हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 131 – भटक रहा है बंजारे सा… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – भटक रहा है बंजारे सा…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 131 – भटक रहा है बंजारे सा…  ✍

व्याप गई है ऐसी जड़ता, जैसी कमी न व्यापी ।

मौसम का मन बदल गया है

करता है मनमानी

ऊपर से तुम शह देते हो

लगे मुझे हैरानी।

अपने पाँव देख चुप बैठे, जैसे कोई कलापी।

 

यादों की वंशी बजती थी

वह है बात पुरानी

अता पता कुछ नहीं याद का

शायद कहीं हिरानी।

घटनाओं का क्रम अटूट है, लगता जीवन शापी।

 

बात कौन सोची थी मैंने

सोच सोच कर हारा

ठीक नहीं हैं मन के लच्छन

निकल गया आवारा।

 

भटक रहा है बंजारे सा, राह सड़क सब नापी।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 130 – “ढलते सूरज में दिखती है…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  “ढलते सूरज में दिखती है)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 130 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

ढलते सूरज में दिखती है

सरक गया सिर से

रेशम की साडी का कोना

कोई खिड़की पर बैठा

करता जादू टोना

 

उसकी भूखी आँत

उलहना देती सी आखें

बहुत फड़फडाता उडने

को श्वेत श्याम पाँखें

 

उसके शब्दों में गहरी

पीडा निवास करती

आखिर क्यों कर कडुवाहट

का वह है सिनकोना

 

खिड़की पर बाँसुरी

बजाना उसका क्यों भारी

लोग समझते उसको

है यह शापित बीमारी

 

सरगम के सब तार

लिपट कहते बंसी धुन में

छलना रेशम को आता है

तिस पर क्या रोना

 

ढलते सूरज में दिखती है

उस को परछाईं

प्रिय की किसी सुशोभन

अनुपम मुद्रा की नाईं

 

चेहरे पर नैराश्य और

छाती में  शून्य रहा

बस अटके है प्राण

अधर में दोना- दो- दोना

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

11-03-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अपरंपार ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – अपरंपार ??

नश्वर आशंकाएँ खेत रहीं,

शाश्वत आकांक्षाएँ बनी रहीं,

ठगा-सा तकता रहा संसार,

चलो मिलें फिर देह के पार..!

© संजय भारद्वाज 

10.11am, 3.6.22

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को समर्पित आपदां अपहर्तारं साधना गुरुवार दि. 9 मार्च से श्रीरामनवमी अर्थात 30 मार्च तक चलेगी।

💥 इसमें श्रीरामरक्षास्तोत्रम् का पाठ होगा, साथ ही गोस्वामी तुलसीदास जी रचित श्रीराम स्तुति भी। आत्म-परिष्कार और ध्यानसाधना तो साथ चलेंगी ही।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 179 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक  विचारणीय लघुकथा – ऐसा भी होता है...”।)

☆ लघुकथा # 180 ☆ “ऐसा भी होता है…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

नर्मदा जी के किनारे एक श्मशान में जल रहीं हैं कुछ चिताएं। राजू ने बताया कि उनमें से बीच वाली चिता में कपाल क्रिया जो सज्जन कर रहे हैं वे फारेस्ट डिपार्टमेंट के बड़े अधिकारी हैं, इसीलिए चिता चंदन की लकड़ियों से सजाई गयी है,और उसके बाजू में जो चिता सजाई जा रही है, वह गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले अति गरीब की है।

उनके लोगों का कहना है कि जितनी लकड़ियां तौलकर आटो से आनीं थीं, उसमें से बहुत सी लकड़ियां आटो वाला चुरा ले गया। किन्तु, ऐसे समय कुछ कहा नहीं जा सकता, न शिकायत की जा सकती है,  क्योंकि, आजकल लोग बात बात में दम दे देते हैं, अलसेट दे देते हैं और काम नहीं होने देते।

गरीब मर गया तो आखिरी समय भी उसके साथ गेम हो गया। गरीब के रिश्तेदारों ने बताया कि जलाने के लिए ये जो लकड़ियां ख़रीदीं गईं थीं, उसके लिए पैसे उधार लिए गए थे। इसके बाद भी गरीब का दाहसंस्कार करने के लिए तत्पर बेटे को इस बात से खुशी है कि पिताजी ने जरूर कोई पुण्य कार्य किए होंगे, तभी इतने अमीर की चिता के बाजू में स्थान मिला, और बाजू की चिता से जलती हुई चंदन की लकड़ी का धुंआ उनकी चिता को पवित्र करेगा और वैसा ही हुआ। चिता को अग्नि दी गई और हवा की दिशा बदल गई। चंदन की लकड़ी से उठता हुआ धुआं गरीब की चिता में समा गया। श्रद्धांजलि सभा में कहा गया उसने जीवन भर गरीबी से संघर्ष किया पर वो पुण्यात्मा था, तभी तो ऐसा चमत्कार हुआ।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 121 ☆ # खंडहर… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी होली पर्व पर विशेष कविता “# खंडहर… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 121 ☆

☆ # खंडहर… # ☆ 

सूरज की किरणों से

जो धरती जाग जाती थी

जहां ठंडी ठंडी पुरवाई

नया सवेरा लाती थी

स्नान, पूजा, ध्यान, तप

जहां घुला था कण-कण में

जहां मंदिर की घंटियां और

अजान एक साथ होती थी

रणबाँकुरे अपनी आजादी के लिए

लड़ते रहे आखरी सांस तक

सिर कटा दिया अपना

पर आने नहीं दी आंच तक

अपने पौरुष के दम पर

अपना साम्राज्य फैलाया था

एक छोर से दूसरे छोर तक

अपना ध्वज लहराया था

प्रजा का कल्याण, हित

हर राजा को प्यारा था

यहां कोई नहीं पराया था

यहां दुश्मन भी जान से प्यारा था

सुख, शांति, धर्म के

सब रखवाले थे

अपनी धार्मिक आस्था पर

जान न्योछावर करने वाले थे

हिंदू राजा का सेनापति मुगलवंशी था

तो मुगल का सेनापति हिंदू था

चाहे जिस खेमें में हो पर

समर्पण सबका बिंदु था

अपने अपने कर्तव्य को

निष्ठा से निभाते थे

शहादत दे देते रण में

पर कभी पीठ नहीं दिखाते थे

रणबाँकुरे ने लड़ी लड़ाइयां

कुछ जीती, कुछ हारे

अपने सम्मान के लिए

लड़ते रहे वो सारे

वीरांगनाओं ने भी अदम्य साहस

दिखाया था

सतीत्व की रक्षा के लिए

तीन बार जौहर अपनाया था

इन योद्धाओं को, वीरांगनाओं को

शत्, शत् नमन है

जिनको जान से ज्यादा

प्यारा वतन है

 

यह ऊंचे ऊंचे दुर्गम किले

अपनी कहानी दोहराते हैं

हर पत्थर बोलता है

इतिहास को समझाते हैं

सबको गले लगाओ

हर शख्स को अपना बनाओ

सब मिलकर रहेंगे तो

तूफानों को सह पायेंगे

वर्ना

समय के तूफान में

इन किलों की तरह बिखरकर

एक एक पत्थर निकलकर

सिर्फ

खंडहर रह जायेंगे /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




English Literature – Poetry ☆ – “She” (Maya) – ☆ Shri Ashish Mulay ☆

Shri Ashish Mulay

?️ Poetry ?️

 ? – “She” (Maya) – ? ☆ Shri Ashish Mulay 

When I gathered the senses

I was born in your arms

colouring myself in your frames

only to lose my senses

 

wandering vibrantly

sometimes hopelessly

riding the vastnesses

only to find mirages

 

but when i sat in the crowds

just like I was in your arms

emerged through that noise

was your beautiful voice

 

I was so rare with the words

like the ocean is with the pearls

but when I dived into your seance

found me the poetry of chaos

 

had made me passive, the time

like river rock becomes in time

but when I saw your face in moonlight

I became masculine for the first time

 

you have become my wine

drunk on it, I broke my pen

now everything makes sense

for I have become truly insane

© Shri Ashish Mulay

Sangli 

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈




सूचनाएँ/Information ☆ नेपाल-भारत साहित्य महोत्सव में श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” को नेपाल- भारत सहित्य सेतु सम्मान – अभिनंदन ☆

 ☆ सूचनाएँ/Information ☆

(साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समाचार)

🌹 नेपाल-भारत साहित्य महोत्सव में श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” को नेपाल- भारत सहित्य सेतु सम्मान – अभिनंदन 🌹

विराट नगर। नेपाल की औद्योगिक नगरी विराट नगर में 17 मार्च से तीन दिवसीय नेपाल-भारत साहित्य महोत्सव आयोजित किया गया हैं। इस आयोजन के प्रथम दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में अतिथि के तौर पर रतनगढ़ के साहित्यकार ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ को साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिए नेपाल-भारत सहित्य सेतु सम्मान से सम्मानित किया गया। आप की अब तक 38 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसी के साथ आप कई रचनाएं विभिन्न प्रदेशों के पाठ्यक्रम में भी सम्मिलित की गई। एक पुस्तक प्रकाशन विभाग, सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा भी प्रकाशित की गई हैं।

आपने प्रथम दिवस के द्वितीय सत्र के अध्यक्षता करते हुए अपने उद्बोधन में कहा है कि- “इस तरह के कार्यक्रम से साहित्यिक एवं मैत्रिक संबंध मजबूत होते हैं। इससे हमें एक-दूसरे के साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं परंपरागत रीति-रिवाजों को जानने-समझने का मौका मिलता है। इससे हमारे आपसी संबंधों को मजबूती मिलती हैं।”

क्रांति धरा एवं विराट नगर महापालिका के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित नेपाल भारत साहित्यिक महोत्सव, रामजानकी मंदिर, विराट नगर (नेपाल) में आयोजित किया गया हैं। जिसमें प्रमुख अतिथि भूतपूर्व प्रदेश प्रमुख (गवर्नर) कोसी प्रदेश नेपाल के श्री गोविंद सुब्बाजी, विशिष्ट अतिथि विराटनगर के महानगर पालिका प्रमुख (मेयर) श्री नागेश कोइरालाजी, प्रज्ञा प्रतिष्ठान मधेश प्रदेश के अध्यक्ष डॉ. राम भरोसे कापड़ी (पोखरा), पूर्व सांसद खेम नेपाली, विधायक किशोरचन्द्र दुलार, आयोजक डॉ. विजय पण्डित, देवी पंथी, गजलकार पूजा बहार, नेपाल भारत मैत्री संघ के अध्यक्ष शैलेन्द्र मोहन झा एवं भारत-नेपाल से आमंत्रित 300 से अधिक साहित्यकारों ने सहभागिता की है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रतिबिंब… ☆ सुश्री पार्वती नागमोती ☆

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रतिबिंब… ☆ सुश्री पार्वती नागमोती ☆

मीच मला जन्माला घालताना

भासे प्रतिबिंब तुला पाहताना

 

आसवांची जलधारा

नेत्रातून अखंड वाही

गर्भांकुरातील  अंकुर

जगण्याचे दुःख साही

मीच मला जन्माला घालताना

भासे प्रतिबिंब तुला पाहताना

 

एकसंध धवल मळभ

घट्ट  तिमिर  स्थितप्रज्ञ

वाट..ग्रहण सुटण्याची

जणू सारे बंध अनभिज्ञ

पहारा आहे तुझ्यावर, जन्मताना

तरीही..होईल हर्ष तुला पाहताना

 

येशील  घेऊन प्रतिबिंब

माझ्यातलीच मी होऊन

तरणोपाय नाही सृष्टीस

बीजांकुरण नव्याने रुजून

आयुष्य भरडणार स्वत्व जोखताना

कष्टाचे चीज  होईल तुला पाहताना

 

विश्वाची जननी असे नारी

काली,दुर्गा,लक्ष्मी,सरस्वती

अधर्माचा विनाश करण्यास

नानाविध रूप घेई संस्कृती

आनंदाला उधाण येईल तू जन्मताना

जीवनाचा सोहळा होईल तुला पाहताना

 

मीच मला जन्माला घालताना….

भासे प्रतिबिंब तुला पाहताना…

© सुश्री पार्वती नागमोती

सांगली

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 122 ☆ अनामिक तू… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 122 ? 

☆ अनामिक तू…

तुला काय बोलावे, मला कळत नव्हते

तुझ्याशिवाय दुसरे, पहावत सुद्धा नव्हते.!!

 

अशी कशी आलीस, हवे सारखी तू

अर्धवट एक, रात्रीचे स्वप्न माझे तू.!!

 

तुला पाहण्यात, माझा वेळ खर्ची झाला

लोभस मोहक सोज्वळ, भुरळ माझ्या मनाला.!!

 

अबोल स्तब्ध अन्, अचेतन मी क्षणभर झालो

पाहुनी तुझ्या सौंदर्याला, मलाच मी विसरलो.!!

 

पुन्हा कधी भेटशील, शक्यता नाहीच आता

कधी भेटू वळणार, तर ती वेळ कुठे आता.!!

 

अनामिक ललना तुला, नामना सांग काय देऊ

असेच कधी भेटू पुन्हा, मनाला दिलासा देऊ.!!

 

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ विचार–पुष्प – भाग 61 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान –  लेखांक दोन ☆ डाॅ.नयना कासखेडीकर ☆

डाॅ.नयना कासखेडीकर

?  विविधा ?

☆ विचार–पुष्प – भाग 61 – स्वामी विवेकानंदांचं राष्ट्र-ध्यान –  लेखांक दोन डाॅ.नयना कासखेडीकर 

स्वामी विवेकानंद यांच्या जीवनातील घटना-घडामोडींचा आणि प्रसंगांचा आढावा घेणारी मालिका विचार–पुष्प.

स्वामीजींनी दक्षिणेश्वरच्या मंदिरातील कालीमातेचं/जगन्मातेचं दर्शन घेऊन परिव्राजक म्हणून प्रवास सुरू केला तो आता कन्याकुमारी मंदिरात दर्शनाने संपणार होता.

उत्तरेकडील बर्फाच्छादित हिमालयापासून सुरू झालेली स्वामीजींची प्रदीर्घ यात्रा आता भारताच्या दक्षिण टोकास संपली होती. तामिळनाडू मध्ये जिथे अरबी समुद्र, हिंद महासागर, आणि बंगालची खाडी यांचा संगम होतो तिथे माता कन्याकुमारीचे प्राचीन मंदिर आहे. तिचे पौराणिक संदर्भ पण आहेत.    

या मंदिरात स्वामीजी गेले आणि साष्टांग नमस्कार करून, कन्यारूपातील जगन्मातेचं दर्शन घेऊन बाहेर आले. तशी समोर लांबवर नजर गेली, दीड फर्लांग अंतरावर दोन प्रचंड शिलाखंड दिसले.यावरच माता कन्याकुमारीने /पार्वतीने स्वत: इथे तपस्या केली होती. या शिला खंडावर तिचे पदचिन्ह आज ही आहेत म्हणून त्याला ‘श्रीपाद शिला’ म्हणून ओळखले जाते. मनशांती साठी व चिंतनासाठी आपल्याच भूमीवरच्या या शिलाखंडावर जायची त्यांना मनोमन इच्छा झाली. तिथे गेलो तर खर्‍या अर्थाने मातृभूमीचे दक्षिण टोक आपण गाठले असा अर्थ होईल. म्हणून कसही करून त्या खडकांवर आपण जावं असं वाटून, ते किनार्‍यावर आले. समोर उंच उंच फेसाळत्या लाटा होत्या.त्याची जराही भीती वाटली नाही कारण, मनात तर याहीपेक्षा मोठे वादळ उठलेले होते. समोरच होड्या होत्या. काही कोळी पण उभे होते. स्वामीजींनी त्यांची  चौकशी केली. त्या नावेतून खडकापर्यंत पोहोचविण्यास नावाडी तयार होते, फक्त पैसे द्यावे लागणार होते. नावाड्यांनी त्याचे ३ पैसे सांगितले.  स्वामीजी तर निष्कांचन होते.तीन काय, एक पैसा सुद्धा त्यांच्या जवळ नव्हता. पण साहस तर होतं.  झालं,क्षणाचाही विलंब न करता, त्यांनी त्या उंच लाटांमध्ये उडी घेतली आणि पोहत पोहत जाऊन ते खडक गाठले. समुद्राला रोजचे सरावलेले असतांनाही नावाडी हे बघून स्तब्धच झाले. लाटा उसळणार्‍या तर होत्याच पण तिथे शार्क माशांपासून पण धोका होता हे त्यांना माहिती होतं. हे पाहून दोन तीन नावाडी स्वामीजींच्या पाठोपाठ गेले. ते सुखरूप पोहोचले हे बघून, त्यांना काही हवे का विचारले. आम्ही आणून देऊ असे सांगीतल्यावर थोडे दूध आणि काही शहाळी पुरेशी आहेत असे स्वामीजींनी सांगितले.

राष्ट्र चिंतन पर्व – २५, २६ २७ डिसेंबर  

स्वामी विवेकानंदांनी या आधी आध्यात्मिक साधना म्हणून अनेक वेळा एकांतात ,अरण्यात वगैरे ध्यान केलं होतं. पण आता चे ध्यानचे रूपच वेगळे होते. अरण्य नाही,झाडं झुडुपं नाही, गुहा नाही ,उघड्या खाडकावर आकाशाचे चं छत आणि आजूबाजूला प्रचंड आणि चोवीस तास खळाळणार्‍या समुद्राच्या लाटा,दिवसा सूर्यची प्रखर किरणे, जोरात येणार्‍या वार्‍याचे झोत असा पारंपरिक ध्यान धारणेचा वेगळाच एकांतवास तिथे होता.२५ डिसेंबर १८९२ रोजी स्वामी ध्यानास बसले. स्वामीजींनी या शिलाखंडावर तीन दिवस, तीन रात्र अखंड ध्यान केलं. लाटांच्या अखंड गंभीर नादाबरोबर स्वामीजींचे गाढ चिंतन सुरू झाले. कलकत्त्यातून बाहेर पडल्यापासुनचे सर्व दिवस, त्यात आलेले अनुभव, सगळं डोळ्यासमोर उभं राहिलं होतं. जगन्मातेचं ध्यान आणि भारत मातेचं चिंतन तीन दिवसात झालं. चौथ्या दिवशी सकाळी तरुण नावाड्यांनी जाऊन होडीतून त्यांना पुन्हा किनार्‍यावर आणलं. जे शोधायला स्वामीजी आले होते ते त्यांना इथे मिळालं. भारताचा गौरवशाली इतिहास, भयानक वर्तमानकाळ आणि आणि आधी पेक्षाही अधिक स्वर्णिम भविष्यकाळ याचा चित्रपटच जणू त्यांच्या डोळ्यासमोर उभा राहिला.सिंहावलोकन करण्याचा तो क्षण होता. भारताच्या श्रेष्ठ संस्कृतीतले वास्तव तसाच त्यातलं सुप्त सामर्थ्य त्यांना या क्षणी जाणवलं होतं. त्याच्या मर्यादा ही त्यांना जाणवल्या होत्या.

प्राचीन इतिहास असलेला हा विशाल देश, इतिहासाचे केव्हढे चढउतार, सार्‍या जगाला हेवा वाटेल असे प्राचीन काळातील द्रष्ट्या ऋषीमुनींनी दिलेले आध्यात्मिक धन. पण तरीही आज भारत कसा आहे? त्याची अस्मिताच हरवलेली दिसत आहे. सगळ्या मानव जातीने स्वीकारावीत अशी शाश्वत मूल्यं पूर्वजांकडून लाभली आहेत तरीही त्यातल्या तत्वांचा त्याला विसर पडला आहे. अभिमान वाटावा असा भूतकाळाचा वारसा आहे पण वर्तमानात मात्र घोर दुर्दशा आहे. यातून समाजाचं तेज पुनः कसं प्रकाशात आणता येईल?  अशा प्रश्नांची उत्तरे त्यांना शोधायची होती. उपाय शोधायचे होते. एखाद्या शिल्पकाराने उत्तम मूर्ती घडविताना त्याचा सर्वांगीण विचार करावा तसा स्वामीजी भारताचा विचार यावेळी करत होते. 

क्रमशः…

© डॉ.नयना कासखेडीकर 

 vichar-vishva.blogspot.com

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈