हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 43 ☆ द्विपदियाँ (अश’आर) ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी  द्वारा रचित  ‘द्विपदियाँ (अश’आर).’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 43 ☆ 

☆ द्विपदियाँ (अश’आर) ☆ 

*

आँख आँख से मिलाकर, आँख आँख में डूबती।

पानी पानी है मुई, आँख रह गई देखती।।

*

एड्स पीड़ित को मिलें एड्स, वो हारे न कभी।

मेरे मौला! मुझे सामर्थ्य, तनिक सी दे दे।।

*

बहा है पर्वतों से सागरों तक आप ‘सलिल’।

समय दे रोक बहावों को, ये गवारा ही नहीं।।

*

आ काश! कि  आकाश साथ-साथ देखकर।

संजीव तनिक हो सके, ‘सलिल’ के साथ तू।।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 74 – प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष शोधपूर्णआलेख  “प्रेम तेरे कितने रूप  -कितने रंग। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य#74 ☆ प्रेम तेरे कितने रूप – कितने रंग ☆

यदि प्रेम शब्द की व्याकरणीय संरचना पर ध्यान दें, तो यह ढाई आखर (अक्षरों) का मेल दीखता है। जो साधारण सा होते हुए भी असाधारण अर्थ तथा मानवीय गुणों का भंडार सहेजे हुए हैं। इसके इसी गुण के चलते कर्मयोगी आत्मज्ञानी कबीर साहब ने जन समुदाय को चुनौती देते हुए ढाई आखर में समाये विस्तार को पढ़ने तथा समझने की बात कही है।

उनका साफ साफ मानना है कि पोथी पढ़ने से कोई पंडित (ज्ञानी) नहीं होता, जिसने प्रेम का रूप रंग ढंग समझ लिया वही ज्ञानी हो गया।

पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

लेकिन अध्ययन के दौरान हमने प्रेम के अनेक रूप रंग तथा गुण अवगुण भी देखे। भक्ति कालीन अनेक संतों महात्माओं ने प्रेम विषयक अपनी-अपनी अनुभूतियों से लोगों को समय समय पर अवगत कराया है जैसे

किसी अज्ञात रचनाकार अपने शब्दों  में प्रेम कि उत्पति तथा पाने का रास्ता बताने हुए पूर्ण समर्पण की बात करते हुए कहते हैं कि –

प्रेम माटी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।

जाको जाको चाहिए, शीष देय लइ जाय।।

कबीर साहब भी कहते हैं कि-

 कबिरा हरि घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।

सीस उतारै हाथ लै, सो पइठै छिन माहि।।

तो वहीं पर कबीर साहब के समकालीन कवि कृष्ण भक्त रहीमदास जी प्रेम में दिखावे की मनाही करते हुए कहते हैं कि –

ऐसी प्रीति न कीजिए, जस खीरा ने कीन।

उपर से तो दिल मिला, भीतर फांकें तीन।।

लेकिन, कृष्ण भक्त मीरा के अनुभव में प्रेम की अनुभूति उलट दिखाई देती है तथा  कृष्ण से किये प्रेम की अंतिम परिणति अपने समाज द्वारा मिली घृणा नफरत तथा हिंसा के चलते दुखद स्मृतियों की कहानी बन कर रह जाती है। उनके अंतर्मन की वेदना उनकी रचनाओं में दिख ही जाती है और प्रेम करने से ही लोगों को मना करते हुए कह देती है।

जौ मैं इतना जानती, प्रीत किए दुख होय।

नगर ढिंढोरा पीटती, प्रीत न करियो कोय।।

प्रेम में मिलन जहां सुख की चरम अनुभूति कराता है वहीं बिछोह का दुखद अनुभव भी देता है। तभी कविवर सूरदास जी प्रेम के भावों की दुखद अनुभूति का वर्णन करते हुए ऊधव  गोपी संवाद मैं उलाहना भरे अंदाज में मधुवन को वियोगाग्नि में जलने की बात कहते हुए अपने मन की अंतर्व्यथा प्रकट करते हुए गोपियां कहती हैं कि –

मधुबन तुम क्यौं रहत हरे ।

बिरह बियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यौ न जरे ।

वहीं कबीर मिलन के पलों को यादगार बनाने के लिए अपनी रचना में पिउ के मिलन के अवसर पर पड़ोसी स्त्रियो से मंगलगान करने का अनुरोध करते हुए कहते हैं कि-

दुलहनी गावहु मंगलचार, हम घरि आए हो राजा राम भरतार।

तो वहीं पर बाबा फरीद (हजरत ख्वाजा फरीद्दुद्दीन) अंत समय में शारीरिक गति को देखते हुए कह उठते है कि हे काग तुम मृत्यु के पश्चात सारा शरीर नोच कर खा जाना लेकिन इन आंखों को छोड़ देना कि प्राण निकल जाने के बाद भी इन आंखों में मिलन की आस बाक़ी है।

कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खाइयो मांस।

दोइ नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस।

प्रेम में उम्मीद पालने का ऐसा उत्कृष्ट उदाहरण और कहां मिलेगा। आज भी प्रेम प्रसंगों के चलते हत्या, आत्महत्या, नफ़रत की विद्रूपताओं के रूप के  दीखता है वहीं प्रेम का दूसरा सकारात्मक पहलू भी दीखता है जिसमें दया करूणा प्रेम सहानुभूति जैसे भाव भी दृष्टि गोचर होते हैं तथा किसी कवि ने यहां तक कह दिया कि  ईश्वर भी प्रेम में विवस हो जाता है-

प्रबल प्रेम के पाले पडकर, हरि को नियम बदलते देखा।

खुद का मान भले टल जाये, पर भक्त का मान न टलते देखा।

वहीं प्रेम की गहन अनुभूति पशु पंछियों तथा अन्य सामाजिक प्राणियों को भी सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए विवश करती है। तभी तो इस आलेख के लेखक अपने प्रेम विषयक अनुभव को गौरैया के जीवन दर्शन में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि—-

नहीं प्रेम की कीमत कोई, और नही कुछ पाना।

अपना सब कुछ लुटा लुटा कर, इस जग से है जाना।

प्रेम में जीना प्रेम में मरना, प्रेम में ही मिट जाना।

ढाई आखर प्रेम का मतलब, गौरैया से जाना।।

अर्थात्- प्रेम  अनमोल है इसे दाम देकर खरीदा नहीं जा सकता। इसमें कुछ पाने की चाहत  नहीं होती। अपना सबकुछ लुटा लुटा करके प्रसंन्नता पूर्वक जीवन बिताना ही प्रेम की  अंतिम परिणति है।

प्रेम के साथ जीवन, प्रेम के साथ मृत्यु तथा प्रेम के साथ अपना अस्तित्व मिटाना ही तो ढाई आखर प्रेम का अर्थ है सही मायनों में सार्थक सृजन संदेश भी।

तभी तो किसी गीतकार ने लिखा- “मैं दुनियां भुला दूंगा तेरी चाहत में ” यह ईश्वरीय भी हो सकता है और सांसारिक भी।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.५७॥ ☆

 

तं चेद वायौ सरति सरलस्कन्धसंघट्टजन्मा

बाधेतोल्काक्षपितचमरीबालभारो दवाग्निः

अर्हस्य एनं शमयितुम अलं वारिधारासहस्रैर

आपन्नार्तिप्रशमनफलाः संपदो ह्य उत्तमानाम॥१.५७॥

तभी यदि प्रभंजन चले , वृक्ष रगड़ें

औ” घर्षण जनित दाव वन को जलायें

ज्वालायें यदि क्लेश दें चमरि गौ को

तथा पुच्छ के केश दल झुलस जायें

उचित तब तुम्हें तात ! जलधार वर्षण

अनल को बुझा जो सुखद शांति लाये

सफलता यही श्रेष्ठ की संपदा की

समय पर दुखी आर्त के काम आये

 

शब्दार्थ … प्रभंजन… तेज हवा , आंधी

घर्षण जनित दाव … वृक्षो के परस्पर घर्षण से उत्पन्न आग

चमरि गौ    … चमरी गाय जिसकी पूंछ के सफेद बालों से चौरी बनती है

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ स्वप्नवेल ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित

श्री सुहास रघुनाथ पंडित

☆ कवितेचा उत्सव ☆ स्वप्नवेल ☆ श्री सुहास रघुनाथ पंडित ☆ 

शुक्राचे चांदणे पडले पहा क्षितिजावर

रातराणी उमलूदे तुझ्या मुखमंडलावर

 

स्वप्नरंगी चांदण्यांना घेऊनिया संगती

एकमेकांच्या सवे ग धुंदल्या त्या सर्व राती

 

सांग,सांग काय झाले आज तुजला प्रिये

व्यर्थ जाते चांदणे तू अशी जवळीच ये

 

सोडूनिया राग लटका हास पाहू एकदा

वा नववधूसारखी तू लाज पाहू एकदा

 

प्रार्थितो मी आज तुजला ऐक ग माझे जरा

चांदणे आहे तोवरी स्वप्न रंगवूया जरा

 

वा,सखी वा, मानिली तू प्रार्थना माझी खरी

रातराणी बहरली आपुल्या स्वप्नवेलीवरी.

 

©  श्री सुहास रघुनाथ पंडित

सांगली (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ अंतरीचा ईश्वर ☆ सौ.अश्विनी कुलकर्णी

 ☆ कवितेचा उत्सव ☆ अंतरीचा ईश्वर ☆ सौ.अश्विनी कुलकर्णी ☆ 

किती गोडवा तो तुझ्या अंतरी

तुझ्या अंतरीच शोध भाव ईश्वरी

 

अर्पिण्यास का तू शोधतोस फूल पत्री

अंतरीच्या ईशाशी करावीस मैत्री

 

किती घालावे ते हार अन किती अलंकार

अंतरीच्या ईशालाच करावा श्रृंगार

 

अवडम्बराची नसावी फूकी आरास

अंतरीच्या ईशाचा घ्यावाच ध्यास

 

भुकेल्या जीवाना देऊनी घास

अंतरीच्या ईशाची बघ तू मिठास

 

पावती अन्नदान नको तो दिखवा

अंतरीच्या ईशाचा शांततेचा विसावा

 

वाचाळता ही जणू मिथ्याच सारी

अंतरीचा ईश तो कृतीवीना निर्विकारी

 

पाठपूजा निरंतर परी अंतरी क्लेश भारी

अंतरीचा ईश काढे मनुजामधिल दरी

 

नंदादीप तूज घरी हजेरीही मंदिरी

ईशत्व रोमात तुझ्या बघ एकदा अंतरी

 

© सौ अश्विनी कुलकर्णी

सांगली  (महाराष्ट्र)

मो – 9421225491

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर

श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ जीवनरंग ☆ सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

बर्‍याच दिवसात शरद भेटला नव्हता. आज वेळ होता म्हणून त्याच्याकडे गेलो. शरद माझा जिगरी दोस्ती. शाळेपासूनचा. नेहमी काळ्यावर पांढरे करत असतो. अलीकडे साहित्य क्षेत्रात त्याचे चांगले नाव होऊ लागले आहे.

त्याच्या घरात गेलो आणि दिवाणखान्यातील शो-केसने लक्ष वेधून घेतले. तिथे दहा-बारा साहित्य संस्थांनी दिलेली सन्मानचिन्हे व्यवस्थित मांडून ठेवलेली होती. मी थोडसं रागावूनच शरदला विचारलं, ‘अरे, इतक्या वेळा तुझा सन्मान झाला, तुला इतके इतके पुरस्कार मिळाले, एकाही कार्यक्रमाला तुला दोस्ताला बोलवावसं वाटलं नाही? आम्ही आलो असतो, टाळ्या वाजवायला.’

तो म्हणाला, ‘कार्यक्रम झालाच नाही.’

‘म्हणजे?’ आता चकीत व्हायची वेळ माझी होती.

‘हे सन्मानचिन्ह बघ.’ त्याने एका मोमेंटोकडे बोट दाखवलं.

अक्षर साहित्य संस्थेने दिलेले सन्मानचिन्ह होते ते. मला काहीच कळेना. मग त्याने कागदाची एक चळत माझ्यापुढे केली.  वरचं पत्र अक्षर साहित्य संस्थेचं होतं. त्यात लिहीलं होतं, ’आपल्या साहित्य सेवेबद्दल आम्ही आपल्याला सन्मानित करू इच्छितो. पुरस्कारात आपल्याला शाल, श्रीफळ, सन्मानचिन्ह व रोख ५००० रुपये दिले जातील. कृपया आपली स्वीकृती लगेच कळवावी.’

‘मग?’

‘मी माझी स्वीकृती लगेच कळवली. रात्री संस्थेच्या अध्यक्षांचा फोन आला. ‘आपण २०,००० चा चेक पाठवून संस्थेचे संरक्षक सभासद व्हावे. म्हणजे आपल्याला  पुरस्कृत  करणे आम्हाला सोयीचे जाईल.’ विचार केला, इतके पैसे भरणं काही आपल्याला जमणार नाही. पण संस्थेची इच्छा आहे मला सन्मानित करण्याची, तर आपण त्यांच्या इच्छेचा आदर करून त्यांच्या नावाचे  सन्मानचिन्ह बनवून घ्यावे. ही दुसरीही पत्रे बघ, वेगवेगळ्या साहित्य संस्थांची.  फरक इतकाच की प्रत्येकाची वेगवेगळ्या रकमेची मागणी आणि देऊ केलेली पदे वेगवेगळी. म्हणजे कुठे आजीव सभासद, कुठे संस्थेचे अध्यक्षपद, कुठे विश्वस्त.  मी त्या त्या संस्थेच्या इच्छेनुसार माझ्या खर्चाने , सन्मानचिन्ह बनवली. त्यांना या पत्रांचा आधार आहे. पण हे काम खूपच कमी खर्चात झालं.’

© श्रीमती उज्ज्वला केळकर  

176/2 ‘गायत्री’, प्लॉट नं 12, वसंत साखर कामगार भवन जवळ, सांगली 416416 मो.-  9403310170

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ बालपण देगा देवा – भाग 2 ☆ सौ. सुनिता गद्रे

सौ. सुनिता गद्रे

 ☆ विविधा ☆ बालपण देगा देवा – भाग 2 ☆ सौ. सुनिता गद्रे ☆ 

माझी तिच्याच एवढी आणखी एक चिमुकली मैत्रीण!… तिचा जास्तीत जास्त मुक्काम आमच्या बागेत असतो. सकाळी- सकाळी हातात एक कुंडा घेऊन आमच्या बागेत बकुळीची फुलं वेचायला जेव्हा ती येते तेव्हा तिला स्वेटर घालण्यासाठी परत पाठवावं लागतं. थंडीने नुसती कुडकुडत असते बिचारी. मला जेव्हा रिकामा वेळ मिळतो तेव्हा बकुळीच्या फुलांचे गजरे  करणं हे आमचं आवडतं काम असतं.काही झाडांच्या मोठ्या पानांना काड्या टोचून पत्रावळी, द्रोण बनवणं तिला खूप आवडतं….तिच्याआजीकडून ती शिकलीय ते करायला…. मग खोटी खोटी देवपूजा आणि पाठोपाठ पत्रावळीवर नैवेद्य ठेवणं हे तर आलंच.

ती परी कल्पनात मग्न असते. परिकथा तिला फार आवडतात.खूप घेराचा छानसा फ्रॉक घातलेली ,मोकळ्या कुरळ्या केसांवर  फुला फुलांचा हेअर बँड लावलेली ,बागेत फुलं, पानं निरखत कल्पनेतल्या फुलपाखरांबरोबर ,पक्षांबरोबरहितगुज करणारी ही वनकन्यका खूपच लोभस दिसते.

“तू मोठेपणी कोण होणार?” ” परीराणी” तिचं उत्तर असतं. तर इतर दोघींची उत्तरं असतात, “मी तिचल होनाल, “मी आई होनाल. असाच एक माझा छोटा मित्र, तो जरा याबाबतीत कन्फ्युज्डच असतो. “मी बार्बर होणार ..नाही नाही मी मेकॅनिक…नाहीतर प्लंबरच होणार.” तो सांगतो. उच्चारात बोबडे पणा नाही, स्पष्ट साफ आवाजात तो आपल्या भावी करिअरचा प्लॅन सांगतो….. अजाणतेपणाने!

.. त्याला राजा राणीच्या गोष्टी नाही आवडत.चिऊ-काऊच्या गोष्टीची तो वाट लावून टाकतो.”शेण म्हणजे काय?मेण म्हणजे काय?म्हातारीआजी भोपळ्यात कशी मावेल?” असे त्याचे प्रश्न असतात. पक्षी, प्राणी, जनावरे बोलतात,यावर त्याचा विश्वास नाहीय. त्यामुळे  इसापाच्या नीतिकथा फेल! त्याला अगदी व्यावहारिक म्हणजे फुगेवाला,ट्रॅफिक पोलीस,रस्त्यावर भटकणारा कुत्रा अशा कुणाचीही जुळवून रंजक केलेली गोष्ट आवडते.

त्याचे सगळे खेळ मैदानी असतात. त्याच्या बरोबर मला फुटबॉल,बास्केटबॉल, क्रिकेट असले खेळ खेळावे लागतात… आणि कायम त्याला जिंकुनही द्यावे लागते. मुद्दामच थकल्याचं नाटक करत मी खाली बसले की “तुझे पाय चेपून देतो” म्हणत पाय चेपता चेपता हळूहळू माझ्या मांडीवर डोके ठेवून तो झोपी जातो. त्याचा चेहरा पाहताना सुख सुख म्हणजे दुसरे काय? ते हेच असा विचार मनात येऊन मला आनंद वाटतो.

छोट्या मुलांना माझ्याबरोबर खेळायला आवडते आणि मलाही त्यांच्याबरोबर खेळायला. ते आपल्या भावविश्वात मला घेऊन जातात .त्यांची सुखदुःखे माझ्याबरोबर शेअर करतात आणि त्यांच्या सहवासात मी माझी प्रापंचिक शारीरिक-मानसिक दुःखं विसरून जाते.

वयाने सत्तरी ओलांडलेली मी मनाने लहान होऊन जाते. कधी वास्तवाची जाणीव झाली की माझं म्हातारपण मला डिवचू लागतं. पण त्याला न जुमानता देवाजवळ मी हेच मागणे मागते, ‘देवा मनानं का होईना मला बालपणातच ठेव. मला बालपण उपभोगू दे. ते सुख तू माझ्यापासून कधीही हिरावून  घेऊ नकोस.’

समाप्त

© सौ. सुनिता गद्रे,

माधव नगर, सांगली मो – 960 47 25 805

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मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ काव्य संग्रह – “पारिजात” – सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ श्री विशाल कुलकर्णी

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ काव्य संग्रह – “पारिजात” – सुश्री संगीता कुलकर्णी ☆ श्री विशाल कुलकर्णी ☆ 

कवीमन हे कोणत्याही मानवी शक्तीद्वारा बनविले जात नसून ते जन्मावे लागते हे सरस्वती देवीचा वरदहस्त लाभलेल्या ठाणे येथील विदुषी संगीता कुलकर्णी यांचा  “पारिजात” हा काव्यसंग्रह..

या काव्यसंग्रहामध्ये उण्यापु-या ऐक्केचाळीस कवितांचं संचयन आहे.

या काव्यसंग्रहातील त्यांची पहिली कविता ” सद्गुरू स्तवन ” ही कविता म्हणजे कृतज्ञतेची एक भावांजलीच आहे अगदी मनापासून आळवलेली अशी सुंदर मनाला भिडणारी  जाणवणारी.. अस्सल प्रेमवीर आणि असली प्रेमिका ” पहिलं प्रेमपत्र ” या कवितेत उत्तम प्रकारे त्यांनी रंगवून टाकली हे त्यांचे कौशल्य मानावे लागेल.. प्रेमावरच्या कवितांनी बाजी मारलेली आहे..

सुश्री संगीता कुलकर्णी

सुगंध, पुस्तकाचे जग, स्पंदन, जागी अजून मी, काही क्षण स्वतःसाठी, साजणा,संजीवनी,माझ्या जीवनात, आस्वाद, रेशीमगाठी या कवितांमधील भावना अतिशय सुरेखरितीने  त्यांनी व्यक्त केलेल्या आहेत. ” ना-ती” ही कविता तर मनाला चटका लावणारी तर ” अनोळखी ” ही कविता तर अतिशय वेगळी अशी. सर्वांनी अनुभवलेली काळजाला भिडणारी अतिशय सुंदर..

“असचं जगायचं” या कवितेत तर आपलं आयुष्य आपण असचं जगायचं? असा प्रश्न विचारला आहे..

आपले जीवन हा एक अनुभवप्रवाह आहे. प्रत्येक व्यक्तीचे जीवनाविषयीचे मत हे त्याला स्वत:ला येणार्‍या अनुभवांवर अवलंबून असते. जीवनात चढउतार हे हटकून येत असतातच. जीवन म्हणजे

ऊन-सावलीचा खेळ असतो. सतत सुख किंवा सतत दु:ख असे क्वचितच आढळते. जाईल त्या क्षेत्रात कोणी मागे तर कोणी पुढे अशी स्थिती आढळते. आपण गतिमान असावे व प्रगतिपथावर राहावे. ही प्रक्रिया सुरू होण्यात व चालू राहण्यात जीवनाचे खरे सार्थक आहे.खरे म्हणजे जगण्याइतके आनंददायक असे जीवनात काहीच असू शकत नाही असे म्हणतं आठवणींना घेऊन बसावं कधी समुद्र किना-यावर चारचौघात बसण्यापेक्षा आयुष्य जास्त सुंदर वाटतं असं त्या ” आयुष्य सुंदर असतं” या कवितेतून त्या सांगतात. तर  “श्रावणधारा” या कवितेत श्रावणातल्या ऊन- पावसाचे सुंदर खेळ मेघांवर उठलेला मल्हाराचा सूर

आभाळातल्या इंद्रधनूचा गोफ आवेग उत्कटता सारे या कवितेत सहजतेने उमटलेले आहेत..

सावली माणसाची साथ कधीच सोडत नाही. क्षणाचाही विलंब न करता जवळ येत असते.सावली सारख्या सोबत असणा-या आयुष्याला साजेशी असलेली ” माझी सावली” ही कविता.

रिमझिम ऊन पावसाच्या लपंडावात निसर्गाची गळाभेट पाहणारी निसर्गाचा खेळ हवाहवासा वाटणारी निसर्गाची समृद्धी अनुभवत पायवाटेवरून चालताना गुणगुणणारी कवयित्री ” रिमझिम ” या कवितेत भेटते..  पाऊस या विषयावरची गुंफण सुरेखच.. मृगजळ असलेल्या आपल्या जीवनात एक वेगळं आयुष्य घडविणारी, सुखाचा आसमंत फुलवणारी अखंड तेवणारी प्रेमाची ज्योत ” मृगजळ ” या कवितेत भेटते..

पुस्तकांच्या जगात आपण नेहमीच वावरतो पण ” पुस्तकांचे जग” ही आणखी एक वेगळी कविता..या कवितेच्या रूपात आपण आणखीच वावरतो…” महानायक ” ही कविता सृष्टीच्या ईश्वराशी दिलाने एकरूप होऊन जीवन गाण्याला ताल शब्दसूर मिळतील अशी कविता अप्रतिम..

कवयित्रीाने या संग्रहात वेगवेगळ्या विषयांवर अतिशय सुंदर सहज अशा कविता लिहिल्या आहेत. अध्यात्म, व्यक्तिरेखा निसर्ग, आत्मचिंतनवर प्रेम या विषयांवरही त्यांच्या कविता आहेत. मनाला भिडणा-या जणू काही स्वतःच अनुभवलेल्या..

अतिशय सुंदर वाचनीय अतिशय प्रगल्भ अशा कविता या पुस्तकात आहेत.

मनःपूर्वकता हा कवितेचा विशेष तर सहजता उत्स्फूर्तता हे अलंकरण आहे

 

©  श्री विशाल कुलकर्णी

ठाणे

9821554495

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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मराठी साहित्य – सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१८) – ‘मान अन्‌  भान’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर

 ☆ सूर संगत ☆ सूरसंगत (भाग-१८) – ‘मान अन्‌  भान’ ☆ सुश्री आसावरी केळकर-वाईकर ☆ 

मागच्या लेखात आपण तामिळनाडू प्रांतात प्रचलित असलेल्या अंत्ययात्रेतील जोशपूर्ण तालवाद्यवादनाच्या प्रथेची कारणमीमांसा केली. अर्थातच आज सुशिक्षित समाज ही प्रथा पाळताना दिसत नाही, त्याचं कारणही संयुक्तिक आहेच. आज वैद्यकशात्र प्रचंड विकसित पावलेलं आहे. ईसीजी मशीनमुळं ह्या प्रथेमागचा उद्देशच सफल होत असताना ह्या प्रथेची गरज नाही हे त्यांना समजलं असावं. मात्र तळागाळातले लोक ही प्रथा धर्मिक समजून श्रद्धेनं/अंधश्रद्धेनं अजूनही पाळत असावेत… पण त्यामुळे हा नेमका काय प्रकार आहे हे तरी समजलं. ज्याला आपण परंपरा म्हणतो त्या गोष्टी का आणि कशा अस्तित्वात येत असाव्यात हे तरी माहीत होऊन आपला ह्या गोष्टींकडे बघण्याचा दृष्टिकोन व्यापक व्हायलाही नक्कीच मदत होते. शिवाय ही गोष्ट त्यातल्या उपयुक्ततेसोबत त्याकाळच्या समाजव्यवस्थेचाही भाग असावी असंही वाटून गेलं. वाद्यवादनात पारंगत असणाऱ्या कलाकारांना पोटापाण्यासाठीची ही एक व्यावसायिक संधी म्हणायला हरकत नाही. इतर सांस्कृतिक समारंभांमधे मांगल्यदायी वातावरणनिर्मिती करणे आणि अशा दु:खद क्षणी त्या कलेची ताकद मृत्यूच्या खात्रीसाठी वापरणे ह्या उपयुक्तता झाल्या आणि दोन्ही प्रसंगी कलाकाराला आपलं कसब पणाला लावून अर्थार्जनाची संधी ही झाली समाजव्यवस्था!

मला दक्षिणेकडच्याच केरळ राज्यातील चेंडामेलम्‌  हा प्रकार आठवला.  चेंडामेलम्‌  म्हणजे चेंडा ह्या वाद्याचे अनेक वादकांनी एकत्र येऊन केलेलं समूहवादन म्हणता येईल. आज ही गोष्ट केरळची भावाभिव्यक्ती आणि संस्कृतीचं प्रतीक मानलं जात असलं आणि केरळमधील सर्व सांस्कृतिक उत्सवांमधे चेंडावादन अपरिहार्य असल्याचं सांगितलं जात असलं तरी अचानक वाटून गेलं कि जंगली भाग असलेल्या केरळमधे पूर्वीच्या काळी माणूसप्राणी समूहानं एकत्र येऊन काही धार्मिक उत्सव किंवा काही सणसमारंभ साजरा करत असताना जंगली श्वापदांना दूर ठेवण्याचा हा उत्तम मार्ग असावा. इतक्या धडामधुड आवाजाकडे कोणतंही जंगली श्वापद फिरकण्याची शक्यताच नसल्याने निश्चिंत मनानं माणसाला उत्सव पार पाडता येत असेल ही उपयुक्तता आणि कलाकारासाठी रोजगारनिर्मिती हा समाजव्यवस्थेचा एक भाग! मनात आलं कि अशा उपयुक्ततेच्या कसोटीवर पारखून घेतलेल्या, समाजव्यवस्था भक्कम ठेवणाऱ्या, मात्र सर्वसामान्य माणसासाठी धार्मिक, सांस्कृतिक परंपरेच्या आवरणात सजवून ठेवलेल्या कित्येक गोष्टी आपल्या सर्वार्थाने वैविध्यपूर्ण देशात असतील. आपल्या देशाचा सर्वांगीण विकास होताना प्रत्येक नागरिक सुशिक्षित, सुजाण व्हावा, जातीपातींचे निकष संपावेत, मात्र परंपरा जाणीवपूर्वक जपल्या जाव्यात… कला-संस्कृतीचं जतन, मान आणि समाजव्यवस्थेचं भान म्हणून म्हणूनही!

आपल्या मूळ विषयाकडं वळताना आणखी एक प्रथा आठवते. आपल्याकडं बहुधा लिंगायत समाजात (कदाचित इतरही काही समाजात असू शकेल) टाळ-मृदंगाच्या साथीत लोक अंत्ययात्रेत भक्तीपदं म्हणतात… अशी एक अंत्ययात्रा थोडी अंधुकशी माझ्या लहानपणच्या आठवणींच्या कुपीत आहे… आम्ही घरातले कोणत्यातरी कार्यक्रमाहून घरी परतत होतो. अचानक समोरून एक अंत्ययात्रा येऊ लागली. मला आठवतंय अगदी पालखी नव्हे पण साधारण त्याप्रकारचा आकार असलेल्य़ा एका डोलाऱ्यात शव ठेवलं होतं. अर्थातच काही लोकांनी त्या डोलाऱ्याला खांदा दिला होता. अंत्ययात्रेच्या पुढच्या भागात एखाददुसरा आणि मागच्या बाजूला काही लोकांनी दोन तीन छोटे कंदील धरले होते आणि लक्षात राहिलेली मुख्य गोष्ट म्हणजे अगदी नाजूक अशा टाळ आणि मृदंगाच्याही हलक्या आवाजात काहीजण भक्तीपद गात होते. साहजिकच त्या गायन-वादन दोन्हींतही खूप जोश नव्हता. म्हणजे इकडं दक्षिण प्रांतात पाहिलेल्या प्रकाराचा उद्देश काही तिथं लागू होत नाही.

आज ह्या गोष्टीचा विचार करताना वाटतं कि ह्या सर्वोच्च गंभीर क्षणी जीवनाचं सार, सत्य सांगणाऱ्या भक्तिरचना मनाला आधार देत असाव्या. केवळ जगन्नियंत्याच्या हाती असणारी आपल्या आयुष्याची सूत्रं, आपलं फक्त निमित्तमात्र असणं, आयुष्याचं क्षणभंगुरत्व ह्या गोष्टींची मनाला जाणीव करून ह्या क्षणापेक्षा योग्य क्षण कोणता असेल!? ते मंद सूर दु:खी मनावर थोडीशी फुंकर घालत असतील, त्या रचनेच्या शब्दांतून होणारी ‘सगळं ‘त्याच्या’ हाती, आपल्या हाती काही नाही’ ही जाणीव ते दु:ख सहन करायची ताकद देत असेल, शिवाय आपल्या जगण्यात षड्रिपूंमधे आपण किती गुंतून पडायचं ह्या विचाराला चालना देत असेल! विचार करता एकूण सुदृढ समाजमन घडवण्यासाठी अशा गोष्टी केवढी मोलाची भूमिका बजावत असतील!!

‘श्रीराम जयराम जय जय राम’ किंवा ‘राम नाम सत्य है’ चा गंभीर सुरांतला लयबद्ध जप तर अंत्ययात्रेत बहुतेक ठिकाणी केलेला दिसून येतो. अशाक्षणीच्या अतीव दु:खानं गेलेल्यांच्या आप्तेष्टांचं पिळवटणारं काळीज त्या लयबद्धतेत नकळत गुंगून जात असेल आणि मन शांतावायला त्याची मदत होत असेल. मन आणि मेंदूवर होणारा संगीताचा परिणाम प्रत्येकवेळी प्रत्येकाला जाणवतोच असं नाही, मात्र तो होतो नक्कीच! म्हणून अशा छोट्याछोट्या प्रथांमधला तर्कशुद्ध आणि सूक्ष्म विचार पाहिला कि आपल्या पूर्वजांच्या बुद्धिमत्तेपुढं नतमस्तक व्हावसं वाटतं!!

मध्यंतरी एक इंग्रजी लेख वाचनात आला ज्यात चीनमधील ‘कुसांग्रेन’ म्हणवल्या जाणाऱ्या स्त्रियांविषयी माहिती होती. ह्या स्त्रिया म्हणजे ज्यांना अंत्येष्टीच्या आधी साग्रसंगीत वाद्यवृंदासह गायन-नर्तन करायला बोलावलं जातं. अर्थातच अशावेळची गीतंही विशिष्ट प्रकारचीच असणार जी ऐकताना गेलेल्या व्यक्तीच्या आप्तेष्टांच्या भावना उफाळून येत त्यांना भरपूर रडू येऊन त्यांच्या दु:खी भावनांचा निचरा व्हायला मदत होईल. काहीवेळा अशा अघटिताच्या धक्क्यानं एखादी कुणी व्यक्ती स्तब्ध होऊन जाते आणि तिला रडायलाही येत नाही. मात्र संगीताच्या प्रभावच असा असतो कि अशी व्यक्तीही धक्क्यातून बाहेर पडून तिच्या भावना प्रवाही होत रडू लागते!

ह्या प्रथेविषयी वाचताना मला आपल्या देशातल्या राजस्थान प्रांतातली रुदाली आठवली! प्राचीन रोम, ग्रीस, युरोप, अफ्रिका, एशियामधे अनेक ठिकाणी अशा प्रथा आहेत. प्र्त्येक ठिकाणच्या प्रथेत काही ना काही फरक असणार, मात्र उद्देश एकच असावा कि संगीतासारख्या अत्यंत प्रभावी गोष्टीचा वापर करून दु:खी भावनांचा निचरा व्हायला मदत करणं! आणि… अर्थातच पुन्हा समाजव्यवस्था हा भागही आलाच!

प्रथांचा गैरफायदा घेतला जाऊन काही व्यक्तींचं होणारं शोषण हा वेगळा मुद्दा आहे! मात्र मला असं प्रामाणिकपणे वाटतं कि कोणत्याही प्रथेमागचा मूळ उद्देश हा वाईट नसावा. शेवटी काही ना काही काम मिळून प्रत्येकाच्या पोटपाण्याची व्यवस्था होणं हा उदात्त विचारच त्या ठिकाणी असावा! मात्र हे करत असताना ‘संगीत’ हे ‘अत्यंत प्रभावी’ माध्यम प्रत्येक ठिकाणी वापरण्याची चतुराई मात्र फारच कौतुकास्पद वाटते! संगीतकलेचा, तिच्या आपल्या जाणिवांशी असलेल्या नात्याचा वापर मानवी आयुष्यातल्या जन्मापासून अंतिम क्षणापर्यंत प्रत्येकक्षणी केला गेलेला पाहाताना अक्षरश: थक्क व्हायला होतं.

क्रमश:….

© आसावरी केळकर-वाईकर

प्राध्यापिका, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत  (KM College of Music & Technology, Chennai) 

मो 09003290324

ईमेल –  [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 30 ☆ गीत – शांति दे माँ नर्मदे !☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  माँ नर्मदा जयंती पर्व पर रचित “गीत – शांति दे माँ नर्मदे !“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

यूट्यूब लिंक >> गीत – शांति दे माँ नर्मदे!

गीत – प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव “विदग्ध”

स्वर-संगीत – सोहन सलिल & दिव्या सेठ

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 30 ☆

☆ गीत – शांति दे माँ नर्मदे! ☆

सदा नीरा मधुर तोया पुण्य सलिले सुखप्रदे

सतत वाहिनी तीव्र धाविनि मनो हारिणि हर्षदे

सुरम्या वनवासिनी सन्यासिनी मेकलसुते

कलकलनिनादिनि दुखनिवारिणि शांति दे माँ नर्मदे ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हुआ रेवाखण्ड पावन माँ तुम्हारी धार से

जहाँ की महिमा अमित अनुपम सकल संसार से

सीचतीं इसको तुम्ही माँ स्नेहमय रसधार से

जी रहे हैं लोग लाखों बस तुम्हारे प्यार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

पर्वतो की घाटियो से सघन वन स्थान से

काले कड़े पाषाण की अधिकांशतः चट्टान से

तुम बनाती मार्ग अपना सुगम विविध प्रकार से

संकीर्ण या विस्तीर्ण या कि प्रपात या बहुधार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

तट तुम्हारे वन सघन सागौन के या साल के

जो कि हैं भण्डार वन सम्पत्ति विविध विशाल के

वन्य कोल किरात पशु पक्षी तपस्वी संयमी

सभी रहते साथ हिलमिल ऋषि मुनि व परिश्रमी  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हरे खेत कछार वन माँ तुम्हारे वरदान से

यह तपस्या भूमि चर्चित फलद गुणप्रद ज्ञान से

पूज्य शिव सा तट तुम्हारे पड़ा हर पाषाण है

माँ तुम्हारी तरंगो में तरंगित कल्याण है  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

सतपुड़ा की शक्ति तुम माँ विन्ध्य की तुम स्वामिनी

प्राण इस भूभाग की अन्नपूर्णा सन्मानिनी

पापहर दर्शन तुम्हारे पुण्य तव जलपान से

पावनी गंगा भी पावन माँ तेरे स्नान से  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हर व्रती जो करे मन से माँ तुम्हारी आरती

संरक्षिका उसकी तुम्ही तुम उसे पार उतारती

तुम हो एक वरदान रेवाखण्ड को हे शर्मदे

शुभदायिनी पथदर्शिके युग वंदिते माँ नर्मदे  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

तुम हो सनातन माँ पुरातन तुम्हारी पावन कथा

जिसने दिया युगबोध जीवन को नया एक सर्वथा

सतत पूज्या हरितसलिले मकरवाहिनी नर्मदे

कल्याणदायिनि वत्सले ! माँ नर्मदे ! माँ नर्मदे !  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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