हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 387 ⇒ बड़े होने का सबब… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बड़े होने का सबब।)

?अभी अभी # 387 ⇒ बड़े होने का सबब? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कोई जन्म से बड़ा अथवा महान नहीं होता। सब बड़े होते हैं, हाथी भी और चींटी भी। चींटी कितनी भी बड़ी हो जाए, लेकिन हाथी नहीं बन सकती। केवल बड़ा होने से भी कुछ नहीं होता, आदमी हाथी से छोटा होता है, फिर भी शान से हाथी की सवारी करता है, उस पर अंकुश लगाता है। होगा शेर जंगल का राजा, सर्कस के शेर से तो कागज़ का शेर भला।

बढ़ना और विकसित होना प्रकृति का नियम है। कल अगर आपका जन्मदिन था तो आज आप सिर्फ एक दिन और बड़े हो पाए, एक वर्ष और बढ़ने के लिए आपको अभी 364 और दिनों का इंतजार करना पड़ेगा। समय से बड़ा कोई नहीं होता। अच्छा समय चुटकियों में गुजर जाता है, दुःख के दिन पहाड़ से प्रतीत होते हैं।।

प्रकृति के कुछ नियम हैं। यहां अगर सभी कुछ नियत है तो कहीं कहीं नियति भी है। सृष्टि में, अलग अलग प्रजाति के जीव और वनस्पति हैं, कहीं बीज में पूरा वृक्ष समाया हुआ है तो कहीं सागर के सीपी में मोती। आम खाने के लिए बबूल का पेड़ नहीं लगाया जाता, क्योंकि बबूल पर आम नहीं पैदा होते। जानवरों में भी घोड़े, गधे और खच्चर पैदा होते हैं केवल एक इंसान ही ऐसा प्राणी है जिसका भविष्यफल जाना जा सकता है। मनुष्य में विकास की सभी संभावनाएं निहित हैं। उसका जन्म नियत है, नियति सबकी अलग अलग है। भाग्य और प्रारब्ध का खेला केवल इंसान ने ही खेला।

मेहनत का फल इंसान को ही मिलता है, बेचारे जानवर को तो सिर्फ घास ही नसीब होती है। किसी पेड़ की, अथवा किसी घोड़े, ऊंट, और बंदर की जन्म कुंडली नहीं बनती, क्योंकि इनमें और कुछ बनने की संभावनाएं हैं ही नहीं। मनुष्य में नर से नारायण और नारी से नारायणी का खयाल बुरा नहीं। और जहां खयाल ही बुरा हो, वहां तो फिर इस इंसान का भगवान ही मालिक है। अच्छे लोगों को अन्य सब लोग बुरे नजर आ रहे हैं। वे सबको अच्छा बनाने में लगे हुए हैं। लगता है, पूरे देश को बदल डालेंगे।

अगर ऐसा नहीं होता तो शायद किसी नारी कंठ से यह पुकार नहीं उठती ;

तुमको तो करोड़ों साल हुए

बताओ गगन गंभीर !

इस प्यारी प्यारी दुनिया में

क्यों अलग अलग तकदीर ?

आज का युग सीख देने का नहीं, सीखने का है। छोटे छोटे बच्चे अभी से एक बड़ा इंसान बनने का सपना देखने लगते हैं। उनके माता पिता भी, जो वे खुद नहीं बन पाए, अथवा अपने जीवन में नहीं कर पाए, अपने बच्चों में उसकी संभावनाएं तलाशते हैं। आज अधिक अवसर है, अधिक संभावनाएं हैं। जल्द ही बच्चों के पाठ्यक्रम से बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर जैसे नीति वाक्य नदारद हो जाएंगे। हमें पंछी और परमार्थ से क्या लेना देना। अर्जुन की तरह केवल मछली की आंख पर ही हमारा निशाना होता है। क्या आज आपको संतोषी सदा सुखी और रूखी सूखी खाय के ठंडा पानी पी, जैसे आउट ऑफ डेट लेक्चर सुन हंसी नहीं आती ? लगता है, आप जीवन में कुछ बनना ही नहीं चाहते।।

जब एक छोटा आदमी, बड़ा आदमी बन जाता है, तो लोग उसे और बड़ा बनाने में लग जाते हैं। उसे और बड़ा बनाने के प्रयास में उन्हें कितना भी छोटा होना पड़े, उन्हें उसमें भी अपना बड़प्पन नजर आता है। बिग भी, एक बड़े आदमी के बेटे होते हुए भी, संघर्ष और पुरुषार्थ से बड़े हुए और आज इतने बड़े हो गए, कि अब छोटा होना उनके बस में ही नहीं। जब इंसान के दाने दाने में केसर का दम नजर आता है, तो उसे लोगों की नजर लग जाती है। वह भी मन में सोचता है, बड़ा होना भी अभिशाप है। लेकिन गरीब होने से यह अभिशाप अच्छा है।

अगर बड़ा बनना है, तो छोटे दिखते रहो। अच्छा पहनो, अच्छा ओढ़ो। नम्रता और विनम्रता से अच्छा कोई परिधान नहीं।

आजकल पत्थर उछालने पर प्रतिबंध है इसलिए दुष्यंत कुमार क्षमा करें, आसमान में सुराख करने के और भी तरीके होंगे। लोकतंत्र में सबको बराबरी का अवसर मिलता है। हाथ कंगन को आरसी क्या, एक चाय वाले को ही ले लो। नर देखिए, नारायण नहीं बना, नरेन्द्र बन गया। लोग नारायण को भूल गए। इसे कहते हैं कुछ बनना। आप भी बनना तो एक और नरेन्द्र ही बनना, भूल से भी चाय वाला मत बन बैठना, कोई नहीं पूछेगा।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – बारिश की बूंदें…☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘बारिश की बूंदें….’।)

☆ कविता – बारिश की बूंदें…. ☆

आसमां से गिरकर,कहां जाएंगी,

जमीं पर गिरेंगी,भटक जाएंगी,

 रेत के गर्म टीले पर गिरकर,

 भाप बनकर, उड़ जाएंगी,

 फिर बादलों में मिल जाएंगी,

आसमां से गिरकर कहां जाएंगी,

कोई आसमां पर देखता तो होगा,

आशा से उसको तकता तो होगा,

खेतों की सूखी मिट्टी को देखकर,

आशा थमेगी,वहीं पर गिरेंगी,

खेतों की फसलों में लहलहाएंगी,

आसमां से गिरकर कहां जाएंगी,

रातों को कोई बेचैन होकर

चांद के तन्हा सफर में,साथ होकर,

आसमां पर अपनी सूनी आंखें लिए,

जब निहारता होगा टकटकी लगाकर,

आंखों में आंसू बनकर गिर जाएंगी,

आसमां से गिरकर कहां जाएंगी.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 181 ☆ # “स्कैम” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता स्कैम

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 181 ☆

☆ # “स्कैम ” #

आजकल नये नये खेल

नये नये गेम हैं  

नयी नयी तरकीबें हैं

नये नये स्कैम हैं

पैसे कमाने के

नये नये ऐप हैं

जुड़ी हुई है कई हस्तियां

बदल रहे हैं

रोज नये नये शेप हैं

धड्डले से चल रहा है धंदा

दे रहे है मोटा मोटा चंदा

बड़े लोगों का खेल है सारा

परेशान है गरीब बंदा

 

अब तो परिक्षा में भी

फिक्सिंग की जा रही है

मुंहमांगी कीमत लेकर

सीट दी जा रही है

सामान्य व्यक्ति का बच्चा

कैसे इनका सामना करें

कहां से लाये सिफारिश

बड़ी रकम कहां से भरे

सालभर मेहनत करके भी

वो रैंकिंग में पिछड़ गया

सीट नही मिली तो

उसका कॅरियर बिगड़ गया

पैसे और पहुंच का यह खेल

कब-तक चलता रहेगा

गरीब

गरीब व्यक्ति का बंदा

कब तक अमीरों से छलता रहेगा

यह कोचिंग, अकॅडमी  का व्यवसाय

दिन दूना रात चौगुना

फलफूल रहा है

असहाय, निर्धन उमीदवार

काबलियत के बावजूद

अंधकार में झूल रहा है

इस पर कड़ी बंदिशें जरूरी हैं

कानून की गिरफ्त अधूरी हैं

ये स्कैम कब बंद होंगे

कोई बताए ‍

जिम्मेदारों की क्या मजबूरी है ?

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ दिसतेच स्वच्छ आहे… ☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

श्री तुकाराम दादा पाटील

? कवितेचा उत्सव ?

दिसतेच स्वच्छ आहे☆ प्रा तुकाराम दादा पाटील ☆

घोटीव बांधणीची काया रसाळ आहे

लावण्यसुंदरीची भाषा मधाळ आहे

*

आले कळून सारे निरखून पाहताना

नकली स्वभाव फेकू करणी ढिसाळ आहे

*

पाहून अंगणाला  अंदाज  येत गेला

आतून बंगला हा पुरता गचाळ आहे

*

अलवार वाट शोधा पाऊल टाकताना

हा कारभार सारा इथला रटाळ आहे

*

आधार शोधुनीया थांबा जरा कडेला

इथली हवा जराशी झाली ढगाळ आहे

*

छोटी असून बाकी आहे नदी प्रवाही

पाण्यात खोल दडला मोठा खळाळ आहे

*

उतरू नका गड्यांनो पात्रात पोहण्याला

पाण्यावरी नदीच्या तरते प्रवाळ आहे

*

मौलीक शोधण्याची तसदी नकाच घेऊ

शोधू नक उगी ते उरले गबाळ आहे

*

भुजवू नकाच त्याला छेडू नका कुणीही

पाळीव या घराचा दिसतो मराळ आहे

*

रोखावया फितुरी व्हा सावधान सारे

या छावणीत लपला सूर्या पिसाळ आहे

*

रात्रीतही तुम्हाला दिसतेच स्वच्छ आहे

आभाळ चांदण्यांनी केले दुधाळ आहे

© प्रा. तुकाराम दादा पाटील

मुळचा पत्ता  –  मु.पो. भोसे  ता.मिरज  जि.सांगली

सध्या राॅयल रोहाना, जुना जकातनाका वाल्हेकरवाडी रोड चिंचवड पुणे ३३

दुरध्वनी – ९०७५६३४८२४, ९८२२०१८५२६

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 177 ☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 177 ? 

☆ अभंग… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

स्नेहबंध भाव, अंतरी असावा

बोचरा नसावा, भाव कधी.!!

*

माणूस पणाचा, दाखला देयावा

निर्भेळ करावा, कारभार.!!

*

गर्व सोडूनिया, धर्म आचरावा

अधर्म टाळावा, कटाक्षाणे.!!

*

दुसऱ्यांचे दोष, नचं वर्णवावे

नचं दाखवावे, बोट कधी.!!

*

स्वतःला तयार, करावे तत्पर

अनेक आभार, जोडोनिया.!!

*

उगवता सूर्य, बुडतो विझतो

क्षितिज गिळतो, तप्त गोळा.!!

*

कलीचे वर्तन, समजून घ्यावे

आहे तेच द्यावे, नम्रभावे.!!

*

कवी राज म्हणे, शब्दांचे मनोरे

अभंगाच्या द्वारे, रचियतो.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – विविधा ☆सहा जून : शांताबाई शेळके स्मृतीदिनानिमित्त – “आठवणीतील कविता…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर  ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? विविधा ?

☆ सहा जून : शांताबाई शेळके स्मृतीदिनानिमित्त – “आठवणीतील कविता…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

आज शांताबाई शेळके यांची वर्षा काव्यसंंग्रहातील हिरवळ ही कविता पाहणार आहोत… सात जूनला मृगाचं नक्षत्र लागलं … खऱ्या अर्थाने पाउस सुरू होतो असा पारंपारिक प्रघात आहे… कधी तो वेळेत उगवतो तर कधी उशीराने…

दडी मारुन जरी बसला तरी त्याच्या आगमनाची आतुरताही तितकीच असते… माणसाला,धरीत्रीला,साऱ्या सृष्टीला… आणि तो जेव्हा कधी पहिल्यांदा बरसून जातो… तेव्हा सगळं चराचर पुलकित होतं… तना मनाची तलखी शांत होते… जमीनीवर वरचा धारोळा धुतला जातो… जणू काही वसुंधरा पावसात सुस्नात न्हाऊन निघते… आनंदाच्या लहरी पसरवत जाते… हळूहळू ते पावसाचं पाणी जमिनीत मुरू लागतं … तृप्त जमीनीवर हिरवे हिरवे गवताचे कोंब उगवतात… वसुंधराचा आनंद ती गवताची पाती दवबिंदूत भिजून प्रगट करतात… आनंदाने न्हाऊन निघतात…हि कविता हेच सांगतेय…

हिरवळ

वर्षांची पहिली पर्जन्याची धारा

न्हाणुनिया गेली भूमिभाग सारा

लागली खुलाया अन् आताचं तिजवरती

या तृणांकुरांची हिरवी,कवळी नवती

*

किती उल्लासानें डोलतात हीन पाती

इवलाली सुन्दर फुलें मधूनी खुलती

चिमुकली फूलपांखरें डुलती मौजेनें

पाहुनी चित्त मम भरून ये हर्षानें

*

जणुं गालिचेच हे अंथरले भूवरतीं

जडविले जयांवर दंवबिंदूंचे मोती

या शाब्दलांगणी वाटे लोळण घ्यावी

अन्  सस्यशामल भूमी ही चुंबावी.

*

चैतन्य किती या उसळे तृणपर्णात!

किति जीवनरस राहिला भरोनी यांत!

जो झटे येवढा तृणासही सुखवाया

किती अगाध त्याच्या असेल हृदयीं माया!

 – शांता शेळके…

ती पहिली पावसाची सर भूमीला आलिंगन देते तेव्हा पहिला पाऊस शोषून घेते… कोवळी कोवळी गवताची तृणांकुरे जमीनीवर गालीच्या सारखी पसरतात… त्यातच काही गवती फुलं नाजूकपणे  उमलतात… त्याच्या वर छोटी छोटी फुलपाखरं बागडतात… किती मनमोहक नजारा दिसतो तो…हि उगवलेली छोटी छोटी कोवळी गवताची तृणांकुरे किती रसरसलेली आणि टवटवीत दिसतात … साऱ्या सृष्टीला उल्हसित करतात….

…. सृष्टीचे चक्र माणसाला कळावे… दुखाचा उन्हाळा संपला की सुखाच्या पावसाची सर येतच येते… किती आनंदाने न्हाऊन निघाल, तो तुम्हाला जीवनामध्ये उल्हास वाढवेल… आता तृणांकुराचा आकार तो किती नगण्य पण त्याला दिलेला तो आनंद कितीतरी मोठा असतो… हि पाउसाची एक सर देउन जाते तेव्हा तिचं विशाल मायेचं हृदय दिसतं….. श्रीमंताने गरीबांना आणि  उच्चवर्णीयांनी कनिष्ठ वर्णी यांना  असे मायेने ममतेने पाहिले ..सांभाळले तर ते ते देखिल महतपदाला निश्चितच पोहचतील…

… हिरवळ हे आनंदाचं रूपक आहे… पाऊस हे साधन आहे… तृणांकुर  छोटी गरीब दयनीय माणसं.. त्यांचा आनंद तो छोट्या छोट्या गोष्टीत असतो… तो जर त्यांना मिळाला  तर जगणंच आनंदाचं होईल असं या कवितेचं सार आहे असं मला वाटतं…अशी हिरवळ प्रत्येकाला हवी असते आणि ती मिळण्याची धडपड चाललेली असते…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – काव्यानंद ☆ शिदोरी… – कवयित्री : डाॅ. सौ. संजीवनी तोफखाने ☆ रसग्रहण… सुश्री अरुणा मुल्हेरकर ☆

सुश्री अरुणा मुल्हेरकर

? काव्यानंद ?

☆ शिदोरी… – कवयित्री : डाॅ. सौ. संजीवनी तोफखाने ☆ रसग्रहण… सुश्री अरुणा मुल्हेरकर ☆

गझलकारा डॉ. सौ. संजीवनी तोफखाने यांच्या शिदोरी या गझलेचे रसग्रहण.

गझल हा एक वृत्तात्मक काव्याचा आणि गायनाचा प्रकार आहे. गझलेची रचना ही सर्वसाधारण कविता म्हणून वेगळी असते. त्यात दोन दोन चरणाचे शेर असतात आणि संपूर्ण गझल जरी एकाच विषयावर असली तरी प्रत्येक शेर स्वतंत्र असतो.  एकच विषय न घेता वेगवेगळ्या विषयांवरील स्वतंत्र शेरही गझलरचनेत स्वीकारार्ह्य आहेत.

आता ही गझल पहा.

☆ शिदोरी ☆ डॉ. सौ. संजीवनी तोफखाने ☆

 गर्दीत माणसांच्या माणूस शोधते मी

 शोधात याच सारे आयुष्य लांघते मी

*

पाहून वागण्याच्या एकेक या तर्‍हा हो

होते अवाक बाई श्वासास रोखते मी

*

मी मंदिरात जाते ठावे चराचरी तो

श्रद्धा अशी असोनी पाषाण पूजते मी

*

मिळणार ना फळे मज माझी हयात सरली

खातील लोक कोणी कोयीस लावते मी

*

गुलमोहरास जमते ग्रीष्मात रंगणे जर

पाहून त्याकडे मग दुःखात हासते मी

*

का ओढ लावसी रे धारेपल्याड तीरा

मज यायचेच आहे पक्केच जाणते  मी

*

घेते करून काही सत्कर्म सोबतीला

संगे हवी शिदोरी यात्रेत मानते मी

ही गझल वाचल्यानंतर पटकन  लक्षात येणारी गोष्ट म्हणजे या गझलेतील मी एका दीर्घ आयुष्याचा अनुभव घेतलेली स्त्री आहे. तिने पाहिलेला समाज यात आहे.

मतल्यात ती म्हणते,

“गर्दीत माणसांच्या माणूस शोधते मी

 शोधात याच सारे आयुष्य लांघते मी”

माझ्या चहुबाजूला माणसांची इतकी गर्दी आहे, आयुष्य सरत आले तरी मला माणसातला माणूस अजून काही सापडला नाही.

आपण नेहमी म्हणत असतो आजकाल माणसातली माणुसकी हरवत चालली आहे. जग स्वार्थाने भरले आहे. स्वतःची पोळी भाजली की झाले. आपल्या मुलांनाही जन्मदात्यांकडे लक्ष देण्यास, त्यांच्यासोबत चार सुखाच्या गोष्टी करण्यास वेळ नाही.  हीच खंत या मीने  वाचकांजवळ व्यक्त केली आहे.

“पाहून वागण्याच्या एकेक या तर्‍हा हो

 होते अवाक बाई श्वासास रोखते मी”

हा दुसरा शेर!

व्यक्ती तितक्या प्रकृती असे आपण म्हणतो. गझलेतील या स्त्रीने तिच्या आज पर्यंतच्या आयुष्यात नाना तर्‍हेची माणसे पाहिली आणि त्यांच्या वागण्या बोलण्याच्या एक तर्‍हा पाहून ती म्हणते मी अवाक झाले. त्यांच्याविषयी काय कसे बोलावे हेच तिला समजत नाही. कोणीतरी चांगला देव माणूस उर्वरित आयुष्यात भेटेल या आशेने ती तिचा श्वास रोखून अजून उभी आहे. यात तिचा कुठेतरी सकारात्मक भाव आपल्याला दिसून येतो.

या तिसऱ्या शेरात ती तिच्या मनातील आणखी वेगळे भाव व्यक्त करते. ती म्हणते,

“मी मंदिरात जाते ठावे चराचरी तो

श्रद्धा अशी असोनी पाषाण पूजते मी”

आयुष्याच्या या प्रवासात या स्त्रीला समजले आहे की चराचर विश्वात ईश्वराचे वास्तव्य भरून आहे. जेथे जातो तेथे, तू माझा सांगाती अशी तिची श्रद्धा आहे. तरीही ती मंदिरात जाते, गाभाऱ्यातल्या दगडाला देव मानून त्या पाषाणाची मनोभावे पूजा करते.

या ठिकाणी ही ‘मी’ मला दुनियेतली सर्वसामान्य माणसांचे प्रतिनिधित्व करणारी वाटते. ईश्वर निर्गुण निराकार आहे हे ठाऊक असूनही आपण सगुणाचीच पूजा करतो.  आपणच त्या देवाला रंग रूप आकार देतो.

“मिळणार ना फळे मज माझी हयात सरली

 खातील लोक कोणी कोयीस लावते मी”

हा शेर खूप काही सांगून जाणारा आहे. निसर्गाचा असा नियमच आहे की आज पेरल्यावर लगेच उद्या उगवत नाही. बिजास अंकुर फुटून, रोप वाढवून त्याला फळे लागेपर्यंत त्या माणसाची हयात सरेल, परंतु त्याचा आनंद घरातील आपल्या मुलाबाळांना, नातवंडांना मिळेल, आणि मी लावलेल्या   कोयीचा मोठा आम्रवृक्ष होऊन माझे प्रियजन जेव्हा त्याला लागलेले आंबे खातील तेव्हा मला खरा आनंद मिळेल.

“गुलमोहरास जमते ग्रीष्मात रंगणे जर

 पाहून त्याकडे मग दुःखात हासते मी”

या शेरात जीवनाचे फार मोठे तत्त्वज्ञान गझलकारा संजीवनीताई सांगून जातात.

जीवनाच्या वाटेवर आनंदाची फुले असतात आणि त्याच सोबत दुःखाचे काटेही पसरलेले असतात. रोजचा दिवस कधीच सारखा नसतो. या शे रातील  गुलमोहरचा दिलेला हा दृष्टांत

अगदी रास्त आहे.ग्रीष्म ऋतूत रणरणत्या उन्हात,

उष्णतेचा दाह होत असताना गुलमोहर कसा लाल केशरी फुलांनी बहरून जातो. त्याला उष्णतेची पर्वा नसते.  हे पाहून या गझलेतील ही ‘मी’ म्हणते की मी सुद्धा

अशीच हसत असते.मला संकटांची पर्वा नाही. संकटांवर मात करून पुढे जावे आणि आनंदी रहावे हा सकारात्मक बोध या शेरातून संजीवनी ताईंनी वाचकांना दिला आहे.

 

” का ओढ लावशी रे धारेपल्याड तीरा

 मज यायचेच आहे पक्केच जाणते मी”

 

 एक ठराविक आयुष्य जगल्यानंतर

 प्रत्येकालाच भवसागराच्या या तीरावरून पलीकडे दुसऱ्या तीरावर जाण्याची सुप्त ओढ लागलेली असते आणि आज ना उद्या त्या तीरावर जायचेच आहे हेही पक्के ठाऊक असते.  तरीसुद्धा माणसाच्या मनात कुठेतरी मृत्यू विषयी भय असतेच हाच विचार या शेरात ताईंनी मांडला असावा का?

 

आता हा शेवटचा शेर पहा.

 

” घेते करून काही सत्कर्म सोबतीला

 संगे हवी शिदोरी यात्रेत मानते मी”

 

 माणूस महायात्रेला निघतो,त्याचे निर्वाण होते तेव्हा तो सोबत काय नेतो? पैसा- अडका धन- दौलत, नाती-गोती सर्व काही त्याला इथेच ठेवून जायचे असते. मात्र त्याच्या कर्मांची नोंद वरती चित्रगुप्ताकडे झालेली असते.  सत्कर्म आणि कुकर्म ज्या प्रमाणात असेल त्याप्रमाणे दुसऱ्या जन्मात त्याला ते भोगावेच लागते. यालाच आपण पूर्वसंचित म्हणतो. हेच तत्व लक्षात घेऊन या शेवटच्या शेरात ही ‘मी’ म्हणते, “या प्रवासात मी माझ्यासोबत सत्कर्मांची शिदोरीबांधून नेते.”

 

 आनंदकंद वृत्तात बांधलेली अशी ही तत्व चिंतन पर गझल आहे. साधारणपणे गझल म्हटली की ती

 शृंगार रस प्रधान असते. त्यात प्रियकर प्रेयसीचे मिलन, विरह, लटकी भांडणे वगैरे विषय प्रामुख्याने हाताळलेले असतात. अध्यात्माकडे वळणाऱ्याही काही गझला असतात. ही गझल अध्यात्मिक आहे असे म्हणता येणार नाही, परंतु अध्यात्माकडे झुकणारी नक्कीच आहे. माणुसकी हे या गझलेचे अंतरंग आहे असे मी म्हणेन.

 

 प्रत्येक शेरातील खयाल,उला आणि सानी यातील राबता अगदी स्पष्ट आहे. शोधते, लांघते, रोखते, पूजते, लावते, हासते, जाणते, आणि मानते हे सर्व कवाफी अगदी सहजतेने वापरल्यासारखे वाटतात. लगावलीचे तंत्र सांभाळताना कुठेही ओढाताण वाटत नाही,  तसेच यातील गेयता आणि लयही अगदी सहज सुंदर आहे. अशी ही सर्वगुणसंपन्न गझलरचना मला फार आवडली,  तुम्हालाही ती नक्कीच आवडेल याची खात्री आहे.

© सुश्री अरुणा मुल्हेरकर 

डेट्राॅईट (मिशिगन) यू.एस्.ए.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ प्रभाव — भाग-२ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले ☆

डॉ. ज्योती गोडबोले 

? जीवनरंग ❤️

☆ प्रभाव — भाग-२ ☆ डॉ. ज्योती गोडबोले 

(एकदा पूजाला तिने त्यांच्या फॅमिली डॉक्टरकडे नेले.आधी मोहिनी त्यांना जाऊन भेटली होती. या मुलीवर वडिलांचा असलेला प्रचंड प्रभाव तिने डॉक्टरांना सांगितला.) इथून पुढे — 

आणि मग ती सहज म्हणून पूजाला त्यांच्याकडे घेऊन गेली. डॉक्टरकाकांनी तिला हळूहळू बोलते केले आणि तिचे   councelling केले…. “ पूजा, काही वर्षांनी तू मोठी होशील, तुला लग्न करावेसे वाटेल,तेव्हाही तू आपल्या बाबांसारखा जोडीदार शोधणार का? नाही ना? तुझे आयुष्य हे फक्त तुझे आहे बाळा.वडिलांचा आदर्श असणे वेगळे आणि त्यांना चिकटून रहाणे वेगळे.तुला हवे तेच करिअर तू कर पूजा.” डॉक्टर काकांनी तिला समजावून सांगितले… होतात मुली अशा वडिलांकडे आकर्षित. त्याला फादर  फिक्सेशन म्हणतात.पण सहसा आई नसलेल्या किंवा घरात फक्त वडीलच असलेल्या मुलींचा वडील हा आदर्श असतो आणि त्यांच्यावर वडिलांचा फार दबावही असतो. तुमच्याकडे तुझी आई एक आदर्श आई आहे पूजा. हे बघ तू तुला हवे तेच कर यापुढे.” पूजा डॉक्टरांसमोर मोकळी होत गेली.

एकदाच मोहिनीने उमेश नसताना पूजाला समोर बसवून विचारलं होतं, “ बाळा,तुला मनातून काय करायचं आहे? तुझी काय इच्छा आहे? न घाबरता सांग.” पूजा गडबडून गेली. “ आई , पण बाबा….” 

“ हे बघ पूजा,हे आयुष्य तुझं आहे ,बाबांचं नाही. तुला काय करायचं आहे ते तू ठरवायचं आहेस.बाबांनी नाही. तुझा कल कुठे आहे? “ पूजा म्हणाली “ आई, मला नाही ग आवडत ते मेडिकल. मलाही दादासारखं इंजिनीअर होऊन  मग परदेशात पण जावंसं वाटतं.” आज इतक्या वर्षात प्रथमच पूजा मोहिनीशी इतक्या जिव्हाळ्याने बोलत होती. “ हो ना? मग तू तुझ्या मनाचा कौल घे आणि तेच कर. करिअर म्हणजे काही गंमत नाही पूजा. तुझ्या मनाविरुद्ध तू तुला आवडत नसलेले मेडिकल करिअर करणार का? केवळ बाबा म्हणतात म्हणून? आणि का? तुला तुझं मत नाही का? हे बघ पूजा ! आई आहे मी तुझी. मी राहीन तुझ्या पाठीशी उभी. मी तुला बाबांच्याविरुद्ध भडकवत नाहीये, पण असं बाबांच्या ओंजळीने नको कायम पाणी पिऊ. आम्ही तुला जन्मभर पुरणार नाही बाळा.” मोहिनीने पूजाला कळकळीने सांगितलं. आणि मगच तिला डॉक्टर काकांकडे नेलं  . 

केवळ उमेशच्या हट्टाखातर पूजाने p c m b चारही  विषय घेतले. परीक्षा झाली आणि उमेश तिच्या रिझल्टची तिच्यापेक्षाही आतुरतेने वाट बघू लागला. पूजाचा रिझल्ट लागला. तिला बायॉलॉजीमध्ये जेमतेम पास होण्याइतके मार्क्स होते आणि फिजिक्स आणि मॅथ्समध्ये मात्र अत्यंत उत्तम रँकस्. अर्थात आता मेडिकलची दार बंदच होती तिला.

उमेशने खूप धिंगाणा केला, तिला वाट्टेल ते बोलला. “ दोन्ही मुलांनी माझी निराशा केली. तू तरी माझं स्वप्न पूर्ण करशील असं वाटलं होतं मला. माझी सगळी मेहनत वाया गेली. कर आता काय हवं ते.” उमेश तिथून निघूनच गेला. पूजा बिचारी कावरीबावरी झाली. इतके सुंदर मार्क्स मिळूनही कौतुक तर सोडाच पण बाबांची बोलणी मात्र खावी लागली तिला. 

न बोलता तिने इंजिनिअरिंगला प्रवेश घेतला आणि तीही मुंबईला निघून गेली  प्रसाद उत्तम मार्कानी इंजिनीअर झाला आणि त्याला सिंगापूरला छान जॉबची ऑफर आली. पूजा सुट्टीवर घरी आली होती. प्रसाद तिला म्हणाला, “ काय मस्त कॉलेज ग पूजा? डायरेक्ट पवई?ग्रेट ग तू.”.

 “ अरे पण दादा,बाबांना हे आवडलं नाही ना. ते बोलत नाहीत माझ्याशी.” पूजा रडवेली होऊन म्हणाली. प्रसाद खो खो हसला आणि म्हणाला  “ मॅडच आहेस. लहानपणापासून सारखी बाबांच्या पंखाखाली राहून तू स्वतःचे आयुष्यच विसरलीस पूजा. सारखं काय बाबा आणि बाबा. गाढव आहेस का? याला ना, फादर  फिक्सेशन म्हणतात वैद्यकीय भाषेत. तुला फक्त बाबा हेच आदर्श वाटायचे लहानपणापासून. त्यात वाईट काहीच नाही ग पूजा. पण किती त्यांचा इम्पॅक्ट तुझ्यावर? ते म्हणतील ते कपडे घालायचे, ते म्हणतील ते वाचायचे,ते म्हणतील तेच सिनेमे बघायचे. तुला स्वतःचं मत नाही का? काही मुली तर लग्न करताना, नवराही आपल्या वडिलांसारखा असावा अशी अपेक्षा ठेवतात.नशीब यावेळी तरी आपल्या मनाचा कौल घेतलास,आणि मेडिकलचं  खूळ झुगारून दिलंस.” प्रसादने तिला जवळ घेतलं… “ मस्त कर करिअर तुझं. कसली हुशार आहेस तू. आगे बढो. मी आहे तुझ्यासाठी.”  पूजाने प्रसादला मिठीच मारली.” दादा आई, सॉरी हं. मी तुम्हाला  ओळखलंच नाही नीट. पण बाबानीही खूप प्रेम केलंय रे माझ्यावर. त्यांना  दुखावलं मी खूप.” पूजाच्या डोळ्यात पाणी आलं. 

“ अग ठीक आहे पूजा. तू काहीही गैर केलेलं नाहीयेस. उलट पवईसारख्या ठिकाणी प्रवेश मिळणं चेष्टा आहे का? तू नको वाईट वाटून घेऊ बाबांचं. आपल्या अपेक्षा मुलांच्यावर लादणे हे अत्यंत चुकीचेच आहे.तू निर्धास्तपणे जा बरं आता.” 

मोहिनीने पूजाची समजूत घातली.जाताना पूजा नमस्कार करायला वाकली तर उमेश तिथून न बोलता निघूनच  गेला. पूजा पवईला गेली. अत्यंत सुरेख करिअर चाललं होतं तिचं. शेवटच्या वर्षात ती घरी आली ती हातात नोकरीचे अपॉइंटमेंट लेटर घेऊनच. ”बाबा,बघा ना. किती छान जॉब मिळालाय मला. राग सोडा ना आता “ .उमेशने ते लेटर बघितले आणि छान आहे म्हणून तिथून निघूनच गेला.पूजा आईजवळ बसली आणि म्हणाली, “आई ,सगळं लहानपण मी बाबांच्या मर्जीनेच  वागून घालवलं ना? ते म्हणजे माझा आदर्श होते. तुलाही मी कधीही महत्व दिलं नाही.. उलट दुखवलंच ग तुला मी. आता आणखी एक गोष्ट सांगायची आहे. मी लग्न ठरवतेआहे. फार छान मित्र आहोत आम्ही. माझ्याच वर्गात आहे … आशिष तिवारी.आपल्या जातीचा नाहीये पण अत्यंत हुशार आणि लाखात एक मुलगा आहे. आता मात्र मी चूक करणार नाही.आणि आशिषमध्ये बाबा शोधायचा वेडेपणा करणार नाही आई. मी मोठी आहे आणि माझं भलं मला समजतं. दादाचे आणि तुझे खूप उपकार आहेत ग माझ्यावर, वेळीच डोळे उघडलेत माझे तुम्ही.” 

उमेशला पूजाने हे लग्न ठरवलेले अजिबात आवडले नाही. त्याने खूप आकांडतांडव केले पण यावेळी मोहिनी आणि प्रसाद तिच्या पाठीशी उभे राहिले. प्रसाद म्हणाला, “ तुम्ही नसला येणार तर नका येऊ लग्नाला. आई आणि मी लावून देऊ त्यांचं लग्न. लाखात एक मुलगा आहे आशिष. कसली जात घेऊन बसलाय हो तुम्ही?”   

पूजाचं लग्न प्रसाद आणि मोहिनीने थाटात लावून दिलं. केवळ नाइलाज म्हणून उमेश लग्नाला उपस्थित होता. पूजाच्या डोळ्यात अश्रू आले. “बाबा,मला माफ करा तुम्ही. पण अभिमान वाटावा अशीच तुमची दोन्ही मुलं आहोत ना आम्ही? आता तर मी आशिषबरोबर अमेरिकेला चाललेय. राग सोडून द्या बाबा.” पूजा म्हणाली. उमेशच्या डोळयातून अश्रू वाहू लागले.” पूजा प्रसाद ,माझं चुकलं.कोणालाही लाभणार नाहीत अशी मुलं मला देवाने दिली. मी जन्मदाता आहे,पण तुमच्या आयुष्याचा मालक नाही हे मला फार उशिरा समजलं. कदाचित मला जे लहानपणी मिळालं नाही ते मी तुमच्याकडून पुरं करायला बघत असेन. यात मी मोहिनीवरही खूप अन्याय केला. पूजाला कधी आईजवळ जाऊच दिलं नाही. यात पूजाची काहीही चूक नाही पण माझं चुकलं… मला माझी मुलं गमवायची नाहीत रे. आता तर तुम्ही दोन्ही मुलं दूरदेशी चाललात. मला माझी चूक कबूल करू दे. मोहिनी,मला माफ करशील ना? मी खूप स्वार्थीपणाने वागलो ग तुझ्याशी..पूजा आशिष, सुखात संसार करा आणि प्रसाद माफ कर मला.” 

प्रसाद म्हणाला.. “  काय हे बाबा?असं नका बोलू. आपण पूजाला आनंदाने निरोप द्यायला एअरपोर्ट वर जाऊया .. .येताय ना? “ डोळे पुसत उमेश आणि मोहिनी ‘हो’ म्हणाले आणि प्रसादची कार एअरपोर्ट कडे धावू लागली..

— समाप्त —   

© डॉ. ज्योती गोडबोले

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ तेच डोळे देखणे… ☆ सौ. मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

? मनमंजुषेतून ?

☆ 👁️ तेच डोळे देखणे… 👁️ ☆ सौ.मंजिरी येडूरकर ☆

☆ १० जून, नेत्रदान दिन… ☆

डोळ्यांनी या पाहतो सुंदर 

चंद्र, सूर्य अन् निळे अंबर

रंगबिरंगी फुले नि तारे

अथांग सागर नदीकिनारे… 

*

काय पाहतील जे  दृष्टीहीन

कुणा समोरी होतील लीन

डोळ्यापुढती काहीच नसे

मग कल्पनेला तरी पंख कसे… 

*

देऊन डोळे दृष्टीहीनांना

धन्य होऊ मरूनि उरतांना 

संकल्प करा आजच साचा

भरूनि उरू दे घट पुण्याचा… 

अंधत्वाचे काही प्रकार असतात, वेगवेगळी कारणे असतात, पण काही अंधांना दृष्टी आपण देऊ शकतो. त्याला नेत्रदान म्हणतात. नेत्रदान म्हणजे मृत व्यक्तीच्या डोळयातील बुबुळावरचा पारदर्शक पडदा, कॉर्निया, काढून घेणे. हे काम दहा मिनिटात होते, रक्तस्त्राव होत नाही, डोळे विद्रुप दिसत नाहीत. किंबहुना काही केले आहे असे वाटतही नाही. पण दोन डोळयांना आपण दृष्टी देऊ शकतो. नेत्रदान संमतीचे कार्ड जवळ ठेवावे. ते नाही म्हणूनही काही बिघडत नाही. मृताचे नातेवाईक ऐनवेळी सुद्धा नेत्रदानाचा निर्णय घेऊ शकतात.  वयस्कर व्यक्तींनी तशी इच्छा नातेवाईकाना सांगून ठेवावी. नेत्रदान तरी वय, डोळ्यांची परिस्थिती यावर अवलंबून असत नाही, फक्त कॉर्निया चांगल्या स्थितीत असावा लागतो. व्यक्ती मृत झाल्यावर सहा तासाच्या आत कॉर्निया काढावा लागतो.

खरं म्हणजे आपण सगळे नेत्रदान करू शकतो. प्रत्येकाची इच्छाही असते.पण प्रत्यक्षात तेवढे नेत्रदान होत नाही. त्याचे कारण मला असे वाटते हं, बरोबर की चूक माहित नाही… 

… जेंव्हा घरातली व्यक्ती मृत होते त्यावेळी घरातली माणसे दुःखात असतात. पुरुष जरा लवकर सावरतात, पण त्यांच्या डोक्यात त्यावेळी कुणाकुणाला फोन करायला हवेत, पुढच्या गोष्टी काय काय करायच्या असतात हे सगळं असतं. एखादी व्यक्ती खूप हळवी असते, तिला सावरायचं असतं. अशावेळी त्यांना काही सुचत नसतं. पण मला वाटतं अशा प्रसंगात मदत करणारा (म्हणजे अर्थीचं सामान आणणं, शववाहिका सांगणं इत्यादी) एक नारायण असतोच. त्याने घरातल्या सावरलेल्या व्यक्तीला विचारावं. आय बँकेला फोन करावा. एक पुण्य आपल्या नावावर जमा करावं. अगदी नारायण विसरू शकतो असं समजून तिथे असलेल्यांपैकी कुणीही लक्षात ठेऊन ही गोष्ट करावी. खालची माहिती वाचलीत की तुम्हाला त्याचे महत्व समजेल. मग  प्रत्येक मृत व्यक्तीचे डोळे सत्कारणी लावण्याचे काम कराल ना, नक्की?

जगातल्या ५ लाख अंधांपैकी एक लाखाच्यावर अंध लोक भारतात आहेत. त्यापैकी ६० टक्के १२ वर्षाखालील मुले आहेत. वर्षाला सुमारे दीड लाख नेत्र रोपणांची गरज असते. प्रत्यक्षात फक्त ४०- ४५ हजार नेत्ररोपणाच्या शस्त्रक्रिया होतात. म्हणजे किती मुले नेत्र-रोपणाविना राहतात बघा ! आपण ठरवलं तर त्या सगळ्या चिमुरड्याना जग दाखवू शकतो. मग कविवर्य बा. भ. बोरकरांच्या देखण्या डोळ्यात आपलेही डोळे सामावतील….. 

तेच डोळे देखणे, जे कोंडिती साऱ्या नभा 

वोळिती दुःखे जनांच्या, सांडिती नेत्रप्रभा…

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री, मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ राजकन्येची आई… — ☆ प्रा. डॉ. सतीश शिरसाठ ☆

प्रा. डॉ. सतीश शिरसाठ

??

राजकन्येची आई…  ☆ प्रा.डॉ.सतीश शिरसाठ ☆

गेल्या वर्षी  इंग्लंडमुक्कामी असताना,आमच्या मुलीनं चार दिवस स्काॅटलंडला जाण्याचं नियोजन केलं होतं. एडिंबरो ह्या स्कॉटलंडच्या  राजधानीत आमचा मुक्काम होता. समृध्द प्राचीन परंपरांचे अवशेष तिथे जपून ठेवले आहेत. ते पाहून झाल्यावर एक दिवस जवळच्या समुद्रकिनारी  आम्ही फिरायला जाणार होतो.

सकाळीच तयार होऊन तिथल्याच  एका  हाॅटेलात नाष्टा करून आम्ही  एका बसने  समुद्राकडे जायला निघालो.

हवा थंड होती.पण तिकडच्या लोकांना सवय म्हणून बहुतेक लोक टी शर्ट आणि  बर्मुडा घातलेले होते.

काही वेळ बसमधून बाहेर पहात होतो. निसर्गसौंदर्याची  अनेक रूपं, बसच्या आत आणि बाहेर चकाचक स्वच्छता ,लोकांची सौजन्यपूर्ण वागणूक मी इंग्लंड आणि स्कॉटलंडमध्ये  नेहमीचं आहे. त्यामुळे त्यात नवीन वाटत नव्हते. मी बसमध्ये पाहिलं.सगळीकडं स्तब्ध शांतता होती.अनेकजण आपापल्या मोबाईलमध्ये दंग होते तर काही डुलक्या घेत होते.

माझ्या पुढच्या सीटवर  एक जोडपं बसलं होतं. ते पाठमोरे होते. तरीही  त्यांच्या खांद्यावरचा भाग  स्पष्ट दिसत होता. दोघंही उंच होते. तरीही तिची शरीरयष्टी नाजूक होती. तिनं केसांचा बाॅबकट केला होता.

गडद निळ्या रंगाचा झिरझिरीत फ्राॅक तिनं घातला होता. ती राजकन्येसारखी आकर्षक दिसत होती.

कडेच्या खिडकीतून ती  बाहेर पहात होती. तिच्या मानाने तो खूप दणकट वाटत होता.दाट मिशा आणि डोक्यावरचे उभे राहिलेले केस यामुळे मला तो हिंदी सिनेमातल्या व्हिलनसारखा वाटत होता. थोड्या वेळात त्या व्हिलननं राजकन्येच्या खांद्यावर आपला हात टाकून तो तिला हसवायचा प्रयत्न करू लागला.ती शांत होती.

मनात विचार करू लागलो; सुंदर मुलींवर  जाळं टाकणं हा बलिष्ठांचा  जगभर चालू असणारा धंदा दिसतो.

त्याच्या प्रयत्नाला ती फशी  पडली वाटतं, कारण तिनंही  त्याच्या खांद्यावर आपली मान ठेवली. मला तिची कीव आली तर त्याची चीड.

टिपीकल हिंदी सिनेमाची कथा मी मनात रंगवू लागलो. प्रवास कधी संपला ते कळलंच  नाही. एका मैदानात बसच्या ड्रायव्हरने बस उभी केली.आमचं डेस्टीनेशन आलं होतं. समोर प्रचंड मोठा जलसागर पसरला होता.त्यावर अजस्र पूल होते.बाहेर आलो. थंडी बोचत होती. मीही पत्नी आणि मुलीसोबत थंडीचे कपडे घालून सगळेजण जात होते तो अथांग समुद्र पहायला गेलो. 

सहज लक्ष गेले ते जोडपेही मला दिसले आणि धक्काच बसला.त्या सुंदर राजकन्येला उजवा हातच नव्हता. तिच्या बाॅबकटचे कारण  समजून आले. मी पहात होतो. त्याने आपल्या अंगावरचं जर्कीन काढून अलगद तिच्या अंगावर ठेवलं. पाण्याला जोर खूप होता  म्हणून  ठिकठिकाणी प्रतिबंधात्मक उपाय करून ठेवले होते.शिवाय अनेक सुरक्षारक्षकही लोकांना सूचना देत होते. तो तिच्या खांद्यावर हात ठेवून सगळी माहिती  देत होता.

काही वेळात एक छोटीशी बोट येऊन उभी राहिली. त्याला फेरी म्हणतात. लोखंडी जिन्यावरून फेरीवर  जायचं होतं. मी एका सीटवर बसून पहात होतो. तिला नीट चढता येत नव्हतं. तिला आधार देत त्याने तिला वर चढवलं. फेरीचा वेग वाढत होता. निसर्गाच्या आणि मानवी कर्तृत्वाच्या अनेक यशोगाथा आम्ही त्या स्फटिकशुभ्र जलाशयावर पहात होतो. फेरीवर जमलेली विविध रंगाची माणसं आनंदाने चेकाळली होती. मधूनच पाण्यात ती फेरी हिंदकळत होती. तेव्हा स्वतःला सावरण्याची कसरत करताना गमतीचे अनेक प्रकार घडून येत होते.

ती दोघं आमच्या जवळच्याच लाकडी बाकावर बसले होते.तिनं डाव्या हातानं फेरी पकडली होती,तरीही तिचा तोल जात होता.तो  तिला आधार देत उभा होता. 

फेरी शांत झाल्यावर त्याने आपली बॅग उघडून  कसला तरी बिस्कीटचा पुडा काढून एक बिस्किट तिच्या तोंडात दिलं. फेरी हिंदकळली, तशी तिच्या तोंडातून बिस्किट खाली पडलं. मग त्याने एका हातानं तिला सावरत दुसर्‍या हातानं नवीन बिस्किट काढून तिच्या तोंडात दिलं……. एखादी पक्षीण आपल्या  पिलाच्या चोचीत अन्न  भरवते तसा मला तो आता वाटू लागला आणि त्याच्याविषयीचा राग जाऊन ती जागा आदराने घेतली.

© प्रा.डाॅ.सतीश शिरसाठ

सेवानिवृत्त प्राध्यापक, सावित्रीबाई फुले पुणे विद्यापीठ, पुणे

मो व वाटसॅप नं. – ९९७५४३५१५२, ईमेल- [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर ≈

Please share your Post !

Shares