हिन्दी साहित्य- कथा-कहानी – लघुकथा – ☆ फर्ज़ ☆ – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

फर्ज़

(प्रस्तुत है सुश्री ऋतु गुप्ता जी की जीवन में मानवीय अपेक्षाओं और फर्ज़ (कर्तव्य) के मध्य हमारी व्यक्तिगत सोच पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा। )

आज संजय का इंटरव्यू था एक जानी मानी कंपनी में। एमबीए किया था उसने मार्केटिंग में। पूरा आत्मविश्वास से भरा हुआ था, बल्कि उसने तो भविष्य के सपने भी बुनने शुरू कर दिये थे, उस कंपनी को लेकर। इसी कंपनी में उसका बड़ा भाई विशाल भी वाइस प्रेसीडेंट था जो कि अपनी ईमानदारी व वफादारी के लिए मशहूर था।संजय को पूरा विश्वास था कि उसके भाई का इतना ऊँचा ओहदा है कि  उसका तो तुरंत सेलेक्शन हो ही जाएगा।

बड़े रोब के साथ कंपनी में चले जा रहा था।मैनेजर की पोस्ट के लिए इंटरव्यू था 5 लोग आये हुए थे। तीन तो पहले ही रांउड में बाहर हो गए। संजय और एक दूसरा लड़का और बचे थे।संजय को पहले बुलाया गया,वह यह देख बड़ा खुश हुआ कि इस बार इन्टरव्यू लेने वालों में उसका भाई भी था। उसने यहाँ अपने भाई का अलग रूप देखा, उसके भाई ने तो सवालों की झड़ी लगा दी। वह सकपका गया। पर उसके बाहर आने के बाद भी उसको विश्वास था कि चयन तो उसी का होने वाला है। फिर दूसरे बंदे को अंदर बुलाया गया और उसको वहीं चयनित होने की सूचना दे दी गई। संजय निराश व गुस्से से भरा घर लौट आया यह सोच कर कि भाई को खूब खरीखोटी सुनायेगा।

जब शाम को भाई लौटा संजय भाई पर बरस पड़ा। विशाल छोटे भाई के गुस्से का बुरा न मान हँसते हुए उसे समझाने लगा, ” देख संजू मैं भाई होने से पहले एक इंसान व कंपनी का जिम्मेदार कर्मचारी पहले हूँ । इस नाते जो बंदा इस ओहदे के लायक था, मैनें उसे यह पद दे दिया। अगर भाई का फर्ज निभाना ही होगा तो मैं घर पर अब निभाऊंगा। देख मेरे भाई मेरी उंगली पकड़ कर आगे बढ़ना छोड़,अब तू बड़ा हो गया है तेरे ऊपर और जिम्मेदारियां भी आने वाली हैं। तू समझने की कोशिश कर मेरे भाई। मैं तैरा भला नहीं चाहूंगा तो और कौन चाहेगा। “संजय काफी देर तक तो परेशान रहा फिर एहसास होने लगा कि उसका भाई सही ही तो बोल रहा है।अब उसे अपने बलबूते पर ही आगे बढ़ना चाहिए।

© ऋतु गुप्ता




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ असीम बलिदान ‘पोलीस’ ☆ – श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर

श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर

असीम बलिदान ‘पोलीस’
(श्री संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर जी का e-abhivyakti में स्वागत है। कौन कहता है कि सेना और पोलिस  में कार्यरत कर्मी संवेदनशील नहीं होते और साहित्य की रचना नहीं कर सकते? यह कविता इस सत्य को उजागर है। गंतंत्रता दिवस  (दिनाक २६/०१/२०१८ )  को रचित श्री संतोष जी को एवं उनकी कलम को नमन।)  

कोणी आले पोटासाठी कोणी आले प्रेमासाठी,

कोणी कुटुब जगविण्यासाठी तर कोणी देशभक्तीसाठी.

नऊ महीने पोटात वाढला, नऊ महीने मैदानात झिजला,

खडतर प्रशिक्षण पुर्ण करुनी तो झुजण्या पोलीस झाला.

 

जनसेवाची नशाच चढली आठवण कुटुबाची मनातच विरली.

कधीखुन कधीदरोडा तर कधी दगलीत दगड अंगावर आली.

भिती त्याच्या ना डोळ्यात ना मनात कर्तव्यतही ना दिसली.

करीता तपास त्याची लेखनी अन काया नाही कधी दमली.

 

चौकीलाच घर माने जनतेतच मायबापाचा शोध असे डोळी.

मुला बाळाची आठवण येता ना आश्रु ढाळी आनंदानी गिळी.

पत्नीच्या विरहात जरी त्याची जात असे रोजच रात्र काळी.

तरीही जोमाने कार्यास लागे रविच्या साक्षीने रोज सकाळी.

 

तो यंत्र आहे का देव कसला हा अजब मानव प्रश्न मज पडे

कीती प्रकारची कामे करती त्याचे मोजमाप नाही कोणाकडे.

करता तपास रात्रदिनी कोणी बंदोबस्तात सदैव असते व्यस्त.

कोणी नक्षल्याची झुजते त्याच्या कामाला कधीच नाही अस्त.

 

कोणी जखमी दगड फेकीत कोणी अतंकवाद्याच्या गोळ्यात,

कोणी भुसुरुगात गेले गाडुन कोणी नक्षल्याच्या चकमकीत,

तरीही त्याची माघार नसे कर्तव्यत दुःख लपवत अश्रु गिळत,

जनतेसाठी भावनांचे बलिदान देत आनंदाने होतो तो शहीद.

 

ज्यांच्या बलिदानावर कुटुब आपले सुरक्षित आम्ही जगतो.

त्याच्याच त्यागाच्या अश्रुवर आम्ही सणवार साजरे करतो.

आपण मात्र सुखात आपल्या ते बलिदान क्षणात विसरतो.

तो मात्र हा विचार नकरता विरहातही कार्यतत्परतेने करतो.

 

राज्या राखीव बल असो वा गडचिरोलीचा जहाबाज पोलीस.

मुबईचा असो वा रेल्वे, ग्रामीण, माझा महाराष्ट्रचा तो पोलीस.

प्रत्येकाचे आहे बलिदान मोठे, आम्हासाठी दुसरा पर्याय कुठे,

‘सदरक्षणाय खल निग्रहनाय’ हे ब्रीद त्याचे आचारातही वठे

 

क्षणा क्षणाला मी त्याचे हे बलीदान खाकीत स्वताही स्मरतो.

खाकीलाच शान मानतो जनतेसाठी, तिरंग्यासाठी जीव देतो.

माझा असे त्रिवार मुजरा धन्यावाद त्याचे व देवाचे मानतो.

या जन्मी मला तु केला पोलिस  पुढिल जन्माची वाट पाहतो.

 

©  संतोष ज्ञानेश्वर भुमकर.

पोमके सावरगाव.

 




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (31) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण )

 

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।

धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ।।31।।

 

मन में विचलित हो न तू,अपना धर्म विचार

क्षत्रिय का तो धर्म है युद्ध ओर प्रतिकार।।31।।

 

भावार्थ :  तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात्‌तुझे भय नहीं करना चाहिए क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है।।31।।

 

Further, having regard to thy own duty, thou shouldst not waver, for there is nothing higher for a Kshatriya than a righteous war. ।।31।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

 

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

 




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – Recipe for Happiness – Shri Jagat Singh Bish

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

When asked for his recipe for happiness, Sigmund Freud gave a very short but sensible answer: “Work and love.”

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

Seminars, Workshops & Retreats on Happiness, Laughter Yoga & Positive Psychology.
Speak to us on +91 73899 38255
[email protected]
Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुक्ता जी के मुक्तक  ☆ –डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

मुक्ता जी के मुक्तक 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी के अतिसुन्दर एवं भावप्रवण मुक्तक – एक प्रयोग।)

 

दुनिया में अच्छे लोग

बड़े नसीब से मिलते हैं

उजड़े गुलशन में भी

कभी-कभी फूल खिलते हैं

बहुत अजीब सा

व्याकरण है रिश्तों का

कभी-कभी दुश्मन भी

दोस्तों के रूप में मिलते हैं

◆◆◆

मैंने पलट कर देखा

उसके आंचल में थे

चंद कतरे आंसू

वह था मन की व्यथा

बखान करने को आतुर

शब्द कुलबुला रहे थे

क्रंदन कर रहा था उसका मन

परन्तु वह शांत,उदारमना

तपस्या में लीन

निःशब्द…निःशब्द…निःशब्द

◆◆◆

मेरे मन में उठ रहे बवंडर

काश! लील लें

मानव के अहं को

सर्वश्रेष्ठता के भाव को

अवसरवादिता और

मौकापरस्ती को

स्वार्थपरता,अंधविश्वासों

व प्रचलित मान्यताओं को

जो शताब्दियों से जकड़े हैं

भ्रमित मानव को

◆◆◆

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com




हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दोहे ☆ – सुश्री शारदा मित्तल

सुश्री शारदा मित्तल

दोहे

(सुश्री शारदा मित्तल जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आप महिला काव्य मंच चड़ीगढ़ इकाई  की संरक्षक एवं वूमन टी वी की पूर्व निर्देशक रही हैं। प्रस्तुत हैं उनके दोहे। हम भविष्य में उनकी और रचनाओं की अपेक्षा  करते हैं।) 

 

कंकर पत्थर सब सहे, मैंने तो दिन रात  ।

सागर सी ठहरी रही, मैं नारी की जात ।।

 

साथ निभाया हर घड़ी, मन की गाँठें  खोल।

रिश्तों को महकाऐं हैं,  तेरे मीठे बोल ।।

 

मानवता देखें नहीं, सब देखें औकात ।

इस सदी ने दी हमें, ये कैसी सौगात ।।

 

अड़ियल कितना झूठ हो, सब लेते पहचान ।

खामोशी भी बोलती, सच में कितनी जान ।।

 

मात-पिता का हाथ यूँ, ज्यूँ बरगद की छाँव ।

तू जन्नत को खोजता, जन्नत उनके पाँव ।।

 

बौराया जग में फिरे, कैसे आऐ हाथ ।

तू बाहर क्यूँ  खोजता, वो है तेरे साथ ।।

 

खुद पर, तुझ पर, ईश पर, है इतना विश्वास ।

तूफ़ा कितने हों मगर, छू लूँगी आकाश ।।

 

शाखों से झरने लगे, अब हरियाले पात ।

शायद अपनों ने दिया, इनको भी आघात ।।

 

तुझे स्मरित जब किया, झुक जाता है शीश ।

प्रभु हमेशा ही मिले, बस तेरा आशीष ।।

 

नदी किनारे बैठकर कब बुझती है प्यास।

बिना भरे अंजलि यहाँ, रहे अधूरी आस।।

 

© शारदा मित्तल 

605/16, पंचकुला

 




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ?  अनोखे नाते ? – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

अनोखे नाते ?

 

(संभवतः विश्व में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं होगा जिसका पुस्तकों से परोक्ष या अपरोक्ष न रहा हो। सुश्री ज्योति हसबनीस जी e-abhivyakti के प्रारम्भिक साहित्यकारों में से एक हैं,  जिनका साहित्यिक सहयोग अविस्मरणीय है। आपकी यह कविता हमें बचपन से हमारे पुस्तकों से निर्बाध सम्बन्धों का स्मरण कराती हैं।)

 

पुस्तकांशी नातं लहानपणीच जडलं

चांदोबा वेताळ कुमार ने घट्ट घट्ट केलं

 

पऱ्यांच्या राज्यात मुक्त संचार

तर कधी जादुच्या सतरंजीवर होऊन स्वार किर्र जंगल घातले पालथे तर ऐटीत चढलो डोंगरमाथे ,

 

कधी मैफल जमली हिमगौरी अन् सात बुटक्यांची

तर चाखली गंमत फास्टर फेणेच्या सायकल शर्यतीची

 

तिरसिंगरावाच्या कुस्तीत हरवून गेलो

तर मॅंड्रेकच्या संमोहनात हरखून गेलो

ब. मों. नी साकारलेल्या शिवशाहीने मोहून गेलो

तर ह. ना. आपटेंच्या सूर्यग्रहणाने दु:खी झालो

 

बोकिल द. मांच्या मिष्कीलीत खळाळून हसलो तर पुलंच्या हसवणूकीत पार विरघळलो

 

विंदा, बोरकर, शांताबाईंच्या कवितेचे सूरच आगळे होते

कुसुमाग्रजांच्या कुंचल्याचे देखील आगळेच रूप होते

 

पुस्तकांतलं जग, जगातल्या जाणीवा

झिरपत झिरपत तनामनात रूजल्या

चराचराशी अनोखं नातं जोडत्या झाल्या

 

आजही माझ्या एकांती मी एकटी कधीच नसते

पुस्तकाची मला लाखमोलाची सोबत असते

 

तीच माझा सखा सोबती प्रियकर होतात

आणि जीवनाचे अनोखे धडे मला देतात

 

माझे अश्रू, माझे हास्य,

माझे कुतूहल, माझी खळबळ

सारं काही ह्या पुस्तकांभोवतीच

 

माझी जिज्ञासा, माझी ज्ञानलालसा

माझा लळा, माझा विरंगुळा

सारं काही ह्या पुस्तकांच्या संगतीच

 

अंतरीचे मळभ असो,

की मनमोराचा झंकार

पुस्तकांचा त्यांस तत्पर रूकार

 

वाटते ही सोबत जन्मजन्मांतरी लाभावी

पुस्तक वाचता वाचता पल्याडची हाक यावी ….!

 

©  सौ. ज्योति हसबनीस




मराठी साहित्य – मराठी कविता – ☆ अळवाचं पाणी ☆ – श्रीमति सुजाता काले

श्रीमति सुजाता काले

अळवाचं पाणी

 

(प्रस्तुत है  श्रीमति सुजाता काले जी  की एक भावप्रवण  कविता  अळवाचं पाणी ।)

 

प्रिये,

तू चांदणी चमचमणारी !
मी टिमटिमणारा तारा ….

 

तू वादळ घोंघावणारं !
मी मंद वाहणारा वारा …..

 

तू धुक्यातील सकाळ,
मी दवबिंदू गवतावरचे….

 

तू मोती शिंपल्यातील,
मी पाणी अळवावरचे…!!

 

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र



आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (29) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

द्वितीय अध्याय

साँख्य योग

( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )

(सांख्ययोग का विषय)

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।

आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌।।29।।

 

अचरज से कोई देखता,कहता सुनता कोई

किन्तु बडा आश्चर्य यह जान न पाया कोई।।29।।

 

भावार्थ :   कोई एक महापुरुष ही इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता।।29।।

 

One sees This (the Self) as a wonder; another speaks of It as a wonder; another hears of It as a wonder; yet, having heard, none understands It at all. ।।29।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)




योग-साधना LifeSkills/जीवन कौशल – The Happiness Mantra – Shri Jagat Singh Bisht

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator and Speaker.)

Everyone wants to be happy. Here are some simple happiness mantras:

  • Every morning, do yoga and meditation – or walk and exercise.
  • During the day, smile and be kind to all.
  • In the evening, look back at 3 things that went well in the day.
  • During the week-end, spend quality time with your family and friends.
  • Engage deeply in work, studies, play, love and parenting.
  • Devote yourself to a meaningful humanitarian or social cause.
  • Share an occasional ice-cream or chocolate with a child.
  • Be happy and make others happy.

Jagat Singh Bisht

Founder: LifeSkills

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Courtesy – Shri Jagat Singh Bisht, LifeSkills, Indore