हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 7 – संस्मरण#1 – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 7 – संस्मरण ?

कुछ घटनाएँ, कुछ दृश्य और कुछ पढ़ी -सुनी बातें चिर स्मरणीय होती हैं। उस पर समय की कई परतें चढ़ जाती हैं और वह मन-मस्तिष्क के किसी कोने में सुप्त पड़ी रहती हैं। फिर कुछ घटनाएँ घटती हैं तो सुप्त स्मृतियाँ झंकृत हो उठती हैं।

कल अपनी एक सखी के घर भोजन करते समय बचपन की एक ऐसी ही घटना स्मरण हो आई जो सुप्त रूप से मानसपटल पर कुंडली मारकर बैठी थी।

घटना 1965 की है। हमें पुणे आकर तीन ही महीने हुए थे। हम चतुर्शृंगी मंदिर के पास रहते थे और यहाँ निवास करनेवाले सभी ब्राह्मण थे। हमारी सहेलियाँ भी उन्हीं परिवारों की ही थीं। सबका रहन -सहन अत्यंत साधारण ही था। यह बंगलों की कॉलोनी है। आज तीसरी पीढ़ी उन्हीं घरों में रहती है। सभी घर पत्थर के बने हुए हैं। यह सब कुछ हमारे लिए नया-नया ही था।

गणपति के उत्सव के दौरान एक दिन गौरी गणपति की स्थापना होती है और गणपति की दोनों पत्नियों की पूजा की जाती है। देवस्थान को खूब सजाते हैं, गौरी की मूर्ति का शृंगार करते हैं सुंदर सिल्क की साड़ी पहनाते हैं। गजरा और फूलों से मूर्तियाँ सजाई जाती हैं।

हमारी सहेली विद्या और संजीवनी के घर पर हम लड़कियों को दस बजे के समय भोजन के लिए आमंत्रित किया गया था। हमारी माताएँ शाम को हल्दी कुमकुम के लिए आमंत्रित थीं।

रसोईघर में अंग्रेज़ी के L के आकार में दरी बिछाई गई थी। सामने चौकियाँ थीं उस पर बड़ा – सा एक थाल रखा हुआ था, बाईं ओर लोटा और पेला पानी से भरकर रखा गया था।

(उन दिनों गिलास से पानी पीने की प्रथा महाराष्ट्रीय ब्राह्मण या ज़मीदार परिवारों में नहीं थी।) चौकी के हर पैर के नीचे रंगोली सजाई गई थी। हम सात सहेलियाँ ही आमंत्रित थीं। हमें अभी मासिक धर्म न होने के कारण हम कन्या पूजा की श्रेणी में थीं। घर में घुसते ही हमें मोगरे के गजरे दिए गए।

भोजन परोसना प्रारंभ हुआ। अब सारी तस्वीरें मानसपटल पर स्पष्ट उभर रही हैं मानो कल की ही बात हो। दाईं ओर से परोसना प्रारंभ हुआ।

पहले थोड़ा सा नमक रखा गया, फिर एक नींबू का आठवाँ टुकड़ा, फिर धनियापत्ती की चटनी, थोड़ा सा आम का अचार, फिर चूरा किया गया कुरडी -पापड़, थोड़ी सी कोशिंबिर फिर अरबी के पत्ते से बनी आडू वडी वह भी एक, फिर उबले आलू की सूखी सब्ज़ी, एक चम्मच भर, कटोरी में भरवे छोटे बैंगन की सब्ज़ी, और फिर एक तरी वाली सब्ज़ी- आज स्मरण नहीं किस चीज़ की सब्ज़ी थी पर उसके ऊपर तरलता तेल आज भी आँखों में बसा है।

फिर आया एक छोटी सी कटोरी में दबाकर भरा सुगंधित गोल – गोल चावल का भात, (जिसे अंबेमोर कहते हैं। उन दिनों उच्च स्तरीय महाराष्ट्रीय यही खाते थे।) उस पर आया बिना छौंक की दाल जिसे मराठी में वरण कहते हैं और उस पर आया चम्मच भर घी ! संजीवनी -विद्या की माँ ने जिन्हें हम काकू पुकारते थे, हम सबके पैरों पर थोड़ा पानी डाला, अपने आँचल से पोंछा और हमें प्रणाम किया।

हम दोनों बहनें हतप्रभ सी थीं। कल तक हम ही झुक – झुककर हर अपने से बड़े को प्रणाम करती आ रही थीं आज कोई हमारी पूजा कर रहा है? आठ – नौ वर्ष की उम्र में हमारे लिए सब कुछ नया था। हम दिल्ली से आए थे जहाँ की संस्कृति भिन्न थी और बँगालियों की और भी अलग रीति -रिवाज़ हैं। (मैं बँगला भाषी हूँ)

हम दोनों बहनें आपस में बँगला में चर्चा करने लगीं कि कहाँ से शुरू करें, मैं तो थी ही बदमाश मैंने उससे कहा था -पक्षी के बीट की तरह इतनी – इतनी सी चीज़ें दीं। क्या कंजूस है काकू। छोड़दी (बँगला भाषा में छोटी दीदी) ने मेरी जाँघ पर चिमटी ली थी और बोली -चुप करके खा। फिर जैसे सबने खाया हमने भी खाया। फिर बारी आई रोटी की। रोटियाँ तोड़कर उसके चार टुकड़े किए गए और एक चौथाई टुकड़ा हमारी थाली पर डाली गईं। हम दोनों बहनों ने किसी तरह खाना खाया और दौड़कर रोते हुए घर आए।

छोटे थे, भाषा नहीं आती थी, माँ ने दोनों को बाहों में भर लिया। हम रो-रोकर जब सिसकियाँ भरने लगीं तो माँ ने पूछा क्या हुआ?

छोड़दी का मन बड़ा साफ़ था उसने हमारे चरण धोने, की बात पहले बताई। पर मुझे तो जल्दी थी अपनी कथा सुनाने की। सिसकियों से बँधी आवाज़ में मैंने कहना शुरू किया। वह कुछ बोलने गई तो मैंने अपनी बाईं हथेली से उसका मुँह बंद कर दिया और माँ से कहा- चिड़िया की बीट की तरह इतनी सी चटनी अचार दिए, नींबू का बहुत छोटा टुकड़ा थाली में रखा। जानती हो माँ पापड़ भी चूरा करके दिया और रोटियाँ फाड़कर टुकड़े में दिए। हम क्या भिखारी हैं या कुत्ते हैं जो इस तरह हमें खाना परोसा?  हम खूब रोए और सो गए।

उन दिनों महाराष्ट्र में लोग नाश्ता नहीं करते थे। दस बजे पूरा भोजन लेने की प्रथा थी। इसलिए शायद मराठी स्कूल ग्यारह या बारह बजे प्रारंभ होते थे।

बाबा दफ़्तर से भोजन के लिए घर आते थे। माँ ने हमारी व्यथा कथा सुनाई और साथ में कहा कि बच्चियाँ बहुत अपमानित महसूस कर गईं आप बात कीजिए।

शाम को बाबा ने महाराष्ट्र की भौगोलिक स्थिति पर प्रकाश डाला, समझाया कि यह पठारी इलाका है, यहाँ के लोगों का भोजन हमसे अलग है। उनकी रोटियाँ बहुत बड़ी और पतली होती है, इसे वे घडी ची पोळी कहते हैं। तुम लोग एक रोटी न खा पाते इसलिए तोड़कर दी है। आज यहाँ के लोग गेहूँ की चपाती खा रहै हैं पर उनका मूल भोजन बाजरी और ज्वारी की रोटी है। जो पतली नर्म और बड़ी -बड़ी होती है। स्नेह और सम्मान के साथ इन बड़ी रोटियों के चार टुकड़े कर वे परोसी जाती हैं।

और कुरडई तोड़कर दिया क्योंकि पूरा पकड़कर खाने पर सब तरफ टुकड़े गिरते, बरबाद होता। उन्होंने तो तुम दोनों का सम्मान किया, स्नेह से भोजन कराया। जो और माँगते तो काकू फिर देतीं।

छोड़दी तुरंत बोली -हाँ हाँ काकू बार – बार वाढ़ू का, वाढ़ू का बोल रही थीं पर हम नहीं समझे।

इस घटना के बाद शाम को माँ के साथ हम फिर उनके घर गए। माँ ने हमारी गलत फ़हमी की बात काकू से कही। काकू ने हमें गले लगाया प्यार किया और हमने उन्हें झुककर प्रणाम किया। शायद सॉरी कहने की उन दिनों यही प्रथा रही थी।

किसी भी स्थान के भोजन के तौर -तरीकों से पहले उसकी जानकारी ले लेना आवश्यक है यह हमने अपने अनुभव से सीखा।

हम छोटे थे, नए -नए पुणे आए थे यहाँ की भाषा, लोग, पहनावा (महिलाएँ नौवारी साड़ी पहना करती थीं।) प्रथाएँ, त्योहार, इतिहास सबसे अपरिचित थे।

आज हमें 58 वर्ष हो गए यहाँ आकर। यहाँ का भोजन, भाषा, साहित्य पूजापाठ की परिपाटी से हम न केवल परिचित हुए बल्कि आज हमारी बेटियाँ गणपति जी का दस दिन घर में पूजा करती हैं। गौरी लाई जाती हैं हल्दी कुमकुम का आयोजन होता है।

कोशिंबिर, कुरडई हमारे भोजन की थाली का अंश है। हम वरण, आमटी, पोरण पोळी भी बनाकर चाव से खाते हैं। यहाँ तक कि हमारी तीसरी पीढ़ी आज मराठी भाषा ही बोलती है।

आज हम फिर एक बार पंगत में बैठकर वाढ़ू का सुनने की प्रतीक्षा करते हैं। अब तो वह संस्कृति और प्रचलन समाज से बाहर ही हो गए। प्रथा ही खत्म हो गई। उसमें आतिथ्य का भाव हुआ करता था। भोजन बर्बाद होने की संभावना कम रहती थी।

© सुश्री ऋता सिंह

22/5/23

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈