा हूँ मैं।..पहले मैं अपनी प्यास बुझा तो लूँ..। (अनुराधा पर झपटना चाहता है। रमेश उसे पकड़ता है।)

रमेश- भोसले संभालो खुद को, संभालो। (भोसले को लाकर उसकी कुर्सी पर बैठाता है। भोसले को यों ही छोड़कर अनुराधा को लेकर रमेश तेजी से निकल जाता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -3 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 3 ☆  संजय भारद्वाज ?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)है।)

नज़रसाहब- हाँँ क्या पूछा था? टोक भी लिया करो भाई बीच-बीच में। वरना हम एक बार अपनी पेंटिंग में खो गए तो फिर बैठे रहियेगा यहींं दो, चार, पाँच दिन। नज़रसाहब यूँँ ही नज़रसाहब तो बने नहीं। एक बार अगर पेंटिंग में लग गए तो अरे मियाँँ चार-चार दिन होश नहीं रहता। नौकर खाना रख जाता है। खाना ज्यों का त्योंं पड़ा रहता है। बेचारा फिर वापस ले जाता है। फिर रख जाता है, फिर वापस। (हँसता है।) ये चार-चार दिन खयाल ना रहने वाली बात नोट कर लें। अपने अखबार में ज़रूर लिखें।

अनुराधा- नज़रसाहब, आपने जब उस भिखारिन को देखा तो वह क्या कर रही थी? किस तरह के कपड़े लपेटी थी? कैसी लग रही थी? आख़िर ऐसा क्या था कि उसने नज़रसाहब जैसे जाने-माने चित्रकार को इतना प्रभावित किया कि वे उसे अपनी पेंटिंग का विषय बना बैठे!

रमेश-  पहली प्रतिक्रिया वाली बात भी पूछ लेना अनुराधा।

नज़रसाहब- हमें ध्यान है। है ध्यान हमें। एक-एक कर सारी बातों का खुलासा करेंगे हाँ..(पीक थूकता है)।  कहाँ थे हम?

रमेश- मेनपोस्ट पर।… मतलब मेनपोस्ट तक पहुँच गए थे।

नज़रसाहब- हां जब हम मेनपोस्ट पर उतरे और सामने वाले फुटपाथ पर नज़र डाली तो वहाँ अच्छी-ख़ासी भीड़ इकट्ठा हो रखी थी। अब हम तो उसे यों जाकर देख नहीं सकते थे न। आख़िर नज़रसाहब कोई ऐसे आदमी तो हैं नहीं कि कहीं भी भीड़ में खड़े हो जाएँ। भई अपने फैन्स जीना मुश्किल कर दें।

रमेश- तो फिर आपने…?

नज़रसाहब- उस फुटपाथ के साथ ही हमारे हुसैन मियाँ घड़ीसाज़ हैं न,  हुसैन वॉच रिपेअर्स, वह दुकान है ना। पहुँच गए वहाँ, कह दिया घड़ी थोड़ा पीछे चलती है। हुसैन मियाँ ने कुर्सी दी, चाय का इंतज़ाम किया तो हम वहाँ आराम से बैठ गए। वहाँ से  हमारे और भिखारिन के बीच बमुश्किल पाँच-सात हाथ का फ़ासला होगा। हमारी नज़र उस भिखारिन पर पड़ी और देखते ही रह गए, मियाँ देखते ही रह गए हम। करीबन उन्नीस-बीस साल की छोकरी। उलझी हुई बालों की लटों से बाहर आती हवा से उड़ती थोड़ी-सी जुल्फें। पतली, हल्की-सी उठी हुई नाक, बहुत बड़ी-बड़ी बोलती आँखें, आसमान की ओर देखती हुई, दुनिया से बेभान, ख़ूबसूरती से झुके हुए कंधे। अपने भीतर सारे जहां की खूबसूरती समेटे, दुनिया भर के जोबन से लदे दो घड़े,…सब कुछ यूँ ही खुला छोड़े, अधनंगी..! बदन के साथ लाजवाब एंगल बनाए पतली-सी कमर, कमर के नीचे केवल एक निकर पहने…, दोनों टांगें मोड़े, उन टांगों पर चढ़ आई मिट्टी की लकीरें भी भीतर की ख़ूबसूरती को छिपा नहीं पा रही थी…देखते ही रह गए हम…और हमने उन बोलती ख़ूबसूरत आँखों, सैलाबी जवानी की मुमताज़ मूरत, खूबसूरती को खुद में खूबसूरत ढंग से समेटे उस ज़िंदा पेंटिंग को नाम दिया ‘खूबसूरत।’

रमेश-  नज़रसाहब, इस खूबसूरत ज़िंदा पेंटिंग को आपने भीख में सौ-दो सौ रुपये तो दे ही दिए होंगे।

अनुराधा- रमेश, यह भी कोई पूछने की बात है। ‘खूबसूरत’ पर रिकॉर्ड दाम की बोली चढ़ेगी। इस पेंटिंग की प्रेरणा को नज़रसाहब ने रुपयों से तौलने की सोची हो तो भी ताज्ज़ुब नहीं होना चाहिए।

नज़रसाहब- लो कर लो बात। तुम दोनों ने कभी किसी तरह की छोटी-मोटी पेंटिंग भी की है।… नहीं ना.., तभी इस तरह की वाहियात बातें कर रहे हो। हम तो उसके किसी एंगल में एक परसेंट भी फर्क नहीं चाहते थे। तीन दिन हर रोज हुसैन की दुकान में बैठकर उसे देखते रहे। हुसैन मियाँ भी समझ गए थे कि घड़ी तो बहाना है, कोई और निशाना है।….. अच्छा हुआ इन तीन दिनों में शायद उसे किसी ने कुछ नहीं दिया था। उसके बदन में एक सूत का भी फ़र्क आ जाता तो ऐसी ग्रेट पेंटिंग नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इस पेंटिंग का पहला एक्जिबिशन हम लंदन में करेंगे। वहां रॉयल फैमिली के एक मेम्बर के हाथों इसका इनॉगुरेशन होगा। तारीख अभी तय नहीं हुई है  पर अगले महीने के पहले हफ्ते के आसपास होगा।… अब खास तौर से लिखें कि इनागुरेशन यूके के राजघराने के एक मेम्बर के हाथों होगा। ‘खूबसूरत’, ‘खूबसूरत’ एन इंटरनेशनल पेंटिंग बाय नज़रसाहब, द इंटरनेशनल पर्सेनेलिटी। (हँसता है)।

रमेश- नज़रसाहब, यह तो हुई चित्रकार नज़रसाहब की प्रतिक्रिया। मैं नज़रसाहब के भीतर छिपे पुरुष, एक मर्द की ईमानदार और सच्ची प्रतिक्रिया जानना चाहूँगा।

नज़रसाहब- क्या मतलब?

रमेश-  मतलब कि.. एक जवान औरत को खुले बदन देखकर भीतर का मर्द कहीं ना कहीं तो…

नज़रसाहब- लाहौल विला कूवत, लाहौल विला कूवत!  ऐसे ओछे और छिछोरे सवाल नज़रसाहब से करने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी? शर्म आनी चाहिए। नज़रसाहब आज केवल हिंदुस्तान में नहीं, दुनिया में एक जाना- माना नाम है। उसके कैरेक्टर पर इस तरह कीचड़ उछालना.., लाहौल विला कूवत! गंदगी की भी कोई हद होती है! (अनुराधा नज़रसाहब को सम्मोहित करती है।)

अनुराधा-  मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो, मेरी आँखों में देखो।

(नज़रसाहब का सम्मोहित होना। अनुराधा, दर्शकों की ओर पीठ करके खड़ी होती है। कुर्ते के ऊपर डाले जैकेट को उतारने की मुद्रा में फैलाती है। पात्र की वेशभूषा के अनुसार ऐसा संकेत देना है जैसे वह भिखारिन की तरह शरीर के ऊपरी भाग को अनावृत किए हुए है। नज़र का बौखलाना।)

रमेश-  नज़र, तुम्हें यह चाहिए न?

नज़रसाहब-  हाँ,..हाँ..।

रमेश-  भिखारिन को खुले बदन देखकर कैसा लगा?

नज़रसाहब- अच्छा, बहुत अच्छा। बहुत खूबसूरत थी वह। ग़ज़ब की ख़ूबसूरत। तीन दिन लगातार उसका एक-एक अंग देखा है। कमबख्त ने पागल कर दिया था। ऐसा मन होता था…

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 2 ☆  संजय भारद्वाज ?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

अनुराधा- क्या नाम है तुम्हारा?

रमेश- रमेश अय्यर।

अनुराधा- क्या करते हो?

 रमेश- ‘नवप्रभात’ अख़बार का संपादक हूँ।

अनुराधा- उपसंपादक कौन है?

रमेश- अनुराधा चित्रे।

अनुराधा-  कौन?

रमेश-अनुराधा चित्रे।

अनुराधा-  बोलते रहो।

रमेश-  अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे, अनुराधा चित्रे। (अनुराधा सम्मोहन समाप्त करती है।)

रमेश- अज़ीब-सा क्या हुआ था मुझे?

अनुराधा- श्रीमान रमेश अय्यर, प्रधान संपादक, ‘नवप्रभात’ को पता होना चाहिए कि अखबार की उपसंपादिका अनुराधा चित्रे को सम्मोहनशास्त्र का अच्छा ज्ञान है। इस ज्ञान को अभी-अभी वह साबित कर चुकी है। यदि संपादक महोदय चाहेें तो इस ज्ञान का उपयोग लोगों के भीतर के पशु को बाहर लाने के लिए किया जा सकता है।

रमेश- फैंटेस्टिक! वाह अनुराधा! सुपर्ब।

अनुराधा- और सुनो। मैंने तुम पर बहुत हल्के सम्मोहन का प्रयोग किया था। हम जिसका इंटरव्यू करेंगे, उस पर इसका गहरा सम्मोहन इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके चलते उसे इंटरव्यू के दौरान पूछी बातें याद आने में सात से आठ दिन का वक्त लग सकता है।

रमेश- इतने वक्त में तो हम सीरिज़ पूरी कर प्रकाशित भी कर देंगे। बस अब देखो, हर तरफ नवप्रभात, नवप्रभात, नवप्रभात।

अनुराधा- ओके रमेश, मैं ऐसे चुनिंदा लोगों की लिस्ट तैयार करती हूँ जिन्होंने उस भिखारिन वहाँँ देखा था। मेरे ख्याल से हम आज दोपहर से इंटरव्यू शुरू कर सकते हैं।

रमेश- राइट। लिस्ट तैयार करके ले आओ। 1:00 बजे निकलते हैं। लंच बाहर कहीं होटल में ले लेंगे।….अरे अनुराधा, कल के  फ्रंट पेज के लिए उस भिखारिन की लाश के चार फोटोग्राफ्स हैं। जरा देख लो, कौन सी डाली जाए। मेरे ख्याल से यह दो तो डाल नहीं सकते, कथित अश्लील हैं।

अनुराधा- यह बैक पॉश्चर डाल देना।

रमेश-  देख लो फिर कहीं अश्लीलता, वल्गैरिटी….।

अनुराधा-  नॉट अट ऑल। फ्रंट पोर्शन को लोग वल्गर मानते हैं और बैक पॉश्चर को आर्ट (हँसती है)। ओके देन, सी यू एट वन ओ क्लॉक, बाय।

रमेश-  (तस्वीर हाथ में है)  शहर की चर्चित भिखारिन की लाश।

प्रवेश दो

(प्रसिद्ध चित्रकार नज़रसाहब का घर है। यहाँँ-वहाँँ बेतरतीब-सा पड़ा सामान। एक ओर दो-तीन कुर्सियाँ। एक तिपाई। बीच में स्टैंड पर लगभग पूरी तैयार एक अर्द्धनग्न महिला की पेंटिंग। तिपाई पर रंग, ब्रश आदि बिखरे पड़े हैं। प्रकाश होने पर रमेश, अनुराधा और नज़रसाहब दिखाई देते हैं। ग़ज़ल का एक रेकॉर्ड बज रहा है।)

अनुराधा- नज़रसाहब, सुना है कि आपकी आने वाली पेंटिंग जिसे आपने ‘खूबसूरत’ नाम दिया है, उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है।… तो ऐसा क्या था उस भिखारिन में जिसने आपको इतना प्रभावित किया।

नज़रसाहब- यह सच है कि हमारी पेंटिंग ‘खूबसूरत’ मेनपोस्ट वाली भिखारिन से प्रेरित है। दो-चार रोज से अखबारों में उस भिखारिन का चर्चा हो रहा था। नेचुरली हमारे भीतर का चित्रकार भी उसे देखने की तमन्ना करने लगा।

रमेश- तो आपने….

नज़रसाहब-  भाई जब कोई बात कर रहे हों तो पूरा करने दिया करो। बीच में टोकने से मज़ा नहीं आता। हाँ तो क्या कह रहे थे हम?

अनुराधा- उस मेनपोस्ट वाली भिखारिन की चर्चा सुनकर आपके इच्छा होने लगी थी उसे देखने की।

नज़रसाहब-  हूँ….और उस इच्छा के चलते हम एक दिन…. जुमां के पहले वाला दिन था, हाँँ, बृहस्पतिवार की बात है। सो बृहस्पतिवार को हमने फैसला कर लिया उस भिखारिन को देखने का।…… ऐसे मुँँह क्या देख रहे हो तुम दोनों?…. पूछो फिर क्या हुआ?…. एकदम नौसिखिए,  नए-नए जर्नलिस्ट हुए दिखते हो। इंटरव्यू लेते वक्त बीच-बीच में टोकते रहना चाहिए।

रमेश- जी आपने ही तो कहा था कि…. एनीवे, हम जानना चाहेंगे नज़रसाहब कि आपने उस भिखारिन को कब देखा? आई मीन कौन से दिन, किस वक्त, दोपहर, शाम, रात या फिर सुबह?

नज़रसाहब- किबला….(पानदान में पान थूकता है।)  कहा ना कि बृहस्पतिवार के अख़बार में उसके बारे में पढ़ा तो सोच लिया कि आज तो इस बला को देखना ही पड़ेगा। मियाँ दोपहर हो गई थी नहाने-धोने में। तब तक बड़े बेचैन-से रहे हम। लगता रहा कि बस उसे जब तक एक बार देख लेंगे चैन नहीं पड़ेगा। तैयार होकर करीबन दो बजे निकले होंगे घर से। शायद सवा दो बज रहा हो। हो सकता है कि ढाई बजा हो। अबे कमबख़्त वक्त  भी तो ठीक से याद नहीं रहता ना।

रमेश- जब आप मेनपोस्ट पहुँँचे…

नज़रसाहब- ठहरो यार! कोई भी बात पूरी बताने दिया करो। फिर अगला सवाल पूछो….और ये तुम टोका मत करो बीच में। हमारा सारा टोन खराब हो जाता है।.हाँँ तो..

अनुराधा- आप कह रहे थे कि आप की घड़ी में सवा दो बजा था।

नज़रसाहब- हां तो सवा बजे हम घर से निकले। नीचे जाकर टैक्सी के लिए खड़े हो गए। तुम लोग तो जानते ही हो कि आजकल तो टैक्सी भी जल्दी नहीं मिलती। खड़े रहे, खड़े रहे.., खड़े-खड़े तकरीबन आधा घंटा गुज़र गया।

रमेश- तो आधा घंटे बाद आपको टैक्सी मिल गई।

नज़रसाहब- मिलना ही थी। दरअसल उस आधा घंटे में कोई टैक्सी वहाँँ से गुज़री ही नहीं। जो पहली टैैक्सी आई, ख़ुुुद-ब-ख़ुद आकर ठहर गई पास। बड़े अदब से दरवाज़ा खोला बेचारे ने और इज्ज़त से बोला, ‘ तशरीफ़ लाइए नज़रसाहब।’ हम तो भौंंचक्के रह गए। पूछा, ‘मियाँँ, पहचानते हैं आप हमें?’ जानते हैं क्या जवाब दिया उसने? बोला, ‘आपको तो सारा हिंदुस्तान जानता है। इतना भी बेशर्म सिटिजन नहीं हूँ जो आपको न पहचानूँ।  नज़रसाहब को नहीं जाननेवाला हिंदुस्तान को नहीं जानता।’… यह बात ख़ास  तौर पर नोट करें और लिखें अपने परचे में।… और एक और ख़ास बात यह कि टैक्सीवाले ने हमसे पैसे भी नहीं लिए।

रमेश- तो आप पहुँँच गए मेनपोस्ट पर।

नज़रसाहब- पहुँँचना ही था भाई।

रमेश- जब आप की निगाहें पहले पहल उस भिखारिन पर पड़ी तो आपके मन में आई पहली, तुरंत पहली प्रतिक्रिया क्या थी?

नज़रसाहब- एक मिनट मियाँ। इस पेंटिंग के बारे में एक आइडिया आया है, ज़रा उसको पूरा कर लूँ। (पेंटिंग पर  ब्रश से कुछ  स्ट्रोक्स मारता है। रमेश, अनुराधा एक दूसरे को देख कर मुस्कराते हैं। काम पूरा करने के बाद पीकदान में पीक थूँकता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत -1 ☆  श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ रहे थे। हम संजय दृष्टि  श्रृंखला को कुछ समय के लिए विराम दे रहे हैं ।

आज से  प्रस्तुत है  रंगमंच स्तम्भ के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त धारावाहिक स्वरुप में श्री संजय भारद्वाज जी का सुप्रसिद्ध नाटक “एक भिखारिन की मौत”। )

? रंगमंच ☆ दो अंकी नाटक – एक भिखारिन की मौत – 1 ☆  संजय भारद्वाज ?

 पात्र परिचय

‘एक भिखारिन की मौत’ के कुल 8 स्तंभ हैं। रमेश और अनुराधा पत्रकार हैं। छह अन्य पात्र अलग-अलग क्षेत्र के प्रतिनिधि हैं। रमेश और अनुराधा द्वारा लिए जाने वाले साक्षात्कारों के माध्यम से और इन पात्रों की भूमिका द्वारा शनै:-शनै: कथानक का विकास होता है। कथानक की शीर्ष नायिका ‘भिखारिन’ जिसके इर्द-गिर्द कथा चलती है, मंच पर कहीं नहीं है। कथानक के विकास में सहयोगी बने पात्रों का चरित्र चित्रण करते समय नाटककार की कल्पना में चरित्र कैसा था, इसका वर्णन करना ही इस परिचय का उद्दिष्ट है। इससे नाटककार की कल्पना मंच पर उतारने में निर्देशकों को आसानी होगी। नाटककार के निर्देशक होने का लाभ भी अन्य निर्देशकों को मिल सकेगा।

नज़रसाहब – नज़रसाहब चित्रकार है। आयु लगभग 65 वर्ष। अपने आप में खोया चरित्र। प्रसिद्धि की ऊँँचाइयों पर होते हुए भी प्रसिद्धि की प्यास मरी नहीं है। स्वाभाविक रचनात्मक अहंकार का शिकार। अपने मोह  में दूसरे को महत्व न देने वाला, पत्रकारों को बीच-बीच में टोकते रहने के लिए कहनेवाला पर टोकने पर मना करने वाला, एक खास तरह की सनक ओढ़ा हुआ व्यक्तित्व।

मंच  पर कुर्ता-पायजामा पहने, मेहंदी रंगे लाल से बाल और चेहरे पर उच्चवर्गीय लाली पात्र को बेहतर स्वरूप दे सकती है। उसकी भाषा में उर्दू की बहुतायत और बोलने का ख़ास उर्दू लहज़ा है।

एसीपी भोसले – आयु लगभग 45 वर्ष। पारंपरिक भारतीय पुलिस का पारंपरिक असिस्टेंट कमिश्नर। खुर्राट, बेहद चालाक किस्म का चरित्र। एक ओर मीडिया से गहरी मित्रता का स्वांग करता है तो दूसरी ओर पत्रकारों से बातचीत में बेहद सतर्क भी रहता है। यह उसकी प्रोफेशनल एफिशिएंसी भी है। पुलिसिया चरित्र में वरिष्ठ स्तर का ओढ़ा हुआ काईंयापन उसके चरित्र में है।

वह सरकारी वर्दी में है। उसकी भाषा में उच्चारण में स्थानीय भाषा का पुट रहेगा। नाटककार ने स्थानीय प्रभाव की दृष्टि से मराठी का प्रयोग किया है। अन्य प्रांतों में प्रदेश धर्म के अनुरूप भाषा का परिवर्तन चरित्र को दर्शकों से ज्यादा आसानी से जोड़ सकेगा।

मधु वर्मा – हिंदी फिल्मों में जगह बनाने के लिए संघर्षरत अभिनेत्री। सफलता के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। आयु लगभग 20 वर्ष। निर्माता की इच्छा और सफलता की चाह के बीच व्यावसायिक संतुलन की समझ रखने वाली। स्वाभाविक रूप से आलोचकों से चिढ़ने वाली।

मधु को आधुनिकतम वस्त्रों में दिखाना अपेक्षित है। उसकी भाषा पर अंग्रेजी का बहुत अधिक प्रभाव है। हिंदी के जरिए पेट भरकर अंग्रेजी बोलने वाले कलाकारों का प्रतीक है मधु वर्मा। उच्चारण में हिंदी का कॉन्वेंट उच्चारण उसके चरित्र को जीवंत करने में सहायक सिद्ध होगा।

प्रोफेसर पंत – विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र का विभागाध्यक्ष। आयु लगभग 55 वर्ष। केवल अपनी बात कहने का आदी होने के कारण दुराग्रही चरित्र। ज्ञानी पर अभिमानी। उसके विचारों से असहमति उसे मान्य नहीं होती।

कोट-पैंट, मोटे फ्रेम का चश्मा चरित्र के अनुकूल होगा। प्रोफेसर की भाषा शुद्ध है। कहने का, समझाने का अपना तरीका है। अपनी बात को अपने आग्रहों और अपनी तार्किकता से रखने वाला चरित्र।

रमणिकलाल – एक छुटभैया नेता। आयु लगभग 50 वर्ष। नेताई निर्लज्जता और टुच्चेपन का धनी। प्रचार का ज़बरदस्त भूखा, चरित्रहीन व्यक्तित्व। अख़बार में अपने प्रेस नोट भेजकर उन्हें प्रकाशित देखने की गहरी ललक रखनेवाला, प्रचार के लिए उल-जलूल बेसिर-पैर का कोई भी हथकंडा अपनाने के लिए तैयार।

उसे कुर्ता, पायजामा, टोपी में दिखाया जा सकता है। उसकी भाषा पर देहाती उच्चारण का प्रभाव है। अपेक्षित है कि वह ‘श’ को ‘स’ बोले जिससे उसके चरित्र को उठाव  मिलेगा।

रूबी – पेशे से कॉलगर्ल। आयु लगभग 25 वर्ष। सकारात्मकता का नकाब ओढ़े हुए सारे नकारात्मक चरित्रों के बीच एकमात्र सच्चा सकारात्मक चरित्र है वह। उसके भीतर और बाहर कोई अंतर नहीं है। अपने भोगे हुए यथार्थ के दम पर खड़ी एक ईमानदार पात्र। समाज का काला मुँँह देख चुकी है, अतः समाज के प्रति उसके मन में आक्रोश फूट-फूटकर भरा है। बेबाक बात कहनेवाली। गहरी संवेदनशील।

रूबी की वेशभूषा में स्कर्ट ब्लाउज या स्कर्ट टी-शर्ट अपेक्षित है। उच्चारण में कोई खास पुट नहीं है किंतु भाषा कथित अश्लील है। जिन शब्दों को सभ्य समाज घुमा-फिराकर कहता है, उन्हें वह सीधे-सपाट कहती है। आक्रोश के क्षणों में उसकी भाषा में गालियों का समावेश है।

अनुराधा – रमेश के साथ नाटक की सूत्रधार। समाचारपत्र की उपासंपादिका। आयु लगभग 35 वर्ष। पत्रकारिता की आवश्यकता और अपेक्षा को पूरी करनेवाली। रमेश के साथ तालमेल रखते हुए वह इंटरव्यू सीरीज़ को सफल करने में जुटी है। चूँकि उसे सम्मोहन का ज्ञान है, वह इस नाटक के सारे सूत्र हाथ में रखते हुए मंच पर नायिका के रूप में उभरती है। सम्मोहन के दृश्यों में विविधता लाने उससे अपेक्षित है। उसके चरित्र में मंचन की दृष्टि से ढेर सारे रंग हैं।

अनुराधा की भाषा साफ़ और उसके पेशे के अनुकूल है। हर चरित्र का इंटरव्यू करते समय भिन्न वस्त्रभूषा का प्रयोग किया जा सकता है। सम्मोहन के दृश्यों को दृष्टिगत रखते हुए पोशाकों का चयन करें। संभव हो तो कुछ दृश्यों में सम्मोहन के लिए सायक्लोड्रामा का उपयोग करें।

रमेश – समाचारपत्र का संपादक। पूरे नाटक का प्रधान सूत्रधार। आयु लगभग 40 वर्ष। सुलझा हुआ पेशेवर चरित्र। अपने अख़बार को आगे ले जाने की इच्छा रखने वाला। इस इच्छा के चलते ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम ना होगा’ का सूत्र अपनाने में उसे कोई हिचक नहीं है। पत्रकारिता के हथकंडों के साथ अपने विषय का ज्ञानी। संपादक के रूप में सामने वाले को पढ़ सकने में समर्थ।

रमेश की भाषा शुद्ध है। चूँकि अनुराधा के साथ लह भी पूरे समय मंच पर है, अत: विविधता की दृष्टि से पोशाकों में परिवर्तन अपेक्षित है। थोड़े बढ़े हुए बाल, दाढ़ी, जींस- कुर्ता, सफारी आदि का प्रयोग किया जा सकता है।

प्रथम अंक

प्रवेश एक

(रंगमंच पर विशेष नेपथ्य की आवश्यकता नहीं है। बाएं भाग में एक मेज, कुर्सी, कैलेंडर आदि लगाकर दैनिक ‘नवप्रभात’ का कार्यालय दिखाया जा सकता है। दाएं भाग में अन्य पात्रों के लिए आवश्यक नेपथ्य इस तरह से लगाया जाए कि पात्रानुसार थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ उसी मंचसज्जा का उपयोग किया जा सके।

रंगमंच पर समतोल बनाए रखने के लिए कुछ पात्रों को बाएं भाग में प्रस्तुत करना भी निर्देशक से अपेक्षित है। पर्दा उठने पर रमेश खबर पढ़ते हुए नजर आता है। वह रंगमंच के अगले हिस्से पर है। उसके लिए एक स्पॉटलाइट का प्रयोग किया जा सकता है।)

रमेश-  कल देर रात अर्द्धनग्न भिखारिन मेन पोस्ट के सामने वाले फुटपाथ पर मरी मिली। आश्चर्यजनक बात यह थी कि लाश के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था। वह पूरी तौर से…, ऊँ हूँ, ख़बर में दम नजर नहीं आता। किसी और ढंग से लिखा जाए। फिर यह ख़बर फ्रंट पेज पर शॉर्ट न्यूज़ में क्यों? दिस केन बी सेंसेशनल हेडलाइन, न्यूड डेड बॉडी एंड डेड सेंसेटिविटी। …एक नंगी मुर्दा औरत और मुर्दा संवेदनशीलता!  वाह! साला सारे अखबारों की हेडलाइंस को पीछे छोड़ देगी यह ख़बर! हड़कंप मच जाएगा। लोग ‘नवप्रभात’ खरीदने के लिए टूट पड़ेंगे।मुखपृष्ठ पर एक बड़ी सारी तस्वीर होगी उस भिखारिन की। तस्वीर के नीचे शीर्षक होगा, ‘चर्चित भिखारिन की रहस्यमयी नंगी लाश! …चर्चित! ‘ (अनुराधा प्रवेश करती है।)

अनुराधा- हाँँ वह भिखारिन चर्चित तो थी ही। सभ्य समाज में कोई स्त्री योंं अर्द्धनग्न शरीर के ऊपरी हिस्से में बगैर कुछ पहने, कमर पर लिपटे जरा से वस्त्र से खुद को थोड़ा बहुत ढके, वह मुख्य शहर के मुख्य चौक पर भीख मांगने बैठी थी।

रमेश- एक बात समझ में नहीं आती। वह चौक में भीख मांगने बैठी ही क्यों थी?… केवल चर्चित होने के लिए..? पर उसे चर्चा की ज़रूरत ही क्या थी? चर्चा उसकी ज़रूरत तो हो ही नहीं सकती।

अनुराधा- पता नहीं। हो सकता है हाँ, हो सकता है ना। फिर भी ऐसा नहीं लगता रमेश कि सारा समाज कितना स्वार्थी और कितना पत्थर-सा हो गया है। निष्प्राण हैं हम सब। पिछले चार दिनों से यह औरत शहर भर में अपनी नग्नता की वजह से चर्चित रही और इस दौरान किसी ने उसके बदन पर एक टुकड़ा कपड़ा भी नहीं फेंका।

रमेश-  यू आर राइट। संवेदनशीलता का संकट एक कड़वा सच है। हज़ारों लोग गुज़रे होंगे मेनपोस्ट के उस फुटपाथ से जहाँँ वह भिखारिन बैठी थी। कितने ही लोगों ने उसे इस हालत में हाथ फैलाते देखा होगा लेकिन..!

अनुराधा- लेट इट बी। चाय पिओगे रमेश?

रमेश-  पूछने की क्या जरूरत है? पत्रकारों के सबसे ज्यादा रुचि दो ही बातों में होती है। एक, कोई सेन्सेशनल न्यूज़  और दूसरा चाय का प्याला।

अनुराधा- हाँ चाय या कॉफी का प्याला ना हो तो देश और समाज की घटनाओं पर घंटों बुद्धिजीवी चर्चाएँ कैसे होंगी?

रमेश- (चाय पीते हुए) अनुराधा, एक विचार आया है मन में। इस भिखारिन की मौत फिलहाल शहर का सबसे ‘हॉट इशू’ है। क्यों न हम इस पर एक इंटरव्यू सीरीज़ करें!

अनुराधा- कैसी इंटरव्यू सीरीज़?

रमेश- हम शहर के कुछ ऐसे चुनिंदा लोगों का इंटरव्यू करें जिन्होंने इस भिखारिन को वहाँँ उस हालत में भीख मांगते देखा है। अलग-अलग क्षेत्र के अलग-अलग व्यक्तित्व। देखें कि इनडिविजिल रिएक्शन, व्यक्तिगत मत क्या है और सामूहिक प्रतिक्रिया क्या है? हम लगभग एक सप्ताह तक इस सीरीज़ को चला सकते हैं। ‘नवप्रभात’ की ज़बरदस्त चर्चा होगी और अखबार अपने आप ज़्यादा बिकेगा।

अनुराधा- यू आर ए टैलेंटेड एडिटर। ‘नवप्रभात’ को एस्टेब्लिश करने का अच्छा मौका है। लेकिन रमेश कल प्रेस क्लब में पोद्दार मिला था। ‘माय सिटी’ शायद इस मामले पर पाठकों की प्रतिक्रिया इकट्ठा कर रहा है। हाँँ लेकिन एक बड़ा फ़र्क आया है। कल तक वह भिखारिन ज़िंदा थी जबकि आज उसकी मौत के बाद संदर्भ बदल गए हैं।

रमेश- वैसे मेरा विचार कुछ अलग था। हम लोगों का इंटरव्यू तो करें पर….!

अनुराधा- पर…?

रमेश- अनुराधा, मेरी समझ से हर व्यक्ति में एक पशु छिपा है। ख़ासतौर पर जिस विकृत मानसिकता में हमारा समाज जीता है, उसमें यह पशु ज्यादा प्रभावी और हिंसक है।

अनुराधा-  मैं समझी नहीं।

 रमेश- अनुराधा, यह भिखारिन युवा थी, फिर लगभग नग्न। मेरी स्पष्ट समझ है कि जिस किसी ने भी उसे देखा होगा, उसके भीतर का पशु थोड़ी देर के लिए ही क्यों न सही, अनियंत्रित ज़रूर हुआ होगा। सवाल यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने भीतरी पशु के अनियंत्रित होने की बात पत्रकारों के सामने स्वीकार कैसे और क्यों करेगा?

अनुराधा- पर क्या हासिल होगा रमेश?

रमेश- ज़बरदस्त विवाद। इस भिखारिन के बहाने हम समाज के हर वर्ग का चेहरा देखेंगे।.. और मान लो कोई बड़ी हस्ती ‘नवप्रभात’ के खिलाफ गई तो भी लाभ हमें ही होगा। जितना विवाद होगा, उतनी ही चर्चा भी तो होगी। इस इंटरव्यू सीरीज़ से मैं सात महीने पुराने ‘नवप्रभात’ को सत्तर साल पुराने अखबारों के बराबर लाकर खड़ा कर देना चाहता हूँँ।… लेकिन समस्या वही है कि कोई भी व्यक्ति अपने अनियंत्रण का स्वीकार कैसे करेगा?

अनुराधा- (रमेश को सम्मोहित करती है।) यहाँँ देखो… मेरी आँखों में देखो…मेरी आँखों में देखो… मेरी आँखों में देखो… (थोड़े से प्रतिरोध के बाद रमेश सम्मोहित हो जाता है।)

क्रमशः …

नोट- ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक को महाराष्ट्र राज्य नाटक प्रमाणन बोर्ड द्वारा मंचन के लिए प्रमाणपत्र प्राप्त है। ‘एक भिखारिन की मौत’ नाटक के पूरे/आंशिक मंचन, प्रकाशन/प्रसारण,  किसी भी रूप में सम्पूर्ण/आंशिक भाग के उपयोग हेतु लेखक की लिखित पूर्वानुमति अनिवार्य है।

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – रंगमंच ☆ नाटकावर बोलू काही: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ रंगमंच ☆ नाटकावर बोलू काही: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆ 

‘नटसम्राट’ या नाटकाचे लेखक आणि या नाटकासाठी ज्ञानपीठ पुरस्कार मिळालेले वि. वा. शिरवाडकर यांची ‘वीज म्हणाली धरतीला’, ‘आनंद’, दूसरा पेशवा, ‘कौंतेय’, विदूषक,  अशी आणखीही अनेक उत्तम नाटके आहेत. ही सारी नाटके बघू जाता, त्यांना नाट्यलेखनाचे सम्राटच म्हणायला हवं. ‘आनंद’ हे असंच एक उत्तम नाटक. या नाटकाचा पहिला प्रयोग, नाट्यसंपदा मुंबई या संस्थेद्वारे १८ ऑक्टोबर १९७५ रोजी साहित्य संघ मंदिर मुंबई इथे सायंकाळी ७ वाजता सादर करण्यात आला. पुढे या नाटकाचे किती प्रयोग झाले माहीत नाही. नाटकापेक्षा यावरचा चित्रपट अधीक गाजला पण एखादी कलाकृती किती वाजली-गाजली यावर काही त्या कलाकृतिचे मोल ठरत नाही.

‘आनंद’ नाटकाचे मूळ श्री हृषिकेश मुखर्जी यांच्या ‘आनंद’ चित्रपटातलेच आहे. मरण समोर उभे असताना, एक मनुष्य, हसत-खेळत, प्रत्येक परिचितात स्वत:ला गुंतवून घेत, भोवतालच्या जीवनात सुखाच्या लहरी निर्माण करीत आपला अस्तकाल एका बेहोष धुंधीत व्यतीत करतो, ही कल्पना मला अतिशय हृद्य वाटली.’ असं सुरूवातीला, श्री हृषिकेश मुखर्जी यांचे आभार मानताना वि. वा. शिरवाडकर यांनी म्हंटले आहे. ‘कथासूत्र मूळ चित्राचेच असले, तरी त्याला नाट्यरूप देताना मी मला इष्ट वाटले, ते बदल त्यात केले आहेत. त्यामुळे पडद्यावरचेच सारे काही आपण नाटकात पाहात आहोत, असे प्रेक्षकांना अथवा वाचकांना वाटणार नाही, असा मला विश्वास वाटतो,’ असेही त्यांनी पुढे म्हंटले आहे.

‘आनंद’ नाटकात लेखकाने आनंद ही अफलातून व्यक्तिरेखा निर्माण केली आहे. नाटकातील डॉ. संजय सांगतो त्याप्रमाणे तो थोडा कवी आहे. थोडा नट आहे. थोडा विदूषकही आहे. कवी असल्यामुळे तो खूपसा कल्पनेत रमणारा आहे. क्वीकल्पनानेकदा सत्याच्या अधीक जवळ जाते.  आनंदचे बोलणेही तसेच आहे.

नाटकाचं थोडक्यात कथानक असं – डॉ. संजय आणि डॉ. उमेश मित्र आहेत. त्यांचा तिसरा मित्र डॉ. शिवराज नागपूरला आहे. तो आपला मित्र आनंद याला त्यांच्याकडे पाठवतो. आनंद हा खरं तर जगन्मित्र. त्याला लिफोसारकोमा  इंटेस्टाईन हा दुर्धर आजार आहे. तो संजयकडे येतो. संजय, उमेशचा मित्र बनतो. मेट्रन डिसूझाचा मुलगा जोसेफ बनतो. मुरारीलाल किंवा महम्मदभाईचा, फ्रेंड, फिलॉसॉफर, गाईड बनतो. संजायच्या बायकोचा भाऊ आणि उमेशच्या प्रेयसीचा राजलक्ष्मीचा दीर बनतो. मुरारीलाल्ला तो सरकारी कोट्यातून चित्रपट निर्माण करण्यासाठी कर्ज मिळवून देतो. डॉ. उमेशचं अबोल प्रेम मुखरीत करतो. आनंदची प्रेयसी मधुराणी नाटकात ३-४ वेळा आपल्याला भेटते. ३ वेळा त्याचा आठवणीतून आणि अगदी शेवटी वास्तवात. आनंदला आपल्या आजाराची कल्पना आहे, म्हणूनच त्याने तिला प्रत्यक्षात दूर सारलय पण मानाने ती त्याला बिलगूनच आहे.

आनंदचा स्वत:चा प्रयत्न आपलं दुर्धर आजारपण विसरण्याचा आहे पण त्याच्या जवळीकीच्या माणसांच्या डोळ्यात त्याच्या मृत्यूचा भय तरळताना त्याला दिसतय, त्यामुळे तो कासावीस होतोय. नाटकाची अखेर त्याच्या मृत्यूनेच होते पण त्यापूर्वी नाटकाचा एक भाग म्हणून केलेले स्वागत आणि शेवटी टेपवर म्हंटलेलं तेच स्वागत, अप्रतिम!

आनंद क्वीमानाचा आहे. त्यामुळे नाटकात अनेक सुंदर कवितांचा वापर झालेला आहे. इतकंच नव्हे, तर यातले गद्य संवादही काव्याचा बाज घेऊन येतात. ‘काही बोलायाचे पण बोलणार नाही,’ हे लोकप्रिय गाणं आणि

‘प्रेम नाही अक्षरांच्या भातुकलीचा खेळ

प्रेम म्हणजे वणवा होऊन जाळत जाणं

प्रम म्हणजे जंगल हून जळत राहणं

प्रेम कर भिल्लासारखं बाणावरती खोचलेलं

मातीमध्ये उगवूनसुद्धा मेघापर्यंत पोचलेलं’

ही प्रसिद्ध आणि रसिकप्रिय कविता यातलीच.

नाटकाचं सूत्रगीत आहे,

माझ्या आनंदलोकात चंद्र मावळत नाही

दर्या अथांग प्रेमाचा कधी वादळत नाही.

माझ्या आनंदलोकात केले वसंताने घर

आंब्या आंब्याच्या फांदीला फुटे कोकिळेचा स्वर

सात रंगांची मैफल वाहे इथे हवेतून

इथे मारणही नाचे मोरपिसारा लेउन

 नाटकाची भाषा भर्जरी वैभव मिरणारी, तिचा तलम, मुलायम, कोमल, हळवा पोत, या सार्‍यावर अत्तरासारखा विनोदाचा शिडकावा आणि मुख्य म्हणजे त्यातून व्यक्त झालेलं आनंदचं तत्वज्ञान, ’ उद्या येणार्‍या पाहुण्याच्या ( मृत्यूच्या) फिकिरीत माझी जिंदगी आज मी जाळून टाकणार नाही. मी असा जगेन की माझा जगणं क्षणाक्षणाला तुम्हाला जाणवत राहील. आषाढातल्या मुसळधार पावसासारखं…’ किती किती म्हणून या नाटकाची वैशिष्ट्ये सांगावीत!

एखाद्या नाट्यसंस्थेने नव्याने हे नाटक रंगांमंचावर आणायला हवं.वाचकांनी हे नाटक  एकदा तरी वाचायला हवं आणि त्याचा सारा ‘आनंद’ आपल्यात सामावून घ्यायला हवा.

 

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर  

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416  ईमेल  – [email protected] मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – रंगमंच ☆ नाट्यउतारा: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ 

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

 ☆ रंगमंच ☆ नाट्यउतारा: आनंद – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर’ ☆ 

आनंद

(आनंद नाटकातील आनंद आणि डॉ. उमेश म्हणजेच आनंदचा बाबूमोशाय, यांच्यातील एक संवाद)

आनंद: (रुद्ध स्वरात)  बाबूमोशाय, कितीदा कितीदा मला आठवण करून देशील- की तुझं आयुष्य आता संपलं आहे. – शेवटाची सुरुवात झाली आहे.  बाबूमोशाय, चांदयापासूंच नव्हे, तर माझ्या मरणापासूनही मी दूर आलो होतो. वाटलं होतं, तुम्हा लोकांच्या जीवनाच्या बहरलेल्या ताटव्यातून हिंडताना माझी आयुष्याची लहानशी कणिकाही डोंगरासारखी मोठी होईल. थेंबाला क्षणभर समुद्र झाल्यासारखा वाटेल. पण- नाही- बाबांनो- मरणाला मारता येत नाही. आपल्या मनातून काढलं तर समोरच्या डोळ्यात ते तरंगायला लागतं-तुमच्या प्रत्येकाच्या डोळ्यात मी माझं मरण पाहतो आहे- पण बाबूमोशाय,  तू म्हणतोस, ते खरं आहे. मी क्षमा मागतो तुझी – तुम्हा सर्वांची- इथं येऊन तुमच्या आयुष्यात असा धुडगूस घालण्याचा मला काहीही अधिकार नव्हता. – मी चुकलो- मी- मी – उद्या चांदयाला परत जाईन बाबूमोशाय-

उमेश: (उठून त्याचे खांदे धरून ओरडतो ) तू जाऊ शकत नाहीस, आनंद – माझ्या लाडक्या- तू आता कुठंही जाऊ शकत नाहीस- तू मरणार असशील तर इथे – माझ्या घरात – माझ्या बाहुपाशात मरणार आहेस-

आनंद: (हसतो.) भाबी घरात आल्यावर तुझे बाहुपाश मोकळे सापडले पाहिजेत मात्र –

ओ.के. बाबूमोशाय, ती – कविता- मैं टेप शुरू करता हूं.

उमेश: कोणती कविता ?

आनंद: शर्त 

उमेश: एका अटीवर

आनंद: कोणत्या?

उमेश: नंतर तूही काही तरी म्हंटलं पाहिजेस. आपले दोघांचे आवाज एकत्र टेप करायचे.  कबूल?

आनंद: कबूल. कर सुरुवात (टेप चालू करतो.)

उमेश: (कविता म्हणतो.)

एकच शर्त की

तुटताना धागे

वळोनिया मागे

पाहायचे नाही

वेगळ्या वाटेची

लाभता पायकी

असते नसते

म्हणायचे नाही.

वांझोटया स्वप्नांचा

उबवीत दर्प

काळजात सर्प

पाळायचा नाही

दिवा हातातील

कोणासाठी कधी

काळोखाच्या डोही

फेकायचा नाही.

उमेश: आता तू-

आनंद: पण मी काय म्हणू?

उमेश: काहीही. चल, मी रेकॉर्ड करतो.

आनंद: पण- (हसतो) हं, आठवलं. पण असं नाही- थांब – हं-

(उमेश टेप चालू करतो. आनंद युवराजाचा पवित्रा घेऊन उभा राहतो. तेवढ्यात काही लक्षात येते. तसाच मागे जाऊन एक चादर काढतो, डोक्याला गुंडाळतो आणि फुलदाणीतील फूल हातात घेतो. टेप चालूच असते. नंतर:)

आनंद: (नाटकी स्वरात ) बाबूमोशाय, बाबूमोशाय, – उद्या मी नसेन, पण आज आहे आणि आज इतका आहे अब्बाहुजूर, की उद्या मी असेन की नसेन याची मला चिंता वाटत नाही. उद्या येणार्‍या पाहुण्याच्या फिकिरीत माझी जिंदगी आज मी जाळून टाकणार नाही. मी शेवटच्या श्वासापर्यंत जगेन जहापनाह आणि असा जगेन की माझं जगणं तुम्हाला क्षणाक्षणाला जाणवत राहील. आषाढातल्या मुसळधार पावसासारखं. मरणावर मात करण्याचा हाच रास्ता आहे, हुजूर, ते येईपर्यंत जगत राहणं. मी जीवंत आहे तोपर्यंत तुम्हीच काय, जगातली कोणतीही सत्ता मला मारू शकत नाही. हा: हा: हा:!

(आनंद उमेशला मिठी मारतो. दोघेही गळ्यात गळा घालून खळखळून हसतात.)

वि. वा.शिरवाडकर यांच्या आनंद नाटकातील  एक उतारा

– स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’

≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित ≈

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