हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #25 ☆ गिरगिट ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

 

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर लघुकथा  “गिरगिट ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #25 ☆

☆ गिरगिट ☆

 

“सरजी! एक समय वह था जब उस ने आप से आप का कार्यालय खाली करवा कर कब्जा जमा लिया था. आज वह समय है कि जब आप के अधीन उसे काम करना पड़ रहा है.” महेश ने प्रधानाध्याक को प्राचार्य का प्रभार मिलते ही कहा, “वह अध्यापक हो एक साल तक एक प्रशासकीय अधिकारी के ऊपर रौब झाड़ता रहा था. अब उसे मालुम होगा कि नौकरी करना क्या होता है?”

“यह तो प्रशासकीय प्रक्रिया है. ऐसा होता ही रहता है,” प्रभारी प्राचार्य ने कहा तो महेश बोला, “आप उसे सबक सीखा कर रहना. उस ने आप को बहुत जलील किया था.”

“उस वक्त आप भी तो उस के साथ थे.”

“अरे नहीं साहब! उस वक्त उस की चल रही थी. अधिकारियों से उस की बनती थी. वह दलाली कर रहा था. मजबूरी में उस का साथ देना पड़ा. आप जैसे इमानदार आदमी से दुनिया चलती है. आप उस की दलाली बंद करवा ​दीजिए साहब,” यह सुनते ही प्राचार्य ने महेश को घूरा, “और उस वक्त ! आप भी तो तमाशा देख रहे थे. जब उस ने दादागिरी से मेरा कार्यालय खाली करवाया था.”

“उस वक्त चुप रहना मेरी मजबूरी थी सर,” महेश ने कहा, “मगर, इस वक्त आप साहब है. आप का हम पूरा साथ देंगे.”

उस की बात सुन कर प्राचार्य हंसे, “वाकई सही कहते हो. जब समय किसी से डांस करवाता है तो गाने बजाने वाले अपने ही होते हैं.”

यह सुन कर महेश चौंका, “क्या कहा साहब जी!” यह बोल कर वह चुप हो गया. शायद इस का आशय उस के दिमाग ने पकड़ लिया था.

इधर प्रधानाध्यापक उस की चेहरे का रंग बदलते देख उस में कुछ ढूंढने का प्रयास कर रहे थे.

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 24 – बरं आहे मना तुझं… ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं. इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं. मैं श्री सुजितजी की अतिसंवेदनशील  एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ. पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजितजी की कलम का जादू ही तो है!  आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर कविता बरं आहे मना तुझं… )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #24☆ 

 

☆  बरं आहे मना तुझं… ☆ 

 

बरं  आहे मना तुझं

सदा राही रूबाबात

ताबा घेऊनीया माझा

राही तिच्या घरट्यात. . . . !

 

बरं आहे मना तुझं

जमे हासू आणि आसू

कधी  इथे, कधी तिथे

आठवांचे रंग फासू . . . !

 

बरं आहे मना तुझं

खर्च नाही तुला काही

अन्न पाण्या वाचूनीया

तुझे अडते ना काही .. . !

 

बरं आहे मना तुझं

माझी खातोस भाकरी

माझ्या घरात राहून

तिची करशी चाकरी. . . !

 

बरं आहे मना तुझं

असं तिच्यात गुंतण

ठेच लागताच मला

तिच्या डोळ्यात झरणं.. . !

 

© सुजित कदम, पुणे

7276282626




हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 3 ☆ ज़हर ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “ज़हर ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 3 – ज़हर ☆

 

अध्ययन के नाम पर
अब बताया जा रहा है
कि बीमारियों में
गाँजा
मददगार

—जैसे, सरकारें
चलाने में शराब
मददगार

—जैसे अफीम
धर्म चलाने में, मददगार

—जैसे वोट
लोकतंत्र
चलाने में, मददगार

—जैसे गुंडे
बदमाश, अपराधी
समाज चलाने में
मददगार

—पार्टियां चलाने में
पूंजीपति, मददगार

—कानून व्यवस्था
चलाने में
धंधा, मददगार

—धंधा चलाने में
भ्रष्टाचार, मददगार

—सब कुछ वैसे ही
जैसे, जहर को
मारने में
जहर मददगार

 

(नर्मदा परिक्रमा में, धुरंदर बाबा की धर्मशाला से लौटे तो आते ही हम ने अखबार पढा़–देश भर में गाँजे की खेती वैध करने की तैयारी का समाचार)

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (2) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

 

अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन ।

प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः ।।2।।

 

ब्रम्ह अधियज्ञ इस देह में,बतलायें भगवान

कैसे योगी,मृत्यु पर करते तव पहचान।।2।।

 

भावार्थ :  हे मधुसूदन! यहाँ अधियज्ञ कौन है? और वह इस शरीर में कैसे है? तथा युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप किस प्रकार जानने में आते हैं॥2॥

 

Who and how is Adhiyajna here in this body, O destroyer of Madhu (Krishna)? And how, at the time of death, art Thou to be known by the self-controlled one?।।2।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

 




हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # दस ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # दस  ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

 

14.11.2019की सुबह मैं,  अविनाश, अग्रवालजी और मुंशीलाल पाटकर छोटा धुआंधार देखने चल दिए। नर्मदा यहां चट्टानों के बीच शोर मचाती बहती है। कोई जल प्रपात तो नहीं बनाती पर जल प्रवाह इतना तेज है कि अक्सर कुछ उंचाई तक धुंध छा जाती है। इसलिए नाम पड़ा छोटा धुआंधार। रमणीकता लिए यह बड़ा मोहक स्थल है। आसपास बड़ी बड़ी चट्टानें हैं जिन पर जल कटाव ने तरह तरह की आकृतियां बनाई हैं। आवागमन की सुविधा नहीं है अतः तट पर भरपूर रेत है जो रेगिस्तान का एहसास देती है। यहां कोई आधा घंटा रुककर हम आश्रम वापस आ गये और सामान लाद कर गांव से होते हुए आगे बढ़ते रहे।

हमने मोर पंखों से सुसज्जित, काफी ऊंची ढाल या मड़ई देखी। यह उन घरों में दीपावली पर रखी जाती है जहां इसी वर्ष विवाह होने वाला है। आगे हमें पानी की कसैडीं लिए दो स्त्रियां दिखी और थोड़ी ही दूर एक घर के दरवाजे से टिकी नवयौवना। हमने दोनों से फोटो खींचने की अनुमति मांगी। वे सहर्ष तैयार हो गई। यह नया परिवर्तन गांवों में आया है। दस बरस पहले तक ग्रामीण महिलाओं से ऐसी अपेक्षा करना खतरे से खाली न था।

पिपरहा गांव में नदी अर्ध वृत बनाकर पश्चिम की ओर मुड़ती हुई बहुत सुन्दर दिखती है। कोई दस बजे के आसपास हम शेर नदी संगम स्थल पर पहुंचे। दक्षिण तट पर गुवारी गांव है तो उत्तर दिशा में सगुन घाट है। शेर  नर्मदा की शाम तटीय प्रमुख सहायक नदियों में शामिल हैं और सिवनी जिले के सतपुड़ा पर्वत माला में  स्थित पाटन इसका उद्गम स्थल है, वहां से उत्तर पश्चिम दिशा में बहते हुए 129 किमी की दूरी तय कर  यह नर्मदा को अपना अस्तित्व समर्पित करती है । घने जंगलों के बीच से बहती कभी यह बारहमासी नदी थी अब गर्मी आते आते यह सूखने लगती है।

नदी के किनारे शक्कर मिल है अपना औद्योगिक कचरा शेर नदी में फेंकती है। संगम को हमने नाव से पार किया और आगे चले मार्ग में ही चौगान किले वाले बाबाजी का आश्रम था। यहां दोपहर विश्राम किया और  रोटी-सब्जी, दाल चावल का भोजन किया। आश्रम में गौशाला है, विश्वंभर दास त्यागी इसके संचालन में लगे हैं तथा जैविक खेती-बाड़ी को बढ़ावा देते हैं। वे गौमूत्र के अर्क से आयुर्वेदिक पद्धति से लोगों का उपचार भी करते हैं।

वसंत पंचमी पर प्रतिवर्ष 108 कुंडीय महारूद्र यज्ञ आयोजन भी इस आश्रम में होता है। दो बजे के आसपास हम पांच फिर आगे चले। सतधारा का पुल अब नजदीक ही दिखाई दे रहा था। कोई डेढ़ घंटे चलकर हम यहां पहुंचे स्नान किया और मां नर्मदा को प्रणाम कर अपनी नौ दिन की यात्रा समाप्त की।

इन नौ दिनों में हम सब 105 किलोमीटर पैदल चले। ग्रामीणों के सद्व्यहार के अच्छे अनुभव हुए तो कुछ आश्रमों से बैंरग वापिस भी हुये। कहीं हमारी भेष-भूषा देख लोग आश्चर्य से हमें ताकतें और पिकनिक मनाने आया हुआ समझते। चार बजे हमने बस पकड़ी और करेली स्टेशन से इंटरसिटी ट्रेन में सफर कर भोपाल आ गये।

कल के अंक में इस पूरी यात्रा के मुख्य अनुभव पढ़ना न भूलें।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

(आज का दैनिक स्तम्भ ☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध ☆  अपने आप में विशिष्ट है। ई- अभिव्यक्ति परिवार के सभी सम्माननीय लेखकगण / पाठकगण श्री संजय भारद्वाज जी एवं श्रीमती सुधा भारद्वाज जी के इस महायज्ञ में अपने आप को समर्पित पाते हैं। मेरा आप सबसे करबद्ध निवेदन है कि इस महायज्ञ में सब अपनी सार्थक भूमिका निभाएं और यही हमारा दायित्व भी है।)

☆ संजय दृष्टि  –  शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध

नागरिकों की रक्षा के लिए आतंकियों से लोहा लेते हुए शहीद हुए सशस्त्र बलों के सैनिकों और आतंकी वारदातों में प्राण गंवाने वाले  नागरिकों को श्रद्धांजलि।

मित्रो!

26/11/2008 से शुरू हुई अगली तीन भयावह रातें शायद ही कोई भारतीय भूला होगा। भारत की औद्योगिक राजधानी मुम्बई विदेशी खूनियों के मानो कब्जे में थी। भारतीय होने के नाते मैं और सुधा जी भी करोड़ों देशवासियों की तरह व्यथा और आक्रोश में थे। निरंतर विचार चल रहा था कि एक आम नागरिक की हैसियत से आतंक के विरुद्ध इस लड़ाई में हम सहयोग कैसे कर सकते हैं? लेखक होने के नाते मुझे शस्त्र के रूप में कलम दिखी। डिजाइनर सुधा जी ने ग्राफिक्स को चुना। शब्द और चित्र के इस संगम ने जन्म दिया संभवतः एक अनन्य प्रदर्शनी-‘शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’ को।

*’शब्दयुद्ध- आतंक के विरुद्ध’* में लगभग 150 पोस्टर हैं। इनमें मुम्बई हमले के बाद भारतीय और अप्रवासी भारतीयों की कविताओं पर आधारित पोस्टर, आतंक को लेकर नागरिक द्वारा अपेक्षित सतर्कता, आतंक से लड़ने में  आम आदमी की भूमिका, आतंकी हमलों के चित्र, आतंकवाद के दूरगामी परिणाम जैसे अनेक विषय शब्द और चित्र के माध्यम से दर्शाये गए हैं।    

मित्रो! 26 जनवरी 2009 को पुणे के यशवंतराव आर्ट गैलरी से आरम्भ यह यात्रा मुम्बई के रवीन्द्र नाट्य मंदिर होते हुए अब तक हजारों नागरिकों तक पहुँच चुकी है।  पिछले कुछ वर्षों से इसे सीधे महाविद्यालयीन छात्र- छात्राओं तक पहुँचाने के लिए हमने इसका एक लघु संस्करण तैयार किया है। अनेक महाविद्यालयों में इसे प्रदर्शित किया जा चुका है।

यदि आप किसी महाविद्यालय/ कार्यालय/ सोसायटी/ क्लब/ बड़े समूह के लिए इसे आयोजित करना चाहें तो आतंक के विरुद्ध  जन -जागरण के इस अभियान में आपका स्वागत है।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

: 5.04 बजे, 23.11.2019

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 25 – घर बदलताना ….☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  उनकी एक कविता  “घर बदलताना …..    सुश्री प्रभा जी की कविता की एक एक पंक्तियाँ हमें एक चलचित्र का अहसास देती हैं।  यह सच है अक्सर युवती ही पदार्पण करती है अपने नए घर में ।  फिर एक एक क्षण बन जाता है इतिहास जो  स्मृति स्वरुप आजीवन साथ रहता है अश्रुपूरित उस घर को बदलते तक।  या तो  घर बदलता है  जिसमें हम रहते हैं या फिर शरीर जिसमें हमारी आत्मा रहती है।  अतिसुन्दर रचना एक मधुर स्मृति  की तरह संजो कर रखने लायक।  मैं यह लिखना नहीं भूलता कि  सुश्री प्रभा जी की कवितायें इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि- कलम उनकी सम्माननीय रचनाओं पर या तो लिखे बिना बढ़ नहीं पाती अथवा निःशब्द हो जाती हैं। सुश्री प्रभा जी की कलम को पुनः नमन।

मुझे पूर्ण विश्वास है  कि आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 24 ☆

☆ घर बदलताना …. ☆ 

 

खुप आठवणी आहेत गं

या घराच्या !

इथेच तर सुरू झाला

नवा संसार –

उंबठ्यावरचं माप ओलांडून

आले या घरात तेव्हा-

कुठे ठाऊक होते ??

पुढे काय वाढून ठेवलंय

ताटात !!

“हक्काचं छप्पर ” एवढीच

ओळख नाही या घराची !!

केवढा मोठा कालखंड काढलाय याच्या कुशीत ?

पूजाअर्चा, तुळशीला पाणी घालणं,दारात रांगोळी रेखणं  पाहिलंय!

कांकणाची कीणकीण पैंजणाची छुनछुन ,सारं ऐकलंय या घरानं !

बदलत गेलेली प्रतिमा पाहिली

आहे !

उंबरठा ओलांडताना झालेली

घालमेल पाहिली आहे !

तोलून धरली आहेत यानंच ,

कित्येक वादळं ,

ऐकले आहेत वाद विवाद आणि वादंग !

सोसले आहेत पसारे –

कागदा  -कपड्यांचे ,

अस्ताव्यस्त बेशिस्तपणाचे

शिक्के ही बसले आहेत !

तरी ही इतक्या वर्षाच्या सहवासाचे बंध जखडून ठेवताहेत !

मनाच्या टाईम मशिन मधे जाऊन अनुभवतेय ते जुने पुराणे क्षण ….

सोडून ही वास्तु नव्या घरात ,जाताना आठवतंय सारं भलं बुरं !

जुनंपानं फेकून देताना

हाताशी येतंय काही हरवलेलं !

जुनं घर सोडताना दाटून येतंय  मनात बरचं काही !

खुप आठवणी आहेत गं

या घराच्या !!

 

© प्रभा सोनवणे

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]




मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 9 ☆ दारा बांधता तोरण – कवयित्री इंदिरा संत ☆ – सुश्री ज्योति हसबनीस

सुश्री ज्योति हसबनीस

 

(सुश्री ज्योति  हसबनीस जीअपने  “साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी ” के  माध्यम से  वे मराठी साहित्य के विभिन्न स्तरीय साहित्यकारों की रचनाओं पर विमर्श करेंगी. आज प्रस्तुत है उनका आलेख  “दारा बांधता तोरण – कवयित्री इंदिरा संत”.  यह आलेख साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी कवयित्री इंदिरा संत जी  की रचनाओं पर आधारित है ।  थे। इस क्रम में आप प्रत्येक मंगलवार को सुश्री ज्योति हसबनीस जी का साहित्यिक विमर्श पढ़ सकेंगे.)

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 9 ☆

☆ दारा बांधता तोरण – कवयित्री इंदिरा संत☆ 

विसाव्या शतकातील एक नावारूपाला आलेली, राजमान्यता पावलेली कवयित्री म्हणून ‘इंदिरा संत’ ओळखल्या जातात. ४ जानेवारी १९१४ साली जन्मलेल्या ह्या थोर कवयित्रीने आपल्या संवेदनशील आणि सहजसुंदर लिखाणाने रसिकवाचनांवर मोहिनी तर घातलीच पण आपल्या आशयघन कविता , ललितगद्य लेखनाने मराठी साहित्यविश्व देखील अधिकच समृद्ध केले . ‘कविता हा माझ्या लेखनाचा आणि जगण्याचा गाभा आहे’ असे त्या स्वत:बद्दल म्हणत. ‘शेला’ ’मेंदी’ ’रंगबावरी’ह्या कवितासंग्रहांना राज्य शासनाचा पुरस्कार मिळाला तर त्यांच्या ‘गर्भरेशीम’ ह्या कविता संग्रहाला साहित्य अकादमीच्या पुरस्काराने गौरविले गेले . आज ह्या कवयित्रीची अतिशय गोड कविता घेऊन मी येतेय.

☆ दारा बांधता तोरण ☆

 

दारा बांधता तोरण घर नाचले नाचले

आज येणार अंगणी सोनचाफ्याची पाउले

 

भिंती रंगल्या स्वप्‍नांनी झाल्या गजांच्या कर्दळी

दार नटून उभेच, नाही मिटायाची बोली

 

सूर्यकिरण म्हणाले घालु दारात रांगोळी

शिंपू पायावरी दंव म्हणे वरून पागोळी

 

भरू ओंजळ फुलांनी बाग म्हणेल हरून

देईन मी आशीर्वाद केळ म्हणाली हासून

 

येरझारा घाली वारा गंध मोतिया घेउनी

सोनचाफ्याची पाउले आज येतील अंगणी

 

आगमन घरातले , मग ते छोट्या जिवाचे असो , की नववधूचे , सारी वास्तूच स्वागताला आतुरलेली असते . येणाऱ्या सोनपावलांच्या स्वागतासाठी उत्सुक झालेलं अधीरं मन सगळी जय्यत तयारी करून वाट बघत असतं आणि घरादारावर बागेवर एक दृष्टीक्षेप टाकतांना जाणवतं की अरे ह्या सोनपावलांच्या स्वागताची चाहूल तर घरादाराच्या स्पंदनाने केव्हाच हळूवारपणे टिपलीय . स्वागतासाठी दारी तोरण बांधण्याचाच अवकाश एक उत्सवी रूपच घरदार ल्यायलंय . भिंतीभिंतीतून स्वप्नाचे हुंकार ऐकू येतायत , खिडक्या खिडक्यांतून फुललेली कर्दळ डोकावतेय जणू गजांच्याच कर्दळी झाल्यायत. सूर्याची कोवळी किरणं अंगणभर पसरलीयत आणि किरणांचे कोवळे कवडसे जणू अंगणात रांगोळीच रेखल्यागत भासतायत , येणाऱ्या सोनपावलांवर दंव शिंपूयात या तयारीत पागोळ्या झरतायत , बागेतला बहर ओंजळीत रिता करायला बाग अगदी आनंदाने तरवरलीय , आशिर्वाद देईन म्हणून केळही मनोमन सुखावलीय , मंद गंधीत वारा जणू सोनचाफ्याच्या पावलांच्या प्रतीक्षेत अस्वस्थपणे येरझारा घालतोय , सारा परिसरच सोनचाफ्याच्या पावलांच्या प्रती़ेक्षेत अधीरलाय , आनंदलाय आणि स्वागताच्या जय्यत तयारीत साऱ्या घरादारानेच आपला वाटा मनापासून आनंदाने उचललाय .

कवयित्रीचं हे तरल भावविश्व कविता वाचतांना इतकं सुंदर उलगडत जातं आणि मंत्रमुग्ध करतं आणि बघता बघता आपणही तिच्या ह्या उत्सवी आनंदात सामिल होतो .

घरी येणाऱ्या नवागताचं स्वागत करतांना आपल्याही मनाची अशीच स्थिती होत असते नाही का …काय करू आणि काय नको ..! आणि सारं घर दार स्वागतासाठी सजवतांना आपल्याही नकळत वास्तू देखील आपल्यालारखीच स्वागतोत्त्सुक मोहरलेली आहे असंच आपल्यालाही वाटू लागतं ना ?

इंदिरा संतांची ही गोड कविता वाचतांना त्यातले मधुर भाव मनभर अलगद पसरतात आणि मन एका अननुभूत आनंदलहरींवर तरंगत राहतं !

 

© ज्योति हसबनीस,

नागपुर  (महाराष्ट्र)




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 23 – भूख जहां है …. ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  भूख से बाज़ार को जोड़ती एक कविता   “भूख जहां है….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 23 ☆

☆ भूख जहां है….☆  

 

भूख जहाँ है, वहीं

खड़ा हो जाता है बाजार।

 

लगने लगी, बोलियां भी

तन की मन की

सरे राह बिकती है

पगड़ी निर्धन की,

नैतिकता का नहीं बचा

अब कोई भी आधार।

भूख जहाँ………….

 

आवश्यकताओं के

रूप अनेक हो गए

अनगिन सतरंगी

सपनों के बीज बो गए,

मूल द्रव्य को, कर विभक्त

अब टुकड़े किए हजार।

भूख जहाँ……………

 

किस्म-किस्म की लगी

दुकानें धर्मों की

अलग-अलग सिद्धान्त

गूढ़तम मर्मों की,

कुछ कहते है निराकार

कहते हैं कुछ, साकार।

भूख जहाँ………….

 

दाम लगे अब हवा

धूप औ पानी के

दिन बीते, आदर्शों

भरी कहानी के,

संबंधों के बीच खड़ी है

पैसों की दीवार।

भूख जहाँ………….

 

चलो, एक अपनी भी

कहीं दुकान लगाएं

बेचें, मंगल भावों की

कुछ विविध दवाएं,

सम्भव है, हमको भी

मिल जाये ग्राहक दो-चार।

भूख जहाँ है,,………

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 989326601




हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचानेके लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है. 

आदरणीय श्री अरुण डनायक जी  ने  गांधीजी के 150 जन्मोत्सव पर  02.10.2020 तक प्रत्येक सप्ताह  गाँधी विचार, दर्शन एवं हिन्द स्वराज विषयों से सम्बंधित अपनी रचनाओं को हमारे पाठकों से साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार कर हमें अनुग्रहित किया है.  लेख में वर्णित विचार  श्री अरुण जी के  व्यक्तिगत विचार हैं।  ई-अभिव्यक्ति  के प्रबुद्ध पाठकों से आग्रह है कि पूज्य बापू के इस गांधी-चर्चा आलेख शृंखला को सकारात्मक  दृष्टिकोण से लें.  हमारा पूर्ण प्रयास है कि- आप उनकी रचनाएँ  प्रत्येक बुधवार  को आत्मसात कर सकें.  आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अगला आलेख  “हिन्द स्वराज से”.)

☆ गांधी चर्चा # 5 – हिन्द स्वराज से  ☆ 

( गौ रक्षा)

प्रश्न:- अब गौरक्षा के बारे में अपने विचार बताइये।

उत्तर :- मैं खुद गाय को पूजता हूँ यानी मान देता हूँ । गाय हिन्दुस्तान की रक्षा करने वाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तान का, जो खेती प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।

लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी- फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू- उपयोगी है।तब क्या गाय को बचाने के लिये मैं मुसलमान से लडूंगा? क्या उसे मैं मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनुंगा। इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश की खातिर गाय को बचाने के लिये समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं है । अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। यही धार्मिक क़ानून है, ऐसा मैं तो मानता हूँ।

हाँ और नहीं के बीच हमेश वैर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद करूँगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमुंगा तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर वह न भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलायेगा। जब हमने जिद्द की तब गोकुशी बढी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गौ वध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पडी होगी।

मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पडूँगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए तो मुझे मुसलमान भाई के भी पाँव पड़ना चाहिए।

गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है? जो हिन्दू गाय की औलाद को पैना (आर) भोंकता है, उस हिन्दू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।

मेरी टिप्पणी :- गांधीजी की बात गौ रक्षा को लेकर सत्य ही है। हमारे शहर भोपाल में नवाबों का शासन रहा, तब आयोजनों में गौ मांस का प्रयोग खूब होता था, पर अब जब देश के विभिन्न शहरों से गौ तस्करों के पकडे जाने और उनपर प्राणघातक हमले की खबरें प्राय: सुनने में आती है तब भोपाल जो चारों ओर से कृषि आधारित गाँवों, कस्बों से घिरा है और मुस्लिम बहुल है वहाँ गौकुशी की खबर सुनाई नहीं देती, अखबारों में नहीं छपती। यह परिवर्तन आपसी समझ बूझ बढ़ने का ही परिणाम है।मुझे ऐसे दो अवसर याद हैं जब मैं मुसलमानों द्वारा ही गौ या भैंस का मांस खाने से बचाया गया। 1985  की घटना है मैं माँसाहार के लिए एक मुस्लिम होटल में गया, उसके संचालक ने मुझे माँस खिलाने से मना कर दिया। मेरे पूछने पर बोला आज भैस के पड़े का मटन है आप हिन्दू हैं आपको मैं यह कैसे खिला सकता हूँ ।दूसरी घटना दुबई की है, होटल में हम नाश्ता करने गए, मैंने चूकवश बीफ का टुकडा उठाया ही था कि वेटर जो कि पाकिस्तानी था उसने मुझे उसे लेने से रोका बताया यह बीफ है और आप हिन्दू है। इस प्रकार मैं दो बार धर्म च्युत होने से विधर्मियों द्वारा ही बचाया गया। जब हम गौ ह्त्या को रोकने की बात करते है तब हमें इसके आर्थिक पहलु की ओर भी ध्यान देना होगा। गरीब किसान बूढ़े मवेशी जो ना तो दूध देने की क्षमता रखता है और ना मेहनत की, उसको पालने का बोझ नहीं उठा सकता। गौशालाएं भी ऐसे जानवरों की उचित देखभाल नहीं करती और यह पशु आवारा हो सड़कों पर घूमते रहते हैं। आखिर इस समस्या का हल क्या है।  गाय को दुःख देकर हिन्दू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुडाता है?महात्मा गांधी की इसी बात में इस समस्या का हल है शायद।

अरुण कुमार डनायक , भोपाल