तुम्ही केदार शिंदेंचा ‘बाईपण भारी देवा ‘ बघितला असेलच.
ही कथा आहे मंगळागौरीच्या स्पर्धेत भाग घेणाऱ्या सहा बहिणींची.
यांच्या मनावर लहानपणी खेळलेल्या मंगळागौरीच्या खेळांच्या आठवणीची जादू आहे. त्यामुळे आणि भरघोस बक्षिसाच्या आशेने आणि कोणी ‘इगो’ सुखावण्यासाठीही या स्पर्धेत भाग घेतात.
पण पुलाखालून बरंच पाणी वाहून गेलंय. पूर्वीच्या सडपातळ, चपळ, लवचिक शरीराने केव्हाच साथ सोडलीय. आणि सर्वांत महत्त्वाचं म्हणजे प्रत्येक जण आपापल्या संसारात आपापल्या परीने बाईपणाचं ओझं वाहतेय. तर अशा या बहिणी स्पर्धा जिंकायची तयारी कशी करतात, त्यांचं ते स्वप्न पुरं होतं का, त्या धडपडीत त्यांच्या हाती इतरही काही लागतं का, ते तुम्ही बघितलं असेलच. नसल्यास जवळच्या चित्रपटगृहात जाऊन नक्की बघा.
आज हा लेख या सिनेमाची जाहिरात करण्यासाठी लिहिलाय की काय अशी शंका येईल कदाचित.. पण तसं अजिबातच नाही. हा लेख लिहिलाय तो – या चित्रपटाची प्रभावी आणि पठडीबाहेरची कथा, पटकथा, आणि त्यातले खुमासदार संवादही जिने लिहिले आहेत – त्या वैशाली नाईक या जेमतेम ३३-३४ वर्षाच्या तरुणीच्या कौतुकास्पद अशा अफाट कल्पनाशक्तीची आणि लेखन-सामर्थ्याची कल्पना माझ्यासारखीच इतरांनाही यावी म्हणून. . हा चित्रपट म्हणजे वैशालीचं मराठी सिनेसृष्टीतलं पहिलं दमदार आणि यशस्वी पाऊल.
यापूर्वी तिने ‘दिया और बाती’, ‘ये उन दिनों की बात है’, ‘बॅरिस्टर बाबू ‘, ‘तू मेरा हिरो’ वगैरे अनेक लोकप्रिय हिंदी मालिकांचं लेखन केलं आहे. सद्या ती ‘ये रिश्ता क्या क्या लाता है’ या हिंदी मालिकेचं लेखन करत आहे.
वैशालीने यापूर्वी ‘सेव्हन स्टार डायनॉसर एन्टरटेनमेंट’ ही शॉर्ट फिल्म बनवली आहे.
‘सेव्हन स्टार डायनॉसर….’ ही फिल्म ‘धरमशाला इंटरनॅशनल फिल्म फेस्टिवल’, ‘पाम (palm) स्प्रिंग्ज इंटरनॅशनल शॉर्ट फेस्ट 2022’, ‘ब्रुकलीन फिल्म फेस्टिवल 2022’, ‘मॅंचेस्टर फिल्म फेस्टिवल 2022’, ‘न्यू यॉर्क इंडियन फिल्म फेस्टिवल 2022’, ‘ऍथेन्स इंटरनॅशनल फिल्म अँड व्हिडीओ फेस्टिवल 2022’, ‘लंडन इंडियन फिल्म फेस्टिवल’ वगैरेमध्ये प्रदर्शित केली गेली आणि वाखाणलीही गेली, हे आवर्जून सांगायला हवे.
‘IFFLA’ ( इंडियन फिल्म फेस्टिवल ऑफ लॉस एंजलीस)मध्ये या फिल्मने ‘Audience Choice Award’ पटकावलं आहे.
याशिवाय वैशालीने काही हिंदी बालकथाही लिहिल्या आहेत. त्या म्हणायला बालकथा असल्या तरी त्या मोठ्यांच्या डोळ्यांत झणझणीत अंजन घालणाऱ्या आहेत हे विशेष.
सी. एस.( कंपनी सेक्रेटरी ) आणि एल. एल. बी. अशा पूर्णपणे व्यावसायिक आणि रुक्ष म्हणता येईल अशा विद्याशाखांच्या पदव्या प्राप्त केलेली वैशाली, साहित्याच्या या सुंदर आणि समृद्ध विश्वात अचानक पाऊल टाकते काय आणि बघता बघता इतक्या कमी वयातच इथे पाय घट्ट रोवून दिमाखाने उभी रहाते काय …. .. हा तिचा वेगवान आणि झपाट्याने यशाच्या दिशेने होत असलेला प्रवास खरोखरच थक्क करणारा आहे.
वैशाली नाईक या प्रतिभाशाली तरुण लेखिकेची साहित्य- क्षेत्रातली मुशाफिरीच इतकी दमदारपणे सुरु झालेली आहे की, “ आता ही पोरगी काही कधी मागे वळून बघणार नाही “ असं अगदी खात्रीपूर्वक म्हणता येईल.
वैशालीची ही साहित्यिक घोडदौड अशीच चौफेर चालू राहो, आणि तिला नेहेमीच असे भरघोस यश मिळो, याच तिला मनःपूर्वक शुभेच्छा !
सौ. गौरी गाडेकर
संपर्क – 1/602, कैरव, जी. ई. लिंक्स, राम मंदिर रोड, गोरेगाव (पश्चिम), मुंबई 400104.
फोन नं. 9820206306
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – इसका अर्थ गुलाम नहीं…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 150 – गीत – इसका अर्थ गुलाम नहीं…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “मन में फिर भी शेष रहे….”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 150 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “मन में फिर भी शेष रहे…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
कभी कभी परिहास से अनछुआ सच झाँकने लगता है। लगता है ईश्वर ने टमाटर की तकदीर बड़ी फुर्सत में लिखी है। भूतकाल में प्याज ने मयूरासन डुला दिया था। पता नहीं टमाटर के मन में क्या खदबदा रहा है।
अखबार छाप रहे हैं-लाल सिलेंडर,लाल डायरी,लाल टमाटर और झंडी भी लाल लाल ! बात जंतर मंतर जैसी लगी।
ऐसे तो आदमी का लहू भी लाल है। पर वह तो बहुत सस्ता है। कोई कहीं भी बहा देता है।
लाल मणि कैसे और क्योंकर आसमान छूने लगे।
टमाटरों के सरदार ने अपना नाम घमंडीलाल रख लिया है। सुनते हैं।उसे z+ सुरक्षा मिली हुई है। है किसी की मजाल जो उसके आसपास भी फटके। सुरक्षा के सात घेरे तोड़ने पड़ेंगे। हवा तक बगैर अनुमति के छू नहीं पाती।
पिछली बार इन्दौर में बंदूकों के साये तले महफूज रहे बेचारे। जिनके घर टनों टमाटर उन्हें रतजगा करना ही होगा। टमाटरपतियों का बी पी बढ़ रहा है। स्वयं टमाटर डरे हुये हैं पर उन्हें पता है–डर के आगे जीत है। खबरपतियों को खबर ही नहीं।
सबसे ज्यादा बेचैन हैं किचन क्वीन यानी महिलाएं। वे धन्यताभाव से भर जायें अगर उनके सिरीमान(श्रीमान) कर्णफूल , बिन्दी, कंगन, बाजूबंद करधनी, पाजेब, मुद्रिका, चन्द्रहार, टमाटराकृति ले आयें। पानी की प्यास कोल्ड्रिंक से बुझानी पड़ती है कभी कभी। टमाटर का रुतबा है ही ऐसा।
लाल डायरी से ज्यादा रहस्यमय है टमाटरों की दुनिया।
टमाटरों के बगैर सब्जियां स्वाद छुपाने लगी हैं। मैंने उन्हें मना लिया है। वे टमाटर की फोटू देखकर मान जाती हैं। काम चल रहा है।
चुड़ैल सब्जियां बाजार में आम आदमी को देखकर खींसे निपोरती हैं।टमाटर की फोटू धड़ल्ले से बिक रही है।
अकड़ू टमाटर का भी अपना इतिहास है। है कोई माई का लाल जो उसका इतिहास बदलने की जुर्रत करे। वामपंथियों पर तोहमत लगा दे कि तुम्हीं ने उसे स्पेनिश कहा।भारत में तो आदि मानव टमाटरों पर जिन्दा रहता था। इतिहास ,किसका भला नहीं होता। हर वर्तमान का इतिहास होता है।
सच तो ये है कि टमाटर स्पेन से चला।चलते चलते यूरोप पहुँचा और फिर सारी दुनिया में छा गया। उसने ठान लिया था कि वो 192 देश घूमकर रहेगा। सो घूमा।स्पेनिश लोगों ने कह तो दिया लव एप्पल पर ला टोमेटिना उत्सव पर खूब लातें घूसे मारे। जमकर कुटाई की।कचूमर निकाल दिया।
इस दुनिया में कुछ भी होता है। प्यादे से फर्जी होने में टाइम कितना लगता है। कल तक जो छुट्टा यानी चिल्लर था आज उसे डाॅलर बना दिया।विकास के मानी क्या खाक समझेंगे जो पेट्रोल, बिजली, सब्जी ,भाजी, और जीरे, के मन की बात नहीं समझते।उन्हें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।
स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी का आकलन है कि नाम में बहुत कुछ नहीं, सब कुछ रखा है।सब्जियों के नाम धाकड़ हों तो जज़्बात पैदा होते हैं।आजमाने में क्या हर्ज है।नाम बदलना नहीं है ,सिर्फ नाम के आगे विशेषण लगाने हैं –जैसे “घमंडी समोसा” “सिजलिंग बीन्स” डायनामाइट चिली”(भूत जोलोकिया)—-इसी क्रम में “ड्रैक्यूला टमाटर” कैसा रहेगा ?
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फांस”।)
☆ लघुकथा ☆ “फांस”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
शील, मर्यादा लिए त्रिशा की सगाई हुई। फिर खूब धूमधाम से स्वराज साथ शादी हुई।
त्रिशा विवाह के दूसरे दिन सुबह 7 बजे सोकर अपने कमरे से बाहर निकली, त्यों ही ड्राइंगरूम में बैठी सास की कड़क आवाज सुनाई दी…
“अब ये देर से सोकर उठने का तरीका नहीं चलेगा।”
लाड़ प्यार में पली प्रतिभाशाली त्रिशा को जैसे सांप सूंघ गया। उसे लगा पेड़ों की जड़ों में चोट लगने से शाखाएं इसीलिए सूख जातीं हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बजरबट्टू”।)
अभी अभी # 118 ⇒ बजरबट्टू… श्री प्रदीप शर्मा
बचपन में पहली बार यह शब्द मेरे गुरुतुल्य अग्रज श्रद्धेय हरिहर जी लहरी के मुंह से सुना था, जब वे पढ़ाते वक्त अपने विद्यार्थी को संबोधित करते हुए अक्सर कहा करते थे, अरे बजरबट्टू ! तुम्हारे मस्तिष्क में हम जो समझाते हैं, वह प्रवेश करता है भी कि नहीं।
हम तो बजरबट्टू का मतलब तब ही समझ गए थे, लेकिन उसके बाद इस शब्द का प्रचलन लुप्तप्राय हो गया। जब शब्दकोश में मूर्ख, जाहिल और बेवकूफ जैसे शालीन और प्रभावशील शब्द मौजूद हों, तो बेचारे बजरबट्टू को कौन पूछे।।
बहुत समय बाद अचानक कहीं यह शब्द फिर कानों में पढ़ा ! खोज की तो पता चला, पहाड़ी नस्ल के एक घोड़े को भी बजरबट्टू कहा जाता है, जो खच्चर से कुछ मिलता जुलता है। शायद इसीलिए हम आज जाकर यह समझ पाए कि लहरी जी ने उस छात्र को बजरबट्टू क्यों कहा था।
आप बजरबट्टू को यूं ही नजरंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि बजरबट्टू एक वृक्ष से निकलने वाले दाने को भी कहते हैं। इस दाने की माला को नजर से बचाने के लिए बच्चों को पहनाया जाता है। बोलचाल की भाषा में जिसे बरबटी कहते हैं, वह भी एक पौधे का बीज ही है, जिसे ही शहरी भाषा में beans कहा जाता है। प्रकृति में ऐसे कितने पौधे और उपयोगी जड़ी बूटियां हैं, जिनसे हम तो दूर हैं, लेकिन आदिवासी और पशु पक्षी भली भांति परिचित हैं।।
जिस तरह बुद्धिमानी किसी की बपौती नहीं, उसी तरह मूर्खता पर भी किसी का एकाधिकार नहीं। कोई मूर्ख है तो कोई वज्र मूर्ख। जरा वज्र मूर्ख में वज्र का वजन तो देखिए, क्या आप उसे टस से मस कर सकते हैं। दुख तो तब होता है जब कुछ लोग इसी अर्थ में जड़ भरत जैसे शब्द का भी प्रयोग कर बैठते हैं। जो संसार की आसक्ति से बचने के लिए जड़वत् रहे, वह जड़ भरत।
बहुत अंतर है उज्जड़ और जड़वत् भरत में, लेकिन कौन समझाए इन बजरबट्टुओं को।
इसी से मिलता जुलता एक और शब्द है नजरबट्टू, जिसका सीधा सीधा संबंध नजर से ही है। हम भले ही अंध विश्वास को ना मानें, फिर भी मां अपने बच्चे को हमेशा बुरी नजर से बचाकर ही रखेगी, और उसकी नजर भी उतारेगी। बुरी नजर वाले, तेरा मुंह काला तो ठीक है, लेकिन आजकल आपको बाजार में आपको नजरबट्टू के मुखौटे भी नजर आ जाएंगे, जिनको पहनना आजकल फैशन होता जा रहा है।।
सभी जानते हैं, उज्जैन टेपा सम्मेलन के लिए भी जाना जाता है। एक अप्रैल मूर्ख दिवस जो होता है। इस विशुद्ध हास्य और साहित्यिक आयोजन की देखादेखी आजकल राजनेता बजरबट्टू सम्मेलन का आयोजन करने लग गए हैं। जो असली है, उसे नकली से छुपाया नहीं जा सकता।
जो अभी नेता है, वही आज का वास्तविक अभिनेता है।
बजरबट्टुओं को किसी की नजर नहीं लगती। अपनी असलियत नजरबट्टू के मुखौटे में छुपाने से भी क्या होगा। कल ही एक ऐसे कलाकार का जन्मदिन था, जो झुमरू भी था और बेवकूफ भी। खुद हंसता था, सबको हंसाता था। एक बेहतरीन, संजीदा इंसान, अभिनेता, सफल गायक, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, संगीत निर्देशक, क्या नहीं था वह। जैसा अंदर था, वैसा बाहर था, करोड़ों प्रशंसकों का चहेता किशोर कुमार। उसी का एक मस्ती भरा गीत;