हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #161 ☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 161 ☆

☆ उम्मीद, कोशिश, प्रार्थना ☆

‘यदि आप इस प्रतीक्षा में रहे कि दूसरे लोग आकर आपको मदद देंगे, तो सदैव प्रतीक्षा करते रहोगे’ जॉर्ज बर्नार्ड शॉ का यह कथन स्वयं पर विश्वास करने की सीख देता है। यदि आप दूसरों से उम्मीद रखोगे, तो दु:खी होगे, क्योंकि ईश्वर भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। इसलिए विपत्ति के समय अपना सहारा ख़ुद बनें, क्योंकि यदि आप आत्मविश्वास खो बैठेंगे, तो निराशा रूपी अंधकूप में विलीन हो जाएंगे और अपनी मंज़िल तक कभी नहीं पहुंच पाएंगे। ज़िंदगी तमाम दुश्वारियों से भरी हुई है, परंतु फिर भी इंसान ज़िंदगी और मौत में से ज़िंदगी को ही चुनता है। दु:ख में भी सुख के आगमन की उम्मीद कायम रहती है, जैसे घने काले बादलों में बिजली की कौंध मानव को सुक़ून प्रदान करती है और उसे अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने की सामर्थ्य रखती है।

मुझे स्मरण हो रही है ओ• हेनरी• की एक लघुकथा ‘दी लास्ट लीफ़’ जो पाठ्यक्रम में भी शामिल है। इसे मानव को मृत्यु के मुख से बचाने की प्रेरक कथा कह सकते हैं। भयंकर सर्दी में एक लड़की निमोनिया की चपेट में आ गई। इस लाइलाज बीमारी में दवा ने भी असर करना बंद कर दिया। लड़की अपनी खिड़की से बाहर झांकती रहती थी और उसके मन में यह विश्वास घर कर गया कि जब तक पेड़ पर एक भी पत्ता रहेगा; उसे कुछ नहीं होगा। परंतु जिस दिन आखिरी पत्ता झड़ जाएगा; वह नहीं बचेगी। परंतु आंधी, वर्षा, तूफ़ान आने पर भी आखिरी पत्ता सही-सलामत रहा…ना गिरा; ना ही मुरझाया। बाद में पता चला एक पत्ते को किसी पेंटर ने, दीवार पर रंगों व कूची से रंग दिया था। इससे सिद्ध होता है कि उम्मीद असंभव को भी संभव बनाने की शक्ति रखती है। सो! व्यक्ति की सफलता-असफलता उसके नज़रिए पर निर्भर करती है। नज़रिया हमारे व्यक्तित्व का अहं हिस्सा होता है। हम किसी वस्तु व घटना को किस अंदाज़ से देखते हैं; उसके प्रति हमारी सोच कैसी है–पर निर्भर करती है। हमारी असफलता, नकारात्मक सोच निराशा व दु:ख का सबब बनती है। सकारात्मक सोच हमारे जीवन को उल्लास व आनंद से आप्लावित करती है और हम उस स्थिति में भयंकर आपदाओं पर भी विजय प्राप्त कर लेते हैं। सो! जीवन हमें सहज व सरल लगने लगता है।

‘पहले अपने मन को जीतो, फिर तुम असलियत में जीत जाओगे।’ महात्मा बुद्ध का यह संदेश आत्मविश्वास व आत्म-नियंत्रण रखने की सीख देता है, क्योंकि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।’ सो! हर आपदा का साहसपूर्वक सामना करें और मन पर अंकुश रखें। यदि आप मन से पराजय स्वीकार कर लेंगे, तो दुनिया की कोई शक्ति आपको आश्रय नहीं प्रदान कर सकती। आवश्यकता है इस तथ्य को स्वीकारने की…’हमारा कल आज से बेहतर होगा’–यह हमें जीने की प्रेरणा देता है। हम विकट से विकट परिस्थिति का सामना कर सकते हैं। परंतु यदि हम नाउम्मीद हो जाते हैं, तो हमारा मनोबल टूट जाता है और हम अवसाद की स्थिति में आ जाते हैं, जिससे उबरना अत्यंत कठिन होता है। उदाहरणत: पानी में वही डूबता है, जिसे तैरना नहीं आता। ऐसा इंसान जो सदैव उधेड़बुन में खोया रहता है, वह उन्मुक्त जीवन नहीं जी सकता। उसकी ज़िंदगी ऊन के गोलों के उलझे धागों में सिमट कर रह जाती है। परंतु व्यक्ति अपनी सोच को बदल कर, अपने जीवन को आलोकित-ऊर्जस्वित कर सकता है तथा विषम परिस्थितियों में भी सुक़ून से रह सकता है।

उम्मीद, कोशिश व प्रार्थना हमारी सोच अर्थात् नज़रिए को बदल सकते हैं। सबसे पहले हमारे मन में आशा अथवा उम्मीद जाग्रत होनी चाहिए। इसके उपरांत हमें प्रयास करना चाहिए और अंत में कार्य-सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उम्मीद सकारात्मकता का परिणाम होती है, जो हमारे अंतर्मन में यह भाव जाग्रत करती है कि ‘तुम कर सकते हो।’ तुम में साहस,शक्ति व सामर्थ्य है। इससे आत्मविश्वास दृढ़ होता है और हम पूरे जोशो-ख़रोश से जुट जाते हैं, अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर। यदि हमारी कोशिश में कमी रह जाएगी, तो हम बीच अधर लटक जाएंगे। इसलिए बीच राह से लौटने का मन भी कभी नहीं बनाना चाहिए, क्योंकि असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। यदि हम अपने हृदय में ख़ुद से जीतने की इच्छा-शक्ति रखेंगे, तो ही हमें अपनी मंज़िल अर्थात् निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी। अटल बिहारी बाजपेयी जी की ये पंक्तियां ‘छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता/ टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता’ जीवन में निराशा को अपना साथी कभी नहीं बनाने का सार्थक संदेश देती हैं। हमें दु:ख से घबराना नहीं है, बल्कि उससे सीख लेकर आगे बढ़ना है। जीवन में सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती है। इसलिए हमें दत्तात्रेय की भांति उदार होना चाहिए। उन्होंने अपने जीवन में चौबीस गुरु धारण किए और छोटे से छोटे जीव से भी शिक्षा ग्रहण की। इसलिए प्रभु की रज़ा में सदैव खुश रहना चाहिए अर्थात् जो हमें परमात्मा से मिला है; उसमें संतोष रखना कारग़र है। अपने भाग्य को कोसें नहीं, बल्कि अधिक धन व मान-सम्मान पाने के लिए सत्कर्म करें। परमात्मा हमें वह देता है, जो हमारे लिए हितकर होता है। यदि वह दु:ख देता है, तो उससे उबारता भी वही है। सो! हर परिस्थिति में सुख का अनुभव करें। यदि आप घायल हो गए हैं या दुर्घटना में आपका वाहन का टूट गया, तो भी आप परेशान ना हों, बल्कि प्रभु के शुक्रगुज़ार हों कि उसने आपकी रक्षा की है। इस दुर्घटना में आपके प्राण भी तो जा सकते थे; आप अपाहिज भी हो सकते थे, परंतु आप सलामत हैं। कष्ट आता है और आकर चला जाता है। सो! प्रभु आप पर अपनी कृपा-दृष्टि बनाए रखें।

हमें विषम परिस्थितियों में अपना आपा नहीं खोना चाहिए, बल्कि शांत मन से चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि दो-तिहाई समस्याओं का समाधान स्वयं ही निकल आता है। वैसे समस्याएं हमारे मन की उपज होती हैं। मनोवैज्ञानिक भी हर आपदा में हमें अपनी सोच बदलने की सलाह देते हैं, क्योंकि जब तक हमारी सोच सकारात्मक नहीं होगी; समस्याएं बनी रहेंगी। सो! हमें समस्याओं का कारण समझना होगा और आशान्वित होना होगा कि यह समय सदा रहने वाला नहीं। समय हमें दर्द व पीड़ा के साथ जीना सिखाता है और समय के साथ सब घाव भर जाते हैं। इसलिए कहा जाता है,’टाइम इज़ ए ग्रेट हीलर।’ सो दु:खों से घबराना कैसा? जो आया है, अवश्य ही जाएगा।

हमारी सोच अथवा नज़रिया हमारे जीवन व सफलता पर प्रभाव डालता है। सो! किसी व्यक्ति के प्रति धारणा बनाने से पूर्व भिन्न दृष्टिकोण से सोचें और निर्णय करें। कलाम जी भी यही कहते हैं कि ‘दोस्त के बारे में आप जितना जानते हैं, उससे अधिक सुनकर विश्वास मत कीजिए, क्योंकि वह दिलों में दरार उत्पन्न कर देता है और उसके प्रति आपका विश्वास डगमगाने लगता है।’ सो! हर परिस्थिति में खुश रहिए और सुख की तलाश कीजिए। मुसीबतों के सिर पर पांव रखकर चलिए; वे आपके रास्ते से स्वत: हट जाएंगी। संसार में दूसरों को बदलने की अपेक्षा उनके प्रति अपनी सोच बदल लीजिए। राह के काँटों को हटाना सुगम नहीं है, परंतु चप्पल पहनना अत्यंत सुगम व कारग़र है।

सफलता और सकारात्मकता एक सिक्के के दो पहलू हैं। आप अपनी सोच व नज़रिया कभी भी नकारात्मक न होने दें। जीवन में शाश्वत सत्य को स्वीकार करें। मानव सदैव स्वस्थ नहीं रह सकता। उम्र के साथ-साथ उसे वृद्ध भी होना है। सो! रोग तो आते-जाते रहेंगे। वे सब तुम्हारे साथ सदा नहीं रहेंगे और न ही तुम्हें सदैव ज़िंदा रहना है। समस्याएं भी सदा रहने वाली नहीं हैं। उनकी पहचान कीजिए और अपनी सोच को बदलिए। उनका विविध आयामों से अवलोकन कीजिए और तीसरे विकल्प की ओर ध्यान दीजिए। सदैव चिंतन-मनन व मंथन करें। सच्चे दोस्तों के अंग-संग रहें; वे आपको सही राह दिखाएंगे। ओशो भी जीवन को उत्सव बनाने की सीख देते हैं। सो! मानव को सदैव आशावादी व प्रभु का शुक्रगुज़ार होना चाहिए तथा प्रभु में आस्था व विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि वह हम से अधिक हमारे हितों के बारे में जानता है। समय बदलता रहता है; निराश मत हों। सकारात्मक सोच रखें तथा उम्मीद का दामन थामे रखें। आत्मविश्वास व दृढ़संकल्प से आप अपनी मंज़िल पर अवश्य पहुंच जाएंगे। एमर्सन के इस कथन का उल्लेख करते हुए मैं अपनी लेखनी को विराम देना चाहूंगी ‘अच्छे विचारों पर यदि आचरण न किया जाए, तो वे अच्छे सपनों से अधिक कुछ भी नहीं हैं। मन एक चुंबक की भांति है। यदि आप आशीर्वाद के बारे में सोचेंगे; तो आशीर्वाद खिंचा चला आएगा। यदि तक़लीफ़ों के बारे में सोचेंगे, तो तकलीफ़ें खिंची चली आएंगी। सो! हमेशा अच्छे विचार रखें; सकारात्मक व आशावादी बनें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #160 ☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है “भावना के दोहे।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 160 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – हनुमान जी का लंका गमन /सीता की खोज – 1 

पवन वेग से उड़ रहे, उड़ते हैं हनुमान। 

वर्षा पुष्प की कर रहे, देव करे सम्मान।।

 

करते सीता खोज वह, उड़ते सागर पार

पर्वत से सागर कहे, बड़ा करो आकार।।

 

हाथ जोड़ मैनाक है, पवनपुत्र हनुमान।

आड़े आया आपके, कर लो कुछ आराम।।

 

निकले सीता खोज में, वंदन है हनुमान।

मेरे मन में आपका, बहुत बड़ा सम्मान।।

 

लंका की इस राह में, बाधा करें प्रहार।

करना सीता खोज है, पवन न माने हार।।

 

रामदूत हनुमान हूं, बीच करो ना घात।

रूप धरोना सिंहिका, करता हूं आघात।।

 

किया प्रवेश लंका में, भव्य भवन भंडार।

भेंट लंकिनी से हुई, करते पवन प्रहार।।

 

कहा लंकिनी ने बहुत, हे वीर हनुमान।

मेरा जीवन धन्य हुआ, वानर तुझे प्रणाम।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – उपचार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ मार्गशीष साधना सम्पन्न हो गई है। 🌻

अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी  

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

? संजय दृष्टि – उपचार ??

आदमी जब रो नहीं पाता,

आक्रोश में बदल जाता है रुदन,

आक्रोश की परतें

हिला देती हैं सम्बंधों की चूलें,

धधकता ज्वालामुखी

फूटता है सर्वनाशी लावा लिये,

भीतरी अनल को

जल में भिगो लिया करो,

मनुज कभी-कभार

रो लिया करो…!

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



English Literature – Short Stories ☆ ‘प्रश्नपत्र’… श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Question Paper’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi short story “~प्रश्नपत्र ~.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – लघुकथा – प्रश्नपत्र ??

बारिश मूसलाधार है। ….हो सकता है कि इलाके की बिजली गुल हो जाए। ….हो सकता है कि सुबह तक हर रास्ते पर पानी लबालब भर जाए। ….हो सकता है कि कल की परीक्षा रद्द हो जाए।…आशंका और संभावना समानांतर चलती रहीं।

अगली सुबह आकाश निरभ्र था और वातावरण सुहाना। प्रश्नपत्र देखने के बाद आशंकाओं पर काम करने वालों की निब सूख चली थी पर संभावनाओं को जीने वालों की कलम पूरी रफ़्तार से दौड़ रही थी।

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ Question Paper ~ ??

The rain is torrential. …. There may be a power failure in the area. …. It is also possible that by morning there may be a deluge as water will be filled to the brim on every road… May be tomorrow’s exam will get cancelled… Apprehension and possibility kept running parallel.

The next morning the sky was clear and the atmosphere pleasant. After seeing the question paper, the nib of those who worked on apprehensions, had dried up, but the pens of those who lived the possibilities was running at full speed.

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈




English Literature – Poetry ☆ ~ Again and again ~ ☆ Acharya Sanjiv Verma ‘Salil’ ☆

Acharya Sanjiv Verma ‘Salil’

? ~ Again and again ~ ??

Why do I wish to swim

Against the river flow?

I know well

I will have to struggle

More and more.

I know that

Flowing downstream

Is an easy task

As compared to upstream.

I also know that

Well wishers standing

On both the banks

Will clap and laugh.

If I win,

They will say:

Their encouragement

Is responsible for the success.

If unfortunately

I lose,

They will not wait a second

To say that

They tried their best

To stop me

By laughing at me.

In both the cases

I will lose and

They will win.

Even then

I will swim

Against the river flow

Again and again.

© Acharya Sanjiv Verma ‘Salil’

Vishwani Hindi Sansthan, 401 Vijay Apartment, Napier Town, Jabalpur 482001 

Mob : 9425183244  Email: [email protected]

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #147 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  “संतोष के दोहे । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 147 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सिरफिरों ने कर दिया, चाहत को बदनाम

प्रेम दिखावा, क्रूर मन, करते कत्लेआम

 

संस्कार और संस्कृति, कभी न छोड़ें आप

अपनी यह पहचान है, जिसकी मिटे न छाप

 

बहूरूपियों से बचें, इनका दीन न धर्म

ये निकृष्टजन स्वार्थवश, करते खोटे कर्म

 

राह चलें हम धर्म की, करें नेक सब काज

रखें आचरण संयमित, मेरे ये अल्फ़ाज़

 

धर्म सनातन कह रहा, ईश्वर हैं माँ-बाप

मान रखें उनका सदा, बन कृतज्ञ सुत आप

 

बेटा हों या बेटियाँ, रखो धर्म की लाज

छोड़ें मत माँ-बाप को, कर मरज़ी के काज

 

कभी भरोसा मत करें, करके आँखे बंद

नकली हैं बहु चेहरे, जिनके नव छल-छंद

 

माना जीवन आपका, करें फैसले आप

ध्यान रखें पर कभी भी, दुखी न हों माँ-बाप

 

मात-पिता के प्यार से, बढ़कर  कोई प्यार

हुआ न होगा कभी भी, गाँठ बाँध लो यार

 

युग की नई विडंबना, आडंबर का जोर

बिन सोचे समझे चलें, जिसका ओर न छोर

 

किया प्रेम के नाम पर, मानवता का खून

जिसने तन टुकड़े किये, उनको डालो भून

 

जब भी बहकीं बेटियाँ, हुआ गलत अंजाम

छिनता है ‘संतोष’ तब, उल्टे होते काम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सावली… ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

? कवितेचा उत्सव ? 

⭐ सावली… 🖊️ श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐ 

जन्मासवे प्रत्येकाच्या

होई बघा जन्म हिचा,

ठेवणी प्रमाणे शरीराच्या

असती खाचा खोचा !

 

पुढे सरकता दिनमान

बदले पहा हिचा ढंग, 

कोणाचीही असली

तरी तिचा एकच रंग !

 

येता सूर्य डोक्यावरी

होई शरीरी एकरूप,

जाता तो मावळतीला

उंची तिची वाढे खूप !

 

पडता पाऊस धरेवरी

गायब झाली वाटे,

येता पुन्हा सूर्य प्रकाश

लगेच बघा प्रकटे !

 

येता अंगावरी संकटे

सगे सोडतील साथ,

पण शब्द देतो तुम्हा

नाही करणार ही अनाथ !

 

सा  व  ली !

 

© प्रमोद वामन वर्तक

स्थळ – बेडॉक रिझरवायर, सिंगापूर.

मो – 9892561086, (सिंगापूर)+6594708959

ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कविता ☆ विजय साहित्य #153 ☆ जिंदगी ही… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 153 – विजय साहित्य ?

☆ जिंदगी ही… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

शब्दातल्या शरांनी घायाळ जिंदगी ही

लाचार वेदनांची, जपमाळ जिंदगी ही.

 

एकेक यातनांची , जंत्री चितारलेली.

अक्षम्य त्या चुकांची, बेताल जिंदगी ही.

 

आहे अजून ताकद, हरणार ना कदापी

नापास ठरवते का, दरसाल जिंदगी ही.

 

देऊन टाकले मी, पैशातल्या सुखाला

का वेचतो गरीबी , नाठाळ जिंदगी ही.

 

शब्दास मोल नाही, दुनिया जरी म्हणाली

उध्वस्त आज करते , वाचाळ जिंदगी ही .

 

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ जगातील पहिले प्रेमपत्र… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

? विविधा ?

☆ जगातील पहिले प्रेमपत्र… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

आजकाल मोबाईलच्या वापरामुळे पत्रलेखन जवळपास थांबल्यासारखेच झाले आहे. पण काही वर्षांपूर्वीचा काळ म्हणजे आपल्या आवडत्या व्यक्तीच्या पत्राची वाट पाहण्याचा काळ होता. पत्र लिहिणाऱ्याच्या भावना पत्रात उतरत आणि ते ज्याला लिहिले आहे त्याच्यापर्यंत जाऊन पोहोचत. म्हणून तर प्रिय व्यक्तीची पत्रे जपून ठेवली जात. त्यांची पुन्हा पुन्हा पारायणे होत असत. हिंदी चित्रपटात तर या गोष्टीचा उपयोग करून गीतलेखकांनी अनेक गाणी लिहिली आहेत. आणि ती कमालीची लोकप्रिय होऊन लोकांच्या ओठांवर आली. नायिकेने नायकाला प्रेमपत्र लिहावे, पोस्टमन हा त्यांच्यामधला पत्र पोहोचवणारा दूत. कधी कधी नायिकेला पत्र लिहिता येत नाही. मग ती पोस्टमनलाच सांगते

खत लिख दे सावरियाके के नाम बाबू

कोरे कागज पे लिख दे सलाम बाबू

वो जान जायेंगे, पहचान जायेंगे.

त्या नायिकेला एवढा विश्वास आहे की आपले फक्त नाव असलेले पत्र त्या प्रियकराला मिळाले की बाकी सगळं तो समजून जाईल.

पण तुम्हाला माहित आहे का की रुख्मिणीने श्रीकृष्णाला लिहिलेले पत्र हे जगातील पहिले प्रेमपत्र असावे. किती बुद्धिमान म्हणावी रुख्मिणी ! आणि तिच्या धाडसाचे कौतुक करावे तेवढे कमीच. मी असे का म्हणतो त्याला कारण म्हणजे त्या वेळची परिस्थिती. रुख्मिणी ही विदर्भराजा भीमकाची सुंदर आणि बुद्धिमान कन्या. लहानपणापासूनच श्रीकृष्णाच्या पराक्रमाच्या कथा तिच्या कानावर आल्या होत्या. आणि त्या ‘ सावळ्या सुंदरास ‘ तिने मनानेच वरले होते. पण तिचा भाऊ रुख्मी हा श्रीकृष्णाचा द्वेष करणारा होता. त्याच्या मनात तिचा विवाह शिशुपालाशी व्हावा अशी इच्छा होती. शिशुपाल हा सुद्धा श्रीकृष्णाचा द्वेष करणारा होता. रुख्मीने आपल्या बहिणीवर म्हणजे रुख्मिणीवर अनेक बंधने लादली होती. ती तिच्या स्वतःच्या मर्जीने कोठेही जाऊ शकत नव्हती. अशा वेळी तिच्या हातात काहीही नव्हते. तिचे आईवडील सुद्धा रुख्मीपुढे हतबल झाले होते.

त्यामुळे अशा परिस्थितीत तिच्या डोक्यात श्रीकृष्णाला पत्र लिहिण्याचा विचार येणे ही गोष्टच तिच्या बुद्धिमत्तेची निदर्शक आहे. पत्र लिहिणे आणि ते श्रीकृष्णाला पाठवणे आणि नंतर त्याच्यासोबत पळून जाऊन विवाह करण्याचे धाडस दाखवणे या तिच्या कृतीचे, गुणांचे कौतुक करावे तेवढे कमी आहे.

आपल्या पत्रात  ती श्रीकृष्णाला म्हणते

” हे भुवनसुंदरा, जेव्हापासून मी तुझे गुण ऐकले आहेत, तेव्हापासून मी तुझ्या प्रेमात पडले आहे. आणि तुला समर्पित झाले आहे. तू माझे हरण करून घेऊन जा. तुझ्यासारख्या सिंहाचा भाग शिशुपालरूपी कोल्हा नेतो आहे असे कदापि होऊ नये.

साधना, संस्कार, प्रीती, भक्ती इत्यादि धन घेऊन मी येईन. मी सतत तुझी पूजा करून काही पुण्यकृत्ये केली आहेत, आणि मनाने तुला वरले आहे. आता प्रत्यक्षात माझा स्वीकार कर.

अंबेच्या देवळात मी गौरीपूजेसाठी जाईन, तेव्हा तू माझे मंदिरातून हरण कर. आणि पराक्रमाने शिशुपालादिकांना हरवून राक्षसविधीने माझे पाणिग्रहण कर.

तू आला नाहीस तर मी समजेन की माझ्या साधनेत काही कमतरता राहिली असेल. तू मला या जन्मी लाभला नाहीस तर मी प्राणत्याग करीन, पण जन्मोजन्मी तुझी वाट पाहीन, आणि अंती तुझीच होईन !!”

या पत्रातला मला आवडलेले वाक्य म्हणजे ती श्रीकृष्णाला म्हणते , ” साधना, संस्कार, प्रीती, भक्ती इ धन घेऊन मी येईन. ” किती सुंदर विचार. आणि लाख मोलाचे धन. पैसा नाही, हुंडा नाही, वस्तू नाही. तर साधना, संस्कार, प्रीती आणि भक्ती या सुंदर भावना हेच धन. आणि तेच ती घेऊन येते. आणि श्रीकृष्ण जिचा सखा आहे, पती आहे तिला आणखी काय हवे ? आणि त्या श्यामसुंदराला सुद्धा कशाची अपेक्षा असते ? तुमची साधना महत्वाची. संस्कार महत्वाचे. प्रीती आणि भक्ती महत्वाची. तुम्ही भक्तिभावाने आपले हृदय त्याला अर्पण करा, म्हणजे तो रुख्मिणीप्रमाणे तुमचेही हरण करील. तुम्ही त्याचे होऊन जाल. हाच तर या पत्रातला आपल्या सगळ्यांसाठी संदेश आहे,  नाही का?

©️ विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव.

 प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अ.ल.क.  … श्री प्रदीप आवटे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆

सुश्री प्रभा हर्षे

? जीवनरंग ?

☆ अ.ल.क.  … श्री प्रदीप आवटे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे 

काही अलक 

 

१.  आपणच राखले नाही ईमान

    आणि वर म्हणालो, ऋतू बेईमान झाले.

    तसं असतं तर, रस्त्यावरच्या अमलताशने चैत्र आल्याची बातमी

    सगळ्यात आधी कशी सांगितली असती?

****

२.  तुला झाडाचे नाव नाही ठाऊक

     पण झाडाला माहीत आहेत, 

     तुझे ऋतू, तुझे सण, तुझे उत्सव !

     म्हणून तर हिरव्या पोपटी पानांची गुढी

    त्याने कधीची उभारली आहे…… आणि.. 

    त्याच्या अनोळखी फुलांचा बहर वाहून नेणाऱ्या वाऱ्याने, 

    व्हायरल केली आहे बातमी …… 

    वसंत आल्याची !

****

३. झाडांना काढाव्या वाटत नाहीत मिरवणुका, 

    वाजवावे वाटत नाहीत ढोल ताशे, 

    ती फक्त आतून आतून पालवतात

   आणि शांत उभी राहतात कोसळणाऱ्या उन्हात

   एखाद्या तपस्व्यासारखी !

   वसंताच्या इशाऱ्यावर वाहत राहते …. 

   सर्जनाची गंधभारीत वरात

   त्यांच्या धमन्यातून..!

****

४. कर्णकर्कश्य खणखणाटाशिवाय

    तुला व्यक्त करता येत नाही, तुझा आनंद. 

    झाडाला मात्र पुरुन उरते .. किलबिल पाखरांची

   आणि आनंदविभोर खार खेळत राहते झाडाच्या अंगाखांद्यावर.

   मुळे वाहून आणतात मातीमायचे सत्व त्यांच्या रक्तवाहिन्यापर्यंत…

   कळ्यांच्या हळव्या नाजूक देठापर्यंत !

 

     तुला असे उमलता येत नाही खोल आतून

    …. म्हणूनच तुला फुले येत नाहीत. 

****

५.  झाडं कधीच नसतात ‘खतरे में ‘…. दुसऱ्या झाडांमुळे.

     झाडांना नीट असते ठावे प्रत्येक झाडाचा हक्क असतो .. मातीच्या प्रत्येक कणावर!

     मातीतून उगवणारे आणि त्याच मातीत मिसळणारे प्रत्येक झाड

     समृध्द करत असते माती.. मातीशी एकजीव होता होता..!

     आणि तू .. अवघी पृथ्वी काबीज करण्याच्या नादात, 

     स्वतःच्याच मुळांवर घाव घालणारा शेखचिल्ली आहेस तू, 

     झाडांना भीती वाटते फक्त तुझ्या ‘गोतास काळ ‘ कुऱ्हाडीची !

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लेखक : श्री प्रदीप आवटे

संग्राहिका : सुश्री प्रभा हर्षे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈