मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुजित साहित्य # 36 – आठवण ☆ श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है! आज प्रस्तुत है  उनकी एक भावप्रवण  एवं संवेदनशील  कविता “आठवण ”। अक्सर जीवन के भागदौड़ में  कई बार हम किसी  कथन के पीछे छिपे एहसास को समझ नहीं पाते । किन्तु, यह कविता पढ़ कर आप निश्चित ही विचार करेंगे, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है ।) 

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #36☆ 

☆ आठवण ☆ 

माझी माय मला नेहमी

म्हणते की..

तू ना तुझ्या बा सारखाच दिसतोस

तोंड नाक डोळे सगळ कस …

बा सारखंच..,

बोलणं सुध्दा

मला प्रश्न पडतो…

मी खरच बा सारखा दिसतो

का मायेला बा ची आठवण येते..,

© सुजित कदम, पुणे

7276282626

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #9 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #9 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

चर्चा ही चर्चा करे, धारण करे न कोय । 

धर्म बेचारा क्या करे? धारे ही सुख होय ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (41) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।

तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌।।41।।

जो विभूति मय प्रभामय औ” प्रभाव मय वस्तु

जान उसे मम अंश ही किम् बहुना इति अस्तु।।41।।

भावार्थ :  जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात्‌ऐश्वर्ययुक्त, कांतियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उस को तू मेरे तेज के अंश की ही अभिव्यक्ति जान।।41।।

 

Whatever being there is that is glorious, prosperous or powerful, that know thou to be a manifestation of a part of My splendour.।।41।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 37 – भीतर का बसन्त सुरभित हो………☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  अग्रज डॉ सुरेश  कुशवाहा जी  की  हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती एक विचारणीय कविता  “भीतर का बसन्त सुरभित हो………। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 37 ☆

☆ भीतर का बसन्त सुरभित हो……… ☆  

 

स्वयं हुए पतझड़, बातें बसन्त की करते

ऐसा लगता है-

अंतिम पल में ज्यों, दीपक कुछ अधिक

चमकता है।

 

ऋतुएं तो आती-जाती है

क्रम से अपने

पर पागल मन देखा करता

झूठे सपने,

पहिन फरेबी विविध मुखौटे

खुद को ठगता है।

ऐसा लगता है…….

 

बचपन औ’ यौवन तो

एक बार ही आये

किन्तु बुढापा अंतिम क्षण तक

साथ निभाये,

साथ छोड़कर, मन अतीत में

व्यर्थ भटकता है।

ऐसा लगता है……….

 

स्वीकारें अपनी वय को

मन और प्राण से

क्यों भागें डरकर

हम अपने वर्तमान से

यौवन के भ्रम में जो मुंह का

थूक निगलता है

ऐसा लगता है……….

 

भीतर का बसन्त

सुरभित हो जब मुस्काये

सुख,-दुख में मन

समरसता के गीत सुनाए,

आचरणों में जहाँ शील,

सच औ’ शुचिता है।

तब ऐसा लगता है।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – साहित्य में आइंस्टीन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – साहित्य में आइंस्टीन ☆

 

भारी भीड़ के बीच

कर्णहीन नीरव,

घोर नीरव के बीच

कोलाहल मचाती भीड़,

परिभाषाएँ सापेक्ष होती हैं,

क्या कहते हो आइंस्टीन..?

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 39 – त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार ……… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनके चौदह वर्ष की आयु से प्रारम्भ साहित्यिक यात्रा के दौरान उनके साहित्य  के   ‘वाङमय चौर्य’  के  कटु अनुभव पर आधारित एक विचारणीय आलेख “त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार ……….  सुश्री प्रभा जी  का यह आलेख इसलिए भी विचारणीय है, क्योंकि  हमारी समवयस्क पीढ़ी को साहित्यिक चोरी का पता काफी देर से चलता था जबकि सोशल मीडिया के इस जमाने में चोरी बड़ी आसानी से और जल्दी ही पकड़ ली जाती है। किन्तु, शब्दों और विचारों के हेर फेर के बाद  ‘वाङमय चौर्य’  के  अनुभव को आप क्या कहेंगे। प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को अपने तरीके से जीता है।  जैसे वह जीता है , वैसा ही उसका अनुभव होता है।  इस अतिसुन्दर  एवं विचारणीय आलेख के लिए  वे बधाई की पात्र हैं। उनकी लेखनी को सादर नमन ।  

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 39 ☆

☆  त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार ……… ☆ 

वयाच्या तेरा चौदाव्या वर्षी कविता माझ्या आयुष्यात आली. शाळेत असताना हस्तलिखिताच्या निमित्ताने!

विसाव्या वर्षा नंतर कविता थांबेल असं मला वाटलं होतं, पण काही  वर्षे थांबल्या नंतर….कवितेच्या पुन्हा प्रेमात पडले, कवितेला व्यासपीठ मिळालं, अनेक ग्रुप मिळाले,  एका ग्रुप मधल्या बारा तेरा वर्षांनी मोठ्या असलेल्या कवयित्री बरोबर मैत्री झाली. आमची घरे जवळ असल्यामुळे  एकमेकींच्या घरी जाणं, कविसंमेलनात एकत्र सहभागी होणं, रिक्षा शेअर करणं यामुळे मैत्री वाढली, पण काही वर्षापासून असा शोध लागला की त्या कवयित्री कडे स्वतःची चांगली कविता नाही, ती सादर करत असलेल्या, दाद घेणा-या सर्व कविता मान्यवर कवींच्या चोरलेल्या कविता आहेत, हल्ली फेसबुक, व्हाटस् अॅप मुळे तिच्या चो-या उघडकीस आल्या, तिने त्या त्या कवींची माफीही मागितली पण निर्ढावलेपण अंगी मुरलेलं, वयाची पंचाहत्तरी उलटून गेली तरी व्यासपीठावर कविता सादर करण्याची इच्छा, दुस-यांच्या कविता वाचून दाद, मोठेपणा मिळवायची सवय लागलेली, कवयित्री म्हणून प्रतिमा पूर्ण डागाळलेली……पण मैत्रीच्या नात्याचं काय?

काही आयोजकांच्या मते आता तिच्या या वयात तिला वाळीत टाकणं म्हणजे तिला धक्का बसून ती कोलमडून जाईल, म्हणून वाङमय चौर्य हा गुन्हा माफ करायचा का ? थोड्या थोडक्या नव्हे वीस पंचवीस चोरलेल्या कवितांच्या आधारे सगळी कारकीर्द गाजवली! बाई उच्चशिक्षित, मराठीत एम.ए. असलेली, पण कवितेची चोर नव्हे तर अट्टल दरोडेखोर! तिला वृत्ताची जाण नाही पण अनेक वृत्तबद्ध कविता अनेक वर्षे सादर केल्या इतकंच नव्हे त्या दुस-यांच्या कविता स्वतःच्या संग्रहातही छापल्या. एका कवीने “पोलिसकेस करीन” म्हटल्यावर तिने  त्याला जाहीर माफी पत्र लिहून दिले ते फेसबुक वर प्रसिद्ध झाले!

केवढी ही शोकांतिका! असे मोह का होत असतील? तिच्या बरोबर केलेल्या अनेक मैफिली आठवल्या, तिचं खोटेपण, चोरटेपण आज लक्षात आलं!

कवयित्री म्हणून ती निश्चितच बाद झाली पण मैत्री चं काय?? त्या हळूवार, अलवार  क्षणांची  साक्षीदार असलेली पण सतत काव्यक्षेत्रात दुस्वास करणारी, कुरघोडी करू पहाणारी ती……एक प्रश्नचिन्ह बनूनच राहिली आहे!

तिने मुक्तपणे माळली, दुस-याच्या बागेतली

सुंदर सुंदर फुले स्वतःच्या केसात…

आणि मिरवली

गंध स्वतःच्याच मालकीचा असल्याच्या तो-यात,

ती फुलं ही दुस-याची आणि गंधही परकाच असल्याचं समजलं सगळ्यांना

आणि बागेतल्या सा-याच फुलांनी केला  उठाव…..

तिची लूट थोपवण्यासाठी…

कवितेचे कित्येक ताटवे…   परतताहेत आता…

आपापल्या मालकांकडे  !

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

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हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ बेदखल  ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक समसामयिक विषय पर आधारित सार्थक लघुकथा   “ बेदखल ”.)

☆ लघुकथा – बेदखल 

साम्प्रदायिक तूफान गुजर जाने के बाद मोहल्ले के लोगों ने उसका सामान उठाकर कमरे से बाहर निकाल कर सड़क पर रख दिया था और उससे हाथ जोड़कर कहा था कि अब तुम इस मोहल्ले में और नहीं रह सकते । साम्प्रदायिक दंगे के दौरान हम लोगों ने ब -मुश्किल तुम्हें बचाया , लेकिन हम लोग अब बार बार यह मुसीबत मोल नहीं ले सकते, आखिर हम लोगों के भी तो बीबी -बच्चे हैं ।

वह और उसका परिवार जिसका सब कुछ यहीं था – बचपन की यादें , जवानी के किस्से , जिन्हें छोड़कर कहीं और जाने की वे  कल्पना भी नहीं कर सकते  थे । आज अपने बिखरे सामान के बीच अपनों द्वारा बे-दखल किये जाने पर वह यही सोच रहे थे  कि ऐसी कौन सी जगह है जहां नफरत की आग न हो, एक भाई दूसरे के खून का प्यासा न हो, स्वार्थी तत्वों के बहकावे में आकर जहां लोग एक दूसरे के दुश्मन न बन जायें?

आखिर वह जाएं तो कहां जाएं ?

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 18– महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी”

☆ गांधी चर्चा # 18 – महात्मा गांधी की अहिंसा तथा क्रांतिकारी

अक्सर यह प्रश्न उठता रहता है कि क्या महात्मा गांधी ने भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों को बचाने का प्रयास किया था? गांधी जी ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तुलना में पंडित नेहरू को क्यों अधिक पसंद किया? अनेक बार तो यह वाद विवाद  शालीनता की समस्त मर्यादाओं को पीछे छोड़ अत्याधिक कटु हो जाता है। पंडित नेहरू  ने अपनी आत्मकथा में इन विवादों पर कोई खास टिप्पणियाँ नहीं की हैं। गांधीजी के अन्य  प्रशंसकों, जिनकी लिखी पुस्तके पढ़ने का अवसर मुझे मिला उसमे भी इन विवादों पर कोई टीका टिप्पणी करने से परहेज किया गया है। कहते हैं कि गांधी वाङ्मय में भगत सिंह की फाँसी रोकने हेतु  महात्मा गांधी द्वारा वाइसराय  को  23 मार्च 1931 को  लिखा गया पत्र व वाइसराय  द्वारा  दिया गया उत्तर आदि संकलित हैं पर मैंने   गांधी वाङ्मय नही पढ़ा है।

यह सत्य है की गांधीजी व क्रांतिकारियों के मध्य स्वतंत्रता प्राप्ति के साधनों को लेकर गहरे मतभेद थे। काँग्रेस भी गांधीजी के भारत  आगमन से पहले ही गरम दल व नरम दल में बटी हुई थी। गरम दल का नेतृत्व लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक व विपिन चन्द्र पाल करते थे।  इनकी जोड़ी लाल बाल पाल के नाम से विख्यात है। गांधीजी के राजनैतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले नरम दल के थे व अंग्रेजों के प्रति  उग्रता के हिमायती नही थे। गांधीजी का काँग्रेस के अंदर गरम दल वालों से भी वैचारिक मतभेद था। जब कभी काँग्रेस के अधिवेशनों में हिंसा को लेकर चर्चा हुई या प्रस्ताव लाये गए गांधीजी और उनके समर्थकों ने सदैव उनका विरोध किया। प्राय: गरम दल के नेताओं द्वारा इस संबंध में लाये गए प्रस्ताव बहुत कम  मतों से गिर गए। इन सब वैचारिक मतभेदों के बाद भी दोनों पक्षों के नेताओं में एक दूसरे के प्रति प्रेम, आदर व सम्मान का भाव सदैव बना रहा।

23 दिसंबर 1929 को क्रांतिकारियों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के स्तंभ वाइसराय की गाड़ी को बम से उड़ाने का असफल प्रयास किया। गांधी जी ने इस कृत्य की कठोर निंदा की व यंग इंडिया में एक लेख ” बम की पूजा” प्रकाशित किया। इसका जबाब ‘ हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र समाजवादी सभा’ की ओर से  26 जनवरी 1930 को एक पर्चे के माध्यम से  दिया गया जिसे भगवती चरण वोहरा ने लिखा  भगत सिंह ने जेल में इसे अंतिम रूप दिया था। इस लेख में  कथन है कि ” सत्याग्रह का अर्थ है, सत्य के लिए आग्रह । उसकी स्वीकृति के लिए केवल आत्मिक शक्ति के प्रयोग का ही आग्रह क्यों ? क्रांतिकारी स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपनी शारीरिक व नैतिक शक्ति दोनों के प्रयोग में विश्वास रखता है। देश को केवल क्रांति से ही स्वतंत्रता मिल सकती है। तरुण पीढ़ी मानसिक गुलामी व धार्मिक रुढिवादी बंधनों से मुक्ती चाहती है, तरुणों की इस बैचेनी में क्रांतिकारी प्रगतिशीलता के अंकुर देख रहा है। गांधीजी सोचते हैं कि अधिकतर भारतीय जनता को हिंसा की भावना छू तक नही गई है और अहिंसा उनका राजनैतिक शस्त्र बन गया है। गांधीजी घोषणा करते हैं की अहिंसा के सामर्थ्य से वे एक दिन विदेशी शासकों का हृदय परिवर्तन कर देंगे। देश में ऐसे लोग भी होंगे जिन्हे काँग्रेस के प्रति श्रद्धा नहीं , इससे वे कुछ आशा भी नही करते । यदि गांधी जी  क्रांतिकारियों  को उस श्रेणी में गिनते है तो वे उसके साथ अन्याय करते हैं।” इस प्रकार क्रांतिकारी   गांधीजी के साधन का विरोध करते थे, उनके विचारों में गांधीजी के अपमान की बात कतई नहीं दीखती।

सरदार भगत सिंह ने अपनी फाँसी के कुछ दिन पहले ही अपने नवयुवक राजनैतिक कार्यकर्ताओं को  02 फरवरी 1931 को एक पत्र लिखा था। अपने साथियों से वे कहते हैं कि ” इस समय हमारा आंदोलन अत्यंत महत्वपूर्ण परिस्थितियों में से गुजर रहा है। गोलमेज़ कान्फ्रेन्स के बाद काँग्रेस के नेता आंदोलन कि स्थगित कर समझौता करने को तैयार दिखाई देते है। वस्तुतः समझौता कोई हेय और निंदा योग्य वस्तु नहीं है, बल्कि वह राजनैतिक संग्रामों का एक अत्यावश्यक अंग है। भारत की वर्तमान लड़ाई ज्यादातर मध्य वर्ग के लोगों के बलबूते लड़ी जा रही है , जिसका लक्ष्य बहुत सीमित है। देश के करोड़ों मजदूर और किसान जनता का उद्धार इतने से नही हो सकता  है। काँग्रेस के लोग क्रांति नही चाहते वे सरकार पर आर्थिक दबाब डालकर कुछ सुधार और लेना चाहते हैं। हमारे दल का अंतिम लक्ष्य सोशलिस्ट समाज की स्थापना करना है। जब लाहौर काँग्रेस ने पूर्ण स्वाधीनता  का प्रस्ताव पास किया तो हम लोग इसे पूरे दिल से चाहते थे। परंतु काँग्रेस के उसी अधिवेशन में महात्मा जी ने कहा कि समझौते का दरवाजा अभी खुला है। इसका अर्थ है कि  उनकी लड़ाई का अंत इसी प्रकार किसी समझौते से होगा और वे पूरे दिल से स्वाधीनता की घोषणा नही  कर रहे थे। हम लोग इस बेदिली से घृणा करते है। मैं आतंकवादी नही हूँ। मैं एक क्रांतिकारी हूँ।  फाँसी की काल कोठरी में पड़े रहने पर भी मेरे विचारों में कोई परिवर्तन नही आया है पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि हम बम  से कोई लाभ प्राप्त नही कर सकते हैं। केवल बम फेकना ना सिर्फ व्यर्थ है अपितु बहुत बार हानिकारक भी है।”  इस प्रकार सरदार भगत सिंह ने भी गांधीजी के प्रति अपने सम्मान को कभी कम न होने दिया। गांधीजी ने भी जनमत का मान रखते हुये अपने सिद्धांतों के विपरीत वाइसराय को पत्र लिखकर भगत सिंह की फाँसी रोकने का अनुरोध किया। हाँ यह अनुरोध पत्र बहुत जोरदार भाषा में न था केवल विनय से युक्त था। आज जब 29 सितंबर 2017 को यह सब मैं लिख रहा हूँ तो उसके एक दिन पहले ही 28 सितंबर 1907 को जन्मे अमर शहीद भगत सिंह का 111वाँ जन्म दिन था। मेरा उन्हे शत शत नमन। उन अमर क्रांतिकारी शहीदों को भी नमन जिन्होने देश के लिए बलिदान दिया और हँसते हँसते फाँसी के फंदे पर झूल गये। गांधीजी पर अक्सर आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने सरदार भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए कुछ भी नहीं किया। मैं पाठकों से अनुरोध करता हूँ कि इस सम्बन्ध में वे श्रीमती सुजाता चौधरी की पुस्तक “ राष्ट्रपिता और भगत सिंह “ अवश्य पढ़े। इसमें सुजाताजी ने विस्तार से यह सिद्ध किया है कि भगत सिंह की फांसी अंग्रेज टालना नहीं चाहते थे और भगत सिंह के प्रति जनता की भावना को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों ने यह चाल चली कि अगर महात्मा गांधी कहेंगे तो भगत सिंह की फांसी रोक दी जायेगी।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ वह माली बन जाऊँ मैं ! ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अआज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “वह माली बन जाऊँ मैं ! 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 9 ☆

☆  वह माली बन जाऊँ मैं ! 

 

पौधे सारे बच्चे हमारे

ज्ञान मंदीर जब आएँगे

कलरव होगा, क्रंदन होगा

रोना-धोना समझाएँगे

स्नेह रिश्ता ऐसा जोडूँ

प्रीत से उपजाऊँ मैं

वह माली बन जाऊँ मैं!

सदाचार की टहनी और

कोंपल उगे विनयता के

प्यारी बोली के रोए आएँगे

प्रेम के गीत भौंरे गाएँगे

आत्मविश्वास की कैंची से

ईर्ष्या-द्वेष-दंभ छाँटूँ  मैं

वह माली बन जाऊँ मैं!

एक दिन कलियाँ चटकेंगी

खुशबू चारों ओर फैलाएँगी

बगियाँ में फिर पौधे आएँगे

खुशियों के दामन भर जाएँगे

हर पौधे को आकार देकर

जीवन को साकार कर पाऊँ मैं

वह माली बन जाऊँ मैं!

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 16 ☆ लघुकथा – एहसास ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक  अत्यंत विचारणीय लघुकथा  “एहसास। श्रीमती कृष्णा जी की यह लघुकथा  यह एहसास दिलाने में सक्षम है कि स्त्री ही स्त्री का दर्द समझ सकती है और यह एहसास कुछ अनुभव और समय के पश्चात ही हो पाता है। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्रीमती कृष्णा जी बधाई की पात्र हैं।)

☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 16 ☆

☆ लघुकथा – एहसास ☆

बहू वो स्टूल ले लो और यहीं पास में बैठ जाओ. हमाई चप्पल और छत्ता सोई कल ले आने  आभा ने सासु माँ को ममत्व से भरी नजरों से देख उनके  सिर पर हाथ रख हाँ में सिर हिलाया. वह किसी तरह अपने आँसू रोकने का प्रयत्न कर रही थी. सिर घुमाकर वह सिस्टर को देखने लगी. थोड़ी दूर मामा जी खड़े सास-बहू की बातें  करते देख फफक-फफक कर रो पड़े थे.  बहन  से बोले …दीदी तुम चिन्ता मत करो जल्दी ठीक हो जाओगी फिर हम बैठकर खूब बातें करेंगे.

फिर डा. पाठक आ गये और आज ही इनका आपरेशन होना है आप इन्हें आपरेशन के लिये तैयार करवाने दें. उसी रात सासू माँ ने कहा था. आभा मैं तुम्हें बहुत दिनो बाद और देर से समझ पाई, हमें माफ करना बेटी तुम न होती तो कभी यह एहसास न होता कि औरत ही औरत का दुख समझ सकती है. तुमने मेरी और ससुर की खूब सेवा करी तुम्हें भगवान खूब खुशी दे चारो तरफ खुशियाँ ही खुशियाँ हो.

अचानक बेटी के स्पर्श ने आभा को जगाया माँ क्या हुआ दादी को याद कर रहीं थी. आज चलिये दादी की याद में विकलांग बच्चों के साथ कुछ समय बिताकर  आते हैं और अनजाने बहते आँसुओं को पोंछ कर आभा उसके साथ  जाने को तैयार हो गई

 

© श्रीमती कृष्णा राजपूत  ‘भूमि ‘

अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश

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