हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆ गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग ५ – आनंदपुर ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा… का भाग पाँच – आनंदपुर)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 09 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से… गुरुद्वारों की मेरी अद्भुत यात्रा – भाग पाँच – आनंदपुर ?

(वर्ष 1994)

चंडीगढ़ में रहते हुए एक बात समझ में आई कि बड़े – बड़े बंगलों में रहनेवाले लोग आसानी से किसी नए पड़ोसी से मित्रता नहीं करते। पर नए पड़ोसी के बारे में जानने की उत्कंठा अवश्य ही बहुत ज्यादा होती है उनमें। हम फ्लैटों में रहनेवालों की प्रकृति इससे अलग होती है।हम लोग तुरंत नए पड़ोसी की सहायता में जुट जाते हैं। हमें चंडीगढ़  जाने के बाद शुरू-शुरू में दिक्कत तो हुई पर समय के साथ कुछ लोगों से परिचय हो ही गया।

हमारे मोहल्ले में एक क्लब था जहाँ स्त्री , पुरुष सभी रमी खेलने आते थे। हम वहाँ जाने लगे तो कुछ मित्र बने। एक बैडमिंटन कोर्ट था तो दोस्त बनाने के लिए हमने सुबह बैडमिंटन खेलना प्रारंभ किया। अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बाद कई हमउम्र महिलाएँ बैडमिंटन खेलने आती थीं। सच में उत्कंठित पड़ोसन अब खेल के बहाने हमारे मित्र बनने लगीं।

एक रविवार उन्होंने मुझे अपने साथ गुरुद्वारे जाने के लिए आमंत्रित किया,  मैंने भी सहर्ष उस आमंत्रण को स्वीकार किया।पंजाब का हर शहर गुरुद्वारों का विशाल गढ़ है। गुरुद्वारों के प्रति जितनी लोगों में आस्था है उतना ही करसेवा का जुनून भी है। इसे वे एक अनुष्ठान के रूप में करते हैं।

चंडीगढ़ शहर ,पंजाब और हरियाणा के बीच स्थित है। दोनों राज्यों की यह  राजधानी भी है इसलिए महत्वपूर्ण शहर बन गया है और यूनियन टेरीटरी भी है।बहुत ही सिस्टमैटिक रूप से शहर का निर्माण किया गया है। हर एक क्रॉस रोड पर गोल चक्कर है जो मौसमी फूलों ,पौधों से सजा रहता है।यहाँ ट्रैफिक लाइट की व्यवस्था नहीं थी। (अब भीड़ बढ़ने के कारण ट्रैफिक लाइट है।)

चंडीगढ़ से बीस किलोमीटर की दूरी पर पंचकुला नामक शहर पड़ता है। यह शहर हरियाणा का हिस्सा है।यहाँ एक प्रसिद्ध गुरुद्वारा है जिसे नाडासाहेब कहा जाता है।

इसका प्रांगण विशाल है। गुरु गोविंद सिंह जी भंगनी में मुगल सेना को हराकर आगे बढ़ते हुए इस स्थान पर आ पहुँचे थे। नाडा शाह  नामक एक सज्जन ने उनका स्वागत किया था। इसीलिए इस स्थान का नाम नाडासाहेब पड़ गया। यहाँ कुछ समय रुकने के बाद वे अपनी सेना के साथ आनंदपुर  के लिए रवाना हो गए थे।

इस विशाल गुरुद्वारे में हर महीने पूर्णिमा के दिन भारी भीड़ होती है। उत्तर प्रदेश से भी बड़ी संख्या में लोग दर्शन हेतु आते हैं।

इसके बगल में ही बड़ी इमारत है जहाँ हज़ारों की संख्या में लोग लंगर में भोजन ग्रहण करते हैं। पूर्णिमा का दिन विशाल उत्सव का दिन होता है।

उस दिन मुझे आनंद के सागर में हिलोरें लेने का अद्भुत आनंद मिला।करसेवा का वह आनंदमय सामुहिक कृति की स्मृतियाँ मुझे आज भी रोमांचित करती है।

पंजाबी भाषा तो ससुराल में रहते ही मैंने बोलना सीख लिया था पर लहजा तो चंडीगढ़ जाकर ही सीखने का अवसर मिला। बलबीर पंजाबी भाषा से कोसों दूर रहे हैं। नाम के आगे सिंह लिखा होने के कारण हर कोई उनसे पंजाबी में बातें करता  और वे मुस्कराकर रह जाते क्योंकि समझ न पाते तो उत्तर क्या देते भला!

बलबीर अपनी कंपनी के चीफ इन्टरनल  ऑडिटर थे। पंजाब, हरियाणा और हिमाचल तीनों राज्य के दौरे पर जाया करते थे। एकबार उन्हें  रोपड़  जाना था, यह पंजाब का एक महत्वपूर्ण शहर है। मुझे साथ ले जाना चाहते थे क्योंकि ग्रामीण पंजाबी समझना उनके बस की बात न थी। मैं तुरंत साथ चलने को तैयार हो गई। नेकी और पूछ -पूछ! चंडीगढ़ की पड़ोसियों से आनंदपुर गुरुद्वारे का बखान सुना था।बस मुझे तो गुरुद्वारे का दर्शन करना था।साथ चलने का निवेदन मानो नानकसाहब का बुलावा था।

आनंदपुर साहिब का निर्माण सन 1665 में सिक्खों के नौवें गुरु तेगबहादुर जी ने किया था। वे कीरतपुर से आए थे। इस गाँव का नाम मखोवल था। गुरु तेगबहादुर ने इसे चक्की नानकी नाम दिया जो उनकी माता का नाम था।

सन 1675 में गुरु तेगबहादुर पर औरंगज़ेब ने भीषण अत्याचार किए ।वे चाहते थे कि गुरु तेगबहादुर मुसलमान धर्म स्वीकार  कर लें।उनके बार – बार इन्कार करने पर उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। इस शहीद गुरु के बेटे गोविंद दास को दसवें गुरु के रूप में नियुक्त किया गया। आज हम उन्हें गुरु गोविंद सिंह  के नाम से संबोधित करते हैं, स्मरण करते हैं। गुरुगोविंद सिंह जी ने ही इस गाँव का नाम चक्की नानकी  से बदलकर आनंदपुर रखा।

वह छोटा – सा गाँव अब शहर बनने लगा। सिक्ख समुदाय के लोग गुरुगोविंद सिंह जी की ओर बढ़ने लगे। बड़ी संख्या में लोग दसवें गुरु की ओर आकर्षित होते रहे। आनंदपुर सिक्ख समुदाय का महत्त्वपूर्ण गढ़ बनने लगा। पास पड़ोस के पहाड़ी रियासतों और मुगलों की चिंता बढ़ने लगी। गुरुगोविंद सिंह जी के साहस, शौर्य की बात प्रसिद्धी पाने लगी। मुगल शासक औरंगज़ेब ने बैसाखी के दौरान होनेवाली भीड़ पर पाबंदी लगा दी। सन 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की और विशाल सैन्य बल एकत्रित कर ली। बड़ी मात्रा में हथियार भी एकत्रित कर लिए  गए। औरंगज़ेब और उसके मातहत जितने हिंदू राजा थे वे व्यग्र हो उठे। वे आनंदपुर को घेरना चाहते थे। इस कारण कई  युद्ध हुए।

सन 1700 से 1704 तक मुगलों के साथ कई बार भारी युद्ध हुए। मुगल सेना को मुँह की खानी पड़ी, कभी धूल चाटने की नौबत भी आई।1704 में आनंदपुर को जानेवाली सभी प्रकार की सुविधाओं पर मुगलों ने अंकुश लगा दिए। मई माह से दिसंबर तक भोजन आदि का मार्ग बंद कर दिए गए।कई सिक्ख सैनिक प्राण बचाकर अपने घर भाग गए। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि भारतीय नारी युद्ध मैदान से भागे हुए सैनिक की पत्नी बनकर जीने से विधवा होकर जीने को  अधिक श्रेष्ठ  मानती थीं।आवश्यकता पड़ने पर वे भी विरांगनाएँ तलवार लेकर निकल पड़ती थीं। जो सैनिक भागकर लौट आए थे उन्हें उनकी पत्नियों ने प्रताड़ित किया, धिक्कारा और वे सब लौटकर आए और युद्ध मैदान पर शहीद हो गए।

 युद्ध के अंत में आखिर औरंगजेब ने गुरुगोविंद सिंह को सपरिवार अपने अनुयायियों के साथ वहाँ से निकलने का मार्ग दिया। दो समूहों में बँटकर वे आनंदपुर से निकले। धोखा देने के स्वभाव से मजबूर मुगलों ने एक समूह पर आक्रमण किया और गुरु गोविंद सिंह के दोनों छोटे बच्चे और  माता गुजारी को घेर लिया। उनका बड़ा बेटा जोरावर सिंह जो आठ वर्षीय था  और फतेह सिंह  जो पाँच वर्ष का था उन्हें बंदी बना लिया गया। उन दोनों को बदले की भावना से जलनेवाले औरंगज़ेब ने ज़िंदा चुनवा दिया। माता गुजारी सदमें को न सह सकीं और उनका देहांत हो गया।

आज आनंदपुर एक विशाल और महत्वपूर्ण गुरुद्वारा है। देश के इतिहास में इसका महत्वपूर्ण स्थान भी है। विशाल ,भव्य इमारत है। संग्रहालय है। लंगर के लिए विशेष स्थान है। पास में ही छोटा सरोवर है। आज भी विभिन्न पर्वों के अवसर पर देश -विदेश से सिक्ख संप्रदाय के लोग यहाँ उपस्थित होते हैं। खासकर खालसा समुदाय के लोग बड़ी आस्था के साथ यहाँ आते हैं।

हमारा अहो भाग्य ही है कि चंडीगढ़ में रहते हुए हमें ऐसे विशेष स्थानों पर दर्शन का लाभ मिला।

इन सभी गुरुद्वारों की एक विशेषता है कि यहाँ स्वच्छता को बहुत महत्त्व दिया जाता है।यहाँ शोर नहीं होता। दिनरात पाठ की धुन जारी रहती है।अलग – अलग स्थान पर लोग इच्छानुसार कर सेवा करते रहते हैं। सभी शांति से दर्शन करते हैं। ठेलमठेल कभी दिखाई नहीं देती। लोग कतारों में खड़े होकर नामस्मरण करते दिखते हैं।

सभी लंगर में श्रद्धा से प्रसाद ग्रहण करते हैं। गुरुद्वारे में फूल,माला, नारियल आदि नहीं चढ़ाए जाते। गरम काढ़ा परसाद दिन भर सभी को बाँटा जाता है। हमें यहीं आकर ज्ञात हुआ कि काढ़ा परसाद का अर्थ है कढ़ाही में बनाया गया प्रसाद। हर घर में आटा, घी, गुड़ और पानी ये चारों वस्तुएँ उपलब्ध होती ही थीं। बाद में गुड़ की जगह खंड (शक्कर) का प्रयोग होने लगा। इस तरह भोग चढ़ाकर प्रसाद बाँटने की प्रथा बनी।

आज भी बड़ी मात्रा में काढ़ा प्रसाद ही बाँटते हैं। एक बार आप इस शांतिमय परिसर, आनंदमय वातावरण और स्वादिष्ट प्रसाद, सामूहिक लंगर का आनंद लेने गुरुद्वारे  में दर्शन हेतु अवश्य अवश्य जाएँ।

वाहे गुरु दा खालसा

वाहे गुरु दी फतेह।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 48 ⇒ उल्लू की दुम… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “उल्लू की दुम”।)  

? अभी अभी # 48 ⇒ उल्लू की दुम? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

इंसानों को न तो पूछ ही होती है और न ही दुम, फिर भी जब मौका आने पर अगर भागने की जरूरत पड़ी तो वह, मूंछ पर ताव देकर नहीं , दुम दबाकर ही भाग जाता है। वह तब क्या किसी से दुम उधार लेता है, क्या बाजार में कोई दुम की दुकान भी है।क्या दुम किसी गाड़ी का एक्सीलेटर है, जो दबाया और भाग मिल्खा भाग।

जल्दी में हमें भी कभी ऐसी परिस्थिति में दुम दबाकर भागना होता था, तो हम भी, न आव देखते थे न ताव, किसी दोस्त की गाड़ी, जाहिर है लोग, साइकिल ही देते थे, बसंती की तरह ये भाग और वह भाग।।

सुना है दो पायों की दुम होती है और चारपायों की पूंछ। पूंछ लंबी केवल ऊंट की ही नहीं होती। होती ही है, होती ही है, हाथी की भी पूंछ लंबी। ईश्वर ने सभी चौपायों को पूंछ का वरदान दिया है, मल्टीपरपज tail। एक तरह की झाड़न, मक्खी मच्छरों और जीव जंतुओं को पूंछ से आसानी से बुहारा जा सकता है। इज़्ज़त ढांकने का कितना शालीन और सरल उपयोगी उपहार है यह पूछ। हम तो पहले जेब से रूमाल निकालेंगे, फिर नाक भौं सिंकोडेंगे और पश्चात् बड़ी आसानी से तशरीफ रखेंगे, मानो धरती माता पर अतिरिक्त बोझ नहीं डालना चाहता यह भारत माता का सपूत।

उसे बुरा तब लगता है, जब अचानक ही कोई उसे उल्लू की दुम कह देता है।

वह शरीफ आदमी रात को जल्दी सोने वाला, प्रातः जल्दी उठने वाला, रोज लक्ष्मी जी की पूजा करने वाला, लेकिन इसका कभी किसी उल्लू से पाला ही नहीं पड़ा। फिर वह उल्लू की दुम कैसे हो गया। बहुत मंथन करने पर यही निष्कर्ष निकला, कि यह किसी उल्लू के पट्ठे की ही कारस्तानी है।।

जागने को तो एक चौकीदार भी रात भर जागता है, वफादार कुत्ता भी रात भर जागकर रखवाली करता है, लेकिन उल्लू तो केवल किसी भी डाल पर रात भर, एक ही स्टेच्यू पोस्टर में ध्यानमग्न बैठा रहता है।

अनजान लोग भले ही उल्लू को मनहूस समझें, जानकार लोग जानते हैं, वह लक्ष्मी जी का वाहन है। लक्ष्मी जी कुबेर पुत्रों के यहां वार त्योहार पर अपने उलूक वाहन पर ही सवार होकर जाती है।

हर भक्त अपने इष्ट, आराध्य के साथ उसके वाहन की भी पूजा अर्चना करता है। साहब अथवा मैम साहब का कोई साधारण ड्राइवर। नहीं होता उल्लू, वह लक्ष्मी जी का वाहन है। हर समझदार व्यक्ति को उल्लू साधते आता है। तब ही जाकर महालक्ष्मी सदा प्रसन्न रहती है।।

बेचारा गधा, बस यहीं मार खा गया, चूहे तक पर विशालकाय गणपति विराजमान हो गए, लेकिन बेचारा गधा, गधा का गधा ही रहा। इसका कुछ नहीं हो सकता।

काश इंसान में थोड़ी अक्ल होती तो वह इन वाहनों के जरिए अपने इष्ट को प्रसन्न कर लेता। हम नंदी का पूजन करते हैं, ताकि भोलेनाथ प्रसन्न हों लेकिन हम चाहते तो हैं कि लक्ष्मी हमारे द्वारे आए, दीपावली पर हम द्वार खुले भी रखते हैं, कभी उलूक महोदय को भी कुछ चाय पानी मिल जाता, तो देवी शायद कोई वरदान ही दे देती।।

हमारा हर बोला गया शब्द हमारा कल्याण भी कर सकता है और हमारा काम बिगाड़ भी सकता है। हम जब जाने अनजाने, आवेश में जब किसी को गधा, उल्लू और पाजी बोलते हैं, तो क्या आप सोचते हैं, लक्ष्मी प्रसन्न होती है, लो, दो हजार के नोट पर गाज गिर ही गई।

हर प्राणी में ईश्वर का वास होता है, क्या पता कौन प्राणी किस देवता का वाहन निकल जाए।।

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© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 138 – “नासै रोग हरे सब पीरा. . .” – पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

 

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है पं अनिल कुमार पाण्डेय जी की पुस्तक  “नासै रोग हरे सब पीरा” पर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 138 ☆

☆ “नासै रोग हरे सब पीरा. . .” – पं अनिल कुमार पाण्डेय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

नासै रोग हरे सब पीरा. . .

श्री हनुमान चालीसा की विस्तृत विवेचना

लेखक – पं अनिल कुमार पाण्डेय

आसरा ज्योतिष केंद्र, साकेत धाम कालोनी, मकरोनिया, सागर

मूल्य २५० रुपये, पृष्ठ १८४, प्रकाशन वर्ष २०२३

☆ श्री हनुमान चालीसा की यह विस्तृत विवेचना अपूर्व है. पठनीय है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

गोस्वामी तुलसीदास सोलहवीं शती के एक हिंदू कवि-संत और दार्शनिक थे. उन्होंने भगवान राम के प्रति अपनी अगाध भक्ति के लिए प्रसिद्ध हैं. तत्कालीन आक्रांताओ से पीड़ित भारतीय सामाजिक स्थितियों में उन्होंनें समकालीन भक्ति धारा में रामचरित मानस जैसे वैश्विक ग्रंथ की रचना कर लोक भाषा में की. उनकी लेखनी के प्रभाव से हिन्दू धर्मावलंबी राम नाम का आसरा लेकर तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी जीवंत बने रहे. यही नही जब गिरमिटिया देशो में भारतीयो को मजदूरों को रूप में ले जाया गया तो मानस जैसे ग्रंथों के कारण ही परदेश में भी भारतीय संस्कृति और राम कथा का विस्तार हुआ. आज भी यह इन सूत्र भारत को इन राष्ट्रों से जोड़े हुये है.

इस कृति में पंडित अनिल पांडेय जी तर्क सम्मत तथ्य रखते हैं की हनुमान चालीसा की रचना तुलसीदास जी ने गुरु सानिध्य में की थी यद्यपि किवदंति है कि एक बार अकबर ने गोस्वामी जी का प्रताप सुनकर उन्हें अपनी राज सभा में बुलाया और उनसे कहा कि मुझे भगवान श्रीराम से मिलवाओ. तुलसीदास जी ने उत्तर दिया कि भगवान श्री राम केवल अपने भक्तों को ही दर्शन देते हैं. यह सुनते ही अकबर ने गोस्वामी तुलसीदास जी को कारागार में बंद करवा दिया.

कारावास में ही गोस्वामी जी ने अवधी भाषा में हनुमान चालीसा की रचना की. जैसे ही हनुमान चालीसा लिखने का कार्य पूर्ण हुआ वैसे ही पूरी फतेहपुर सीकरी को बन्दरों ने घेरकर धावा बोल दिया. अकबर की सेना बन्दरों का आतंक रोकने में असफल रही. तब अकबर ने किसी मन्त्री के परामर्श को मानकर तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त कर दिया. जैसे ही तुलसीदास जी को कारागार से मुक्त किया गया, बन्दर सारा क्षेत्र छोड़कर वापस जंगलो में चले गये. इस अद्भुत घटना के बाद, गोस्वामी तुलसीदास जी की महिमा दूर-दूर तक फैल गई और वे एक महान संत और कवि के रूप में जाने जाने लगे.

श्री हनुमान चालीसा अवधी में लिखी एक लघुतम काव्यात्मक कृति है. इसमें प्रभु श्री राम के महान भक्त एवं सदा हमारे साथ जीवंत स्वरूप में विद्यमान श्री हनुमान जी के गुणों एवं कार्यों का मात्र चालीस चौपाइयों में विशद वर्णन है. इस लघु रचना में पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर विनय स्तुति व भावपूर्ण वन्दना की गई है. हनुमान चालीसा में प्रभु श्रीराम का व्यक्तित्व भी सरल शब्दों में वर्णित है. अजर-अमर भगवान हनुमान जी वीरता, भक्ति और साहस की प्रतिमूर्ति हैं. शिव जी के रुद्रावतार माने जाने वाले हनुमान जी को बजरंगबली, पवनपुत्र, मारुतीनन्दन, केसरी नन्दन, महावीर आदि नामों से भी जाना जाता है. हनुमान जी का प्रतिदिन ध्यान करने और उनके मन्त्र जाप करने से मनुष्य के सभी भय दूर होते हैं. श्री हनुमान चालीसा अवधी भाषा में लिखे गये सिद्ध मंत्र ही हैं. जिनका पाठ समझ कर, या श्रद्धापूर्वक बिना गूढ़ार्थ समझे भी जो भक्त करते हैं उन्हें निश्चित ही मनोवांछित फल प्राप्त होते देखा जाता है.

ऐसी सर्वसुलभ सहज सूक्ष्म चालीसा की बहुत टीकायें नही हुई हैं. गीत संगीत नृत्य चित्र आदि विविध विधाओ में श्री हनुमान चालीसा को भक्ति भाव से समय समय पर विविध तरह से अवश्य प्रस्तुत किया गया है. विद्वान कथा वाचकों ने जीवन मंत्रों के रूप में अपने प्रवचनो में हनुमान चालीसा के पदों की व्याख्यायें अपनी अपनी समझ के अनुरूप की हैं. श्री बागेश्वर धाम के पं धीरेंद्र शास्त्री जी तो श्री बालाजी हनुमान जी की ही महिमा प्रचारित कर रहे हैं. मैंने कुछ विद्वानो को मैनेजमेंट की शिक्षा के सूत्रों के साथ श्री हनुमान चालीसा के पदों से तादात्म्य बनाकर व्याख्या करते भी सुना है. सच है जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखि तिन तैसी. स्वयं मैंने विश्व में जहां भी मैं गया श्री हनुमान चालीसा के जाप मात्र से सकारात्मक प्रभाव अनुभव किया है.

पं अनिल कुमार पाण्डेय सचमुच हनुमत चरण सेवक हैं. वे आजीवन मानस, वाल्मीकी रामायण, यथार्थ गीता, भगवत गीता, पुराणो, ज्योतिष के ग्रंथो, गुरु ग्रंथ साहब आदि आदि महान ग्रंथो के अध्येता रहे हैं. “नासै रोग हरे सब पीरा. . . ” नाम से उन्होंने श्री हनुमान चालीसा के प्रत्येक पद, प्रत्येक शब्द की सविस्तार व्याख्या करते हुये इन सभी ग्रंथों से प्रासंगिक उद्धवरण देते हुये विवेचना की है. अनेक कवियों ने जिनमें मेरे पिताजी पूज्य प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव जी ने भी हनुमत स्तुतियां रची हैं. भगवान हनुमान जी पर मैंने श्री अमरेंद्र नारायण जी, श्री सुशील उपाध्याय जी, की किताबें पढ़ी हैं. मैं दावे से कह सकता हूं कि पं अनिल कुमार पाण्डेय जी द्वारा की गई श्री हनुमान चालीसा की यह विस्तृत विवेचना अपूर्व है. पठनीय है. मनन करने को प्रेरित करती है. पाठक को चिंतन की गहराई में उतारती है. प्रायः हिन्दू परिवारों में स्नान के उपरांत प्रतिदिन लोग श्री हनुमान चालीसा का पाठ करते हैं. बहुतों को यह कंठस्थ है. नये इलेक्ट्रानिक संसाधनो यू ट्यूब आदि के माध्यम से मंदिरों में श्री हनुमान चालीसा गाई बजाई जाती है. धार्मिक मूढ़ता और राजनैतिक उन्माद में श्री हनुमान चालीसा को अस्त्र के रूप में प्रयोग करने से भी लोग बाज नहीं आ रहे. मेरा सदाशयी आग्रह है कि एक बार इस पुस्तक का गहन अध्ययन कीजीये, स्वतः ही जब आप गूढ़ार्थ समझ जायेंगे तो विवेक जागृत हो जायेगा और आप श्री हनुमान चालीसा जैसे सिद्ध मंत्र का श्रद्धा भक्ति और भावना से सकारात्मक सदुपयोग करेंगें तथा श्री हनुमान चालीसा के अवगाहन का सच्चा गहन आनंद प्राप्त कर सकेंगे. 

खरीदिए और पढ़िये किताब अमेजन पर सुलभ है. aasra. jyotish@gmail. com पर आप लेखक से सीधा संपर्क भी कर सकते हैं. जय जय श्री हनुमान.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 158 – बेघर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बेघर ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 15 ☆

☆ लघुकथा 🏚️ बेघर 🏚️

अपनी मां के साथ वेदिका एक किराए के मकान में रहती थी। मां और बिटिया की कमजोरी को देखते हुए हर जगह से उन्हें निकाल दिया जाता था और फिर दूसरे किराए के मकान में, झुग्गी झोपड़ी बनाकर रहना पड़ता था।

बचपन उसका कैसे बीता उसे ठीक से याद नहीं। थोड़ा संभलने पर समझ में आ गया उसे कि सारे रिश्ते नाते केवल पैसों का खेल होता है। पिताजी की मृत्यु के बाद कोई भी रिश्तेदार यह पूछने नहीं आया कि तुम मां बेटी कैसे अपना गुजारा करती हो या फिर किसी चीज की आवश्यकता को हम पूरा कर सकते हैं क्या? किसी तरह से वेदिका ने दसवीं की पढ़ाई कर ली गणित में  कंप्यूटर जैसा दिमाग पाई थी।

सिटी के एक किराने दुकान पर हिसाब किताब, समान का लेनदेन के लिए नौकरी करने लगी।

धीरे-धीरे यह यौवन की दहलीज चढ़ते जा रही थी। दुकानदार भी देख रहा कि वेदिका के समान लेनदेन से उसकी दुकान पर बहुत भीड़ होने लगी है। उसने एक दिन वेदिका से कहा.. अब तुम्हें कुछ और काम कर लेना चाहिए।

वेदिका इन बातों से अनजान दो-तीन वर्षों से उसके यहां काम कर रही थीं। उसने सोचा सेठ जी मुझे कुछ अच्छा काम करने के लिए कह रहे होंगे। उसने कहा ठीक है सेठ जी जैसा आप उचित समझे परंतु मुझे इस जोड़ घटाव हिसाब किताब में बहुत अच्छा लगता है। मुझे यही रहने दीजिए। सेठ जी ने कहा एक बार काम देख लो बाकी तुम्हें भी अच्छा लगेगा। मेरे यहां भी काम करते रहना। तुम्हारे लिए रहने का ठिकाना भी बन जाएगा और तुम बेघर होने से बच जाओगी। आराम से गुजर बसर करोगी अपनी माँ के साथ।

वेदिका उस जगह पर पहुंच गई। जहाँ सेठ जी ने बुलाया था। घर तो बड़ा खूबसूरत था।

सभी सुख-सुविधाओं का सामान दिख रहा था। सेठ जी के साथ चार व्यक्ति और भी बैठे हुए थे। जो देखने में अच्छे नहीं लग रहे थे परंतु वेदिका ने सोचा मुझे इससे क्या करना है मुझे तो अपना काम करना है। तभी सेठ ने कहा.. वही वेदिका है जो अब आप लोगों के साथ काम करेगी। सेठ के हाव भाव को देखकर वेदिका को अच्छा नहीं लगा। वेदिका ने कहा मुझे काम क्या करना है। सभी सेठ ने बाहर निकलते हुए कहा.. बाकी बातें अब यह बता देंगे।

वेदिका को समझते देर नहीं लगी कि वह बिक चुकी है। उसने बहुत ही धैर्य से काम की और बोली मैं अपना कुछ सामान बाहर छोड़ कर आ गई हूं। लेकर आती हूं। जैसे ही वह बाहर निकलना चाहा। किसी ने हाथ पकड़ापरंतु वेदिका की चुन्नी हाथ में आई।

और वेदिका दौड़ते हुए मकान से बाहर निकल चुकी थी। दौड़ते दौड़ते  माँ के पास आकर आँचल में छुप गई माँ को समझते देर न लगी। वह वेदिका  के सिर पर हाथ रखते हुए बोली बेटी हम बेघर ही सही बेआबरू नहीं है।

चल कहीं और चलते हैं यहां से दाना पानी उठ चुका है। वेदिका ने देखा माँ की कमजोर आंखों में एक अजीब सी चमक उठी है और मानों कह रही हो अभी तुम्हारी माँ का आँचल है तुम बेघर नहीं हुई हो।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 35 – देश-परदेश – शिकागो शहर (स्वामी विवेकानंद – राजा भास्कर सेतुपति, रामेश्वरम) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 35 ☆ देश-परदेश – शिकागो शहर (स्वामी विवेकानंद – राजा भास्कर सेतुपति, रामेश्वरम) ☆ श्री राकेश कुमार ☆

स्वामी विवेकानंद द्वारा शिकागो की धर्म संसद में दिए गए भाषण की 11 सितंबर को 129वीं जयंती है।

आज जब पूरा देश स्वामी विवेकानंद को याद कर रहा है। इस अवसर पर  स्वामी विवेकानंद को शिकागो भेजने वाले और उनकी पूरी अमेरिका और यूरोप की ट्रिप स्पॉन्सर करने वाले भास्कर सेतुपति को याद करते हैं।

भास्कर सेतुपति रामेश्वरम के निकट रामानंद या रामेश्वरपुरम रियासत के राजा थे। सेतुपति पदवी उनके पूर्वजों से मिला था जो सेतु यानि पुल के रखवाले थे। राजा भास्कर सेतुपति के पूर्वजों ने राम सेतु की रक्षा का दायित्व अपने ऊपर ले रखा था।

जब रामेश्वरम के राजा भास्कर सेतुपति को पता चला कि स्वामी विवेकानंद जी शिकागो की धर्म संसद में जाना चाहते हैं और उनके पास जाने की व्यवस्था नहीं है। तब राजा  भास्कर सेतु पति ने उनकी पूरी यात्रा के व्यय का वहन करने का बीड़ा उठाया।

स्वामी विवेकानंद अपनी 4 साल की यात्रा के बाद 1897 में लौटे तो उन्होंने सबसे पहला कदम राजा भास्कर सेतुपति के राज्य में ही रखा, जहां भास्कर सेतुपति ने स्वामी विवेकानंद की सफल यात्रा के उपलक्ष में एक 40 फ़िट ऊंचा कीर्ति स्तम्भ बना रखा था, जिसके नीचे उन्होंने लिखवाया था….”सत्यमेव जयते”, यही वाक्य बाद में भारत सरकार का अधिकारिक सूक्ति बना।

भास्कर सेतुपति स्वामी विवेकानंद के इतने अनन्य शिष्य थे कि 1902 में स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के बाद उन्हें ऐसा सदमा लगा कि अगले ही वर्ष 1903 में महज़ 35 वर्ष की आयु में अपने प्राण त्याग दिए।

बंगाल में जन्मे स्वामी विवेकानंद के प्रति तमिलनाड के राजा की ये अनन्य भक्ति बताती है कि उस समय भी जब न इंटरनेट था, न टी वी, न रेडियो और अख़बार भी इतने सहज उपलब्ध न थे, तब भी भारतवासी एक दूसरे से जुड़े हुए थे, और आज इतना सब होने के बाद सिर्फ़ 75 सालों में हमने भाषा, संस्कृति, रीति रिवाजों के चक्कर में आपस में कितनी दूरियाँ बना ली हैं।

स्वामी विवेकानंद के साथ उनके ज्ञान और हमारी भारतीय संस्कृति को सवा सौ साल पहले पूरी दुनिया से अवगत कराने के माध्यम भास्कर सेतुपति को भी नमन…

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #189 ☆ काचेचे घर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 189 ?

☆ काचेचे घर… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तुझ्या स्मृतीचा मेघ मनातून जातच नाही

मेघामधुनी बरसत आता प्रेमच नाही

समृद्धीच्या प्रदूषणाचा खूप धुराळा

श्वास मोकळा घेता येथे येतच नाही

जुनी तोडली नवीन झाडे लावत आहे

नवीन झाडे तशी सावली देतच नाही

लाज झाकण्या जावे कोठे काचेचे घर

अशा घराला कुठे लाकडी दारच नाही

ध्यानधारणा करावयाला शिकलो आता

मनात साचत अहमपणाचा केरच नाही

वादळ झाले फांदीवरचे पान गळाले

दूर उडाले पुन्हा जन्मभर भेटच नाही

तू अश्रुंची फुले उधळली आहे ज्यावर

खरे सांगतो ते तर माझे प्रेतच नाही

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “किल्ला” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “किल्ला” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

जमवून पोरांचा तो गलका

जणू अभेद्य किल्ला बांधावा

उभा करून माहोल दोस्तीचा

वाटते पुन्हा तो कल्ला करावा ।

 

खांद्यांवर त्या हात टाकून

मनावरचा भार हलका करावा

तिची अधुरी कहाणी सांगून

वाटते पुन्हा तो कल्ला करावा ।

 

बिल्डिंगच्या गच्चीत उमललेली

ती कौतुकाने पाहणारी सूर्यफूले

सुगंध त्यांचा अनुभवायला

वाटते पुन्हा तो कल्ला करावा ।

 

गॅलरीत उभ्या गरिबाच्या श्रीमंतीशी

संवाद भरल्या डोळ्यांनी करावा

करत निश्चय मोठं होण्याचा

वाटते पुन्हा तो कल्ला करावा ।

 

करून त्याग या सुन्या महालाचा

रात्रीचा तो कट्टा जागवावा

तुटलेल्या त्या पहारी घेऊन

पुन्हा एकदा किल्ला बांधावा ।

 

© श्री आशिष मुळे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ गंधवेडा… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर

🌸 विविधा 🌸

☆ गंधवेडा… ☆ सुश्री वृंदा (चित्रा) करमरकर ☆

गंधवेडा, सुरम्य वैशाख,☀️🌾

🌹वैशाख  फुलांचा दरवळ

     वैशाख  रंगांची प्रभावळ

    वैशाख  सुरावलींची मैफल

     वैशाख  सूर्याची तेजावळ

आज भल्या पहाटेच जाग आली.मी बेडवर उठून बसले.एवढ्यात खिडकीतून वाऱ्याची हलकीशी झुळूक आली. पण ती गंधित होती. मला जाणवले हा तर मदनबाणचा गंध. अरे वा, माझा मदनबाण फुलला का? थोड्या वेळाने उजाडलं आणि पाहिलं माझ्या बाल्कनीत मी हौसेनं लावलेला मदनबाण फुलू लागला होता. आता चार फुले फुलली. मला फार आनंद झाला आणि प्रकर्षानं एक गोष्ट जाणवली अरे वैशाख मास अगदी जवळ आला.

मदनबाण हा वैशाख महिन्याचा मानबिंदू.मोगरा, सायली जाई जुई, चमेली आणि हा मदनबाण या महिन्यात उच्च कोटीच्या सुंगधाची उधळण करीत असतात.

वास्तविक या महिन्यात कडक उन्हं असतात.सूर्याचे तीव्र तेजस्वी शर बरोबर आपल्यावर संधान साधून असतात. रवीराजाचं हे तेजस्वी रुप फार प्रखर तेजानं झळकत असते.दिवस मोठे होऊ लागतात. कडक उन्हं. त्यात गंधाची उधळण. रंगांची आपसातील चढाओढ. काय कमालीचं रंगतदार वातावरण असते.गुलमोहोर अगदी आतून रंगबावरा होतो. तर बहावा सोनपिवळ्या कळ्याफुलांची झुंबरं अंगांगावर मिरवत असतो. अगदीबांधा वरच्या  बाभळीला ही फुलायचे वेड लागते.तिची गोंड्यासारखी पूर्ण केसरयुक्त गोल गोंडस फुलं अंगभर लेवून ती अगदी पूर्ण सौंदर्यानिशी दिमाखात  उभी असते.

या सर्व गडबडीत पक्षीही मागे नसतात.कारण काही घरटी बांधण्यात मग्न,काही घरट्यातील पिलांना भरवण्यात दंग.कोकिळा बरोबर आता वैशाखात बुलबुल पक्ष्यांचा गळा खुला झालेला असतो आणि त्यांच्या सुरेल मनभावन ताना मनाला तरतरी देतात.खरंतर बुलबुल पक्ष्यांच्या मुखातून वसंतच गातो असे वाटते.

वैशाख महिन्यात निसर्ग गंधाळतो,रंगतो,तसाच हा  व्रतस्थ महिनाही आहे. परम पावन असा हावैशाख महिना पुण्यप्रद आहे.या महिन्यात भगवान विष्णू, परशुराम यांचा जन्मझालाअसेम्हणतात.म्हणून या महिन्यात भगजोवान, विष्णू लक्ष्मी, भगवान परशुराम यांचे पूजन केले जाते.पूर्ण वैशाख महिना सूर्याला अर्घ्य (जल)देतात, नदी, सरोवरात स्नान करतात.तसेच उत्तराखंड येथील परमपावन  बद्रिनाथ मंदिराचा दरवाजा या महिन्यात  वैशाख शुद्ध तृतीया म्हणजेच अक्षय तृतीयेला उघडला जातो.जगन्नाथ पुरी येथील रथयात्रा याच महिन्यात शुद्ध व्दितीयेला निघते.शुध्द नवमीला सीता भूमीतून प्रकट झाली अशी मान्यता आहे.या महिन्यात पौर्णिमेला अनन्यसाध़ारण महत्व आहे. तो दिवस बुध्द जयंती म्हणूनच साजरा केलाजातो.वैशाखातील एकादशी ही मोहिनी कादशी. समुद्रमंथनावेळी अमृत निघाले. त्यावेळी विष्णूंनी मोहिनी रुप घेतले ते याच दिवशी.अशा रीतीने वैशाख हा व्रतांचा, दानाचा सुद्धा महिना आहे. या महिन्यात जलदानाचे महत्त्व आहे. वाटसरूंसाठी रस्त्याच्या कडेला मातीच्या घड्यात पाणी ठेवले जाते. तसेच पाणपोया सुरु केल्या जातात. आपल्या पितरांना शांती मिळावी म्हणून हे जलदान करण्यात येते.

वैशाखातील रात्री या हव्याशा वाटतात. चांदण्यांचे तेज जरी थोडेफार मंदावले असले तरी दिवसभराच्या तलखी नंतर गारवा देणाऱ्या रात्री सुखद वाटतात.पण पौर्णिमेला तर सौंदर्याचा अत्युच्च बिंदू चंद्राच्या चांदण्यानं गाठलेला असतो.अगदी अंतर्गर्भाला सादावणारी ही प्रसन्न पौर्णिमा म्हणजे स्वर्गीय सुख. रातराणी, मोगऱ्याच्या गंधानं भारावलेली, शांत हवीशी.

वसंताच्या गंधसृष्टीचे पूर्ण वैभव वैशाखातच असते.अगदी फुलांच्या गंधाचा परम उत्कर्ष याच महिन्यातला.जे जे वसंत ऋतूचे आहे त्याला पूर्णत्व आणि विराम देण्याचे कामही चैत्र सखा या नात्याने वैशाखास पूर्ण करावे लागते. वास्तविक सौंदर्याची ही विकलावस्था धीरोदात्तपणे वैशाख पाहतो. त्यामानाने चैत्र हा मनाने अतिशय हळवा वाटतो. सौंदर्याची ही अवस्था, ही विपन्नावस्था चैत्र बघू शकणार नसतो पण ते काम    वैशाख पूर्ण करतो कारण त्याला ज्येष्ठाच्या   मदतीने  सृष्टीचा नूर आणि  तोल सांभाळायचा असतो. अगदी झाडाची पाने सुद्धा टपटप गळताना तो पाहतो.तर असा हा गंधवेडा,सुरम्य आणि रुपरंगाचा चाहता,सौंदर्यासक्त, तसाच व्रतस्थ,आणि  धीरगंभीर स्वभावाचा कर्तव्यदक्ष वैशाख.याचं मोठेपण अगदी मनाला भावून जातं.

       वैशाख सुरम्य मनभावन

       गंधवेडा रंगूनी  तनमन

       स्वरवेडा हा हरपून भान

      परी हा कर्तव्य परायण

© वृंदा (चित्रा) करमरकर

सांगली

मो. 9405555728

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ देणाऱ्याने देत जावे…– भाग- १ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली ☆

श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

? जीवनरंग ❤️

☆ देणाऱ्याने देत जावे…– भाग- १ ☆ श्री व्यंकटेश देवनपल्ली

सुजाता दारातच उभी राहून कुणाशी तरी बोलत होती, “काय काम काढलंस? त्यांनी बोलवलं होतं काय?” तिच्या या प्रश्नावर दबल्या आवाजात तो माणूस काही तरी सांगत होता. 

“ते बॅंकेतून रिटायर झाले म्हणून काय झालं, एवढे पैसे काय घरात असतात होय?” सुजाताचं बोलणं तेवढं सतीशच्या कानावर आलं. 

“ठीक आहे वहिनी, फक्त साहेबांना एकदा भेटून जातो.” असं म्हटल्यावर सुजाताने त्या गृहस्थाला आत बसायला सांगून सतीशला आवाज दिला, “अहो, ऐकलंत काय, जावेद आला आहे तुम्हाला भेटायला.”  सुजाता आत निघून गेली.   

सतीश दिवाणखान्यात येताच जावेद पटकन उठून उभा राहिला. सतीशने त्याला खुणेनंच बसायला सांगितलं आणि लगेच विचारलं, “किती पैसे हवे आहेत तुला?” 

त्यानं चमकून वर पाहिलं. सतीश हळूच म्हणाला, “मी ऐकलं आहे सगळं. किती हवे आहेत सांग.” 

इकडे तिकडे पाहत तो हळूच बोलला, “साहेब, पाच हजार रूपयाची नड आहे. मुलाला दवाखान्यात अ‍ॅडमिट करावं लागेल. तापानं फणफणला आहे तो. काल भारत बंद असल्याने माझा चेक वटला नाही. उद्या संध्याकाळी सात वाजेपर्यंत तुमचे पैसे परत करतो.” 

सतीश पटकन आत गेला. पैसे आणून त्याने जावेदच्या हातात ठेवले. जावेदही तेवढ्याच घाईत निघून गेला.

हा सगळा प्रकार सुजाताच्या लक्षात यायला वेळ लागला नाही. ती कमरेला पदर खोचत बाहेर येत म्हणाली, “काय हो, हा जावेद चार वर्षापूर्वी आपल्याकडे फर्निचरचं काम करून गेला होता ना ! त्यानंतर आजच दिसला. आजवर त्याने कितीतरी ठिकाणी कामं केली असतील. पण पैशासाठी त्याला तुमचाच भाबडा चेहरा बरा आठवला. आणि बघाच तुम्ही, उद्या तो तुमचे पैसे परत करायला फिरकणारच नाही. मी अगदी खात्रीने सांगते.” सतीशने तिचं बोलणं ऐकून न ऐकल्यासारखं केलं.

सतीशच्या फ्लॅटमध्ये जेव्हा फर्निचरचं काम करायचं होतं, तेव्हा जावेद पहिल्यांदा सतीशला भेटला होता. त्यानं एकंदर पंचेचाळीस हजाराचं एस्टिमेट सांगितलं होतं. काटेकोर मोजमापासहित आयएसआय मार्कचा कुठला प्लाय, कुठले लॅमिनेशन वापरणार हे सगळं सतीशला त्यानं समजावून सांगितलं. जावेद त्याच्या एस्टिमेटवर ठाम होता. सतीशला बजेट जास्त वाटत होतं म्हणून विचार करीत होता.  

जावेद म्हणाला, “साहेब, विश्वास ठेवा माझ्यावर, काम अगदी चोख करून देईन. दोन चार हजाराकडे पाहू नका. निकृष्ट दर्जाचे मटेरियल वापरून हेच काम तीस हजारात देखील होईल. मला क्वालिटीत तडजोड करायला आवडत नाही. या उपर तुमची मर्जी !” 

सतीश पटकन म्हणाला, “अरे त्याचं काही नाही. माझं बजेटच तीस हजाराचं आहे.” 

“साहेब उरलेले पंधरा हजार दोन चार महिन्यानंतर तुमच्या सवडीने द्या, मी अ‍ॅडजस्ट करीन.” 

फर्निचरच्या कामामुळे सतीशच्या घरातल्यांची कसलीही गैरसोय झाली नाही. जावेदने सगळी मापं काटेकोरपणाने घेतलेली होती. त्यानं सगळं वूडवर्क बाहेरच करून घेतलं. एका रविवारी येऊन फिटींग आणि लॅमिनेशन करून गेला. सतीशने देखील राहिलेले पैसे जावेदला लगेच देऊन टाकले. जावेदने काम सुरेखच केलं होतं. 

थोड्याच वेळात सुजाता सतीशच्या समोर चहाचा कप ठेवत म्हणाली, “तुम्हाला आठवतं का, मध्यंतरी तुमच्या नात्यातला कुणी तरी आठवड्यात देतो म्हणून दोन हजार रूपये घेऊन गेला, परत फिरकलाच नाही. आता कुठल्याही कार्यक्रमात दिसला तरी तो न तुम्हाला ओळख दाखवतो न मला. तुमच्या एका मित्राचा जावई ‘लगेच परत करतो’ म्हणून एक हजार रूपये घेऊन गेला. फिरकला का तो इकडे?” 

सतीश शांतपणे सुजाताला म्हणाला, “हे बघ, हे पैसे परत येणार नाहीत, हे समजून उमजूनच मी दिले होते. आपल्याकडून त्यांना केलेली ही एक नगण्य मदत आहे असं समज, हे तुला त्यावेळीच बोललो होतो. तुला ती कविता आठवतेय का? ‘देणाऱ्याने देत जावे घेणाऱ्याने घेत जावे, घेता घेता एक दिवस देणाऱ्याचे हात घ्यावे !’”

सुजाता पटकन म्हणाली, “ते कवी महाशय असं का म्हणाले मला मुळात तेच कळलेलं नाहीये. देणारा देतो आहे तर घेणाऱ्याने त्याचे हात सुद्धा कशाला घ्यावेत? त्याचे हात त्यालाच राहू द्यावेत ना !” 

सतीश हसत हसत म्हणाला, “अगं, देणाऱ्याचे हात घ्यावे म्हणजे त्या देणाऱ्या माणसाची दानत घ्यावी आणि घेणाऱ्यांनी देखील कुणाला तरी देत जावे असा त्याचा अर्थ आहे.”

“ते असू द्या, पण हा जावेद तुमचा कोण लागतो बरं?” 

या तिच्या प्रश्नावर सतीश म्हणाला, “अग, जावेद आणि माझ्यात कसलंही नातं नाही हे खरं असलं तरी किमान माणुसकीचं नातं तरी आहे ना? तूच म्हणालीस ना, त्याला तुमचाच भाबडा चेहरा का आठवला म्हणून? कदाचित जावेदने माझ्यात माणुसकीचा ओलावा पाहिला असेल म्हणून तो माझ्याकडे आलाय… 

सुजा, अग पैसे उसने मागण्यासाठी मुलगा आजारी आहे असं कारण कुणी सांगेल का? क्षणभर समज, तो खोटेही सांगत असेल. ते खोटंच आहे असं मी कशाला समजू? कदाचित खरं देखील असेल. एक वेळ बेगडी श्रीमंती दाखवता येईल पण सच्चेपणा कसा दाखवता येईल? ती सिध्दच करावी लागते. गरिबांच्यावरच विश्वास टाकता येतो याचा प्रत्यय मला खूप वेळा आलेला आहे….. एका कवीने किती छान सांगितले आहे, ‘ज्यांची बाग फुलून आली, त्यांनी दोन फुले द्यावीत. ज्यांचे सूर जुळून आले त्यांनी दोन गाणी द्यावीत. आभाळाएवढी ज्यांची उंची, त्यांनी थोडे खाली यावे. मातीत ज्यांचे जन्म मळले, त्यांना थोडे उचलून घ्यावे !’ .. कळलं?”   

“सगळ्यांना मदत करायला आपण काही धनाढ्य लागून गेलो नाही. जग हे या कवींच्यामुळे चालत नाही. माणूस थोडा व्यवहारीदेखील असावा लागतो.” असं बडबडत सुजाता आत गेली.

— क्रमशः भाग पहिला 

© श्री व्यंकटेश देवनपल्ली.

बेंगळुरू

मो ९५३५०२२११२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ सोनेरी शिक्षा…  सुश्री संजीवनी बोकील☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

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सोनेरी शिक्षा…  सुश्री संजीवनी बोकील☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर ☆

मधली सुट्टी झाली होती. डबे खाणं संपवून काही मुलं खेळायला लागली होती. हॉलच्या पायरीवर बसलेल्या मायाकडून वडापाव घेण्यासाठी गर्दी झाली होती. मुलींचे घोळके कट्ट्यावर बसून गप्पा मारू लागले होते.मधली सुट्टी देते तो आनंदविसावा सगळ्या पटांगणात पसरून राहिला होता.

स्टाफरूममध्ये आम्हा टीचर्सच्या गप्पा रंगात आल्या होत्या.चहाच्या कपाबरोबर काही राजकारणाच्या गप्पाही तोंडी लावल्या जात होत्या. मीही चहा संपवून कपाटातल्या माझ्या कप्प्यातून प्रगतीपुस्तके काढून घ्यायला उठले होते एवढ्यात पाचवीतली एक मुलगी रडत रडत आत आली. “बोकील बाई कुठेत?” असं विचारत. तिच्या हातात एक चेपलेला लहानसा अल्युमिनियमचा डबा होता. मी तिला घेऊन बाहेर गेले. बाहेरच्या  पायरीवर बसले, तिला शेजारी बसवलं.तिचे हुंदके थांबत नव्हते. तिला शांत करायचा प्रयत्न करीतच मी तिच्या रडण्याचं कारणही विचारायचा प्रयत्न करत होते. पाचवीतली ही मुलगी माझ्याकडे का आलीय ते मला कळत नव्हतं कारण छोट्या वर्गांना मी कधीच शिकवत नव्हते.

हळूहळू तिचे हुंदके थांबले आणि तिने हातातला डबा माझ्यापुढे धरला. तो डबा सगळीकडून चेपला होता. कारण विचारल्यावर मला कळले की ती पटांगणाच्या कडेच्या कट्ट्यावर डबा खायला बसली होती आणि खाऊन झाल्यावर खेळायच्या नादात डबा तिथेच विसरली .नंतर आणायला गेली तेव्हा काही मुले तिच्या डब्याचा फूटबॉल करून खेळत होती. तिच्या डब्याची ही अवस्था ज्यांच्यामुळे झाली होती ती माझ्या वर्गातील ,दहावीतील मुले होती. म्हणून ती तक्रार घेऊन माझ्याकडे आली होती.

हे सांगतानाच तिने तो डबा माझ्या हातात दिला आणि त्याची अवस्था बघून मी खरोखर शहारले. “आता  माझी आई मला मारेल बाई, मी आईला काय सांगू?” असं म्हणून ती परत स्फुंदू लागली. मी तो डबा माझ्याकडे घेतला. तिला म्हटले,” आईला सांग की डबा बोकील बाईंकडे आहे आणि जमले तर उद्या संध्याकाळी मला भेटायला या. मग मी त्यांना सगळं सांगेन.”

प्रकरणाची संपूर्ण जबाबदारी मी माझ्या खांद्यावर घेतलेली पाहून पोरीचं टेन्शन सरबतातल्या बर्फासारखं विरघळून गेलं आणि ती डोळे पुसून उड्या मारत जिना चढून तिच्या वर्गात गेली.

माझ्या वर्गावर माझा शेवटचा तास होता. वर्गात जाऊन तो डबा मी टेबलावर ठेवला आणि खुर्चीत बसले. नेहमीप्रमाणे सामूहिक कविता म्हणून झाल्या. आज बाई खुर्चीत कशा बसल्यात याचं आश्चर्य सगळ्या चेह-यांवर दिसत होतं. टेबलवर ठेवलेला डबा पाहून काही मुलं चपापून खाली माना घालून बसलेली माझ्या नजरेला दिसत होती.

कविता संपल्यावर मी डब्याकडे बोट दाखवून  म्हटलं ,” हा पराक्रम ज्यांनी केला आहे त्यांनी शाळा सुटल्यावर मला स्टाफ रूमच्या बाहेर भेटायचं आहे. माझा विश्वास आहे की  यात सामील असलेले सगळे जण तिथे येतील.”

मुलांच्या हातून घडतात त्या बव्हंशी चुका असतात,गुन्हे नाहीत हा माझा विश्वास होता. योग्य पद्धतीने हाताळले तर चुका सुधारू शकतात हा माझा अनुभव होता आणि अजूनही आहे. कधी कधी चुका अनवधानानेही होतात. मुलांना त्यांची बाजू आधी मांडू द्यायला हवी.मग काय तो न्यायनिवाडा! आवाज चढवून डाफरण्याऎवजी, आपण कुठे चुकलो हे मुलांना आतून स्वत:ला कळायला,पटायला,मान्य व्हायला हवं. ते झालं की मग सुधारणेचा मार्ग आपोआप पायाखाली येतो ही माझी श्रद्धा आहे. मुलांच्या चुकीचा पंचनामा भर वर्गात करण्यासारखी घोडचूक नाही आणि मूठभर मुलांना झापण्यात वर्गाचा वेळ वाया घालवण्यासारखा मूर्खपणा नाही असं माझं दृढ मत आहे.त्यानुसारच सारं काही झालं.

शाळा सुटली.स्टाफरूम ब-यापॆकी रिकामी झाली मग  मी बाहेर उभ्या असलेल्या पाच जणांना आत बोलावलं,डबा दाखवला आणि हे तुम्हीच केलंत का विचारलं .ते कबूल झाले पण त्यांचं म्हणणं होतं की डबा तिथे खाली पडला होता. मी म्हटलं,”तुम्ही तो उचलून ऑफिस मध्ये का ठेवला नाहीत? या गोष्टीने मला  फार दु: ख झालं की माझ्या वर्गातल्या मुलांनी हे वाईट कृत्य करावं.तुम्ही डब्याला नव्हे, एका गरीब माणसाच्या  कष्टांना लाथ मारलीत. हा डबा खरेदी करायला जी रक्कम लागली असेल ती त्याने घाम गाळून मिळवली असेल त्या मेहनतीचा तुम्ही अपमान केलात. अरे,एखाद्या गोष्टीला चुकून पाय लागला तरी नमस्कार करायची आपली पद्धत! आणि इथे अन्नाला लाथा मारल्यात तुम्ही?   

मला भीती या गोष्टीची वाटते की आज एका निर्जीव गोष्टीचा असा छळ करणारे तुम्ही उद्या कॉलेजमध्ये एखाद्या सजीव व्यक्तीचाही गंमत म्हणून असा छळ करायला मागेपुढे बघणार नाहीत. तुम्ही रॅगिंग करणारे बनाल याचीच तर ही लक्षणे नाहीत? इतका दुष्टपणा आला कुठून? वर्षभर माझ्या हाताखाली शिकलेली मुलं असं दुष्कृत्य करत असतील तर तुमच्याऎवजी शिक्षा मीच घ्यायला हवी.”

माझं शेवटचं वाक्य ऎकल्यावर मुले हलली. सगळ्यांच्याच तोंडून ‘ सॉरी बाई,तुम्ही आम्हाला वाटेल ती शिक्षा करा पण असं नका म्हणू’ असे पश्चात्तापाचे अस्सल उद्गार निघू लागले.

मी म्हटलं,” तुम्हाला शिक्षा करून त्या बिचारीचा डबा परत मिळणार आहे का?” मुलं क्षणभर गप्प बसली मग एकजण म्हणाला ,

 “आम्ही भरून देऊ तिचा डबा.”

” कसा? पालकांकडून पॆसे घेऊन? मग तुमच्या चुकीची शिक्षा पालकांना झाली.”

” नाही बाई आम्ही काम करू काही तरी.”

मी म्हटलं ,” ठीक आहे पण तुम्ही या सगळ्याची कल्पना आधी पालकांना दिली पाहिजे. त्यांची परवानगी घेऊनच पुढे काय ते करायचं. मान्य आहे.?”सगळ्यांनी माना डोलावल्या. ” आणि एक,आठवडाभर माझ्याशी बोलायचं नाही.” त्यांचे चेहरे पार उतरले. ही शिक्षा कदाचित त्यांना मोठी वाटली असावी.

तो शुक्रवारचा दिवस होता. मंगळवारी सकाळी त्या मुलीची आई मला भेटायला आली. सोमवारी मुलांनी त्या मुलीला तिच्या डब्यापेक्षा चांगला डबा छान प्रेझेंटेशन पेपरमध्ये गुंडाळून दिला होता. त्यासाठी पॆसे कुठून आणलेत असे ती त्यांना आज विचारायला आली होती. तिला कळले ते असे की त्यांच्यापॆकी एकाच्या काकांचे जवळच लहानसे घर होते. घराभोवती वाढलेले गवत काढून बाग स्वच्छ करायचे काम माळ्याऎवजी मुलांनी रविवारी केले होते.मुले १५-१६ वर्षांची होती त्यामुळे काही अडचण नव्हती. अल्युमिनियमचा डबा काही फारसा महाग नव्हता. तेवढे पॆसे सहज मिळवता आले होते त्यांना तास- दोन तास  काम केल्यावर.

मी वर्गात गेले तर टेबलवर रंगीत कागदात गुंडाळून एक पेन ठेवले होते. ” हे काय आहे “विचारल्यावर एकाने उभे राहून सांगितले की-” डबा घेऊन झाल्यावर पॆसे उरले. मग त्यातून आम्ही तुमच्यासाठी हे पेन आणले.”

“माझ्यासाठी? कशाला? माझा काय संबंध? मला नको बाबा हे.” मी असं झटकून टाकताच पाचांचे चेहरे गोरेमोरे झाले. एकजण उठून हळूच म्हणाला,” मॅम तुम्ही या पेनने रोज प्रेजेंटी मांडा. तुमच्या हातात हे पेन बघून आम्हाला आमच्या चुकीची रोज आठवण येईल आणि परत अशी चूक आमच्या हातून होणार नाही.”मग जरासा धीर चेपला पांडवांचा आणि दुसरा म्हणाला,” बाई,आता तुम्ही आमच्याशी बोलणार ना?”

ते प्रामाणिक,भाबडे शब्द ऎकून मला भरून आले. मग “बाई, उघडा ना पेन.” असा आग्रह सुरू झाला.सोनेरी रंगाच्या त्या पेनने मी रोज हजेरी मांडली.तो प्रत्येक दिवस माझ्यासाठी सोनेरी होऊन गेला 

लेखिका :- सुश्री संजीवनी बोकील

प्रस्तुती : श्रीमती उज्ज्वला केळकर

संपर्क –17 16/2 ‘गायत्री’ प्लॉट नं. 12, वसंत दादा साखर कामगारभावन के पास , सांगली 416416 महाराष्ट्र

मो. 9403310170, email-id – [email protected] 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈