योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter Yoga with Commandos ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter Yoga with Commandos

I took a morning flight from Indore, halting briefly at Mumbai, which touched Bengaluru by noon.

As I came out of the arrival gate, a pleasant surprise, which I had not dreamt of, overwhelmed me. I shall write about it in a separate blog sometime later, not now, as it is a different subject matter altogether.

We proceeded to the Laughter Yoga University; just about 20 minutes drive from the airport. Dr Madan Kataria, the Laughter Guru, whom I adored, was here. I touched his feet and he introduced me to his young team.

Before I could settle down, he said, “We will have lunch now and then, within an hour, we are leaving for an interesting assignment – Laughter Yoga with the Commandos!”

The Centre for Counter Terrorism was a couple of hours drive from the university.

Over a cup of tea, the trainers there told us, “The commandos are here for training. They have a strict routine. They get up at 5 am and go to bed only after 11 pm. The whole day they have strenuous physical activity as well as theory classes. They feel a lot of stress, fatigue and are sleep deprived.”

We were taken to an indoor shooting range where 30 commandos were waiting for us.

Dr K greeted them with laughter and said, “We know that you are going through a very tough routine. You don’t get enough sleep. The physical activities you do the whole day are exhausting. You are away from your loved ones and being combat ready at all times drains away all the energy.”

The commandos felt that here is someone who understands their plight and empathizes with them. They were now willing to listen.
Dr K said, ”We are here to show you ways to relax, build stamina and be happy!”

We then had an out of the world experience of laughter yoga and meditation for more than an hour. The commandos were all smiles. Fully relaxed!

Each one wanted to shake hands with Dr K. We could feel the gratitude in their eyes. The tough exterior of the commandos had melted and the child within was visible all around.

We too felt blessed and realized that we owe a lot more to them.

On our way back, Dr K shared, “How fulfilling this experience has been! I am feeling really good.”

He continued, “We had conducted a session with the commandos earlier too but this time it was something different. We shall not leave it mid-way. We shall depute one of our teachers here for as long as they want who will also train their trainers to conduct laughter and breathing exercises.”

Dr K spoke to their superintendent and sent one of our star laughter yoga teachers, Vinayak, to be with them all along the day for a couple of days.

Vinayak was with them from early morning till late night. Whenever the group energy drooped, he shared some laughter and breathing exercises. The effect was magical.

The trainers told us that the commandos were now more willing to learn, responded cheerfully to their commands and shared a lot of positive energy as a team.

They laughed during breaks, doing their own versions of the laughter exercises and would allow Vinayak to leave the place.

(Thank you, Vinayak, for the splendid efforts! We are looking forward to a blog with a detailed account of the experiences you had there which you alone can share.)

 

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (24) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌।

संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥

मेरे कर्म न करने से यह जग विनष्ट हो जायेगा

मुझे दोष देगी यह दुनियाँ,सिर्फ बुरा कहलाउॅगा।।24।।

भावार्थ :  इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ ।।24।।

These worlds  would  perish  if  I  did  not  perform  action;  I  should  be  the  author  of confusion of castes and destruction of these beings. ।।24।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #2 – हिंदी आणि मराठीतली मिश्र रचना.. ☆ – श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है ।  साप्ताहिक स्तम्भ  अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है  कविता में  – हिन्दी एवं मराठी  मिश्रित रचना  का  एक नया प्रयोग ।”हिन्दी आणि मराठीतली मिश्र रचना…”। )

 

☆ अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 2 ☆

 

☆ हिंदी आणि मराठीतली मिश्र रचना.. ☆ 

 

अभी बज गये रात के बारा

आल्या रिमझिम पाऊस धारा

 

चमकी बिजली खूब नजारा

मिठीचाच या तिला सहारा

 

समझ में आया उसे माजरा

अंगावरती तिच्या शहारा

 

कहां मिलेंगे फिर दोबारा

गाली होता भाव लाजरा

 

गगन के पिछे छुपा सवेरा

पदरा मागे जसा चेहरा

 

समझ न आया हमें दायरा

जागोजागी सक्त पहारा

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

[email protected]

 




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं – #2 पाहुना ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

सुश्री सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी  की लघुकथाओं का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक भावुक लघुकथा  “पाहुना”। लघुकथा पढ़ कर सहज ही लगता है कि यह  कथा/घटना  कहीं हमारे आस पास की ही है। )

 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी की लघुकथाएं # 2 ☆

 

☆ पाहुना ☆

 

गाँव में जब कोई अतिथि आ जाता था उसे सभी पाहुना कहते थे। वर्तमान में पाहुना से अतिथि, मेहमान, और अब गेस्ट का नाम प्रचालित हो गया है। ऐसे ही छोटा सा गांव जहा एक वकील बाबू रहते थे, गांव में सबसे ज्यादा पढ़े लिखे। लोग उनकी काफी इज्जत करते थे। कभी कोई परेशानी हो सभी उन्ही के पास जा बैठते थे। घर भी उनका बड़ा, बाहर दालान और फिर बड़े बड़े पत्थरों के चबूतरे जिनमे कोई ना कोई बैठा ही रहता था। उनका रूतबा भी बड़ा था। शरीर भी उनका गठा बदन, काली घनी मूंछ, बड़ी बड़ी आँखे और लंबाई भी सामान्य से अधिक। जब अपने पहनावे  काले कोट में निकलते थे तो सब दूर से ही हाथ जोड़ लेते थे। पर कहते हैं कहीं ना कहीं सब किसी ना किसी कारण से दुखी रहते हैं।

पांच बच्चों के पिता थे। धर्मपत्नी अक्सर बीमार रहा करती थी। छोटे छोटे बच्चों का लालन पालन उनकी सासू माँ के द्वारा हो रहा था। जो अपनी बेटी के पास रहती थी क्यूँकि बेटी के अलावा कोई और नहीं था। पति को गुजरे एक दशक हो गया था। बूढ़ी सासू माँ अपने तरीके से बच्चों की निगरानी करती थी। दो बड़े बेटे कुछ समझदार होने लगे थे। अचानक ही वकील साहब की पत्नी का देहांत हो गया। सभी परेशान हो गए।

समझ नहीं आया पर कब तक घर बैठते। काम काज के सिलसिले में उनको बनारस जाना पड़ा। वहा उनकी जान पहचान फूल वाली से हो गयी जो निहायत ही सुंदर और नवयौवना थी। लगातार आने जाने के कारण उनमे घनिष्ठता बढ़ गयी। एक दिन वो कानून उसे पत्नी बना घर ले आए और सामने वाले दूसरे घर में रहने दिया।

सभी पूछते कि ये कौन है? उनका उत्तर होता – ” पाहुना आई है कुछ दिनो के लिए”। बूढ़ी माँ को सब समझ में आ गया। बच्चों में उसने जहर का बीज बो दिया। कभी भी वो उसके पास नहीं गए। पिताजी कहते थे कि इन्हे अपनी माँ की तरह मानो। पर बच्चों ने कभी स्वीकार नहीं किया। पाहुना के भी तीन संतान, दो बेटी और एक बेटा हुआ। परन्तु कभी कोई आपस में नहीं मिले। आमने सामने रहने के बाद भी भाई बहन एक दूसरे का मुंह भी देखना पसंद नहीं करते थे।

धीरे धीरे समय सरकता गया सभी कामों मे निपुण पाहुना अपनी गृहस्थी संभाल रही थी परन्तु बच्चों का तिरस्कार उसको सहन नहीं हो पा रहा था। हमेशा वकील बाबू से कहती कि कुछ ऐसा हो जाए कि हमारे बच्चों को मैं एक साथ रहते देख सकूँ। उसके मन में सभी बच्चों के लिए एक सी भावना थी। बस बच्चों का दिल जीतना चाहती थी।

सासू माँ का देहांत हो गया परंतु हालत वैसे का वैसा ही रहा। धीरे धीरे तिरस्कार उसके मन में बीमारी का गांठ बनाने लगी और वह असमय ही बिस्तर पकड़ ली। उसकी अपनी बड़ी बिटिया सारा काम करके हमेशा माँ को समझाती परंतु वह दिन रात रोती ही रहती। वकील बाबू को बच्चों को पास लाने की जिद करती रहती। परंतु नव जवान होते बच्चे अपने दूसरी माँ को देखना भी पसंद नहीं करते थे।

एक दिन पाहुना का अंतिम समय आ गया। सभी बच्चों को बुला कर वकील साहब ने कहा कि बेटे पाहुना के जाने का दिन आ गया है, वो अब जा रही है सदा के लिए। तुम सब एक बार उनसे मिल लो। बस फिर क्या था सबने यही कहा – पिताजी पाहुना को जाने नहीं देना आप अकेले हो जाएंगे। माँ आपको छोड़ कर पहले ही चली गई है आप पाहुना को जाने नहीं देना। इतना सुनना था कि वकील बाबू का मुंह खुला का खुला ही रह गया। उनको समझते देर ना लगी कि सब पाहुना से उतना ही प्यार करते थे सिर्फ जताते नहीं थे। परंतु बहुत देर हो चुकी थी। सभी बच्चे खड़े अपनी माँ के अंतिम क्षण में व्याकुल थे। परंतु पाहुना अपनी जीत पर मुस्कुराते हुए आज बहुत खुश हो रही थी और मुस्कुराते हुए ही उसने अपनी आंख बंद कर ली।

सदा सदा के लिए पाहुना उस घर से जा चुकी थी। सभी ने मिल कर उसका अंतिम संस्कार किया। आज पाहुना बहुत खुश थी क्यूँकि उसे उसका अपना घर मिल गया था जिस घर में वो पाहुना(मेहमान) आई थी। आज सब कुछ उसका अपना था। अब वो पाहुना नहीं थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 




हिन्दी साहित्य- पुस्तक समीक्षा – ☆ बिन गुलाल के लाल ☆ श्री मनोज श्रीवास्तव – (समीक्षक – श्री राजेंद्र पण्डित)

काव्य संग्रह  – बिन गुलाल के लाल – श्री मनोज श्रीवास्तव 

 

☆ अद्भुत, अनुपम और अद्वितीय कृति ☆

 

कविता केवल शब्दों का कुशल संयोजन नहीं अपितु भावों का यथावत सम्प्रेषण भी है. रचनाकार को चाहिए कि वह यह भी ध्यान रखे कि उसकी रचना मस्तिष्क का कचरा न होकर ह्रदय की मथानी से मथकर निकला हुआ नवनीत है. इस प्रकार के विचार श्रेष्ठ कवि मनोज श्रीवास्तव की इस पुस्तक “बिन गुलाल के लाल” को पढ़ कर स्वतः कौंधने लगते है.

मनोज जी का मूल स्वर ओज का है किन्तु लगभग सभी रसों में इनकी रचनाएँ मैंने मंचों पर इनसे सुनी है. हास्य-व्यंग्य में भी उतनी ही महारत हासिल है जितनी इन्हें वीर रस में महारत है. अपनी ओज की कविताओं में रचनाकार जहां एक और प्रांजल शब्दों का प्रयोग करके भाव सौन्दर्य के साथ-साथ नाद सौन्दर्य भी प्रतिपादित करता है वही अपनी हास्य-व्यंग्य कविताओं में इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि कठिन शब्दों के बोझ के नीचे दबकर संप्रेषणीयता कही मर न जाए. संभवतः इसीलिये श्री मनोज जी हास्य-व्यंग्य की रचनाओं में भारी भरकम शब्दों के प्रयोग से बचते दिखाई देते हैं, किन्तु एक ज़िम्मेदार रचनाकार का भान हमेशा उन्हें रहता है शीर्षक कविता में उन्होंने हास्य में भी हिन्दी की समृद्धता को प्रकाशित किया है-

हिरनी सी उन्मुक्त चंचला चाल लगे भूचाल हो गयी

कंचन देह कामिनी काया देखो तो फ़ुटबाल हो गयी

पर यह चमत्कार देखो तो ब्यूटी पार्लर में जाते ही

अपना रूप देख दर्पण में बिन गुलाल के लाल हो गयी

सयाने लाल शीर्षक की कविता में जहां रचनाकार एक ओर सज हास्य प्रस्तुत करता है वही दूसरी ओर निरर्थक और उबाऊ रचनाकारों पर परोक्ष कटाक्ष भी करता है.

आजकल के काव्य मंचों की गुणा-गणित से कवि व्यथित भी है. जिसे वह हँसी-हँसी में बहुत ही समर्थ तरीके से अपनी कविता बड़े कवि और ये सरकारी कविसम्मेलन में प्रस्तुत करता है. गंभीर बातों को हल्की फुल्की शब्दावली में रखने की कला इन कविताओं में मनोज जी ने बखूबी दिखाई है.सभी कविताएं खूब गुदगुदाती है और विचारों में नयी उत्तेजना भी संचारित करती है.

प्रस्तुत पुस्तक बिन गुलाल के लाल कवि मनोज श्रीवास्तव जी की एक श्रेष्ठ रचना है. हास्य-व्यंग्य के नए रचनाकारों के लिए शब्दों के समुचित उपयोग और भावों की कुशल संप्रेषणीयता सीखने के लिए उपयोगी सिद्ध होगी. सामान्य पाठक जिस समय भारी भरकम साहित्य को बर्दाश्त करने की स्थिति में न हो उस समय यह किताब समय का सद्पुयोग सिद्ध हो सकती है.

मुझे लगता है अग्रज मनोज श्रीवास्तव जी ने इस पुस्तक को लिखकर हिन्दी हास्य-व्यंग्य साहित्य के महायज्ञ में जबरदस्त आहुति दी है. कुल मिलाकर सबको यह पुस्तक पढ़नी चाहिए.

 

पुस्तक  :  बिन गुलाल के लाल 

लेखक   : मनोज श्रीवास्तव

प्रकाशक : मनसा प्रकाशन, लखनऊ 

 

श्री राजेन्द्र पण्डित, समीक्षक

हास्य-व्यंग्य कवि एवं कथाकार

अलीगंज, लखनऊ

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल ☆ Laughter is a Universal Language ☆ Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer,  Author, Blogger, Educator and Speaker.)

☆ Laughter is a Universal Language

Laughter is a universal language. It knows no barriers.

This was proved when we conducted a two-day laughter yoga and meditation programme for a small group fromUzbekistan. The group included a child psychology teacher, fitness trainer for seniors, tour conductor, and yoga trainer.

During the first day, we focused on the four steps of laughter yoga – clapping and chanting, deep breathing, childlike playfulness and laughter exercises. After the exercises, seventy-three year old Viktorina said, “I feel light, very light. I am ready to fly in the sky like a bird!”

Sixty-six year old Valentina found great value in the inner spirit of laughter and the health benefits of laughter for the seniors. She is a fitness trainer for the old people inTashkentand would be adding laughter exercises to her repertoire when she goes back.

On the second day, the participants experienced laughter yoga meditation. Laughter flowed like a fountain. Their bodies and laughter mingled like milk and water. Zulfiya described it as an out-of-the-world experience.

They also created a number of new laughter exercises – splash splash laughter, soap bubble laughter and angry cat laughter. The chants of “Kharasho, Kharasho, Yay!!” (Very Good, Very Good, Yay!!) reverberated in the surroundings, creating positive vibes all around.

Marina, as a child psychologist, could sense the latent potential in laughter yoga for developing soft skills in children like communication skills and creativity. She loved the value based laughter exercises like appreciation laughter, argument laughter and forgiveness laughter, and found them specially valuable for the children.

Angelika, who has done the certified laughter yoga leader training with us twice at Rishikesh, expressed her gratitude for the life changing experience. She teaches laughter yoga back home inTashkentand is happy transforming many lives there.

Our special thanks to Ivan Skofenko for doing all the ground work for bringing three groups from Tashkent to Rishkesh during the last two years and helping us as an interpreter and translator of the highest caliber. He is a trained yoga teacher and has undergone certified laughter yoga leader training with us on three occasions. We appreciate Ivan’s sincere devotion to the cause and the good work he is doing in propagating yoga and laughter yoga inUzbekistan,KazakhstanandKyrgyzstan.

When the participants learned that Radhika conducts free yoga classes on a daily basis atIndore,Indiaand a number of ladies have benefitted from them, they requested her to impart lessons in traditional yoga also. She readily agreed to their request. They will be cherishing memories of the yoga sessions early in the morning in the serene surroundings of Rishikesh – the world capital of yoga – for a long, long time!

 

Radhika & Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
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आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – तृतीय अध्याय (23) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

तृतीय अध्याय

( ज्ञानवान और भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता )

 

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥

 

यदि मैं शायद आलस करके, कर्म रहित हो जाउॅगा

तो मेरे ही पथ पर सारे जग को चलता पाउॅगा।।23।।

      

भावार्थ :  क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित्‌मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाए क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।।23।।

 

For, should I not ever engage Myself in action, unwearied, men would in every way follow My path, O Arjuna! ।।23।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 – तुम्हें सलाम ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । उन्होने यह साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकार किए इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की प्रथम कड़ी में उनकी एक कविता  “तुम्हें सलाम”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ तुम्हें सलाम ☆

 

दुखते कांधे पर

भोतरी कुल्हाड़ी लेकर  ,

 

पसीने से तर बतर

फटा ब्लाऊज पहिनकर ,

 

बेतरतीब बहते

हुए आंसुओं को पीकर,

 

भूख से कराहते

बच्चों को छोड़कर ,

 

जब एक आदिवासी

महिला निकल पड़ती है

जंगल की तरफ ,

 

कांधे में कुल्हाड़ी लेकर

अंधे पति को अतृप्त छोड़कर,

 

लिपटे चिपटे धूल भरे

कैशों को फ़ैलाकर,

 

अधजले भूखे चूल्हे

को लात मारकर ,

 

और इस हाल में भी

खूब पानी पीकर,

 

जब निकल पड़ती है

जंगल की तरफ,

 

फटी साड़ी की

कांच लगाकर,

 

दुनियादारी को

हाशिये में रखकर,

 

जीवन के अबूझ

रहस्यों को छूकर,

 

जंगल के कानून

कायदों को साथ  लेकर,

 

अनमनी वह

आदिवासी महिला,

 

दौड़ पड़ती है

जंगल की तरफ ,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सकारात्मक सपने – #2 – सकारात्मक सपने ☆ – सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं।  आज प्रस्तुत है सुश्री अनुभा जी का आत्मकथ्य।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

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☆ सकारात्मक सपने  #-2 ☆

☆ सकारात्मक सपने ☆

सपने देखना मानवीय स्वभाव है , यह मानवीय विशेषता ही नही सामर्थ्य भी है, जो अन्य प्राणियों में दुर्लभ है |सामर्थ्य इसलिये कि हम स्वयं भी सपनों को आमंत्रित कर सकते हैं, किसी व्यक्ति, घटना, मौसम, व्यवहार विशेष

के सपने देखना चुन सकते हैं। आप कहेंगे कि सपने तो स्वयं आते हैं उन पर हमारा नियंत्रण कहाँ जो हम तय कर सकें कि हमें किस तरह का सपना देखना है। आप की बात भी सही है, लेकिन यकीन कीजिये आप सपने कहीं भी, कभी भी देख सकते हैं आवश्यक है कि आप सपने देखना जानते हों और इस काम मे आनंद प्राप्त करते हों।

सामान्यत: सपने नींद मे आते हैं और इस प्रकार के सपनों पर हमारा कोई नियंत्रण नही होता। ऐसे सपने पूर्व अनुभवों, भविष्य की चिंता या अन्य किसी भी कारण से आ सकते हैं, चुंकि सपने मस्तिष्क द्वारा देखे जाते हैं इसलिये हमारा निंद्रा मे होना इन सपनों को देखने में बाधक नही, बल्कि सहायक हो जाता है। नींद मे आने वाले सपने हमारी तात्कालिक मानसिक दशा के अनुरुप होते हैं और सामान्यत: अनियंत्रित होते हैं जब हम निंद्रा मे होते हैं तब भी हमारा मस्तिष्क सोचता रहता है, विभिन्न चित्र बनाता रहता है जो चलचित्र के समान बदलते रहते हैं, जिसमे अक्सर अस्पष्ट, और विचित्र घटनाऐ, संवाद और रंगीन अथवा रंगहीन आकृतियाँ हो सकती हैं। ये स्वप्न मनोविज्ञान का विषय हैं.मनोवैज्ञानिक इन स्वप्नों पर व्यापक अनुसंधान कर रहे हैं पर अब तक किसी तार्किक तथ्य तक नहीं पहुंच पाये हैं।

दूसरी ओर ऐसे सपने होते हैं जो हम जाग्रत अवस्था मे देखते हैं जिन्हें हम कभी भी, कहीं भी देख सकते हैं, वास्तव मे ऐसे सपने पूर्णत: सपने न होकर विचार-मग्न होने की उच्चतम अवस्था होते है जिसमे हम भविष्य की कार्य योजना बनाते हैं, ऐसा हम अपना काम करने के दौरान भी बिना किसी बाधा के कर सकते हैं। सपने देखने और सपने आने मे यही बुनियादी अंतर है जो सपने देखने कि प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बनाता है।

आखिर यह सपने देखना होता क्या है? सपने देखने का मतलब उन दिवास्वप्नों से नहीं है जो मानसिक जुगाली से ज्यादा कुछ भी नहीं, आशय है उन वैचारिक सपनों से, जो गहन मंथन और किसी संभावित कार्य व उद्देश्य के प्रभावों का पूर्व आकलन करते हैं जिसे अंग्रेजी भाषा मे “विज्युलाइज” करना कहा जाता है। अर्थात सपने सृजन करने से तात्पर्य उस प्रक्रिया से है जिसमे किसी कार्य को करने का संकल्प हो तथा उस कार्य को होते हुए “विज्युलाईज” किया गया हो। हम यह भी कह सकते हैं कि ऐसे सपने देखना एक रचनात्मक कार्य है और ये सपने देखने के लिये दूरदृष्टि, उमंग, उत्साह और साहस की आवश्यकता होती है। ये सपने आपकी कार्य क्षमता को बहुगुणित कर देते हैं, आसन्न कठिनाईयों के प्रति सचेत कर आपकी कार्य योजना को परिष्कृत कर देते हैं. ये ही वे सपने हैं जिन्हें सकारात्मक, सृजन शील, कल्पना कहा जाता है. प्रत्येक महान कार्य होने से पहले मन में विचार रूप में अंकुरित होता है, फिर सपने के रूप में पल्लवित होता है, तब संसाधन जुटाये जाते हैं और फिर उसे मूर्त रूप दिया जाता है. इसका सीधा सा अर्थ है कि हम कितनी और कैसी सफलता प्राप्त करेंगे यह इस पर आधारित है कि हम कैसे सपने बुनते हैं? कितनी गहराई तक उनसे जुड़ते हैं और कितनी तन्मयता से अपने सपनों को सच करने में जुट जाते हैं. तो जीवन में सफलता पाने के लिये आप भी देखिये कुछ ऐसे सकारात्मक सपने, और जुट जाइये उन्हें सच करने में. सपने वे नहीं होते जो हम सोते समय देखते हैं, सपने वे होते हैं जो हमें सोने नहीं देते.

© अनुभा श्रीवास्तव




English Literature – Poetry – ☆ Fair wasn’t fair ☆– Shri Divyanshu Shekhar

Shri Divyanshu Shekhar 

 

(Young author Shri Divyanshu Shekhar writes poems, stories, plays and scripts in Hindi and English. His first collection of poems  “Zindagi – ek chalchitra” was published in May 2017 and first English Novel “Too Close – Too Far” in December 2018. Today we present his poem “Fair wasn’t fair “.)

☆ Fair wasn’t fair ☆

A kid and an adult went to a fair and my good luck, I was also there.

Kid was cute like a teddy bear while adult was looking fit and fair.

There were swings, which were trying to make everyone feel that you also have wings.

Kid didn’t try due to the fear of height while adult didn’t try due to backbite.

Kid tasted foods irrespective to the diet while adult was counting someone unhygienic bites.

Kid shouted and laughed while adult just smiled.

Kid had everything to act while adult had nothing to react.

Kid looked all the things with possibilities while adult watched all those with responsibilities.

Kid’s expenditure was hundred percent while adult couldn’t spend a single cent.

I tried to talk with them individually but my bad luck, they both returned simultaneously.

I observed both but a doubt in my mind is still active, was fair a noun or just an adjective?

 

© Divyanshu Shekhar