हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-6 – कौई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-6 – कौई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

सच! कितनी प्यारी पंक्तियाँ हैं :

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

प्यारे प्यारे दिन,

वो मेरे प्यारे पल छिन!

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!

नहीं हम सब जानते हैं कि बीते हुए दिन कभी नहीं लौटते, बस उन दिनों की यादें शेष रह जाती हैं। मेरे पास भी बस यादें ही बची हैं, जालंधर में बिताये सुनहरी दिनों कीं! बात हो रही थी डाॅ तरसेम गुजराल के संपादन में प्रकाशित कथा संकलन ‘खुला आकाश,  की और उसमें प्रकाशित कथाकारों की ! इसमें खुद तरसेम गुजराल, रमेश बतरा, योगेन्द्र कुमार मल्होत्रा (यकम), राजेन्द्र चुघ, रमेंद्र जाखू, कमलेश भारतीय, सुरेंद्र मनन, विकेश निझा वनऔर मुकेश सेठी जैसे दस कथाकार शामिल थे। आपस में हम सब मज़ाक में कहते थे कि हम दस नम्बरी लेखकों में शामिल हैं। हम में से विकेश निझावन अम्बाला शहर में रहते थे जिन्होंने आजकल “पुष्पांजलि’ जैसी शानदार मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू कर रखा है। इनके पास मैं और मुकेश सेठी नवांशहर से अम्बाला जाते और उन बसंती दिनों में रात का सिनेमा शो भी देखते। विकेश निझावन की कहानियों को जालंधर दूरदर्शन पर नाट्य रूपांतरण कर प्रसारित किया गया तब उनकी खूब चर्चा हुई। यही नहीं उन्हें हिसार में प्रसिद्ध कवि उदयभानु हंस ने हंस पुरस्कार से भी पुरस्कृत किया। जिन दिनों मुझे हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बनाया गया  तब हिसार से चंडीगढ़ जाते या लौटते समय मैं ड्राइवर को उनके घर गाड़ी रोकने को कहता। विकेश निझावन का घर बिल्कुल मेन सड़क पर ही है और हम चाय की चुस्कियों के साथ पुराने दिनों को याद करते। इनके पापा डाॅक्टर थे।विकेश ने पुष्पगंधा’ के कथा विशेषांक में मेरी कहानी भी चुनी। छोटे बच्चों का स्कूल यानी किनरगार्डन भी चलाते रहे।

 हम वरिष्ठ व चर्चित कथाकारों स्वदेश दीपक व राकेश वत्स के संग भी बैठते और कथा लिखने पर बातें करते करते कथा लेखन की बारीकियाँ भी सीखते!  अफसोस आज न स्वदेश दीपक हैं और न ही राकेश वत्स! स्वदेश दीपक के प्रथम कथा संग्रह- अश्वारोही को हम दोनों ने राजेन्द्र यादव के अक्षर प्रकाशन से मंगवाया और खूब डूब कर, गहरे से पढ़ा। ये अलग तरह की कहानियों का संकलन है। स्वदेश दीपक फिर एच आर धीमान के सुझाव पर नाटक लिखने लगे और उनका लिखा नाटक-कोर्ट मार्शल न जाने देश भर में कहां कहां मंचित किया गया! फिर उन्होंने मेरे द्वारा दैनिक ट्रिब्यून के लिए हुई इंटरव्यू में कहा भी कि कहानियों के पाठक कम और नाटक के दर्शक ज्यादा होते हैं और इनका दर्शकों पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है। देर तक मन पर प्रभाव बना रहता है। दुख यह है कि स्वदेश दीपक के अंदर कहीं गहरे उदासी और आत्मघाती भावना किसी कोने में रहती थी जिसके चलते एक बार रसोई गैस सिलेंडर से खुद को जला लिया और पीजीआई, चंडीगढ़ में दाखिल करवाया गीता भाभी ने! उन दिनों तक मैं देनिक ट्रिब्यून में उपसंपादक हो चुका था। यह सन् 1990 के आसपास की बात होगी ! मैने संपादक विजय सहगल को यह जानकारी दी तो उन्होंने मेरे साथ फोटोग्राफर मनोज महाजन को भेजा कि उनसे हो सके तो कुछ बात करके आऊं‌! हम दोनों पीजीआई गये। बैड के पास गीता भाभी उदास बैठी थीं और मनोज ने पट्टियों में लिपटे स्वदेश दीपक की फोटो खींची और मैने रिपोर्ट लिखी- ‘स्वदेश दीपक को अपनों का इंतजार’ जिसमें चोट हरियाणा साहित्य अकादमी पर की गयी थी कि ऐसे चर्चित कथाकार की कोई सहायता क्यों नहीं की जा रही। मेरी रिपोर्ट का असर भी हुआ। अकादमी ने बिना देरी किये पांच हजार रुपये देने की घोषणा कर दी। इस रिपोर्ट की कटिंग बहुत साल तक मेरे पर्स में पड़ी रही। पता नहीं क्यों? तब तो स्वदेश दीपक बच गये क्योंकि अभी उन्हें हिंदी साहित्य को शोभायात्रा जैसा नाटक और मैने मांडू नहीं देखा जैसी कृतियाँ देनी थीं लेकिन फिर कुछ वर्षों बाद वही आत्मघाती भावना ने जोर मारा और वे बिना बताये घर से चले गये! कोई नहीं

जानता कि उनका अंतिम समय कहाँ और कैसे हुआ!  राकेश वत्स भी पिंजौर जाते हुए बुरी तरह दुर्घटनाग्रस्त हुए और उनके इलाज़ उपचार में शास्त्री नगर में बनाया खूबसूरत मकान भी बिक गया लेकिन वे नही बच पाये! वैसे वे स्कूटर पर ही चंडीगढ़ आते जाते। हमने भी उनके स्कूटर की सवारी का लुत्फ चंडीगढ़ में अनेक बार उठाया। उनकी भी इंटरव्यू करने जब अम्बाला छावनी गया था तब अपना शानदार मकान दिखाते बड़े चाव से बताया था कि यह मकान मैंने अपनी मेहनत से बनाया है लेकिन अफसोस वही मकान बेच कर भी उन्हें बचाया न जा सका! राकेश वत्स सरस्वती विद्यालय नाम से प्राइवेट संस्था चलाते थे और उन्होंने ‘मंच’ नामक पत्रिका भी निकाली और ‘सक्रिय’ कहानी आंदोलन चलाने की कोशिश की जिसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। दोनों की कहानियों को मैंने हरियाणा ग्रंथ अकादमी की कथा समय पत्रिका में प्रकाशित किया और सम्मान राशि इनके परिवारजनों को भिजवाई। स्वदेश दीपक की कहानी महामारी और राकेश वत्स की कहानी आखिरी लड़ाई प्रकाशित की। तब इनकी पत्नी नवल किशोरी ने मुझे आशीष दी थी, आज वे भी इस दुनिया में नहीं है। स्वदेश दीपक की सम्मान राशि  इनकी बेटी पारूल को भिजवाई जो अब इंडियन एक्सप्रेस में सीनियर पत्रकार हैं और उसका पंजाब विश्वविद्यालय में एडमिशन फाॅर्म लेकर देने मैं ही उसे लेकर गया था, प्यारी बेटी की तरह क्योंकि मैं दैनिक ट्रिब्यून की ओर से पंजाब विश्वविद्यालय की कवरेज करता था तो मेरी सीनियर डाॅ रेणुका नैयर ने पारूल को विश्वविद्यालय लेकर जाने को कहा था। पारूल आज भी मेरे सम्पर्क में है। राकेश वत्स के बेटे बल्केश से कभी कभार बात हो जाती है !

खैर! आप भी सोचते होंगे कि कहाँ जालंधर और कहाँ अम्बाला छावनी पर  मैं और मुकेश सेठी एकसाथ अम्बाला छावनी और जालंधर जाते थे और बाद में चंडीगढ़ भी साथ रहा। मुकेश सेठी और जालंधर के किस्से कल आपको सुनाऊंगा!

आज यहीं विराम देना पड़ेगा यही कहते हुए कि –

कोई लौटा दे मेरे बीते पल छिन‌!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #224 – 111 – “शहादत तय होती है परवाना की…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल शहादत तय होती है परवाना की…” ।)

? ग़ज़ल # 111 – “शहादत तय होती है परवाना की…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुहब्बत में अक्सर रोना पड़ता है,

आसुओं से दामन धोना पड़ता है।

शहादत तय होती है परवाना की,

रोशन शम्मा  को होना पड़ता है।

इश्क़ कितना  भी सच्चा हो जाये,

इल्ज़ामे जफ़ा  तो ढोना पड़ता है।

वस्ल के हालत कितने भी बनते हों,

यूँ कभी तन्हा  भी सोना  पड़ता है।

बन गए अगर शौहर बीबी तो भी तो,

बीज  झूठे  सच्चे  बोना  पड़ता  है। 

आख़िरी मंज़िल फ़िराक़ की होती है,

यदाकदा लिहाफ़ भिगोना पड़ता है।

इश्क़ की फ़ितरत इस तरहा ही होती,

महबूब को  आतिश खोना पड़ता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय उवाच ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – संजय उवाच ? ?

कुरुक्षेत्र में

केवल योगेश्वर

और पार्थ का

संवाद नहीं हुआ था,

केवल गीता का

महत ज्ञान

बखान नहीं हुआ था,

दुर्योधन, दुःशासन,

शकुनि, कौरवों ने

ढेर सारा गरल

वमन किया था;

जिसका संजय ने

कभी वर्णन नहीं किया था,

उसने सुनाया केवल

योगेश्वर उवाच,

अमानवीयता को

मानवता

प्रदान करने के लिए,

सुनो,

अमानवीयता के पक्षधरो!

सतर्क रहना

‘अ’ को हटाने के

इस कर्णधार के

अभियान से,

सजग रहना

हलाहल छिपाने;

अमृत चखाने के

इस सूत्रधार के

सूत्र ज्ञान से,

भीतर बसे राक्षसो!

सतर्क रहना

कन्हाई शब्द रास से,

सजग रहना

‘संजय उवाच’ से…!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

नुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




English Literature – Poetry ☆ Poison or betrayal… ☆ Hemant Bawankar ☆

Hemant Bawankar

☆ Poison or betrayal… ☆ Hemant Bawankar ☆

No problem.

You had glorified me

in the iridescent womb

of an iridescent world.

You showed me

an elusive glance of the world

in the shadow of the rainbow

heavenly-natural-divine

glimpses of pleasure

rivers of milk

and

the golden world,

the height of civilization

scientific-atomic-space age

glimpses of an era

ocean of pleasures

and

you showed me

unimaginable

colourful dreams.

 

I became anxious

to see your heaven

but, no

now you cannot trick me.

I am watching

difference

in theory and practical.

 

I

I can’t remain silent.

I will scream.

I will say to all.

You betrayed me.

 

However,

I am not like you

I will never betray

The creature! ….The soul!

Which is flourishing

in my iridescent womb.

 

I… I will give

venom to it.

But, betrayal!

Not at all.

14th June, 1978

(This poem has been cited from my book The Variegated Life of Emotional Hearts”.)

© Hemant Bawankar

Pune

≈ Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM 



हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 291 ⇒ पीठ सुनती है… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “पीठ सुनती है।)

?अभी अभी # 291 ⇒ पीठ सुनती है… ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जब दीवारों के कान हो सकते हैं, तो पीठ क्यों नहीं सुन सकती ? एक समय था, जब दीवारें भी मजबूत हुआ करती थीं, आज की तरह चार इंच की नहीं। मोटी मोटी दस इंच की दीवारें, जिनमें आले भी, होते थे और ताक भी, और तो और अलमारी भी। कमरों की दीवारों में या तो खिड़कियां होती थीं, या फिर रोशनदान। खिड़की अथवा रोशनदान ही संभवतः दीवारों के कान होते होंगे, जिनसे हवा के साथ कई रहस्य भी दीवारों तक पहुंच जाते होंगे। शायर लोग दीवारों से सर यूं ही नहीं टकराया करते। दीवारें जरूर उनके कान में कुछ कहती होंगी।

जब हम दीवार की ओर पीठ करके खड़े होते हैं, तो शायद हमारी पीठ भी कुछ तो सुनती ही होगी। मुझे अच्छी तरह याद है, बचपन में मैं दीवार से सटकर बैठता था, तो शरीर में कुछ सिहरन, कुछ सरसरी सी होती थी, ऐसा महसूस होते ही, जहां हाथ उस जगह पहुंचा, अनायास खटमल हाथ में आ जाता था। खटमलों की टोली पीठ पर चढ़कर आस्तीन तक पहुंच जाती थी। हमने आस्तीन में सांप ही नहीं, खटमल भी पाले हैं।।

हम जब किसी की तारीफ करते हैं, तो उसकी पीठ थपथपाते हैं, ठीक वैसे ही जैसे संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त सभी सदस्य मेज़ थपथपाया करते हैं। किसी प्रस्ताव को ध्वनिमत से पास करने पर भी मेज़ थपथपाई जाती है। पीठ को थपथपाने पर पीठ को भी कुछ कुछ होता है, पीठ तो सहलाने पर वह भी अभिभूत हो जाती है। पीठ सब सुनती भी है, और महसूस भी करती है।

इंसान का सबसे ज्यादा बोझ उसकी पीठ ही वहन करती है। कंधों पर भी तो बोझ होता है, लेकिन दोनों कंधे भी तो पीठ पर ही लदे रहते हैं। इंसान हो या कछुआ, पीठ तो दोनों की ही मजबूत होती है। हमारा तो छोड़िए, पूरी पृथ्वी का भार वहन करते कूर्मावतार।।

पीठ पीछे तारीफ ही नहीं, बुराई भी होती है। युद्ध में बुजदिल पीठ दिखाते हैं, कायर पीठ पीछे छुरा भी भोंकते हैं, पीठ पीछे लोग क्या क्या गुल खिलाते हैं, कभी पलटकर भी देखिए। हमें अपनी पीठ नजर नहीं आती, सामने सीना जरूर नजर आता है क्योंकि हमने सीना तानकर ही चलना सीखा है। हम अपनी पीठ ना तो देखते हैं, और ना ही किसी को दिखाते हैं। जिसकी बुराई करना हो, निःसंकोच उसके मुंह पर करते हैं, लेकिन पीठ पीछे उसकी तारीफ ही करते हैं।

हमारी पीठ ही हमारी रीढ़ है, शरीर की सबसे मजबूत और लचीली हमारी रीढ़ ही है। यह हमें झुकना भी सिखाती है और तनकर खड़े रहना भी। स्थूल और सूक्ष्म, मूलाधार से सहस्रार, पंच तत्व और सातों लोक इसी में समाए हैं। लोग आस्तीन में सांप पालते हैं, जब कि असली सर्पिणी रूपी ज्ञानवती कुंडलिनी तो यहीं विराजमान है।।

विद्या और ज्ञान को हम पीठ कभी नहीं दिखाते। विद्यापीठ, ज्ञानपीठ सृजन पीठ और व्यास पीठ हमारे ज्ञान के आगार हैं। श्रुति, स्मृति से यह ज्ञान पुस्तकों में आया और बच्चों की पीठ पर किताबों का बोझ लाद दिया गया। बच्चों की पीठ पर किताबें हैं, या गेहूं का बोरा।

जो पढ़ लिख गया और लिखने, पढ़ने, छपने लग गया, उसे जीवन में कभी सरस्वती सम्मान, व्यासपीठ सम्मान अथवा ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल सकता है। ज्ञान की पीठ इनमें सर्वश्रेष्ठ होती है।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

 

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 103 ☆ ग़ज़ल – वक्त किस्मत हालात  किससे  शिकवा करें ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 103 ☆

☆ ग़ज़ल – वक्त किस्मत हालात  किससे  शिकवा करें ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1] मतला

अपने ही आज अब क्यों बेगाने हो गए।

नहीं मिलने के ही  लाखों बहाने हो गए।।

[2]    हुस्ने मतला

उनके अब तो आसमानी निशाने हो गए।

न जाने कौन से उनके   दोस्ताने हो गए।।

[3]

अब वो मुस्कराते नहीं हैं   देख  कर भी।

तरीके बात करने के   अनजाने हो गए।।

[4]

नए दौर के नए चलन में अब वो आए हैं।

लगता है कि  हम तो माल  पुराने हो गए।।

[5]

नजर से नजर देख कर  अब मिलाते नहीं।

अंदाज ही उनके नजर को   बचाने हो गए।।

[6]

देख देख कर ही रुख  की बेरुखी उनकी।

हमारे अब तो रास्ते सारे ही वीराने हो गए।।

[7]

वक्त किस्मत हालात  किससे  शिकवा करें।

दुनिया सामने सारे अफसाने फसाने हो गए।।

[8]

जिनके बिन कटती नहीं थी इक पल जिंदगी।

बात करे हुए    उनसे ही अब  जमाने हो गए।।

[9]

हंस समझ   कर बदलते तौर तरीके आज के।

शहर में कदम कदम पर अब मयखाने हो गए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 165 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “कृषि प्रधान है देश हमारा…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “कृषि प्रधान है देश हमारा ..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “कृषि प्रधान है देश हमारा ” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

कृषि प्रधान है देश हमारा हम सब भारतवासी

धर्म-कर्म के क्षेत्र अनेकों, ज्यों मथुरा औ’ काशी।

 

कई ऋतुएँ आ समय-समय पर सुन्दर इसे बनाती

फल सब्जी, अनाज भेदों सब झोली में भर जाती।

 

सूरज तपता यहाँ तेज तब होती धरती प्यारी

सभी एक से व्याकुल होते राही हो या संन्यासी।

 

आग बरसी, लू चलती है बहता बहुत पसीना

ठंडी जगह और पानी बिन मुश्किल होता जीना।

 

तब काले मेघों के सँग आ नभ में वर्षा रानी

लाती हवा फुहारों के संग बरसाती है पानी।

 

वर्षा के स्वागत में खुश हो पेड़ हरे हो जाते

पशु-पक्षी हर्षित होते नर-नारी हँसते गाते ।

 

खेत, बाग, वन सुन्दर सजते पहने चूनर धानी

चारों ओर नदी नालों में दिखता पानी-पानी ।

 

पावस की बूँदें दुनिया में नया रंग भर जाती

बहू-बेटियाँ खुश गाँवों में नित त्यौहार मनाती ।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “कोण खरं कोण खोटं ?” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ ☆

सौ विजया कैलास हिरेमठ

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “कोण खरं कोण खोटं ?” ☆ सौ विजया कैलास हिरेमठ 

कोण खरं कोण खोटं

जगण्यापेक्षा असतं का ते मोठं

जे जसं आहे तसं

स्वीकारलं  तर काय बरं बिघडतं  …

*

काय चूक काय बरोबर

ठरवणं महत्वाचं असतं का खरोखर

चुकातूनही शिकता येतं

बरोबर तरी नेहमीच कुठं सोबतीला राहतं…

*

बदल नेहमी चांगला असतो

तरीही नकोनकोसाच वाटतो

न बदलता कुणाला बरं रहता येतं

बदललोच नाही तर जगणंच कठीण होवून बसतं ….

*

माझं ते माझं ,तुझं ते तुझं

सगळंच सारखं सगळ्यांचं

असं का होतं कुठं

वेगळेपण प्रत्येकाचं असतं महत्वाचं …

*

नको तक्रार नको स्पर्धा

तुलनेत जीव होई अर्धा अर्धा

स्वीकारू जो आहे जसा तसा

हाच सुंदर आयुष्याचा मार्ग सोपा…

💞शब्दकळी विजया💞

©  सौ विजया कैलास हिरेमठ

पत्ता – संवादिनी ,सांगली

मोबा. – 95117 62351

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – विविधा ☆ आनंदाची फुले वाटणारे झाड… ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆

श्री विश्वास देशपांडे

? विविधा ?

आनंदाची फुले वाटणारे झाड… ☆ श्री विश्वास देशपांडे

आज मी सांगणार आहे महाराष्ट्राच्या त्या लाडक्या व्यक्तिमत्वाबद्दल . ओळखलंच असेल तुम्ही. आपले ते भाई हो. म्हणजेच सर्वांचे लाडके पुलं . तर आज त्यांचे एक दोन किस्से सांगून  मी तुमची सकाळ आनंदी करणार आहे. पुलं म्हणजे मोठे साहित्यिक, गायक, वादक, संगीतकार, वक्ता. एक अष्टपैलू व्यक्तिमत्व. पण अशी माणसं माणूस म्हणून सुद्धा किती मोठी असतात, ते दर्शविणारी ही घटना. मधू गानू यांनी पुलंना ‘ माणसांनी मोहरलेलं झाड . असं त्यांच्या पुस्तकात म्हटलं आहे. ते खरंच आहे. कारण पुलंच्या घरी सतत गायक, वादक, कलाकार, साहित्यिक, त्यांचे चाहते इ चा सतत राबता असायचा. पण पुलं आणि सुनीताबाई न कंटाळता त्या सर्वांची सरबराई करत असायचे. जसं रानातलं एखादं चवदार आणि थंड पाण्याचं तळं असावं, आणि त्या तळ्यावर येऊन प्रत्येकानं आपली तहान भागवावी, तसे पुलंकडे येऊन प्रत्येकजण समाधानी आणि आनंदी होऊन जायचा. पण कधी कधी हे तळच तृषार्तांकडे आपण होऊन जायचं. एक प्रसंग घडला तो असा.

पुलं इचलकरंजीच्या साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष होते. या संमेलनात वारणानगरची काही मुले येऊन आपली कला सादर करणार होती. पण काही कारणाने ती मुले संमेलनात येऊ शकली नाहीत. पुलंना हे कळले तेव्हा त्यांनी संमेलन आटोपल्यानंतर त्या मुलांच्या भेटीसाठी जाण्याचे ठरवले. आणि ते वारणानगरला गेले. जणू पुंडलिका भेटी परब्रह्म आले. त्यांना पाहिल्यावर मुलांचा आनंद गगनात मावेना.

एक चुणचुणीत मुलगा म्हणाला, ” आम्हाला साहित्य संमेलनात आमची कला सादर करायला मिळेल असे वाटले होते. पण आम्हाला आमंत्रणच आले नाही. पण आता साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष स्वतः आम्हाला भेटायला आले आणि आम्हाला खूप आनंद झाला. आता त्यांच्यासमोर आम्ही आपली कला सादर करू. पण आमची एक अट आहे. आमचा कार्यक्रम आवडला तर पुलंनी आम्हाला पेटी वाजवून दाखवावी. पुलंनी अर्थातच त्यांची ही अट मान्य केली.

आणि नंतर घडले ते सगळे अद्भुत ! मुलांच्या कलागुणांवर पुलं अफाट भाळले. त्यांनी मुलांना मग पेटी तर वाजवून दाखवलीच, पण त्यांना जे जे हवे ते सगळे केले. एवढे करून पुलं  थांबले नाहीत. त्यांनी त्या मुलांच्या कलागुणांचे कौतुक वर्तमानपत्रात लेख लिहून केले. शिवाय आपल्या पुढाकाराने त्या मुलांचा कार्यक्रम पुण्यात घडवून आणला. मुलं  आणि पुलं  यांची झकास गट्टी जमली. मुलांचे ते आवडते ‘ भाईकाका ‘ झाले. असे होते पुलं . जेवढे साहित्यिक म्हणून मोठे, तेवढेच माणूस म्हणूनही.

एकदा पुलंच्या वाढदिवसाच्या दिवशी एक पत्रकार त्यांची मुलाखत घ्यायला त्यांच्या घरी गेला. काही प्रश्न विचारल्यानंतर ‘ तुमच्या जीवनातील सर्वात आनंदाचा क्षण कोणता’ असे त्याने पुलंना विचारले. काही क्षण पुलं शांत होते. पत्रकाराला वाटले की बहुधा त्यांना काय सांगावे हा प्रश्न पडला असेल. साहित्य संमेलनाचे अध्यक्ष झाल्याचा क्षण, नाट्य संमेलनाचे अध्यक्ष झाल्याचा क्षण इ पैकी कोणता सांगावा असा त्यांना प्रश्न पडला असेल. तो काही बोलणार तेवढ्यात पुलं म्हणाले, ‘ एकदा माजी पंतप्रधान इंदिराजी आपल्या मंत्रिमंडळासमवेत चर्चा करीत होत्या. त्या म्हणाल्या की आपल्या देशातले जे महान लोक होऊन गेले , त्यांचा सन्मान तर आपण टपाल तिकीट काढून करतोच, पण एखाद्या परदेशातील व्यक्तीवर तिकीट काढून त्यांचा सन्मान करावा असे वाटते. त्यांचे सहकारी म्हणाले की छान कल्पना आहे. कोणाचे नाव आपल्या डोळ्यांसमोर आहे का ? तेव्हा इंदिराजी म्हणाल्या जगाला हसवणाऱ्या आणि काही काळ का होईना पण आपले दुःख विसरायला लावणाऱ्या चार्ली चॅप्लिनवर तिकीट काढावे असे वाटते. ‘ वा. फारच छान कल्पना ! ‘ सहकारी म्हणाले.

तेव्हा एका मंत्र्याने विचारले की कोणाच्या हस्ते हे तिकीट प्रकाशित करावे असे आपल्याला वाटते ? तेव्हा इंदिराजी म्हणाल्या, ‘ तो महाराष्ट्रातला पी एल आहे ना, लोकांना आपल्या नर्मविनोदाने हसवणारा, त्याच्या हस्ते हे तिकीट प्रकाशित करावे असे वाटते. ‘

पुलं  त्या पत्रकाराला म्हणाले , ‘ तो माझ्या जीवनातला परमोच्च आनंदाचा क्षण ! ‘

एकदा पुलंना कोणीतरी तुम्ही आत्मचरित्र कधी लिहिणार असे विचारले होते. तेव्हा पुलं म्हणाले, ‘ मी आत्मचरित्र लिहीन की नाही हे माहिती नाही, पण लिहिलेच तर त्याचे नाव ‘ निघून नरजातीला रमविण्यात गेले वय ‘ असे असेल असे सांगून टाकले. आपल्या साठ वर्षांच्या जगण्याचे मर्म अशा रीतीने पुलंनी एका ओळीत सांगून टाकले होते. असे हे आनंदाची फुले वाटणारे झाड..!

© श्री विश्वास देशपांडे

चाळीसगाव

प्रतिक्रियेसाठी ९४०३७४९९३२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈




मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ एस ए ग्रुप… – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर ☆

श्री प्रदीप केळुस्कर

?जीवनरंग ?

☆ एस ए ग्रुप … – भाग-२ ☆ श्री प्रदीप केळूसकर

(अर्ध्या तासात मनीष आणि वंदना पोलीस स्टेशन वर पोहोचली, तोपर्यंत  S A ग्रुपमधील अनेक जण पोलीस स्टेशन कडे जमा झाले होते.) – इथून पुढे — 

ही सर्व मंडळी येताच पोलिसांची जीप तिच्या घरच्या दिशेने निघाली. त्याच्या पाठोपाठ S A ग्रुप मधील मेंबर्स पण निघाले. पोलिसांनी तिची चाळ शोधून काढली, दार आतून बंद केलेले होते. पोलिसांनी धक्के मारून दार उघडले. पोलिसांच्या मागोमाग या ग्रुपमधील मेंबर्स पण आता घुसले.दार उघडताच अस्ताव्यस्त अवस्थेत प्रणिता कॉटवर पडलेली दिसली, लेडी पोलीस पुढे झाली, तिने तिला हलवायचा प्रयत्न केला, मग तिने तिची नाडी चेक केली आणि सर्वांकडे वळून ती म्हणाली, ” नाडी संथ आहे पण लागते आहे, तिला हॉस्पिटलला तातडीने न्यायला लागेल.” 

मनिषने मघा येताना एका राजकीय पक्षाचे ऑफिस जवळच असल्याचे पाहिले होते, त्यामुळे मनिष धावत खाली उतरला आणि त्या ऑफिसमध्ये गेला. सुदैवाने त्या पक्षाची ऍम्ब्युलन्स बाजूच्याच गल्लीत पार्क केलेली होती, त्याने ड्रायव्हरला ती चाळीखाली आणायला सांगितली. महिला पोलीस आणि वंदनाने तिला उचलून जिन्यातून  खाली घेतले. एव्हाना एस ए ग्रुप मेंबर्सना हा पत्ता कळला होता, त्यामुळे त्या ग्रुपमधील बरीच मंडळी जमा होऊ लागली… ..  ऍम्ब्युलन्स पुढे, त्यात लेडी पोलीस सोबत वंदना होती आणि पाठोपाठ एस ए ग्रुप्स मधील पुरुष स्त्रिया आपापल्या गाडीतून येत होती. 

ऍम्ब्युलन्स गव्हर्नमेंट हॉस्पिटलमध्ये पोहोचली आणि पोलिसांनी प्रणिताला ऍडमिट केले.

मेडिसिन डिपार्टमेंटच्या मुख्य डॉक्टरांनी तिला तपासले. तिची नाडी मंद चालू होती, ब्लड प्रेशर खूपच खाली गेलं होतं, ऑक्सिजन लेव्हल चिंताजनक होती.

सोबत असलेल्या वंदनाला डॉक्टर म्हणाले,  ” खूपच क्रिटिकल कंडिशन आहे, बहुतेक हिने भरपूर ड्रग्स घेतले असण्याची शक्यता आहे, वाचण्याची शक्यता कमी आहे.  हिचे जवळचे नातेवाईक असतील तर त्यांना बोलावून घ्या.” 

वंदनाला प्रश्न पडला, हिची फारशी ओळखच नव्हती, मग हिचे नातेवाईक शोधायचे कसे? हिचे गाव तालुका ही काही माहित नाही. एवढ्यात वंदनाच्या लक्षात आले, ‘ मगाशी हा तिच्या रूममध्ये तिच्या कॉटवर असलेला मोबाईल मी माझ्या पर्समध्ये टाकला  होता.’  वंदनाने आपली पर्स उघडून प्रणिताचा मोबाईल बाहेर काढला. तो आता चालू कसा करायचा हे तिला कळेना. मग अनेक युक्त्या वापरून  (नेहेमीच्या ) तिने तिचा मोबाईल उघडला. तिचे कॉल उघडून कोणी ओळखीचे नाव येते का ती पहात होती, एवढ्यात  तिला ‘ आई ‘ असे नाव दिसले. वंदनाने ओळखले हा प्रणिताच्या आईचा नंबर असणार.

 तिने मनीषला आणि संगीताला तिच्या मोबाईलमधला आईचा नंबर दाखवला. मनीष तिला म्हणाला ” तूच तिच्या आईला फोन कर, ती सिरीयस आहे असे सांगू नको, तिचा अपघात झाला आहे आणि ती हॉस्पिटलमध्ये आहे असे तिच्या आईला सांग “.  संगीताचे पण तसेच म्हणणे होते. यावेळेपर्यत त्यांच्या एस ए ग्रुप मधील बरीच मंडळी जमा झाली होती. त्या ग्रुपमधील श्याम, अनुजा यांचं पण तेच म्हणणं, ‘ तू फोन कर आणि तिच्या आईला न घाबरवता कळव आणि ती मंडळी मुंबईत येत असतील तर येउ दे.’ 

मग वंदनाने ‘ आई ‘ या फोनवर फोन लावला.

आई – काय ग, नवीन काही काम मिळत आहे का?

वंदनाला कळले ..  फोन प्रणिताचा म्हणून तिच्या आईला फोनवर प्रणिता वाटली असणार.

वंदना – काकू, मी प्रणिताची मैत्रीण वंदना, मी आणि तिने अनेक मालिकामध्ये एकत्र काम केले आहे.

आई – अग मग प्रणिता कुठे आहे?

वंदना – काकू, प्रणिताला लहानसा अपघात झाला आहे. आता ती तशी बरी आहे. पण डॉक्टरनी तिला बोलायला बंदी केली आहे.

आई – अरे बापरे, काय झालं प्रणिताला ?….  असं म्हणून प्रणिताची आई रडू लागली.

वंदना – अहो काकू ती बरी आहे, पण तिला आईची आठवण येत आहे, म्हणून मी फोन केला. तुम्ही कुठे राहता?

आई – सांगलीला.

वंदना – तुम्ही मुंबईला येऊ शकता काय?

आई रडत रडत म्हणाली, “अग, ही आमचं न ऐकता घर सोडून गेली, तिचे बाबा तिचे नाव घेत नाहीत, आमचा मुलगा पुण्यात असतो, मी कशी येणार सांग.” 

वंदनाने “बर ‘ म्हंटल आणि ती एस ए ग्रुप मेंबर्स जवळ आली. आता सुमारे साठ लोकं जमली होती, सगळी नाटक सिनेमाच्या मोहापोटी आणि अभिनय क्षेत्रात करिअर करण्यासाठी कुठून कुठून आलेली, अजून जम बसत नाही,  पण एका ग्रुपमार्फत एकमेकांना धरून राहिलेली. एवढ्यात मनिष म्हणाला ..  ” पण तिच्या आईला आणावेच लागेल, तिच्या बाबांचा आणि भावाचा नंबर मिळाला तर त्याला पण घेऊन येऊ. पण यांचे नंबर कसे मिळतील.? “

“ वंदना, तू अजून कॉन्टॅक्ट लिस्ट बघ, कोणी ओळखीचे भेटते का बघ.:किंवा तिचे जास्तीत जास्त कॉल कुणाला गेलेत ते बघ “. 

वंदनाने परत मोबाईल उघडला, तेव्हा आरती नावाच्या मुलीला तिचे रोज फोन जात होते हे लक्षात आले.

वंदनाने आरतीला फोन लावला.

आरती – काय ग प्रणे, आज शूटिंग नाही वाटतं, आता कॉल केलीस म्हणून विचारते.

— वंदनाने तिला आपण प्रणिताची मैत्रीण असल्याचे सांगितले आणि प्रणिताला अॅक्सिडेंट झाला म्हणून तिचा फोन आपल्याकडे असल्याचे सांगितले. सुदैवाने आरती सांगलीतील तिची लहानपणापासूनची मैत्रीण निघाली. ती म्हणाली ‘ मी प्रणालीच्या आईला घेऊन एक तासात निघते.’ 

तिने प्रणालीच्या भावाचा नंबर दिला.

प्रणालीच्या भावाचा नंबर मिळाला. वंदना मनिषला म्हणाली, “मनीष, तिच्या भावाला तू फोन कर “. 

मनिषने तिच्या भावाला फोन लावला, आपल्या बहिणीचा नंबर दिसला म्हणून त्याने उचलला नाही. मग तो नंबर मनीषने आपल्या फोनवरून लावला. त्या नंबरावरून त्याने फोन उचलला.

मनीष – मी मनिष बोलतोय, ठाण्यावरून. तुमची बहीण प्रणिता हिला लहानसा अपघात झालाय, आता ती बरी आहे, पण तिच्या घरचे तिच्याजवळ असावे म्हणून तिच्या मोबाईलमधून तुमचा नंबर घेतला आणि तुम्हाला फोन लावला.

प्रणिताचा भाऊ – खरंतर गेली दोन वर्षे मी तिच्याशी बोललेलो नाही. तिने घेतलेला निर्णय आम्हाला पसंत नव्हता म्हणून. पण ती माझी बहीण आहे. तिला बरे नसेल तर मला तिकडे यावेच लागेल. मी माझ्या आईला कळवतो.

मनिष – आम्ही तुमच्या आईला कळवले आहे. बहुतेक ती प्रणिताची मैत्रीण आरती हिच्याबरोबर ठाण्याला येते आहे.

भाऊ – मग ठीक आहे, मी पण माझ्या आईला फोन करून सांगतो. पण माझी बहीण खरोखर बरी आहे ना? काही काळजी करण्यासारखी परिस्थिती आहे का?

मनीष – काळजी करण्यासारखी परिस्थिती नाही. पण हॉस्पिटलमध्ये तिच्या घरचे कुणीतरी सोबत असायला हवे, आम्ही मित्रमंडळी जास्त वेळ राहू शकत नाही, म्हणून मी फोन केला.

भाऊ – मी लगेच निघतो. ठाण्याजवळ आलो की तुम्हाला या मोबाईलवर फोन करतो. मग मला कुणीतरी घ्यायला या.

मनिष – यायला लागा, ठाण्यात जवळ आला की मला फोन करा. तुम्ही कसे येणार आहात ते पण कळवा.

— अशा रीतीने प्रणिताचा भाऊ ठाण्यात येत होता.

वंदना – मनीष आपण आता वाशीमध्ये असताना तू तिच्या भावाला ठाण्याला ये असे का सांगितलेस?

मनीष – याचे कारण म्हणजे या हॉस्पिटलमध्ये तिची व्यवस्थित ट्रीटमेंट होईल असे मला वाटत नाही. तेव्हा आपण तिला पोलिसांची परवानगी घेऊन ठाण्याच्या मोठ्या हॉस्पिटलमध्ये शिफ्ट करावे हे बरं .

वंदना – हो हे खरे आहे, पण आपल्या ग्रुपच्या सर्व मेंबर्सचे मत घ्यायला हवे.

मनीषने सर्व एस ए ग्रुप मेंबर्स ना जवळ बोलावले.

मनीष – ग्रुप मेंबर्स, प्रणिताची कंडिशन अजून क्रिटिकल आहें, या हॉस्पिटलमध्ये फारश्या सुविधा नाहीत, तेव्हा आपण तिला ठाण्यात ज्युपिटरमध्ये शिफ्ट करू. .तुमचे काय मत आहे? 

श्याम – होय, बरोबर आहे. लवकर हालचाल करायला हवी.

संगीता – त्या हॉस्पिटलमध्ये माझा मावसभाऊ सर्जरीमध्ये डॉक्टर आहे. तो या वेळेस ड्युटीवर असेल. मी त्याला फोन करून लक्ष देण्यास सांगते. संगीताने आपल्या मावसभावाला फोन लावला. मनीष आणि वंदना तिथल्या डॉक्टर्सना इथून डिस्चार्ज मिळविण्यासाठी भेटायला गेली. मनोज ऍम्ब्युलन्स शोधू लागला. त्याला सुसज्ज ऍम्ब्युलन्स मिळाली. पंधरा मिनिटात वाशीच्या हॉस्पिटलमधून डिसचार्ज घेऊन प्रणिताला ठाण्यात शिफ्ट केले गेले, ऍम्ब्युलन्स पाठोपाठ एस ए ग्रुप्स मेंबर्स स्कूटर, मोटरसायकल घेऊन जात होते.

संगीता आपल्या मावसभावाच्या संपर्कात होती. ऍम्ब्युलन्स हॉस्पिटलमध्ये पोचायच्या आधी प्रणिताचा बेड तयार होता.

– क्रमशः भाग दुसरा. 

© श्री प्रदीप केळुसकर

मोबा. ९४२२३८१२९९ / ९३०७५२११५२

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈